धर्म और साहित्य
- 1 January, 1952
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- 1 January, 1952
धर्म और साहित्य
पटना, 26 दिसंबर, 1951
प्रियवर बेनीपुरी जी,
गत नवंबर की नई धारा में श्री संतराम, बी.ए. का लेख ‘इस्लामी साहित्य में प्रेम का तत्वज्ञान’ पढ़ कर आश्चर्य और दुख हुआ। इससे बहुत-सी गलतफहमियाँ पैदा होती हैं। ये गलतफहमियाँ बहुत ही जहरीली हैं। जहरीली इसलिए कि उन्हें साहित्य के रूप में ढाला गया। अब जरा मेरे हाथ से उसी प्याले को फिर एक बार पीजिए जिसे एकबार चख चुके हैं। देखिए कितना कड़वा है। श्री संतराम लिखते हैं–
“जिस प्रकार हिंदुओं की तीन भाषाएँ–पाली, संस्कृत और हिंदी हैं, उसी प्रकार मुसलमानों की तीन भाषाएँ–अरबी, फारसी और उर्दू हैं। जिस प्रकार संस्कृत भाषा गहन है उसी प्रकार अरबी और फारसी भाषा भी भारतीय मुसलमानों के लिए कठिन है।”
असल में श्री संतराम की इसी भूमिका पर मुझे एतराज है। लेख के गुण और दोष से मुझे बहस नहीं। उन्होंने जितने भी शेरों को उदाहरण के तौर पर लिखा है, वह भी इस्लामिक नहीं बल्कि कुछ कवियों के भाव हैं। उनका कोई लगाव इस्लाम से नहीं और हो भी नहीं सकता। इसलिए कि साहित्य का लगाव धर्म से नहीं, बल्कि किसी राष्ट्र और भाषा से जुड़ा है जो राष्ट्रों के भावों और विचारों को व्यक्त करने का माध्यम है। किसी धर्म का अपना साहित्य नहीं होता और हो भी नहीं सकता। इसलिए कि धर्म तो बँधे-बँधाए नियमों का नाम है, उसमें इतनी लचक कहाँ जो साहित्य जैसी विशाल वस्तु को अपने अंदर समेट कर रख सके। अगर कोई धर्म साहित्य को अपने अंदर समेट कर रखने की कोशिश करेगा, तो दो ही नतीजे निकलने की उम्मीद होती है–या तो साहित्य का पौधा ठिठुर कर रह जाएगा या फिर धर्म का अपना ही किला चकनाचूर हो जाएगा। धर्म कुछ विश्वासों से घिरा हुआ छोटा-सा एक घेरा है और साहित्य के फैलाव की कोई थाह नहीं। इसलिए धर्म की गुलामी कुछ छोटे दिमाग के आदमी तो कर सकते हैं लेकिन साहित्य नहीं कर सकता। साहित्य के माथे पर धर्म की छाप कलंक का टीका है। साहित्य का दर्जा, आज हम धर्म के साथ रियायत भी करें और उससे ऊँचा न कहें, तो नीचा तो किसी हाल में भी नहीं। मेरे कहने का मतलब यह है कि अरबी, फारसी और उर्दू का जो साहित्य है वह उन भाषाओं का साहित्य है, उन भाषाओं को बोलने वालों का साहित्य है। इस्लाम का उससे कोई नाता नहीं।
अरबी साहित्य इस्लाम का साहित्य नहीं। अरबी भाषा में ईसाइयों, यहूदियों और बुतपरस्तों का साहित्य भी है। आपको जान कर शायद आश्चर्य हो लेकिन अरबी भाषा का इतिहास बताता है कि अरबी भाषा की शायरी यानी कविता इस्लाम के बाद बहुत ऊँचाई से बहुत नीचाई में गिरी। अरब में अरबी भाषा के जितने बड़े-बड़े कवि इस्लाम से पहले हुए हैं और जितनी बड़ी तायदाद में हुए हैं उतने बड़े और शायद उतनी तायदाद में इस्लाम फैलने के बाद नहीं हुए। कारण जाहिर है कि मुसलमान-शायरों के सामने कदम-कदम पर रुकावटें थीं। वह मुसलमान होते हुए सुंदरता का वर्णन उस आजादी के साथ नहीं कर सकते थे जितनी आजादी के साथ पहले। कदम-कदम पर पाप का डर! यही कारण है कि हर जमाने में अरबी भाषा के बड़े शायर और साहित्यक ज्यादातर गैर-मुस्लिम हुए हैं। और आज भी अरबी का सबसे बड़ा साहित्यिक खलील जिब्रान ईसाई है।
फारसी का भी यही हाल है। इस्लाम के आने से पहले भी ईरान में बड़े-बड़े कवि थे। इस्लाम ने खास तौर पर फारसी साहित्य को कोई खास चीज नहीं दी। आप जानते हैं कि इस्लाम धर्म के अनुसार सारी दुनिया के मुसलमान भाई-भाई हैं। लेकिन अरब के मुसलमानों ने ईरान पर हमला किया, उसे जीता और वहाँ इस्लाम भी फैलाया। पर ईरानियों का दिल अरबों की तरफ से कभी साफ नहीं हुआ। और यही कारण है कि फारसी के महाकवि फिरदौसी का महाकाव्य ‘शाहनामा’ अरबों की खुली मजम्मत और बुराई है। उस जमाने में अरब ने बड़े-बड़े बहादुर और सूरमा पैदा किए थे लेकिन फिरदौसी का राष्ट्रीय अभिमान अरबों की बड़ाई को कभी न मान सका। उसने अरब बहादुरों के मुकाबले में अफरासिया, रुस्तम, सोहराब पैदा कर डाले। हातिम के मुकाबले में नौशेरवाँ के हजार-हजार गुण गाए। ये सारी ईरानी आतिशपरस्त थे, मुसलमान न थे। हाफिज, जो फारसी का सबसे बड़ा गजलगो शायर है, उसने इस्लाम की शिक्षा के खिलाफ शराब और कबाब की तारीफ को ही अपनी कविताओं का मूल्य जाना।
इसके बाद उर्दू! इसका भी वही हाल है। उर्दू की बनावट का ही इस्लाम से कोई ताल्लुक नहीं। और न यह मुसलमानों का ही पुरुषार्थ है। नए खोजों के अनुसार उर्दू का सबसे पहला शायर चंद्रभान भट्ट था जो बरहमन तखल्लुस करता था। इसके बाद भी हर जमाने में उर्दू के बड़े-बड़े शायर और अदीब गैर-मुस्लिम और खास कर हिंदू होते रहे हैं। उर्दू के इतिहास से पं. दयाशंकर ‘नसीम’, महाराज कल्याण राय, मिर्जा हरगोपाल तुफ्ता, नौबत राय नजर, सुरूर जहानाबादी, चकबस्त और आज भी पं. कैफी, त्रिलोकचंद महरूम, रघुपति सहाय ‘फिराक’, पं. आनंदनारायण मुल्ला, जगन्नाथ आजाद, नरेशकुमार शाद आदि को कौन निकालने की हिम्मत कर सकता है। अब उर्दू के मुसलमान शायरों का भी हाल सुन लीजिए! गालिब का यह शेर तो आपने सुना ही होगा–
कि खूब मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन
दिल के बहलाने को गालिब यह ख्याल अच्छा है।
जन्नत का मजाक इससे बुरी तरह से भी कोई उड़ा सकता है। सोचिए कि यह शेर उर्दू का है या इस्लाम का। यों भी उर्दू शायरों का यह शेवा है कि जन्नत की हूर, वायज, मौलवी और बहुत-सी ऐसी चीजों का मजाक उड़ाते रहे हैं जिनका संबंध इस्लाम से है।
अब गौर कीजिए कि अरबी, फारसी और उर्दू शायरी पर इस्लाम का क्या हक रह गया है। ज्यादा से ज्यादा चंद सूफी शायरों का नाम लिया जा सकता है जो मुसलमान थे और अपनी कविताओं को धार्मिक रूप देना चाहते थे। मगर सच यह है कि उनकी कविताओं में भी इस्लाम से ज्यादा प्रेम का भाव है और आपको यह मानना ही पड़ेगा कि प्रेम और सच्चाई किसी धर्म की इजारादारी नहीं। अरबी, फारसी और उर्दू का साहित्य इंडोनेशिया, चीन और मलाया के मुसलमानों का साहित्य नहीं, लेकिन धर्म में सब के सब बराबर हिस्सेदार हैं। उसी तरह अँग्रेजी का साहित्य भारतीय ईसाइयों का साहित्य नहीं और न ईसाई-साहित्य है।
संस्कृत के बारे में कुछ नहीं जानता, किंतु जहाँ तक मुझे ज्ञान है, वह आर्यों की जब तक थी और भारत में मध्यएशिया से वे इसे लाए थे। लेकिन चूँकि वे थोड़े थे और वे लोग भारत में हिंदू धर्म की स्थापना और उसका प्रचार करने वाले थे इसलिए थोड़ी देर के लिए हम दिल पर जब्र करके संस्कृत को हिंदुओं की भाषा मान सकते हैं। लेकिन पाली के साथ ऐसी बात न थी। बल्कि सच्ची बात तो यह है कि हिंदू धर्म के खंडन में महात्मा बुद्ध और उनके चेलों के हाथ में सबसे ताकतवर अस्त्र यह पाली भाषा ही थी। हिंदी भाषा किसी तरह केवल हिंदुओं की नहीं कही जा सकती। अगर हम हिंदी को हिंदुओं की भाषा और उसके साहित्य को हिंदू-साहित्य मान लें, तो फिर रहीम खानखाना, रसखाँ, जायसी और कबीरदास का क्या स्थान रह जाता है। और ये सारे कवि तो आज हिंदी की आलीशान इमारत की बुनियाद की ईटें हैं।
मेरे कहने का मतलब यह है कि इस किस्म के विचार गलत हैं और इस किस्म के विचारों का प्रचार नहीं होना चाहिए। श्री संतराम जी से मुझे सिर्फ इतना ही कहना है कि साहित्य को किसी धर्म की बोतल में बंद करने की कोशिश न करें। साहित्य अथाह समुंदर है और धर्मों की बोतलें उसे बंद करने के लिए छोटी से भी छोटी चीज है।
आपका भाई
सुहैल अज़ीमाबादी
Image: Open Door on a Garden
Image Source: WikiArt
Artist: Konstantin Somov
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