मधुमयी
- 1 January, 1954
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- 1 January, 1954
मधुमयी
(सजला)
तुमने किसकी ओर उठाईं अँखियाँ काजलवाली, री!
विरह-विनिंदित ग्रीष्म-गगन का पट हटने को डोला,
एक नए अंबर ने अपना परिसर-मंडल खोला,
तप से जिनके नयन ज्वलित हो किरण-कोष बन जागे,
उन प्यासों ने ही देखा यह अंतर अपने आगे,–
मधुऋतु की झुलसी पंखुरियाँ हरियाली बन आईं,
डूबे ऊदे-ऊदे बादल छाई बदली काली, री!
तुमने किसकी ओर उठाईं अँखियाँ काजलवाली, री!
किस बहुरंगे मर्म-विपिन में छायावास तुम्हारा?
अपनी भाव-परी में पाया वह आभास तुम्हारा,–
बदल गया जो आज स्वयं ही सजल घटा की छवि में,
एक सरसता आई, छाई, सुख-दुख में, शशि-रवि में!
चाह-भरे बेबस जीवन के दाह-भरे पथ भींगे,
नभ के अंतर का मधु पीकर धरती भी मतवाली, री!
तुमने किसकी ओर उठाईं अँखियाँ काजलवाली, री!
मंद्रमयी अविषम पग-ध्वनि से रंध्र जगत के गूँजे,
विषम हृदय ने प्रतिध्वनियों से अलख चरण चल पूजे।
बाँध लिया चितवन-चपला से तुमने दो क्षितिजों को,
साध लिया रिमझिम-नर्त्तन में बिखरे लाख सुरों को,
सबकी साँसें मिलकर जिसमें एक अधर से गूँजें,–
तुमने पहली बार बजा दी वंशी वह सुधिवाली, री!
तुमने किसकी ओर उठाईं अँखियाँ काजलवाली, री!
(उज्ज्वला)
श्रीमयी शरदऋतु के नभ में नीली मुसकान तुम्हारी
चाँदनी बनी छलकी नीरव वंशी की तान तुम्हारी!
काले मेघों को दो बाँहों में बाँध-बाँध कर हारा मन,
सतरंग साँझ की रंगीनी में उलझ गया बेचारा मन!
हाँ, मुँदे कमल की सुरभि लिए आए झोंके,
पर, बेसुध सारे अंग, कौन उनको रोके!
उड़ चले कोक, पर शोक नहीं उठ छाया,
हर ओर कुमुदिनी का सौरभ लहराया।
अनगिने तारकों से झलमिल आई बारात तुम्हारी,
ले रजत-कलश भरपूर, सकुच शरमायी रात तुम्हारी!
दुख के बादल-दल छिपे खो गए, अलक-जाल ज्यों घूँघट में,
सुख के बादल खिल उठे, खिले ज्यों शुभ्र फूल अंचल-पट में।
निर्धूम गंध रजनीगंधा की बिखर चली,
हो उठी सुवासित अब जीवन की गली-गली।
नव सपने मंगल-खील बने छितराए,
किसलय-कर पुलकित पवन परस थर्राए।
मोहक निशीथ : यह गूढ़ ग्रंथि निशि-दिन के बीच, तुम्हारी।
उड़-उड़ विहाग की धुन लाई शुभ घड़ियाँ खींच, तुम्हारी!
मर्मर, कलरव, भिनसार-गीत; मिल मंगल-ध्वनि बन गूँज उठे,
बरसा अरुणिम सिंदूर-पुंज, पिक-स्वर दिगंत भर कूज उठे।
चिर ज्योति ज्वाल से धुल खुल आए कनक-प्राण
खंजन दृग सलज चले,–सुधीर मन के प्रमाण!
नाची, काशों की पाँत-पाँत, फहराई,
स्वर्णाभ शालि की राशि-राशि झुक आई!
अब नील-कंठ विहगों से भर सज आई राह तुम्हारी!
नूपुर-नूपुर में आज बजी भरमायी चाह तुम्हारी!
(हेमंती)
गुनगुनाऊँ, इक नया-सा गीत गाऊँ!
बाहुओं में बीन जो स्वप्निल पड़ी है,
इस हिमंती भोर में उसको जगाऊँ! गुनगुनाऊँ!
तार मन के मिल गए जब आज पहली बार मेरे,
खो गया सब मौन कोलाहल किसी संगीत में।
इस उनींदी बीन की भी मूकता पर ध्यान जैसे जा पड़ा कितना सबेरे?
–अब न कोई फर्क इसमें, और भूली प्रीत में!
खो गया सब मौन कोलाहल किसी संगीत में।
सिहर-सिहर सुनील-अरुणिम व्योम नीरव गुनगुनाता,
पुलक-पुलक वसुंधरा दृग खोलती है।
करुण-करुण मरण तिमिर बन छिप चला है,
मधुर-मधुर किरण नयन में बोलती है,–
“जिंदगी पुकारती तुझे असीम प्यार से,
प्यार है पुकारता अनंत कर्म-ज्वार से,
कर्म भी पुकार रहा मर्म के अभाव में,
मर्म है पुकारता दबा हुआ स्वभाव में।
उठो-उठो, अजेय! तुम बढ़ो-बढ़ो,
नई हवा, नई दिशा गढ़ो-गढ़ो…।”
एक साथ ही पुकार बूँद की, समुद्र की,
दे जवाब,–क्या मज़ाल एक जीव क्षुद्र की?
[चाहती वसंत-हास नेत्र-ज्वाल रुद्र की…]
एक साथ ही पुकार बूँद की, समुद्र की!
पर, सुनूँ पहले सुबुकती बूँद की आवाज, छन भर गुनगुनाऊँ;
सिंधु पर जिसके सहारे छा सकूँ, उस मौन वीणा को जगाऊँ…।
–जाग, री! जाग, री हेमंतिनी, नयनागरी!
हर नए अरमान का रंगीन-सा छाया कुहासा,
भर रहा जिसमें यहाँ सौरभ, वहाँ उठता धुआँ-सा।
बन रहीं ठंढी उसाँसे भाप-सी,
रूप सपनों का विरचने को उमगती अंग-अंग सुगंध उन्मद ताप-सी।
जाग री अब तो जगा वह राग नूतन–दूरियों में पास का उल्लास भर दे।
चूमते-से नाचते हर एक क्षण में मुग्ध मन का चल निखिल इतिहास भर दे।
ताल-लय पर शस्य, कौशल, मर्म,–उच्छल,–
थिरक झूमें, भर उठे उन्माद, री!
जाग, री! जाग, री!! जाग री!!!
Image: Kaisari Rag(ini) Ragamala
Image Source: Wikimedia Commons
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