भूख
- 1 March, 1976
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- 1 March, 1976
भूख
24 अगस्त की रात में रेडियो खोलता हूँ तो अचानक सुन लेता हूँ कि पटने में बाढ़ आने की आशंका बढ़ गई है और मध्यरात्रि के उपरांत स्थिति बिगड़ सकती है। मैं आश्चर्यचकित हो रेडियो बंद कर देता हूँ कि चौराहे पर लाउड-स्पीकर पर ऐलान किया जा रहा है कि बाढ़ का पानी शहर में आने ही वाला है–सभी लोग पानी लेकर ऊपरी मंजिल या छत पर चले जाएँ।
मैं तो हक्का-बक्का हो चौराहे की ओर देखता रहा। एक क्षण को सारे मुहल्ले में भय से सन्नाटा छा गया। फिर कोई इसे खेल समझकर बाँध की ओर बाढ़ का नजारा देखने दौड़ा तो कोई सामान ढोने में लग गया। मगर किसी को भी यह यकीन नहीं हो रहा है कि सचमुच बाढ़ आ ही जाएगी।
मेरी पत्नी का पहला ध्यान गाँव से आई हुई चावल और गेहूँ की बोरियों पर गया। उन्होंने बिशुन ड्राइवर को झट बुलाया और कहा–“मोटरगैरेज में रखी हुई चावल और गेहूँ की बोरियों को कोठे पर पहुँचाने की शीघ्र व्यवस्था करो।”
“मालकिन, इतनी रात गए मैं मजदूर कहाँ से बुलाऊँ? इर्द-गिर्द इक्के-दुक्के जो हैं भी वे बगलवाले मकान के सीमेंट के बोरे ऊपर चढ़ाने में फँस गए हैं। अकेले कोढ़िया रामेश्वर से कितनी मदद मिलेगी? और धानो दाई तो बड़ी कानूनची है–वह काम बनाने के बदले बिगाड़ देगी।”
मेरी पत्नी घबराई हुई इधर-उधर घूमने लगीं तो मैंने बिशुन को टोका–“क्यों समय बरबाद करते हो? तुम दोनों से जितना बन पड़े, उतना ही अभी चढ़ा दो, फिर सबेरे देखा जाएगा।”
तो ड्राइवर ने भी झट उत्तर दिया–“हाँ मालिक, हम भी तो यही चाहते रहे।”
पत्नी ने गैरेज की कुंजी फेंक दी। बिशुन और रामेश्वर गैरेज का ताला खोलकर बोरियाँ उठा-उठा सामने चबूतरे पर रखने लगे। मैं जरूरी फाइलों तथा पुस्तकों को इकट्ठा कर ऊपरी मंजिल पर पहुँचाने लगा। मेरी पत्नी नल का पानी बाल्टी तथा गागरों में भरने लगीं।
कुछ देर बाद देखा कि पाँच बोरियाँ बरांडा के सामनेवाले चबूतरे पर फैलाकर बिशुन और रामेश्वर गायब हैं। मैंने धानो से पूछा कि बात क्या है तो उसने उत्तर दिया–“पाँच ही बोरियाँ ढोने के बाद उनकी हालत खस्ता हो गई। देहात के मजदूर थोड़े हैं कि पीठ पर बोरियाँ लादकर घंटेभर में छल्लियाँ खड़ी कर देते हैं! दुत, इतने ही में पसीना-पसीना हो गए। दिन-रात चाय और बीड़ी पी-पीकर मुँह तो सितुहा हो गया है उन दोनों का। ना बाबा, ना, इनसे बोरियाँ ऊपर न चढ़ सकेंगी। कुछ दूसरा इंतजाम करें मालकिन।”
मेरी पत्नी फिर बड़ी परेशान हो गईं। उनकी परेशानी देखकर मैंने बिशुन को फिर पुकारा। पूछा–“क्यों, क्या बात है?”
“आप फिकर न करें मालिक! पानी चबूतरे से नीचे ही रहेगा–यदि चबूतरा डूब गया तो समझिए पूरा पटना डूब जाएगा। ऐसा कभी न होगा। सन 71 में भी तो सिर्फ लॉन भर डूबा था। इस बार समझ लीजिए कि नीचे की दो-एक सीढ़ियाँ और डूब जाएँगी। बस, इतना ही।”–उसके चेहरे पर भरपूर इतमीनान की रेखाएँ दौड़ गईं।
“और मोटर…?”
“वाह, खूब! उसे बरसाती में ही रख देंगे। साइलेंसर में पानी जाने से रहा। हाँ, दो-चार इंच टायर डूबेगा तो डूबे, फिर वह भी तो 24 घंटे बाद ओहर जाएगा।”
उसका इतमीनान और भी बढ़ गया। उसके साथ-साथ मैंने भी इतमीनान की साँस ली और कोठे पर सोने चला गया। पत्नी भी नींद का बहाना करके लेट गईं मगर उन्हें शायद रातभर नींद नहीं आई। चावल-गेहूँ की बोरियाँ उन्हें सताती रहीं।
तीन बजे रात में लाउडस्पीकर ने फिर ऐलान करना शुरू किया–“भाइयो, बाढ़ का पानी एन. एन. एस. कॉलेज तक पहुँच गया है। आपलोग पीने का पानी लेकर ऊपरी मंजिल या छत पर चले जाएँ।”
मैं धड़फड़ा कर उठ बैठा। मेरी पत्नी तो जगी ही थीं। झट दौड़ती नीचे चली आईं और ड्राइवर को बुलाकर कहा–“कोशिश करो, कुछ और बोरियाँ उठा लाओ, नहीं तो लॉन डूबते ही गैरेज का फ्लोर भी डूबने लगेगा।”
मैं ऊपर छत से इर्द-गिर्द देखता हूँ। श्रीकृष्णपुरी से दूर गलियों में बहते हुए पानी की लहरियाँ बिजली की रोशनी में चमक रही हैं। मैं भयभीत हो जाता हूँ। फिर पत्नी को समझाता हूँ–“चावल और गेहूँ की बोरियों का मोह छोड़ो, और सब सामान उठवा लो–जैसे, फ्रिज, फर्नीचर, कपड़े, गहने, पुस्तकें आदि।”
मगर उनके दिमाग में ये बातें अभी अँटती ही नहीं थीं। उनका सारा ध्यान इन बोरियों पर ही केंद्रित हो गया।
मैं झख मारकर सेफ खोलता हूँ और कुछ जरूरी कागजात हटाता हूँ। फिर पलंग पर लेट जाता हूँ। शायद यह आफत भोर होते-होते टल जाए–मन को ऐसा समझाते हुए एक झपकी भी ले लेता हूँ।
तड़के नींद खुल जाती है। मुँह-हाथ धोकर नीचे उतरते ही देखता हूँ कि पानी फुफकारता हुआ श्रीकृष्णपुरी की सड़कों पर बढ़ा चला आ रहा है और लॉन में भी ड्रेनेज से पानी बुद्-बुद्-बुद्-बुद् करता हुआ भरता जा रहा है। अब क्या किया जाए?
मैं दौड़कर चौराहे की ओर जाता हूँ। वहाँ लोगों की भीड़ खड़ी है। सभी पच्छिम से बाढ़ के बढ़ते हुए पानी की ओर दृष्टि जमाए हुए हैं।
मुझे देखते ही जगदंबा बाबू ने कहा–“अब घर भाग चलिए, नहीं तो फौज की तरह बढ़ता हुआ यह बाढ़ का पानी शीघ्र ही गंगा के स्तर तक चला जाएगा।”
मैं घर लौट आता हूँ। पानी फाटक की राह अंदर घुसने लगा। मैंने झट बिशुन और रामेश्वर से कहा कि सीमेंट की बोरियों का एक बाँध गेट पर खड़ा कर दो ताकि पानी आना बंद हो जाए। वे अन्न की बोरियों को छोड़कर सीमेंट की बोरियाँ गेट पर सजाने लगे। मगर बेटी की बाढ़ और पानी की बाढ़ को भला कौन रोक सकता है? कोने-अंतरों से पानी घुसता ही रहा और फिर एक बार पच्छिम की चहारदीवारी अरराकर गिरी और देखते-देखते मेरा सारा हाता जलमग्न हो गया। चावल और गेहूँ की बची हुई बोरियाँ गैरेज में डूब गईं। बिशुन घबराया हुआ गाड़ी लेकर सड़क पर मोटर पंप पर रखने के लिए भागा। परिस्थिति बिगड़ रही है–इसका एहसास अब सबको होने लगा।
मेरी पत्नी अबतक चावल और गेहूँ की बोरियों को चबूतरे पर रखवाते-रखवाते थक चुकी थीं। अब वह सेफ खोल कीमती कपड़े और गहने लेकर कोठे पर रखवाने लगीं। दो-चार सुंदर फर्नीचर भी हटाए गए। मुहल्ले के कुछ सज्जन इस उम्मीद में कि मेरे मकान का कुर्सी काफी ऊँचा है और शायद वहाँ तक पानी न चढ़े सपरिवार बाढ़ से बचने के खयाल से मेरे घर पर चले आए।
अबतक पानी में साँप-बिच्छू तैरने लगे और बच्चों का मनोरंजन भी होता रहा।
मगर देखते-ही-देखते पानी सब सीढ़ियों को पार करता मेरे बरांडे में घुस गया। एक बार सभी चीख पड़े–अब भागो यहाँ से–अब खैर नहीं।
पहले मेजर साहब और उनके पीछे बाहरी साहब अपने बाल बच्चों को लिए पानी में घुस गए और कहीं घुटने तक तो कहीं जाँघ तक पानी में भींगते सड़क की ओर भागे। उनका लक्ष्य था–कदमकुआँ अपने-अपने रिश्तेदारों के यहाँ जल्द-से-जल्द पहुँच जाना।
उनको जाते देख मैंने भी अपनी पत्नी से कहा–“अब भाग चलो–किसी रिश्तेदार के घर चलें। अभी भी समय है।”
मगर मेरे जामाता आनंद जी ने मुझे रोका–“छोटे-छोटे बच्चों को लेकर तथा इतना सामान छोड़कर भाग जाना उचित न होगा। ऊपर बहुत जगह है। वहीं आराम से रहा जाएगा। आप तनिक भी घबराएँ नहीं। परिस्थिति का हिम्मत से सामना करें। इस तरह भागने से सारा सामान बरबाद हो जाएगा। और बच्चे आखिर कहाँ-कहाँ मारे फिरेंगे? गर्दिश में अपने घर में ही आराम मिलेगा। सभी घर में तो यही आग लगी है–कहीं भी राहत नहीं।”
इस राय की मेरी पत्नी ने भी दाद दी और मैं अकेला उनके साथ हो रहा।
तबतक बिशुन मोटर रखकर लौट आया और मेरी पत्नी ने फिर चावल और गेहूँ की बची हुई बोरियों को चबूतरे पर से उठवाकर ऊँची-ऊँची मेजों तथा चौकियों पर रखवाना शुरू कर दिया। दो-एक को किसी तरह कोठे पर भी चढ़वा ही दिया।
पानी का स्तर बढ़ता ही गया। सरकार तथा आदमी की कोई भी तदबीर कारगर न हुई।
सामान ऊपर ढोते-ढोते मेरी पत्नी तथा नौकर अब पूरी तरह थक चुके थे। पानी में चल-चलकर चीजें निकालना दोनों जंघों को जल्द थका देता है। मैंने अपनी पत्नी से कहा–“अब बस करो। जो सामान नीचे रह गया उसे भगवान-भरोसे छोड़कर अब संतोष कर लो। पानी में विषधर जंतु भी आ गए हैं। अब उसमें जाना खतरे से खाली नहीं। फिर नौकर भी तो थककर चूर हो गए हैं। उनसे अब बोरियाँ नहीं उठ सकतीं। जो गया सो गया।”
मेरी पत्नी सुन्न हैं। उनकी परेशानी देखकर मुझे उन पर बड़ी दया आई मगर अब कुछ भी करना मुमकिन न था। हम सभी कोठे के बरांडे में झख मारकर बैठ गए और पानी कैसे कितना बढ़ रहा है–यही देखते रहे।
सभी छतों पर लोग अपने-अपने बचे हुए सामान लेकर जान बचा रहे हैं। क्या अमीर और क्या गरीब–आज सभी एक ही तकदीर के हकदार हैं। प्रकृति ने एकबार फिर सभी को नंगा कर दिया। सभी बाढ़ की भीषण विभीषिका से सहम गए हैं। कोई चारा नहीं। जिनके पास पीने का पानी तथा खाने का सामान कुछ बच पाया है, वे तो दो-चार दिन के लिए आश्वस्त भी हैं मगर जो सिर्फ अपना चोला बचाए किसी की छत पर निःसहाय बैठे हैं, उन्हें तो हर पल भूख तथा आनेवाली मौत का भय सताये जा रहा है।
पत्नी के मुरझाए हुए चेहरे को देखकर मैंने कहा–“तुम नाहक परेशान हो रही हो। देखो–चारों ओर इन छतों पर अपनी जान बचाते हुए लाखों की जिंदगी पर तो रहम खाओ। इनका कल से क्या हाल होगा? मलमूत्र तथा तमाम गंदगी से भरा यह लबालब पानी, और पेट में चूहे कूद रहे हैं।”
उन्होंने बड़ी मायूसी से कहा–“तो आखिर आप चाहते क्या हैं?”
मैंने कहा–“यही कि अब प्रकृति के इस विराट रूप से अपने को एकाकार कर दो। चीजों की चिंता से मुक्त हो प्रकृति-नदी का यह अपूर्व नृत्य देखो।”
“खूब! मेरी चावल तथा गेहूँ की बोरियाँ पानी में डूबकर सड़ गईं और आपको मजाक सूझ रहा है!”
मैं चुप हो गया। अभी वह मोह से मुक्त नहीं हो पाई हैं।
दूसरे दिन देखा कि वह नौकरों से बड़ी आरजू-मिन्नत करके एक बोरा भींगा हुआ गेहूँ ऊपर चढ़वा लाईं और लाउंज में सुखाने के लिए पसरवा दिया। उसमें बेतरह बू आ गई थी। मेरे जामाता बिगड़ रहे हैं–“अब घर में कॉलरा फैल जाएगा। अम्मा को क्या हो गया है–बात समझतीं ही नहीं। अब सड़ी हुई चीजें छनवा रही हैं।”
मेरी पत्नी धर्मसंकट में पड़ गईं। इधर पति के व्यंग्य, उधर दामाद की फटकार। उन्होंने घबराकर मुझसे पूछा–“अब क्या किया जाए?–कुछ समझ में नहीं आता।”…फिर बिजली की तरह कोई बात उनके मन में कौंध गई और जान पड़ा जैसे उनकी सारी परेशानी काफूर हो गई। उन्होंने हँसते हुए कहा–“बुलाइए बिशुन को और उससे गैरेज तथा मेरे भंडार का ताला खुलवा दीजिए–यह रही कुंजी–और उससे कह दें कि स्टेट बैंक की छत पर जो बेचारे भूख से छटपटा रहे हैं वे तैरकर इन चावल और गेहूँ की बोरियों को फाड़कर अनाज ले जाएँ। सभी तो तैराक हैं और बिशुन भी तैरना जानता है।”–उन्होंने कमर से निकालकर चाभी का गुच्छा जमीन पर फेंक दिया।
किसी ने ठीक ही कहा है–‘जबतक ममता नहीं जाती तबतक समता नहीं आती।’ चलो, देर आयद दुरुस्त आयद! मोह के फंदे से यदि मेरी पत्नी नहीं निकलतीं तो यह नेक काम नहीं हो पाता। मगर अफसोस यही है कि दिल की आँखें भी तभी खुलीं जब चावल और गेहूँ की बोरियाँ भींग चुकी थीं।
फिर भी डूबते को सहारा तो मिल गया। जिनकी अंतड़ियाँ भूख से तड़प रही हैं और जो चारों ओर से ग्यारह फीट पानी से घिर गए हैं उन्हें सड़ा हुआ अनाज भी आज तरमाल का मजा देगा।
बिशुन इधर तैरकर गैरेज तक जाता है और दरवाजा खोल देता है। फिर उसके एक इशारे पर भूखों के दल-के-दल अपने-अपने तसलों को लेकर, तैरते हुए भंडार तथा गैरेज के दरवाजे पर, कीड़े-मकोड़ों की तरह जुट गए और जान की बाजी लगाकर डूबकर सड़े हुए अनाज को लूटने लगे। कोई-कोई तो उसे वहीं भकोसने भी लगे। गजब का दृश्य था वह। मिट्टी में सने हुए कच्चे चावल और गेहूँ पानी में ही उनकी क्षुधा शांत करने लगे।
यह तमाशा कई दिन चलता रहा। दूर-दूर से भूखों की टोलियाँ मेरे हाते में पहुँचतीं और जहाँ कहीं भी डूबे हुए अनाज मिलते उन्हें डुबकी लगाकर लूट लेतीं।
मैं यह अजूबा दृश्य देखकर चकित हूँ। मेरी पत्नी शांत और स्थिर हैं।