अपनी-अपनी गाँठ
- 1 January, 1954
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- 1 January, 1954
अपनी-अपनी गाँठ
[2]
“यह लो, ऐसी भी क्या पड़ी है, चले कहाँ इस तूफान में?”
मंजु के चेहरे पर एक रंग आ रहा है, एक रंग जा रहा है। आसमान पर बादल छाए हैं। हवा तेज-तुंद है आज। लगता है, तूफान का जोर है। मगर पानी पड़े या पत्थर, अपनी ड्यूटी की पाबंदी जो बड़ी चीज ठहरी!
नंदी खड़े हैं अपने बँगले की पौर पर। हाथ में बैग है, आँख है आसमान की तान-तेवर पर।
“तुम भी बड़ी वह हो, हम अकेले थोड़े ही जा रहे हैं! मिस्टर मार्टिन भी तो साथ हैं!”
“मैं पूछती हूँ, दो-चार घंटे बाद ही जाने में तुम्हारा जाता ही क्या है?”
“क्या नहीं जाता? तुम क्या जानो! हमारा इतने-दिनों का किया-कराया सब मिटने पर आया है। पहाड़ों में वह भयंकर ‘लैंडस्लाइड’ है कि कहीं हमारी नई सड़कें भी टूट कर गिर गईं तो लो, गए हम! अब तो चाहे कुछ हो, मोर्चा लेकर रहेंगे हम!”
मंजु का चेहरा उतर गया। बोली–“क्या बताऊँ, रात एक ऐसा सपना देखा कि जान में जान नहीं।”
“यह खूब! अपनी आशंका ने जरा-सी एड़ लगा दी और कल्पना लगी हवा पर उड़ने! लीजिए, रात की अँधियारी में उतर आई सपना बन नींद की छाती पर मूँग दलने!”
तभी मार्टिन साहब का चपरासी दौड़ा आया कि साहब तैयार हैं, देर नहीं। फिर क्या, चल पड़े नंदी, दाएं देखा न बाएं। मंजु बेचारी किवाड़ के पल्ले थाम खड़ी की खड़ी रह गई–घुलती रही अंदर-ही-अंदर!
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क्या जाने क्या लगाव है कि आदमी जिस बात के लिए भीतर-ही-भीतर डरा करता है वह आसमान फाड़ बरस ही जाता है सर पर एक दिन! तो यह दिन भी आना रहा, आकर ही रहा आखिर। मंजु का डर उसके सर पर आ ही धमका पाँच दिन बाद।
कई दिन के लगातार आँधी-पानी के बाद आसमान साफ हो रहा है आज। बादल छँट चले। सूरज के चेहरे से घूँघट सरक पड़ा जैसे। लगा, दिन के चार बजे होंगे। मंजु के बँगले पर आकर हमने बंद किवाड़ पर दस्तक जो दी तो अंदर से आवाज आई–अभी आई!
तभी किसी के तेज कदमों की चाँप पर चौंक कर हम मुड़े तो क्या देखते हैं कि मिसेज मार्टिन बढ़ी आ रही हैं सामने।
“सुना तुमने? बड़ा गजब हो गया, गजब!”
“क्यों, बात क्या है, कहिए न?”
“वही लैंडस्लाइड–दो-चार हाथ नहीं, दो-चार फर्लांग! कितनों के सर बीत गए। मोटर भी खड्ड में जा गिरी…साथ-साथ दोनों ही…मरे या अभी क्या कहें…”
हमारे तो होश हवा हो गए! पहाड़ों में हम आते हैं वहाँ के हवा-पानी से जिंदगी पाने। क्या पता, उसी हवा-पानी से आसमान भी यों फट आता है बेतहाशा और सरक जाती है पाँव-तले की धरती भी कि कहीं पनाह नहीं! पल में कुछ, पल में कुछ!
मंजु का चेहरा उड़ गया। अब गिरी, तब गिरी। बस, आँखें खड़ी हैं सामने दीवार पर टँगी माँ काली की प्रतिमा पर। काश वह पाषाणी भी प्राणमयी हो पाती!
“तो आप जा कहाँ रही हैं इस तेजी से?”
“चलो, अस्पताल चलो। वहीं आ रहे हैं तुम्हारे नंदी भी। सुबह ही गोरे तिलंगों का एक काफिला जा चुका है उन्हें ढोकर लाने। देखो, क्या देखना है आज!”
आते-आते आ गए दोनों। सिपाहियों के कंधों पर आए। होश नहीं। लहू में लथपथ। आते ही ले गए अस्पताल में। मिसेज मार्टिन तो साथ-साथ अंदर गईं, देखती-सुनती रहीं, हाथ भी बँटाती गईं अपने ढंग से। दौड़कर अस्पताल से बड़े सर्जेंट को भी बुला लाईं। जाने क्या बात हुई, खड़े-खड़े वहीं कुछ लिख कर चपरासी को दौड़ा दिया तार-घर।
मंजु को तो साँप सूँघ गया जैसे। नाहक लाने गए उसे हम यहाँ। बस, खड़ी की खड़ी रही सर्जिकल वार्ड की पौर पर।
पल पर पल गुजर रहे हैं। क्या करें, क्या नहीं–इसी ससपंज में हैं हम। तभी अंदर से मिसेज मार्टिन अनमनी-सी निकल आईं कि अब उठो, चलो, यहाँ सर फोड़ना बेकार है। जो करना है, कर दिया गया। जो होना है, होगा।
दस कदम भी न गए होंगे कि मिसेज मार्टिन ने मुड़कर कहा–“अच्छा होता कि तार देकर उसके घर से किसी को बुला लेते–बड़ी टूट गई है मंजु…”
“तो आपने भी किसी को तार देकर…”
“नहीं-नहीं, हमने तो नैनीताल के बड़े सर्जेंट को तार दिया है। वह आ पाते तो कुछ उम्मीद बँधती। मेरे शौहर के सर से तो लहू की धार बनी की बनी है। क्या जाने…”
वह आगे बढ़ गईं। मंजु बैठ रही वहीं कुर्सी पर–हिलने को तैयार नहीं। समझाकर रह गए हम। आखिर उसे वहीं छोड़ चल पड़े तार-घर। उसके घर पर तार दे देना जरूरी ठहरा। उससे पूछना ही क्या, वह तो अपने आप में नहीं।
तार-घर से लौटते सामने क्लब की चहल-पहल पर नजर गई। देखा, वही रोजमर्रे का तमाशा है, वही जलवा। सब तो सब, मिसेज मार्टिन भी वहीं बैठ ताश खेल रही हैं! सामने मेज पर कॉकटेल का छलकता जाम भी है!
तभी देखा, अस्पताल की ओर से मंजु भी इधर ही बढ़ आई।
“तुम्हीं को ढूँढ़ने चली हैं। आज रात वहीं रहना, बच्चे जो अकेले ठहरे। हम तो यहाँ से हिलने से रहीं।”
“तुम भी अजीब हो। एक नजर इधर तो दो। वह…वह रहीं मिसेज मार्टिन।…जानती हो न, मार्टिन की चोट तो–कहीं संगीन ठहरी। और, एक तुम हो, क्या कहें हम, अपने ही से पूछो…”
मिसेज मार्टिन की नजर मंजु पर गई नहीं कि वह उठकर सामने आ गईं। हँस कर बोलीं–“लाओ, उसे भी दो घूँट पिला दें–She needs even a stronger tonic than Cocktail!”
“जी नहीं, उसका तो बस एक संबल है–वही वह, भला रघुवर की शरण न लेकर वह बोतल की शरण लेगी?”
“तुम नहीं मानते, न मानो। मगर वह बेखुदी तो बोतल की शरन में ही है। वही उसको उससे छुड़ा पाएगी इस पल!”
अब कोई क्या कहे? ऐसी छुच्छुम वह होती तो कभी की डुबो चुकी होती अपनी सारी लगी-लिपटी इसी प्याले के पनाले में!
मार्टिन की जान के उबार के लिए गोरे अफसरों ने अपनी ओर से कुछ उठा न रखा। मगर दो दिन तक लहू-पसीना एक कर भी मौत से मोरचा ले न पाए। उस दिन अस्पताल जाकर सुना कि पंछी उड़ गया–पिंजड़ा सूना पड़ा है। हाँ, नंदी अभी साँस लिए जा रहे हैं, न आँख खोल पाते हैं, न बोल पाते हैं। मंजु वहीं बैठी तलवे सहलाए जा रही है–क्या दिन, क्या रात।
आज पहली बार मिसेज मार्टिन की आँखों में नमी-सी नजर आई। आखिर तो नारी–गोरी, विलायती ही सही। उसका चेहरा ही गवाह है कि क्या गुजर रहा है उस नकाब की सजधज के अंदर। यह नहीं कि वह टूट कर गिर गई है। खड़ी है अपने पैरों पर, सब कुछ देख-सुन रही है, किए जा रही है अपना फर्ज भी।
दो-चार दिन तो कहीं जा न पाई वह। क्लब की चहल पहल में भी शामिल न हो सकी। होती भी कैसे?
हाँ, जो हुआ–हुआ, उसे लेकर अपनी सारी सुधबुध की तिलांजलि तो देने से रही वह–टूट कर गिरना तो दूर। रोते-कलपते तो किसी ने उसे देखा ही नहीं। बस, बाँह पर एक काली पट्टी बाँध रखी। छलक आते रह-रह कर आँखों में आँसू।
लीजिए, अँग्रेज अफसरों का ताँता लगा है उसकी पौर गर। कितने आ रहे हैं, जा रहे हैं। दो पल खड़े-खड़े अपनी संवेदना जता दी–फर्ज अदा हो गया!
किसी आंतरिकता का तो दस्तूर ही नहीं जैसे। यह बाहरी सफाई और पुताई तो कोई इनसे सीखे! विलायती हवा पानी की टकसाली शिष्टता तो अधिकतर जाहिरदारी ही ठहरी।
चौथे दिन नंदी भी चल बसे। रह गई मंजु प्रणतपाल के चरणों पर सर फोड़ती। यह तो कहिए कि दो दिन पहले ही दो सगे भाई आ गए, बूढ़ी सास भी–नहीं तो कैसे क्या होता राम जाने! जो हो, हमें तो लगा कि उसकी जिंदगी की दीप-शिखा ही बुझ गई जैसे। उसे तो पता तक न रहा कि कब किसने उसके हाथों की चूड़ियाँ तोड़ दीं, पैर से महावर, सर से सिंदूर धो डाला और कमर से रेशमी साड़ी खींच एक सादा-सा टुकड़ा बाँध दिया ज्यों-त्यों! गनीमत है कि गोद में दो बच्चे हैं। वह न होते तो शायद यह जिंदगी भी मौत हो जाती! दूसरे ही दिन उसे साथ ढोये चल दिए कलकत्ते।
मिसेज मार्टिन तो पाँच सात दिन के अंदर ही अपनी रोजमर्रे की जिंदगी के दर पर लौट आईं। विधवा और सधवा में कोई भेद तो रहा नहीं। वही खान-पान, वही साज-सिंगार, वही शाम का हँसी-खेल। वह बाँह का काला फीता भी कुछ ही दिनों में न जाने कहाँ उड़ गया!
कोई बीस दिन बाद। कल सुबह ही घर लौट रहे हैं हम। पहाड़ों की सैर हो चुकी। सोचा, जाने के पहले मिसेज मार्टिन से मिल लें–फिर वह कहाँ और हम कहाँ!
शाम होने पर आई है। आसमान हँस रहा है। हवा झूम रही है। क्या सुहावना समाँ है आज! बादलों का जत्था जाने कहाँ गुम हो गया है। आज तो जो है वह सामने के टीले पर खड़े होकर आँख उड़ेल पिए जा रहा है बर्फीली चोटियों के इर्द-गिर्द छलकता हुआ गोधूलि का गुलेनार जाम! देखा, मिसेज मार्टिन भी वहीं खड़ी इस रस-पान में विभोर हैं जैसे। आँखें चार होते ही हमारी ओर मुड़ कर एक अजब अदा से पूछ बैठीं–“कहो, कैसी लग रही हूँ आज मैं!”
हम तो दंग! यह क्या प्रश्न है–क्या रहस्य! कभी जो ऐसी गहरी छनती रही हो हम से! आज क्या है कि यों उबल पड़ीं वह? नहीं-नहीं, यह प्रश्न तो हमारी आँखों से नहीं, अपनी ही आँखों से होना चाहिए! पर, हमने हँस कर कहा–‘हमारी आँखों से पूछिए यह, जबान तो उसे अदा करने से रही!’ और, बात भी थी, आज तो वह सजधज, वह रंग-रौगन है कि देखा करे कोई!
शर्म से झुक गईं वह। लगा कि यह क्या पूछ बैठी, किससे–किस आवेश में…। मगर बंदूक की नाल से जो गोली निकल चुकी थी, वापस आने से रही वह।
हाँ, उनके चेहरे पर उमड़ी हुई प्रतिक्रिया की लहर तो हमारी आँखों से छिप न पाई।
“मगर आप यहाँ खड़ी-खड़ी देख क्या रही हैं बड़े चाव से?”
“वही, वह…वह देखो, क्या आन-बान है निराली! अब तो फिर देखने से रहीं हम! कहाँ मिलेगी हिमानी चोटियों पर ऐसी गोधूलि की मोहिनी!”
“तो आप भी जा रही हैं क्या?”
“और क्या? कई दिन रह गईं, यही बड़ी वैसी बात ठहरी। परसों नए इंजीनियर जो आ रहे हैं–मकान खाली कर देना ठहरा।”
“तो फिर लंदन जाने का प्रोग्राम है न?”
“देखो, कैसे क्या होता है! अभी तो नैनीताल होते हुए जा रहे हैं कलकत्ते।…अच्छा, आओ, तुम्हें अपने मित्र चेस्टर साहब से मिला दें ”
चेस्टर साहब वहीं ठहरे दो कदम पर। देखा, तीस-पैंतीस का सिन है। छरहरा बदन, होंठों पर मुस्कान, आँखों पर ऐनक।
टहल-टहल कर बातें होती रहीं। पता चला, मार्टिन साहब से बचपन से ही साथ रहा आपका। यहाँ भी दोनों साथ ही आए। वह इंजीनियर, यह फर्म-मैनेजर। कोई कहीं रहे, मेल-जोल बना का बना रहा। इधर फर्म के कुछ जरूरी काम से आप लंदन गये थे। पाँच दिन हुए, वापस आए। कल नैनीताल में मार्टिन की मौत की खबर पाकर दौड़ आए यहाँ बेतहाशा। मिसेज मार्टिन को साथ लिए ही लौट रहे हैं आप।
तो उस अप्रत्याशित प्रश्न का समाधान यह चेस्टर का शुभागमन है क्या!…
(3)
दिन जाते दिन नहीं लगते…हाँ, हँसी-खुशी के दिन। कब आए, कब गए–पता पाना आसान नहीं। मगर, एक दिन वह भी आता है कि काटे नहीं कटता और रात लगती है काट खाने–आँखों में ही कटने जैसे।
जो हो, इस दुनिया में कुछ ऐसे भी हैं सधे-बँधे, जो किसी टेढ़े दिन के फेर में आए भी तो क्या, उसी के होकर रहे नहीं और न ऐसे गिर गए कि फिर जी उठने से रहा।
कोई आठ महीने बाद की बात है। कलकत्ते आकर दोनों ही मिलीं–वही मंजु, वही मिसेज मार्टिन। मगर कहाँ वह, कहाँ यह! एक के रेशे-रेशे पर मुर्दनी छाई है निरंतर, दूसरी की पोर-पोर पर नई जिंदगी की लहर!
मिसेज मार्टिन तो अब मिसेज मार्टिन रहीं नहीं, मिसेज चेस्टर हैं आज! वही रोजमर्रे का राग-रंग है–वही ब्रिज और टेनिस, वही कॉकटेल। मार्टिन का बच्चा अब माँ के साथ नहीं, लंदन के किसी स्कूल में दाखिल है वह। बस, एक स्नेह का सरोकार जो हो, जितना।
रही मंजु। तो वह तो सर से पैर तक सुफैद हो रही है–सुफैद चेहरा वह लुनाई, वह गुलाबी नहीं–सुफैद साड़ी, सुफैद ब्लाउज़ और पैर में सुफैद चप्पल। बस, एक सर के बाल काले के काले हैं जरूर, पर यह चेहरे पर छाए हुए बादल क्या वही मेघ-कज्जल कुंतल-कलाप हैं कि ‘बाल खोले तो घटा लोट गई!’ वह रहा, रहा–न रहा, न रहा।
हाँ, अब शांत-स्थिर है वह, अपने को सहेज लिया है जैसे। हर साँस के साथ वह छाती की उसास नहीं। दोनों बच्चों की देख-रेख उसे बहलाए रहती है आठो पहर। पड़ोस की कन्या-पाठशाला में अध्यापिका क्या हुई, अपने पैरों पर खड़े होने की एक पौर पा गई। कुछ घंटे अपने को अपनी छाती की दबी हुई सिसकियों से अलग कर पाती है, यह भी गनीमत है।
मंजु से हम दो पल मिले भी। बात तो वैसी कुछ हो न पाई, पलकों से धरती कुरेदती रही वह। आँखों में आँसू लिए बोली–“आशीर्वाद दीजिए, बच्चे फूलें-फलें; हमें और चाहिए ही क्या!”
मंजु के देवर का विवाह है। उसे कलकत्ते के एक विलायती फर्म में अच्छी-सी जगह मिल गई है मिस्टर चेस्टर की ही सिफारिश से। फिर क्या, आसमान से सितारे उतार ले वह! बरस पड़े सर पर अच्छे-से-अच्छे संबंध के अर्घ्य। लीजिए, एक बड़े घर की सोने में पीली, सोने-सी पीली सुंदरी मिल गई–‘चट मँगनी, पट ब्याह!’
हम भी उस विवाह में शामिल ही रहे। मंजु तो घर में रहकर भी ब्याह के घर से बाहर ही रही निरंतर–ब्याह के एक-एक रस्म से दूर, उछाह की सारी हलचल से दूर। जब सर से सिंदूर धुल गया तो फिर इस जीवन-चमन का सुहाग ही लुट गया जैसे। थियेटर या सिनेमा तो मीलों दूर–घर की हँसी-खुशी में भी शामिल नहीं।
दो दिन बाद मिसेज चेस्टर से भेंट हुई तो वह एकाएक उबल पड़ीं–“क्यों जी, तुम तो मंजु से मिले होगे? वह यों ही आँसू ही बहाती रह जाएगी क्या? उसे भगवान की देन रूप, रंग सब कुछ है–जब चाहे, अपनी वह खोई हुई जिंदगी…”
“जी नहीं, वह जिंदगी तो वापस आने से रही। जो टूट गई, टूट गई।”
“यह अजीब बात है! पति से गई–जिंदगी से गई, जहान से गई? ऐसा? लो, हमको देखो, एक गया, गया; आ गया दूसरा! हमारा गया क्या?”
हम चुप रहे। दो पल ठहर कर बोले–“आप तो मार्टिन के रहते भी अपनी नाव पर पाल बदल पातीं। रास्ता ढूँढ़ लेना कोई मुश्किल नहीं, कोई प्रतिबंध नहीं। परिवार की गाँठ ही जो वैसी ढीली ठहरी!”
“तो बुरा क्या? हमारी लट कहीं दबी नहीं! अपनी खुशी खुशी ठहरी–है न? तुम्हारे यहाँ नारी बेचारी तो एक पर-कटी कबूतरी है जैसे–उड़ान लेना तो दूर, दरबे के दर के बाहर फुदक भी नहीं पाती! जानते हो, हमारे बच्चे की वह बूढ़ी आया क्या कहा करती रही बराबर?…”
“कहे जाइए!”
“यही कि मुझे परवाह नहीं, शौहर क्या है–कैसा, बेटा पढ़ा-लिखा या आवारा, बस, अपनी पंगत में राँड़ या बाँझ का नाम न हो–यही अपना सब कुछ ठहरा!”
“माफ कीजिर, आप जिस हवा-पानी में पल आईं, उसमें सब कुछ अपनी मौज है, अपना इंद्रिय-सुख। वह पहले, पति या पुत्र पीछे। हमारे यहाँ नारी के हिस्से सेवा और त्याग आया, उसी समर्पण में ही उसके जीवन का स्पंदन ठहरा!”
“ओ हो! बड़ा तीर मारा यों अपना सब कुछ लुटा कर!–By jove, what a calamity it is to be born a woman in this country!”
“आप नहीं मानतीं, न मानियए। पर, जब पचास के पड़ोस में जाकर इंद्रियों की सत्ता लगती है जवाब देने, तो फिर जिंदगी की डावाँडोल नैया…”
“छोड़ो भी! कल क्या होगा–इसे लेकर हम आज की मौज पर आँच आने दें, ऐसे सिरफिरे तो होने से रहे हम!”
Image: Mourner
Image Source: WikiArt
Artist: Nicolae Tonitza
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