बुझे असंख्य दीप पर बुझी न ज्योति शृंखला!
- 1 February, 1952
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- 1 February, 1952
बुझे असंख्य दीप पर बुझी न ज्योति शृंखला!
बुझे असंख्य दीप पर बुझी न ज्योति शृंखला!
अनेक कण उठे मिले कि शृंग तुंग हो गया।
कि एक-एक बिंदु में असीम सिंधु खो गया।
इसी तरह अनेक क्षण बँधे
कि जिंदगी बनी,
मगर बँधे न क्षण रहे खुली न मृत्यु मेखला॥
अनेक बार प्राण यह जला न पर मिटी जलन।
न राह ही कभी चुकी नहीं कभी मिटी थकन।
गरल पिया पियास में
पियास और भी बढ़ी
मनुष्य यह इसी तरह तृषार्त तृप्ति में पला॥
खिले झरे प्रसून पर मिटी न यह परंपरा।
अमर्त्य ही रही सदा मरण भरी वसुंधरा।
न जन्म मृत्यु से बँधा
न मृत्यु जन्म से बँधी,
घिरे तिमिर जलद बहुत मगर बँधी न चंचला॥
न आदि का पता यहाँ न अंत का विभाग है।
अनंत सृष्टि में भरा अनादि एक राग है।
यहाँ न फूल फूल है
यहाँ न धूल धूल है,
अमर यहाँ विनाश तो अमर यहाँ सृजन कला॥
Image: Evening in Parc Monceau
Image Source: WikiArt
Artist: Mihaly Munkacsy
Image in Public Domain