माफ कीजिएगा!

माफ कीजिएगा!

[एम. एल. ए. फ्लैट का एक कमरा। दोनों तरफ दो पलंग बिछे हैं। एक कोने में एक मेज है और दूसरे कोने में एक ड्रेसिंग टेबुल। दो कुर्सियाँ भी पड़ी हैं। इस कमरे में आजकल श्री प्रकाशचंद्र खन्ना अपनी पत्नी किरन के साथ रहते है। वे दोनों टहलने गए हैं। उनका नौकर अन्तू पंखा चलाकर कमरे में बैठा ऊँघ रहा है। इसी समय एक आगंतुक आकर दरवाजा खटखटाता है। समय–संध्या।]

अन्तू(चौंककर) लो, फिर आ धमका कोई! मालकिन जबतक घर में रहती हैं, एक मिनट के लिए भी चैन नहीं मिलती। भोर से लेकर आधी रात तक खटते-खटते जान आफत में रहती है। आज भाग्य से पंखे की मीठी बयार के नीचे दो घड़ी झपकी लेने का मौका भी मिला तो जाने कौन कमबख्त आ टपका! (दरवाजे की ओर देखते हुए) तू खटखटाता रह, मैं खोलने का नहीं। (फिर ऊँघने का प्रयत्न करता है मगर दरवाजे का खटखाटाना और तीव्र होता जा रहा है। ऊबकर वह उठता है) अजी, अभी खोलता हूँ, जरा धीरज रखिए!

(दरवाजा खोल देता है)

(मोटर ड्राइवर के खाकी लिबास में लैश एक आगंतुक का प्रवेश)

आगंतुक–फ्लैट नंबर 450 यही है?

अन्तू–हाँ।

आगंतुक–साहब हैं?

अन्तू–जी, नहीं।

आगंतुक–जभी आएँ तो नाच के ये दो टिकट उन्हें दे देना। देखो, गड़बड़ न हो जाए।

(वह दरवाजा बंद कर चला जाता है। अन्तू मेज पर टिकट रख फिर ऊँघने लग जाता है। कुछ देर बाद मिस्टर और मिसेज खन्ना का प्रवेश)

मिसेज खन्ना–कहती न थी कि अन्तू किसी दिन हमें लुटाकर दम लेगा। दरवाजा खोलकर आप साहब पंखे की हवा में बेखबर सो रहे हैं।

(अन्तू की नींद टूट गई थी। वह धड़फड़ाकर उठ खड़ा हुआ और हक्का-बक्का सा खड़ा रहा।)

मिस्टर खन्ना–अजीब सिड़ी नौकर है! आखिर दरवाजा खोलकर सोने का तुझे क्या सूझा था! देखता नहीं, यह क्वार्टर नहीं शहर की मंडी है। तरह-तरह के लोग, रंग-बिरंगे पहराव-और रात-दिन रिक्शा का ताँता तो लगा ही रहता है। कमबख्त कहीं का!

अन्तू–अभी एक ड्राइवर नाच के दो टिकट दे गया है और उसी के लिए दरवाजा खोला था कि…

मिसेज खन्ना(प्रसन्न मुद्रा में) नाच के टिकट?…हैं!…जरा देखूँ तो…

(अन्तू उन्हें टिकट थमा देता है)

मिसेज खन्ना–टिकट (टिकट देखकर) ओ हो! उदयशंकर और अमला के नृत्य के फर्स्ट क्लास के टिकट! आज रात साढ़े आठ बजे–बसंती थिएटर में! ओ हो!

मिस्टर खन्ना–वाह, जरा देखें तो! क्या किस्मत पाई है मैंने!

मिसेज खन्ना–जी, आज इकबाल बुलंद है मेरा! बरसों से आरजू-मिन्नत करती रही कि जरा सिनेमा दिखा दो, मगर तुम्हारे पास तो कभी पैसे होंगे नहीं–तुम्हारे बिजनेस से तो कभी ‘डिप्रेसन’ जाएगा नहीं। जिंदगीभर इतना ‘पास’ मँगाते रहे कि अब कोई सिनेमा का मालिक तुम्हें ‘पास’ देने से रहा। चलो, आज मेरे भाग्य से राजेश ने दो टिकट तो भेज दिए। आखिर वह मेरा भाई जो ठहरा! शहर में उदयशंकर का नाच आए और वह मुझे न दिखाए? बड़ा तमीजदार लड़का है।

मिस्टर खन्ना–हाँ जी, तुम्हारा ही इकबाल सही! चलो, तुम्हारे ही चलते मेरा भी बेड़ा पार हो गया, नहीं तो जी ललचकर रह जाता! यह कमबख्त बिजनेस तो ठीक रास्ते पर आना ही नहीं। प्राणनाथ जी के फ्लैट में पड़े-पड़े एक साल होने को आया मगर कोई सिलसिला नहीं बँधा। भाग्य की रेखा कहो, भला इस मुफलिसी की हालत में मुझसे पचास रुपये वाले टिकट कहाँ से लिए जाते! राजेश, तुझे लाख-लाख शुक्रिया–लाख-लाख शुक्रिया!

मिसेज खन्ना–खैर, आज दो घड़ी के लिए भी मायूसी की बातें बंद करो। बड़े चले हो गड़े मुर्दे उखाड़ने! (मुस्कुराती हुई) उदयशंकर! अमला!! जुगुल-जोड़ी, सुंदर-अति सुंदर! (भावावेश की मुद्रा में) उदयशंकर का नृत्य देखे पूरे तेरह वर्ष बीत गए–तेरह वर्ष। उस समय मैं इलाहाबाद ‘क्रोसवेथ’ कॉलेज में पढ़ती थी। ‘लीडर’ में इश्तहार पढ़कर छात्राओं में एक उमंग हिलोरें लेने लगी थी। ऊँची कक्षाओं की बालिकाओं ने प्रिंसिपल से नृत्य देखने की इजाजत माँगी। पहले तो वह मुकर गईं, मगर आखिर ‘पॉपुलर डिमांड’ की अवहेलना वह कबतक करतीं? उधर इजाजत मिली और इधर हम ताँगे पर सवार! ‘लाउदर’ रोड पर एक्जीबिशन देखा, आगरे वाली चाट की दुकान पर चाट और पकौड़ियाँ उड़ाईं और फिर रिजेंट सिनेमा के लिए रवाना हो गईं। कुछ देर तो हो ही गई थी, हॉल में प्रवेश करते ही सिमकी स्टेज पर उतर आई थी। विदेशी नर्तकी की भाव-भंगिमा में भारतीय मुद्राओं की अभिव्यक्ति! एक कौतूहल, एक अचरज-सा जान पड़ता था और सिमकी की आँख के कोए में तैरती हुई वे पुतलियाँ आज भी मुझे नहीं भूलतीं। उदयशंकर का तांडवनृत्य तो कमाल का था। शंकर का वह डमरू प्रलय का आवाहन कर रहा था। उदयशंकर जैसे कोमल व्यक्तित्ववाले पुरुष की आँखों में प्रलय की चिनगारियाँ देखकर विस्मय होने लगता था, परंतु अमला को पार्वती के रूप में देखकर उस समय ही मुझे शंका हुई कि क्या सांसारिक जीवन में भी वे शिव-पार्वती ही सरीखे हैं? अमला उस समय बालिका थी–शांत और सुंदर। चंचलता तो उसे छू न पाई थी। उसके नृत्य को देखकर हम चकित हो गई थीं। वह शीघ्र ही हमारे सपनों में चुपके से आने लगी। हम बालिकाओं की गप्प का विषय बन गई। ‘कॉमन रूम’ और ‘मेस’ में बराबर उसी की चर्चा रहती और हाँ, जब वह सचमुच पार्वती बन गई तो मुझे तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ। रंगमंच और लोकमंच में कोई भेद न रहा! आज वह मिसेज उदयशंकर है और माँ भी। चलो, जरा देखें आज वह कैसा नाचती है!

मिस्टर खन्ना–अमला की सुंदरता का बखान तो बहुत सुना मैंने। जरा यह भी तो बताओ कि उदयशंकर का खेल ‘मार्च ऑफ टाइम’ तुम्हें कैसा लगा था?

मिसेज खन्ना–हाँ-हाँ, मुझे खूब याद है, बड़ी मौजूँ चीज थी वह।

मिस्टर खन्ना–मजदूरों की चित्कार, किसानों की बेबसी, अँग्रेजों द्वारा हमारी दस्तकारी का नष्ट किया जाना, इत्यादि अनेक चित्र आज भी मानस-पटल पर ताजे के ताजे हैं। इस नृत्य-नाटक की खूब चर्चा रही उन दिनों।

(इन बातों के सिलसिले में मिस्टर खन्ना अपनी सिगरेट से धुएँ की लड़ी बनाते रहे।)

मिसेज खन्ना–खैर, जरा राजेश को फोन पर धन्यवाद तो दे दें।

मिस्टर खन्ना–हाँ-हाँ, यह तो भूल ही गया था।

मिसेज खन्ना–और हाँ, जरा यह भी पूछ लेना कि हम कहाँ मिलेंगे–थिएटर में या वह खुद ही हमें मोटर लेकर लेने आएगा?

मिस्टर खन्ना–हाँ, मैं नंबर तो भूल ही गया।

मिसेज खन्ना–अजी, वही 4951।

(मिस्टर खन्ना फोन लगाते हैं और बातें करते हैं)

मिस्टर खन्ना–हैलो, हैलो! आप कौन हैं?–ड्राइवर?…ओ!…हाँ, मुझे टिकट मिल गए हैं। साहब को सलाम बोलो और पूछो कि कहाँ भेंट होगी–थिएटर में या वे खुद यहाँ आएँगे?…व्हाट!…क्या गलत बोलते हो…हैं, क्या साहब को अभी स्टेशन छोड़कर आते हो…कहाँ गए…शाम की ट्रेन से कलकत्ता–अजीब मुसीबत है!

(फोन पटककर रख देता है। मिसेज खन्ना आश्चर्यचकित हो फोन के नजदीक खड़ी हैं। कुछ क्षण विचलित रहती हैं। फिर मुस्कुराती झम-से पलंग पर बैठ जाती है। मिस्टर खन्ना घबराते हुए मुड़ते हैं।)

मिस्टर खन्ना–लो, वह तो यहाँ है ही नहीं! आज शाम ही को कलकत्ता चला गया। अब क्या होगा? और तुम! मुस्कुरा रही हो–आखिर बात क्या है?

मिसेज खन्ना–कुछ तो नहीं, भूल मेरी है। राजेश तो मुझसे पहले ही कह गया था कि आज वह कलकत्ता चला जाएगा। अजी, टिकट रमेश ने भिजवाये हैं–मेरे फूफा के मामा का पोता। उस दिन जब आया तो सारा दिन उदयशंकर की ही बातें करता रहा और शाम को जब जाने लगा तो आज की रात अपने साथ डांस देखने चलने को मुझसे वादा भी लेता गया। अजी, उदयशंकर के नाच का यह मजनूँ–रमेश ही है–रमेश! उसे खुद भी तो नाच से शौक है! तीन साल तक शांति-निकेतन में रहा और कुछ दिनों तक उदयशंकर के अलमोड़ा वाले नृत्य-स्कूल में भी। उस स्कूल से छुट्टी पाते ही उदयशंकर ‘कल्पना’ की शूटिंग में निकल गए। ओह, कल्पना! सचमुच कल्पना थी। इंद्रपुरी की कल्पना को मृत्युलोक में साकार करना था जैसे। परियों के देश के नयनाभिराम दृश्य स्क्रीन पर देखकर मैं तो मुग्ध हो गई थी। फिल्म तो आजतक हजारों देख चुकी मगर कोई भी फिल्म ‘कल्पना’ की कला की ऊँचाई तक नहीं पहुँच पाई। कुछ ही क्षणों में ‘कल्पना’ एक रूमानी समाँ खड़ा कर देती है और दर्शक इस संसार से दूर किसी कल्पना-लोक में अपने को पाता है।

मिस्टर खन्ना–ओह, कितना ग्रैंड पिक्चर था वह!–सिम्प्ली ऐड-मिरे-बिल। तरह-तरह के नृत्य, एक-से-एक पोशाक और रूमानी खयालात! बस, पिक्चर क्या था, सचमुच कल्पना था, कल्पना!!

मिसेज खन्ना(घड़ी की ओर देखकर) देखो, समय बहुत कम है और तुम्हें नहाना भी है। जरा रमेश से कह दो कि हमें भी ले लेगा नहीं तो पहला दृश्य मिस कर जाएँगे।

मिस्टर खन्ना–हाँ-हाँ, तुम्हीं जरा फोन लगाओ न!

मिसेज खन्ना–नहीं-नहीं, मुझे वह तीन-तीन बार खेल दिखा चुका है और मैं उसे एक बार भी न दिखा सकी। मुझे कैसा तो लग रहा है। तुम्हीं फोन कर दो।

मिस्टर खन्ना–दुत! इसमें बात क्या है? लगाओ फोन!

(मिसेज खन्ना फोन लगाती हैं। गलत नंबर लगता है और वह झल्लाकर चिल्लाती हैं–व्हाट!…कोयले की दुकान…सवा रुपये मन कोयला–ब्लैक में दो रुपये मन!…धत! आखिर मैं किससे कनेक्ट हो गई!…अजी साहब, फोन रख दीजिए, गलत नंबर लगा है, मैं कहती हूँ, रख दीजिए। यह 4451 नहीं है, यह है 4461 समझे? (झल्लाकर फोन रख देती है। फिर दूसरा नंबर माँगती है) रमेश बाबू हैं क्या?…क्या, शो के बाद मिलना? कहाँ, पार्क में?…अजी साहब, आप किससे बातें कर रहे हैं?…प्रेमकुमारी से?…मैं किरण हूँ–किरण! नंबर गलत लगा है–फोन काटिए–अपनी प्रेमिका से किसी दूसरे नंबर में बात कीजिए!)

(झल्लाकर फिर फोन रख देती हैं।)

अजीब मजाक है! एक्सचेंज की छोकरियाँ पागल हो गई हैं–पागल। जरा भी जवाबदेही नहीं समझतीं। घंटों टुन-टुन करने पर कनेक्शन मिलता है और वह भी गलत!

(फिर फोन लगाती हैं।)

हैलो, हैलो! नो रिप्लाई? धत!…प्लीज ट्राई एगेन…फोन खराब है? रिसीवर रख दूँ? अब लो, रमेश का फोन खराब है। अजीब मुसीबत है। खैर, तुम जल्दी तैयार हो जाओ, समय कम है। रमेश मोटर पर आता ही होगा। कोई फिकर नहीं। वह जरूर आता होगा। उठो-उठो!…

(मिस्टर खन्ना तौलिया लेकर बाथरूम की तरफ लपकते हैं। मिसेज खन्ना ड्रेसिंग टेबुल के सामने बैठकर बाल की लटों को ठीक करती हैं और चेहरे पर पाउडर और क्रीम की एक और पॉलिश देती हैं। फिर कुर्सी पर बैठकर टिकटों को निहारती हुई धीमे स्वर में छेड़ बैठती हैं–‘चाँद से प्रीत लगाए पंछी बावरा!’ गाने के बाद टिकट सहेजकर अपने हैंडबैग में रख देती हैं और घड़ी की ओर देखकर चिल्ला पड़ती हैं–)

मिसेज खन्ना–टू लेट! टू लेट! हजरत ने कमाल कर दिया! बाथरूम में घुसे तो घुसे ही रह गए! धन्य हैं!

(दरवाजा पीटती हैं)

मिसेज खन्ना(भीतर से) बस, एक मिनट–एक मिनट। कमीज पहन रहा हूँ। आया, अभी आया।

(मिसेज खन्ना तमककर पलंग पर बैठ जाती हैं। बार-बार अखबार देखती हैं, फिर अपने को आईने में निहारती हैं और लटों को सहलाती हुई घड़ी की ओर देखती हैं। इसी बीच हॉर्न की आवाज सुनाई पड़ती है। वह चौंक पड़ती हैं)

यह लो, रमेश मोटर लेकर आ धमका और हजरत बाथरूम से निकलने का नाम ही नहीं लेते!

(दरवाजा पीटती हैं)

(‘आया भई, आया’ चिल्लाते हुए मिस्टर खन्ना कमरे में चले आते हैं। सर के बाल भींगे हैं और कंधे पर तौलिया है। उन्हें देखते ही मिसेज खन्ना फुफकार उठती हैं–)

मिसेज खन्ना–लो, रमेश हॉर्न बजा रहा है और तुम अभी तैयार भी न हुए।

मिस्टर खन्ना–बस, तैयार हूँ।

(लपककर कंघी उठाते हैं और एक बार कंघी फेरते हैं कि हॉर्न की आवाज के साथ-ही-साथ दरवाजा खटखटाने की भी आवाज सुनाई पड़ती है। ‘अभी आई रमेश!’ चिल्लाती हुई मिसेज खन्ना हाथ में हैंडबैग लटकाए दरवाजा खोल देती हैं। मिस्टर खन्ना भी दरवाजे की ओर मुड़कर देखते हैं। ड्राइवर सलाम करता है और उसके बोलने के पहले ही मिसेज खन्ना बोल उठती हैं–)

मिसेज खन्ना–ओ, ड्राइवर! रमेश बाबू से कहो कि हम अभी आए। साहब कपड़े पहन चुके हैं। (मुड़कर) जल्दी करो, जल्दी करो!

(ड्राइवर खामोश रहता है, फिर बड़ी आजिजी से बोलता है–)

ड्राइवर–श्री प्राणनाथ एम. एल. ए. का यही फ्लैट है न?

मिसेज खन्ना–हाँ।

ड्राइवर–वे तो यहाँ रहते नहीं।…मैं गलती से उनके लिए दो टिकट छोड़ गया था। शहर के मशहूर बिजनेसमैन श्री बिसारिया जी के यहाँ से आज उनका निमंत्रण था। मैं समझ बैठा था कि वे यहीं रहते हैं। खैर, माफ कीजिएगा…कृपया टिकट लौटा दें। समय कम है। बिसारिया साहब मोटर में बैठे हैं और साथ में प्राणनाथ भी हैं।

(मिसेज खन्ना जड़वत हो गईं बालों में कंघी अटकाए खन्ना साहब आँखें फाड़-फाड़कर ड्राइवर को देख रहे हैं। अन्तू भी होंठ बिचकाकर अपनी मालकिन की ओर निहार रहा है। मिसेज खन्ना बड़ी मुश्किल से हैंडबैग से दोनों टिकट निकालकर ड्राइवर के हवाले कर सकीं। ड्राइवर सलाम कर दरवाजा बंद करता चल दिया। तीनों एक अजीब परिस्थिति और मुद्रा में खड़े हैं।)

[पटाक्षेप]

उदय राज सिंह द्वारा भी