हाय री आँखें!
- 1 July, 1950
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- 1 July, 1950
हाय री आँखें!
अकसर गर्मी के दिनों में, दिल्ली स्टेशन से शिमला जानेवाली गाड़ी का प्लेटफार्म अपनी चहल-पहल और रंग-रौनक में लाहौर की अनारकली को भी मात कर देता है। कनाट-सरकस की भव्य दुकानों के शो-केस में जो बेहतरीन साड़ियाँ और सलवार-कुरता के सेट निर्जीव कागज के पुतले में अटकाकर टँगे रहते हैं, वे ही उस प्लेटफार्म पर चलती-फिरती हसीन तस्वीरों की काया से लिपटकर चमक उठते हैं। बड़ी बेजोड़ होती है उन खूबसूरत जिस्मों पर उनकी सजावट, बड़ी अनमोल होती है उनके दामन से झरती हुई इत्र की महक। आखिर जूही की कली किसी नवेली के जूड़े का शृंगार या उसके गले का मुक्ताहार बनकर ही तो मुखर उठती है। तो फिर यदि वे साड़ियाँ या चुन्नीदार ओढ़नी तमाशाइयों की थिरकती हुई पुतलियों को स्थिर कर देतीं तो अजब ही क्या!
एक रात राजेश भी अपनी किस्मत का सितारा बुलंद करने दिल्ली स्टेशन की अनारकली में एक कुली पर सामान लदवाये, चला ही आया। गाड़ी छूटने में कुल दस मिनट की देर थी। अपनी होनेवाली पत्नी कांता के घर पर खाना खाते-खाते उसे काफी देर हो गई थी। खैर, दौड़ता-हाँफता वह स्टेशन तो पहुँचा मगर यहाँ हर बर्थ पर बिस्तर खुल गए थे। कहीं भी तिल रखने की जगह नहीं थी। कांता उसे छोड़ने स्टेशन आई थी। एक ओर वह दौड़ती और दूसरी ओर हजरत खुद, मगर जब जगह होती तब तो जगह मिलती। राजेश पसीने-पसीने हो गया। पास ही खड़ी एक नवयौवना उसकी बेचैनी भाँप रही थी। उसने मुस्कुराते हुए पूछा–“क्या आप भी फर्स्ट क्लास के यात्री हैं?”
“जी, हाँ।”
“तो घबराइए नहीं। अभी एक बोगी लग रही है। उसमें आपको खासी अच्छी जगह मिल जाएगी।”
बस, डूबते को सहारा मिला। अजी, सहारा ही नहीं, आसरा भी लगा लिया–शायद वह नवयौवना उसी के कंपार्टमेंट में सफर करे। फिर क्या कहना! आँखों ने उसे देखा, हृदय ने उसे सँवारा! वह युवती ही नहीं, सुंदरी भी निकली। अनिंद्य सुंदरी, रूप की रानी।
बोगी लगी, भीड़ टूटी, शोर मचा और बाह री तकदीर–दोनों ने एक ही कंपार्टमेंट में एक ही किनारे ऊपर-नीचे वाले बर्थ पर अपने-अपने बिस्तर खोल दिए। नवयौवना को ऊपरवाला बर्थ मिला और हजरत को लोअर, तो आपने उज्र किया–“आपको ऊपर-नीचे करने में तकलीफ होगी, मेरा लोअर बर्थ आपके लिए खाली है।” उसने भी यह जवाब दिया–नीचे बड़ा शोर-गुल रहता है, मुझे ऊपर ही रहने दिया जाए। आखिर यह समझौता हुआ कि जबतक गाड़ी प्लेटफार्म नहीं छोड़ देती तबतक उनके हल्के-फुल्के जिस्म का भार लोअर बर्थ सम्हालेगा। बगलवाले बर्थ पर दो फौजी अफसर थे।
गाड़ी छूटने लगी तो राजेश की प्रियतमा कांता ने घबराकर कहा–“देखिए, शिमला पहुँचते ही तार दे देंगे और रात में कंपार्टमेंट को ठीक से बंद कर लेंगे। अभी हाल ही में इस ट्रेन में खून हुआ था।”
“कल शाम तक तुम्हें मेरा तार जरूर मिल जाएगा, घबराना नहीं।”–कहकर राजेश ने दरवाजा बंद कर लिया।
गाड़ी स्टेशन छोड़ चुकी थी परंतु वह राजेश की सीट पर बैठी ‘विमेन इन वौंडेज’ पढ़ रही थी। राजेश भी तकिये के सहारे एक कोने में बैठकर इधर-उधर देखकर उसे निहारने लगा। आज उसे ऐसा जान पड़ा कि इस बाला से बढ़कर रूपवती इस संसार में विरला ही कोई होगी। कंचन-से चमकते हुए उसके शरीर की दीप्ति कुछ अजब निराली थी। साड़ी और आभूषणों का चून और चुनाव बिलकुल करामात दिखा रहे थे। हँसने और बोलने का अंदाज तो उसके कोमल व्यक्तित्व की हामी भर रहा था। विधाता ने उसे केवल अपने को सजाने और शरमाने का ही हुनर नहीं दिया था, सेहत की गुलाबी भी दी थी और जबान की चाशनी भी। राजेश का हृदय काबू में न था। बत्ती बुझाकर अपने घने केशपाश को खोलती जब वह सोने चली तो कनक किरणों और काले-काले बादलों की आँख-मिचौली का ही दृश्य मानस-पटल पर खिंच आया।
गाड़ी की रफ्तार तेज थी। दोनों फौजी अफसर गहरी नींद सो रहे थे और वह नवयौवना भी बेखबर पड़ी हुई थी, मगर राजेश की हालत तो उस बेपनाह की थी जो रह-रहकर चिल्लाता था–“मैं सारी रात जागता हूँ जब सारा आलम सोता है।” आखिर वह सोये भी तो कैसे? रह-रहकर सिनेमा की रील की तरह नए-नए रुपहले और सुनहले चित्र उसकी आँखों पर नाचते रहते। कभी उस देवकन्या के साथ वह शिमला की सुनसान सड़कों पर टहलता रहता और कभी सेसिल होटल में उसके भुजपाश में घिरी नाचती-हँसती वह गुम हो जाती। ‘ओह’ कहकर वह जाग उठता और उचककर देखता, स्नानगृह के शीशे से छनकर आती हुई रोशनी उसके गौर मुख पर छिटक आई है और वह जैसे स्वप्न-लोक के किसी अनुपम दृश्य को देखकर मुस्कुरा रही हो। वह करवटें बदलकर लेट रहता। आँख लगते ही देखने लगता–नैनीताल का मनमोहक दृश्य, शैल-मालाओं से घिरी हुई तलैया और उसमें मंथर गति से बह रही है उसकी नैया जिसका पतवार उस नवेली के कोमल हाथों में। आखिर उस रात उसने क्या-क्या न देखा? नारी को देखा, उसके रूप-लावण्य को देखा, उसका प्रेम पाया, उसकी भक्ति मिली और जाने क्या! वह सपनों की रात थी और साथ-ही-साथ उमस की भी।
कालका स्टेशन पर जब कुलियों ने शोर मचाया तो उसकी आँखें खुलीं और देखा कि वह बाला सज-धजकर उसकी सीट पर एक कोने में बैठी है। वह ‘अरे’ कहता झट उठ बैठा। उसकी प्याजी रंग की साड़ी से निकलती हुई मीठी खुशबू इस समय कुछ और ही मस्ती बिखेर रही थी। आम की फाँक की तरह उसकी अलसाई आँखों को कजरारी रेखाओं ने सीमाबद्ध कर दिया था, होंठों की लाली में लिपस्टिक की लाली घुल-मिल गई थी और गालों की लाली तरुणाई की निशानी बन रही थी। फिर राजेश के मुख से बरबस बरस ही तो पड़ा–ऐसा न कभी रात देखा और न कभी प्रात। वह रात क्या जो प्रात की प्रतीक्षा में कट जाए और वह प्रात क्या जो रात की तमाम अनुभूतियों को सँजोकर रख न दे!
कुलियों ने जब उस रूपसी का सामान उठा लिया तो उसने राजेश से बड़ी आजिजी से कहा–“मैं चली, आशा है शिमला में भेंट होगी।”
“आखिर इतनी जल्दी क्या है? साथ ही रेल-मोटर पर चलेंगे।”
“नहीं, मुझे लेने मेरे चंद दोस्त आ गए हैं। मैं उन्हीं के साथ मोटर से जा रही हूँ।”
“आपसे शिमला में कहाँ…?”
“क्लार्क्स होटल में…।”
वह झट-से उतरी और भीड़ में विलीन हो गई।
शिमला पहुँचते ही राजेश सेसिल होटल में सामान फेंककर उस बाला की तलाश में जाने को अपने को सजाने लगा। चेहरे पर हलका पॉलिश किया और टाई तथा सूट को भी जरा दुरुस्त किया। जब क्लार्क्स होटल के लिए रवाना हुआ तो उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ते थे और न आँखें ही किसी एक पर टिक पाती थीं। उसकी मनचली आँखें तो बस उसे खोज रही थीं जो उसकी पुतलियों में समा चुकी थी।
एक मील से ज्यादा रास्ता तय कर जब वह तारघर के नजदीक पहुँचा तो उसे कांता को तार देने का कुछ खयाल ही नहीं रहा। वही कांता जो कलतक उसकी तमाम अभिलाषाओं की प्रेरणा बनी रहती थी, आज आँखों से ही नहीं, दिल से भी ओझल हो गई। वह बढ़ता गया और ‘बैंड स्टैंड’ की जगह आकर खड़ा हो गया। यहाँ नजरें छिलती थीं, कंधा से कंधा टकराता था और जन-समुद्र लहर बनकर बढ़ रहा था।
आखिर उसकी आँखों ने उसे ढूँढ़ ही तो निकाला। लहालोट जारजेट की चुनरी पहने वह अपने दोस्तों से घिरी बढ़ती चली आ रही है। पास आते ही राजेश ने बड़ी आजिजी से नमस्ते किया। उसने मुस्कुराकर कुछ अनमना-सा उत्तर दिया और फिर अपने दोस्तों के साथ उसी भीड़ में खो गई। राजेश का चेहरा फक-सा हो गया। कल रात का संगी कुछ ही क्षणों में परदेसी बन गया! उसे विश्वास न हुआ; भीड़ चीरता उसके समीप फिर पहुँचा और इशारे के सहारे अपनी वेदनाओं को दिखाने की कोशिश की परंतु इस बार भी संवेदना के बदले अवहेलना ही मिली और उसके दोस्तों की चंडाल चौकड़ी कुछ ऐसी थी कि किसी गैर की एक न चली। वह टका-सा मुँह लिए होटल लौट आया। अब उसे शिमला का वातावरण काटने लगा। वह दो दिनों के अंदर ही वहाँ का काम खत्म कर कालका की गाड़ी पर सवार हो गया।
जैसे-जैसे गाड़ी दिल्ली की ओर बढ़ती जा रही थी, राजेश कांता से मिलने को उतावला हो रहा था। एक वह रात थी जब कांता से उसकी जुदाई उसकी घड़ियों को और रंगीन बना रही थी और आज यह रात है कि उसकी तनहाई उसे बेहद खल रही है। वह अपने जीवन के इन दो पहलुओं पर बड़े गौर से सोचता और मन-ही-मन कहता भी जाता–नारी के रूप-लावण्य को देखते-देखते पुरुष की आँखें कभी अघाती नहीं। यह कहना गलत है कि उसकी नशेबाज आँखें किसी एक की मोहिनी का रस पीकर सदा के लिए बेहोश हो गईं। हाँ, उसके रस को पीकर वे कुछ क्षण के लिए सुध-बुध तक खो बैठती हैं, परंतु जब उस रसास्वादन में वही पुरानी जड़ता आ जाती है तो पलकें भारी होने के बजाय खुल आती हैं और आँख की पुतलियाँ तितलियों की तरह किसी नए रस, किसी नए पराग की तलाश में बेचैन हो जाती हैं। फिर किसी और की आँखें उसकी आँखों में घर कर लेतीं, किसी और की लावण्यता उसकी आँखों को स्थिर कर देती। मगर कबतक? रूप की कतार में कौन पराकाष्ठा पर है–बताना एक मजाक होगा। यहाँ तो जो आज आँखों का खिलौना है वही कल घिनौना बन आँखों से ओझल हो जाता और जो कल कल्पना से भी परे था वही आँखों में समाकर उसकी प्रेरणा बन जाता। हाय री आँखें! क्षण में किसी को राजा और किसी को रंक बना देना तेरे ही जैसे बेहया कौम के लिए आसान है।