धरती का धूसर रंग
- 1 April, 1964
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- 1 April, 1964
धरती का धूसर रंग
आज की अनमनी-सी साँझ,
हवा यों नहीं थी
पर दिन भर की उड़ी धूलों से
आच्छन्न वायुमंडल था ।
दिशाएँ जैसे सुस्त थीं–थकी सी
चुपचाप–जैसे जहाँ की तहाँ ही खड़ी हों ।
डूबते सूरज की लाली मटमैली-सी
अजीब जैसी लग रही थी
सूने से मन की चिंताएँ जब उभरीं तो–
–छा गईं अनायास समूचे मस्तिष्क पर
जैसे किसी सोम-रस पायी के माथे में
नशे की उर्मियाँ घटा की तरह
घिर घिर कर घूमती हो ।
शाम बीती–
अंधकार छा गया चुप चाप चारो ओर
तारों से सारा नभ देखते ही देखते
खचाखच भर गया ।
लगने लगा जैसे रातरानी की काली साड़ी पर
जान कर किसी ने चमचमी-बेल-बूटे लगाए हों–
फिर भी धरती का धूसर रंग
जैसे का तैसा बना रहा, चढ़ा रहा ।
काले पर कहते हैं रंग कोई और नहीं चढ़ता है
लेकिन है सच यह कि
धरती की सोंधी धूल कहाँ नहीं चढ़ती ।
Image: Girl in Yellow Sweater
Image Source: WikiArt
Artist: Prudence Heward
Image in Public Domain