कृष्णा और लारी
- 5 November, 1981
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- 5 November, 1981
कृष्णा और लारी
उस दिन राधा बाबू से पटना मार्केट में अचानक भेंट हो गई। प्रणाम-पाती के बाद उन्होंने बड़े तपाक से पूछा–“कहिए, जनार्दन बाबू, कैसे हैं? एक युग के बाद आज आपसे भेंट हो रही है। बीवी-बाल-बच्चे सब ठीक हैं न?”
“आपकी दुआ से सब ठीक ही हैं–इस घोर महँगाई के युग में जो समय चाहे जैसे भी कट जाए–ठीक ही कहा जाएगा…मगर हाँ, यह आपको क्या हो गया है?”
“क्यों!”
“वाह! क्या आपने अपना चेहरा इधर आईना में नहीं देखा है? कनपट्टी के सभी बाल पक गए, आँखें धँस गई हैं, बरौनी तथा मूँछों के भी बाल पक चले हैं–आखिर अपनी क्या दशा बना रखी है आपने!”
राधा बाबू एक विषाद की हँसी बिखेरकर चुप हो गए–मानो कुछ छिपा रहे हों। मैं भी चुप हो गया। आगे टोकने की हिम्मत न हुई। हम साथ-साथ घूमने लगे। मुझे जूता खरीदना है। एक दुकान पर जूता पसंद कर नपवाने लगा–राधा बाबू बगल में अन्यमनस्क-से बैठे रहे। मैं झट अपनी खरीदारी खत्म कर ऊन की दुकान की ओर बढ़ा चूँकि पत्नी वहाँ ऊन खरीद रही हैं। राधा बाबू अपने में डूबे हुए वहीं बैठे रहे। मैंने उन्हें उठाया तो वह धड़फड़ाकर उठे और मेरे पीछे हो लिए। ऊन की दुकान पर देखा कि पत्नी अभी उसी में उलझी हुई हैं। हम दोनों वहीं बैठ गए।
मैंने छेड़ा–“आखिर बात क्या है? आपकी परेशानियों का मैं भी भागीदार होना चाहता हूँ।” इतना बोलते ही उनकी आँखों में आँसू छलक आए। उन्हें पोंछते हुए उन्होंने कहा–“क्या बताऊँ साहब, कृष्णा की शादी को लेकर बेहद परेशान हूँ। रुपये-पैसे के सभी इंतजाम हो गए हैं, तिलक-दहेज के सारे सरंजाम भी घर में मौजूद हैं मगर उसका भाग्य ऐसा कि कहीं कुछ हो ही नहीं पाता। कभी लड़के में कोई कमी निकल आती तो कभी परिवार में। हाँ, पाँचों उँगलियाँ तो कभी बराबर होतीं नहीं मगर मैं तो कुछ भी नहीं चाहता–सिर्फ लड़का कमासुत तथा लोगबाग अच्छे।”
“तो फिर?”
“फिर क्या! अब तो यही चाहता हूँ कि कोई भी दोपाया मिल जाए और मैं उसे वहीं बाँधकर छुट्टी पा लूँ। थका हुआ मुसाफिर और क्या चाहे–बस एक ठौर!”
“नहीं, नहीं, आप इतना दिल छोटा न करें। भगवान पर भरोसा रखें। एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास!”
“हाँ, उसी विश्वास पर तो जी रहा हूँ–नहीं तो कब का गुजर गया होता।”
और सचमुच वही विश्वास उन्हें एक दिन फल दे गया। एक दिन कृष्णा की शादी एक अच्छे लड़के से हो गई–मेकैनिकल इंजीनियर; उसके माता-पिता तो जीवित नहीं हैं मगर कई एक भाई हैं–आपस में बड़ा प्रेम-भाव है और सभी अच्छे खाते-कमाते हैं। राधा बाबू का निमंत्रण-पत्र मुझे मिला तो मैं खुशी से नाच उठा। उन्हें झट बधाई का तार भेजा। उन्हें पत्र भी लिखा कि अगाध विश्वास का फल बड़ा मीठा होता है। उनके उत्तर से झलका कि वह बहुत ही प्रसन्न हैं और अपनी आखिरी जिम्मेवारी खुशी-खुशी निभाकर वह अब काशीवास करने का विचार कर रहे हैं। भगवान विश्वनाथ की नगरी ही अंत में उनकी मुक्ति का द्वार खोलेगी।
एक दिन हरिद्वार में हरि की पैरी पर टहलते हुए कृष्णा और उसके पतिदेव से अचानक भेंट हो गई। मैंने झट पूछा–“अरे बेटी! यहाँ तुम कहाँ?”
“और आप कैसे आए?”
“मैं तो अब बूढ़ा हुआ–सोचा, कुछ दिन परमार्थ-निकेतन तथा गीता-भवन में रहकर जीवन के कलुष को धोने का प्रयास करूँ। इसी मकसद से यहाँ एक माह से रह रहा हूँ। अब तो घर लौटूँगा। जाड़ा बढ़ रहा है।”
“चाचा जी, ये हमारे पतिदेव हैं। हम दोनों पूजा की छुट्टियाँ बिताने मसूरी गए रहे। सोचा, लौटती हरिद्वार भी हो लें। राग और विराग, श्रेय और प्रेय दोनों की झाँकी मिल जाए।”
“आखिर तुम भी क्या बकती हो बेटी! विराग की दुनिया देखने को अभी तुम्हारी उम्र नहीं–यह तो मेरे जैसे…खैर, राधा बाबू कुशल से तो हैं? तुम्हारे पतिदेव से मिलकर तो बड़ी खुशी हुई।”
“जी हाँ, बाबूजी बड़े प्रसन्न हैं। अब तो काशी में ही रहते हैं। पटना का घर तो बंद पड़ा है। माँ भी उन्हीं के साथ रहती हैं। भाई सब अपनी नौकरी पर और बहनें अपने-अपने घर।”
“बेटी, राधा बाबू बड़े भाग्यशाली हैं। यह शांति सबको मयस्सर नहीं।”
प्रणाम-पाती के बाद वे मछलियों को फरही खिलाने लगे और मैं भगवान के मंदिर की ओर मुड़ा। शंख-ध्वनि हो रही है। आरती का समय हो गया है।
समय को पर होते हैं और इसी रात-दिन की हेराफेरी में हर कोई का भाग्य बनता-बिगड़ता रहता है। एक साल बाद राधा बाबू का पत्र मिला तो मेरे पैर तले से मिट्टी सरक गई। उन्होंने लिखा–“मेरी परेशानियों का कोई अंत नहीं। काशी छोड़कर फिर पटने आ गया हूँ। कृष्णा का पति इस साल पूजा की छुट्टियों में ससुराल आया था–मेरे सभी बच्चे-बच्चियाँ भी आए थे–एक पूरा परिवार-मिलन था। एक रात अचानक उसे दिल का भीषण दौरा आया। वह अभी भी अस्पताल में रोग-शय्या पर पड़ा है। कृष्णा वहीं रात-दिन एक किए है, उसके बच्चों को मेरी पत्नी सँभाल रही है और मेरा एक पैर घर पर रहता है–एक अस्पताल में।” मैं अशांत हो उठा। सोचा, एक गाड़ी से पटने जाकर उसे देख आऊँ। एक दिन मैं दिनभर के लिए आरा से शटल द्वारा पटना आया भी। अस्पताल भी गया और राधा बाबू के घर पर भी। मगर उनके दामाद की हालत देखकर पटना में टिकने का जी न चाहा। डॉक्टरों ने जवाब दे दिया है। सभी दिन गिन रहे हैं। विदेश जाएँ तो जान बच सकती है मगर यहाँ दूसरा कोई निदान नहीं। एक मध्यवर्गीय परिवार के पास विदेश जाने को भला पैसे कहाँ! बस, एकमात्र आसमानी सहारा का भरोसा है। मंत्रजाप चल रहा है।
घर लौटने पर–एक दिन पता चला कि कृष्णा के पतिदेव अब इस असार संसार में नहीं रहे। भला अब किन शब्दों में राधा बाबू को सांत्वना का पत्र भेजूँ! एक तार भेजकर चुप रह जाना ही बेहतर समझा। समय ही सब घावों को भर देता है। बेटी को ज्यादा कष्ट न हो इसलिए आर्यसमाज-पद्धति से चार दिनों में ही राधा बाबू ने सभी श्राद्ध-कार्यक्रम समाप्त कर दिए। मैंने भी उस दिन उनके घर जाकर प्रसाद ग्रहण किया मगर किसी से कुछ बातें नहीं कीं। सभी जड़वत रहे–मैं भी चुप रहा। कई एक लोग स्टेशन लौट रहे हैं–मैं भी उन्हीं लोगों के साथ लौट आया।
समय के चित्रपट पर एक-से-एक दृश्य देखने को मिलते हैं। एक दिन मैं रामायण बाँच रहा हूँ कि देखा सामने शुभ्रवसना एक हड्डी की ठठरी सदृश कृष्णा आकर खड़ी हो गई है। मैं अवाक हूँ। वाणी मूक हो गई तो उसी ने कहा–“कल मेरे पतिदेव का वार्षिक श्राद्ध है–उसी के लिए न्योता देने आई हूँ। चाची कहाँ हैं–उनके साथ अवश्य पधारने की कृपा करेंगे।”
मैंने आँसू छिपाते हुए पूछा–“बेटी! यहाँ तू कहाँ?”
“मैं आजकल आपके ही आरा शहर में एक शिक्षिका के पद को सँभाल रही हूँ। दो माह से यहीं हूँ। बाबू जी-माँ भी हैं।”
“मुझे किसी ने कोई खबर न की।”
“खबर कौन देता है?–बाबूजी अब कहीं निकलते ही नहीं। दिनभर गुमसुम पड़े रहते हैं और मुझे नई नौकरी से ही फुर्सत नहीं। हॉस्टल के क्वाटर में ही रहती हूँ–हॉस्टल का भी भार सँभालना पड़ता है।”
अंदर अपनी चाची से दो बातें कर वह झट भाग गई–स्कूल का समय जो हो रहा है! मैं दूसरे दिन उनके यहाँ गया। राधा बाबू बड़े प्रेम से मिले। कृष्णा ने भी सभी आमंत्रित सज्जनों को बड़े प्रेम से खिलाया। उसने बड़ी तैयारी की है। पूड़ी, मिठाई, दहीबड़े, बुनिया–सभी बने हैं। लौटते समय मैंने पत्नी से रिक्शे में कहा–“राधा बाबू यह सब क्यों करवा रहे हैं?” जानेवाला तो चला गया–अब तो वह आएगा नहीं–फिर उसकी याद में हर साल किस्सातूल करने की क्या आवश्यकता? अब तो खैर इसी में है कि कृष्णा अपना दुःख जहाँ तक शीघ्र ही भूल जाए और राधा बाबू उसकी दूसरी शादी रचाकर छुट्टी पा जाएँ। अब तो ऐसा सब जगह हो रहा है। मनुष्य को व्यावहारिक होना चाहिए। उनका एक पैर कब्र में है–भला उनसे यह भार कबतक निभेगा? पत्नी चुप हैं। यह बेवक्त की शहनाई उन्हें अच्छी नहीं लग रही है।
… … …
मेरी बेटी अमेरिका में रहती है। दामाद वहाँ अच्छा पैसा कमा रहे हैं। इंजीनियर हैं। दोनों का बड़ा इसरार है कि बेटी को बच्चा होने के पहले उसके माँ-बाप वहाँ अवश्य पहुँच जाएँ। मेरी पत्नी यह आस जाने कितने सालों से लगाए हुई हैं। संतान का प्रेम ही ऐसा होता है कि मैं इस प्रस्ताव को टाल न सका। फिर इसी बहाने अमेरिका घूम आने को मन भी ललक रहा है। आखिर हम दोनों एक दिन अमेरिका पहुँच ही गए। बेटी पश्चिमी तट पर सैन फ्रांसिसको शहर के समीप कुपरटीनो नगर में रहती है। न्यूयार्क घूम-घामकर हम कुपरटीनो सकुशल पहुँच गए।
नई दुनिया–नए लोगबाग को देखकर एक नया अनुभव, नई अनुभूति हुई। बेटी-दामाद ने हमें पश्चिमी तट पर खूब घुमाया भी। एक दिन उनकी मित्र श्रीमती लारी हमसे मिलने आई। लारी अपने शरीर को बड़ा सुंदर बनाकर रखती है। एक औंस भी वजन उसका न बढ़े इसलिए वह सिर्फ चिकन-रोस्ट तथा हरी सब्जी ही खाती है। मीठा पुडिंग एकदम नहीं खाती। उसकी खातिर ऐसा ही खाना बेटी ने बनाया। लारी अमेरिका के एक प्रसिद्ध व्यवसाय संस्थान में काम करती है। हमें उससे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई। बहुत ही खुशदिल इनसान है वह। हाल ही में उसे एक पुत्र हुआ है–प्रथम पुष्प। बातों के सिलसिले में पत्नी ने उससे पूछा–“अमेरिका में तो सभी परिवार-नियोजन में बहुत विश्वास करते हैं। तुम्हारे प्लान क्या हैं?”
“एक बच्चा और तो अवश्य होगा मगर आगे के लिए मैं बड़े असमंजस में हूँ। कुछ ठीक-ठीक निर्णय नहीं ले पाती। जीवन यहाँ इतना गतिशील है कि कहीं मेरे पतिदेव को कुछ हो गया और मुझे दूसरी शादी करनी पड़ी–तो मेरा दूसरा पति मुझसे अपना बच्चा भी चाहेगा। इसलिए कोई ऑपरेशन करना तो उचित न होगा। फिर यहाँ डिवोर्स भी बहुत प्रचलित है। उस हालत में भी कुछ करा लेना ठीक न होगा।”
मैं अपने कौतूहल को दबाने की चेष्टा कर रहा हूँ। पत्नी भी कुछ इसी तरह का प्रयास कर रही हैं। फिर मैं खाने की मेज पर पूछ बैठता हूँ–“हम दोनों तो भारत से–बेटी को बच्चा होनेवाला है इसलिए दौड़े चले आए–आपको जब हाल ही में बच्चा हुआ तो माँ-बाप आए कि नहीं?”
लारी ने तपाक से उत्तर दिया–“पिता को मरे छह माह हो गए और मेरी माँ शिकागो में नौकरी करती है। अच्छा वेतन मिलता है। उसे छुट्टी ही नहीं मिली। फिर वह दूसरा विवाह भी करने का सोच रही है; अभी तो वह सिर्फ 56 साल की ही है। उसकी सारी जिंदगी पड़ी हुई है। इसलिए शीघ्र ही वह शादी भी कर लेगी। इन्हीं सब झंझटों से वह शायद नहीं आ सकी। मगर मुझे कोई परेशानी नहीं हुई। यहाँ तो अस्पताल में बच्चा होता है और पतिदेव को अस्पताल वाले बाकायदा संध्या क्लास चलाकर बच्चा जनने की सारी ट्रेनिंग पहले ही दे देते हैं। भला यहाँ दूसरा कौन मिलेगा जो जच्चा-बच्चा की देखभाल करे! फिर तो बेबी-सिटर मिल ही जाती है।”
लारी काफी देर तक हमारी बेटी के यहाँ रही। बहुत सारे विषयों पर उससे बातें होती रहीं। बीच-बीच में जाने क्यों आज मुझे कृष्णा की बहुत याद आती रही।
आकाशवाणी के सौजन्य से