काल और कला
- 1 October, 1954
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- 1 October, 1954
काल और कला
जिस दिन राजा लक्ष्मण सिंह को हमीरपुर रियासत की राजगद्दी मिली उस दिन का क्या कहना! रियासत के शहरों में, गाँवों में तथा घर-घर में दिवाली मनाई गई, रियासत की ओर से मिठाइयाँ बाँटी गईं, सोने और चाँदी के जव लुटाए गए, रियासत के छोटे-बड़े सामंतों को सनद तथा तमगे दिए गए, कैदियों को रिहाइयाँ मिलीं, मरीजों को दवाइयाँ।
राजा के शीशमहल की शोभा तो वही बताए जो बिजली की बत्तियों में बिजली की तरह कौंधती हुई उस अट्टालिका पर एक क्षण भी अपनी आँखें टिका पाए! हाँ, अंदर के रंग-बिरंगे झाड़-फानूस में झिलमिलाती-जगमगाती मोमबत्तियों की शीतलता बाहर की सरगर्मी को कुछ सहमा रही थी और दरबार हॉल के कोने-कोने में सतरंगी रोशनी की चादरें बिछा रही थी।
दरबार हॉल की छटा निराली थी। गंगाजमनी के सिंहासन पर राजा लक्ष्मण सिंह विराजमान थे। छत्र-चँवर लिए दो सुंदरियाँ सिंहासन के दोनों बाजू के सटे खड़ी थीं। सिंहासन के पीछे झीनी चिलमन की ओट में नई रानी की गद्दी लगी थी। अनगिनत नवेलियाँ नई सजधज के साथ उन्हें झालरदार पंखे झल रही थीं। बाहर सिंहासन के दोनों ओर राज्य के सामंतों की कुर्सियाँ सजी थीं। सभी अपने ओहदे और मर्यादा के मुताबिक बैठे थे। हाँ, दीवान जी का आसन राज-सिंहासन के बिलकुल समीप था।
हॉल के बीच में मखमली कालीन पर एक सुनहली आसनी बिछी थी। राज-गायक सत्यपाल उसी पर बैठकर अपने तानपूरे का सुर सँभाल रहा था। उसको घेरे अन्य वाद्यों के गुणी भी अपने-अपने साज का सुर मिला रहे थे। तारों की झनकार तथा झीनी चिलमन के उस पार से आती नवेलियों की चूड़ियों की खनक सारे वातावरण में मधु बिखेर रही थी।
सत्यपाल आज ही राज-गायक के पद पर आसीन किया गया है। इस छोटी उम्र में ही उसकी ख्याति सारे राज्य में फैल चुकी थी। आज उसे राजदरबार की मान्यता भी मिल गई। इस नए पद से उसके प्रथम सार्वजनिक प्रदर्शन को सभी बड़े अचरज और कौतूहल भरी आँखों से देख रहे थे।
सुर मिलाने में देर हो रही थी। राजा को यह खल रहा था। उन्होंने झट हुक्म बजाया–“सत्यपाल जी, काफी विलंब हुआ, अब आप अपनी तान से आज की सभा को धन्य-धन्य कर दें।”
सत्यपाल ने छूटते ही उत्तर दिया–“क्षमा करें राजन्, कला किसी के हुक्म की बाँदी नहीं। सुर मिलने दें, फिर स्वर की सुरा का पान तो आप सभी करेंगे ही।”
राजा को यह उत्तर अच्छा न लगा। वह तमतमा उठे तो बूढ़े दीवान ने परिस्थिति सँभालते हुए कहा–“राज-गायक, तुम सही कहते हो, मगर तुम्हारी कला के निखरने का इससे बढ़कर और दूसरा सुंदर अवसर कौन होगा!”
गायक हँस पड़ा। राजा मुस्कुरा दिए। बढ़ती हुई गंभीरता हँसी में परिणत हो गई।
सत्यपाल ने सुर लेकर तान छेड़ दी। अन्य वाद्य भी उसके सुर पर मुखर उठे। सारा हॉल गूँज उठा। सभी झूम उठे। गायक के गले की माधुरी का रसपान कर सभी इस धरती से उठकर स्वरगंगा की लहरों पर थिरकने लगे। कलाकार की उस अनूठी कला की मोहिनी ही कुछ ऐसी थी कि सभी उस लय में लवलीन हो गए। दरबारियों की नजर राजसिंहासन से हटकर सत्यपाल पर अटक गई। रानी भी अवाक हो उसे एकटक निहारती रहीं। छत्र-चँवर लिए सुंदरियाँ भी तन्मय हो गईं।
राजा लक्ष्मण सिंह चकित हैं। उन्हें जान पड़ा कि सत्यपाल की कला की ऊँचाई के आगे उनकी गगनचुंबी अट्टालिकाएँ झुक गईं। उनकी चेतना डगमगाने लगी कि गायक की साधना महान है या उनके सर की कलँगी; उनके राज्य का क्षेत्र बड़ा है या सत्यपाल की कला का प्रसार; संगीतकार के गीत की ध्वनि शक्तिशालिनी है या उनकी हुकूमत! उन्हें भास हुआ कि उनका सिंहासन डोल गया। किसी तपस्वी के तेज से इंद्रपुरी की धरती काँप गई। सत्यपाल जब भी सुर की ऊँचाई पर आँखें मूँद ध्यानस्थ साधक की तरह उठने लगता तो राजा की छाती की पंजरियाँ हिल जातीं।
राजा ने अपनी सारी शक्ति को केंद्रीभूत कर जोर से कहा–“संगीत बंद हो, बंद हो, बंद हो!” पर यह क्या? किसी पर कोई असर नहीं। उन्होंने फिर तालियाँ बजाईं। पर सुने कौन? सभी रस में सराबोर। राजा परेशान।
दीवान जी ने फिर अदब से कहा–“राजन्, संगीत का माधुर्य ही कुछ ऐसा है कि सभी रम गए हैं। जरा रुका जाए।”
“वाह दीवान जी, आप भी मेरे हुक्म की…” राजा साहब ने तेवर बदलते हुए कहा।
“नहीं-नहीं महाराज! ऐसी भी क्या बात है! मगर हुजूर तो जानते ही हैं कि कला तो किसी हुकूमत की बाँदी नहीं। और, अब तो संगीत भी समाप्ति पर है…।”
सत्यपाल का संगीत समाप्त होते ही सारा हॉल करतालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। राजा लक्ष्मण सिंह अपने सिंहासन पर बैठे उबचुब होते रहे। परंतु रानी ने अपना हार उतारकर कलाकार को भेंटस्वरूप भेज दिया। रानी की सहृदयता की प्रशंसा सभी करने लगे। सत्यपाल ने कृतज्ञता में सर झुका लिया। किंतु, राजा खीझ से बुत हो गए। उन्हें लगा जैसे कलाकार की साधना के सौध पर आज उनका मुहरों तथा रत्नों से भरा भांडार शून्य हो गया!
दरबार बर्खास्त हुआ।
राजा शयन-कक्ष की ओर बढ़े। रानी अभी भी सत्यपाल के गीत की कोई कड़ी गुनगुना रही थीं। राजा ने गरजकर कहा–“भरी सभा में अपना हार देकर तुमने मेरी तौहीनी की और आधी रात गए अभी भी उसी की कड़ी दुहरा रही हो।”
“महाराज, संगीतराज की कला कुछ इतनी ऊँचाई पर थी कि बरबस हृदय खिंच गया। फिर आप ही कहें, उसकी साधना की पौर पर हमारे नौलखे हार की बिसात ही क्या!”
जले पर नमक के इस छिड़काव पर राजा तिलमिला उठे। पर, तिल का ताड़ करना बेकार था। राजा ने कमरे की बत्ती बुझा दी। सोने का प्रयास करने लगे। मगर उनकी आँखों की नींद हराम थी। रात तो आँखों में ही कट गई। हाँ, लाख सिर चीरने पर भी उन्हें यह पता न चला कि आखिर वह कौन कड़ी है जो लघुता और महानता की सीमांत रेखा बन जाती है!
उस रात के प्रदर्शन के पश्चात संगीतराज सत्यपाल की ख्याति और भी बढ़ चली। राज्य के हर कोने से उन्हें निमंत्रण आता; जहाँ कहीं भी वे जाते; संगीत-समारोह होता। उनके गीत हर अवसर पर गाए जाने लगे। विवाहों में मंगल, होली में फाल्गुनी, चैत में चइता तथा सावन में कजली। नव वधुओं की सुरीली काकली में उनके गीतों की कड़ियाँ मिलतीं, विरहिणी के वियोग में उनके गीतों की लड़ियाँ सुनाई पड़तीं, हिंडोलों पर उड़ती हुई छोहरियों के सुमधुर स्वर में उनके गान की तान फूटती, गायों के झुंड में घिरे चरवाहे उनके राग अलापते रहते, घुप्प अँधेरी रात में किसी विजन वन को पार करते हुए राही उन्हीं की सुरीली तान के सहारे अपना भय और श्रम मिटाते अपने ठिकाने पहुँचते और पिता के घर से बिछुड़ती बालिकाएँ उन्हीं के गीतों के रस में डूबकर बीते हुए कल को भूल जातीं।
उधर राजा की परेशानी भी दिनोदिन बढ़ती ही जाती। राजगद्दी के बाद नए राजा के नाम की कीर्ति तो बढ़ी नहीं, बढ़ी उत्तरोत्तर संगीतराज की कला की ख्याति। बाजी किसकी और जीत किसकी!
राजा लक्ष्मण सिंह को यह परिस्थिति बहुत खल रही थी। आखिर एक दिन उन्होंने सत्यपाल को बुलाकर कहा–“सत्यपाल, तुम तो राजदरबार के गायक हो, फिर गाँव-गाँव, गली-गली तुम्हें दौड़ने की क्या जरूरत? देखो, मेरे महल के एक खंड में तुम्हारा निवास-स्थान रहेगा और केवल दरबार में ही तुम्हारे संगीत का प्रदर्शन हुआ करेगा।”
“परंतु महाराज, मेरी कला तो अब राजप्रासाद की चहारदीवारी को पार कर जनता की गोद में पहुँच गई है। फिर उसे…”
“अनाड़ी न बनो सत्यपाल! तुम्हारी कला की मर्यादा राज-गायक होने में ही है। यदि तुम्हारे गीत की कड़ियाँ सस्ती बनकर गली-गली सुनाई पड़ने लगीं, तुम्हारी तान किसान-मजदूरों के झाल-मजीरों पर भी उठने लगी तो फिर तुम्हारी और तुम्हारे पद की मान-मर्यादा ही क्या?”
“राजन्, धनवान का धन अँधेरी कोठरी की तिजोरियों में छिपाकर रखा जाता है। बस, हर दिवाली को उसे घी का एक दीया दिखा दिया जाता है। धनवान इसे ही अपनी शोभा और श्री समझता है। परंतु कलाकार तो अपने धन का शृंगार उसके वितरण में ही पाता है। उसकी तिजोरी तो कोटि-कोटि जनता का हृदय है, कोई भारी-भरकम लोहे की संदूक या आलमारी नहीं।”
“कलाकर, तुम अपने दायरे से बाहर जा रहे हो।”
“महाराज, मैं अपने हक की माँग करता हूँ।”
“हक के दावेदार! तुम अपनी सीमा का उल्लंघन कर चुके हो। तुम्हें जंजीरें पहननी होंगी।”
“जंजीरें मेरा हार होंगी, राज!”
और सत्यपाल बंदी हो गया।
राजा को शांति मिली, चैन पड़ा। आज से उनकी कीर्ति-लतिका उत्तरोत्तर फैलती जाएगी और कलाकार की कला और ख्याति मिटते-मिटते मिट जाएगी।
× × ×
आज राजा लक्ष्मण सिंह की वर्षगाँठ है। देवालयों में भजन-पूजन तथा महल में रंगरलियाँ मनाने का विशेष आयोजन है।
दरबार लगा। राजा को नजरें पेश हुईं। नए साल की मुबारकबादियाँ दी गईं। फिर दीवान जी ने बड़ी आजिजी से अर्ज किया–“महाराज, पिता जी के समय से ही यह परिपाटी चली आती है कि हर सालगिरह पर राज्य की उन्नति और प्रजा के सुख के लिए किसी बड़ी योजना का एलान किया जाए। फिर आपकी कीर्ति फैलेगी, यश बढ़ेगा और राज्य की मर्यादा भी ऊँची उठेगी।
राजा लक्ष्मण सिंह का नाम रौशन हो, उनकी कीर्ति की धवल पताका सदा फहराती रहे–वाह! कितनी आकर्षक योजना!
राजा पिघल गए। सूखी रेतों पर नहर निकालने का एलान किया गया और साथ-ही-साथ यह भी सुनाया गया कि मुख्य नहर का नाम होगा लक्ष्मण-सागर।
साल पर साल की तहें पड़ने लगीं। वर्षगाँठें आतीं और जातीं और सालों-साल बनते गए–लक्ष्मण-भवन, लक्ष्मण-नगर, लक्ष्मण-लोक-कल्याण-मंदिर, लक्ष्मण-शिशु-गृह आदि-आदि। राजा को गर्व है कि उनके नाम से जुड़कर इतने बड़े-बड़े निर्माण हुए। अब उनके नाम और यश की पताका सदा समय की छाती पर बैठकर फहराती रहेगी। काल इसे खा नहीं सकता, समय इसे मिटा नहीं सकता। हुँह, चला था एक अदना-सा कलाकार उनसे होड़ लेने! बस, आ रहा मुँह के बल एक ही चपेट में!
और, सत्यपाल एक दिन चल भी बसा, मगर दरबार में किसी ने भी उसकी मृत्यु को एक महत्त्वपूर्ण घटना न समझा। राजा लक्ष्मण सिंह तो अपनी गौरव-पताका को स्थायी बनाने की ही तमाम बंदिशों में फँसे थे। उन्हें क्या पता कि उनके राज्य का वह शृंगार-सौध ही आज टूट पड़ा जिससे उनके राज्य का नाम राज्य के बाहर भी प्रसिद्ध था।
× × ×
दिन बीते, महीने बीते, साल बीते, युग बीते और बीत गई राग और रंग की वह दुनिया। फिर, एक दिन वह भी आया जब विदेशी सत्ता के समाप्त होते ही हमीरपुर रियासत भी भारत की स्वराज्य-सरकार की चौड़ी चादर के नीचे ढँक गई। राजा लक्ष्मण सिंह अपनी तमाम शोभा और श्री को चंद पेटियों में बंद कर बंबई शहर के एक होटल में जा टिके।
स्वतंत्रता की उमड़ती लहर के आवेश में जनता ने राज्य से तमाम विदेशी निशान को मिटा दिया और मिटा दिया राजतंत्र के साथ-साथ राजा लक्ष्मण सिंह का नाम भी। लक्ष्मण-भवन के ललाट पर ‘सत्यपाल-भवन’ का पत्थर जड़ गया।
सत्यपाल जन-कवि माना गया और उसके तमाम गीतों और राग-रागिनियों को खोज-खोजकर सत्यपाल-भवन में सुरक्षित रखा गया। उसका तानपूरा, उसकी कलम तथा उसके निजी व्यवहार की सारी संग्रह योग्य वस्तुएँ संग्रहालय में सजाकर रखी गईं। हर साल उसकी जयंती मनाई जाती और जन-जीवन के हर व्यापार में उसके गीत सुनाई पड़ते। कोयल की कूक में, पपीहे की पुकार में, झरने की झरझर में, सरिता के मरमर में, नव-वधुओं के लोक-गीतों में, गायकों के संगीतों में, मजदूरों तथा किसानों की जिह्वा पर और जन-जागरण की हर गूँज में कलाकार सत्यपाल की कला थिरकती रहती।
आज राजा लक्ष्मण सिंह का कोई नामलेवा तक न रह गया, पर सत्यपाल की कीर्ति को न कोई समय का स्रोत धो सका; न कोई शासन का आतंक मिटा सका। उसकी गौरव-पताका को न कोई आँधी उड़ा सकी और न कोई शक्ति उखाड़ सकी। सत्ता तो सत्ता में समा गई, पर कला को काल की कैंची भी कतर न सकी।
जो सत्य है; शिव है, सुंदर है, वह चिरंतन भी है, चिर-नवीन भी।