सूर्यबाला: बर्फ पिघलाती हुई आत्मीयता की आँच

सूर्यबाला: बर्फ पिघलाती हुई आत्मीयता की आँच

प्रसिद्ध लेखिका सूर्यबाला की सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘अलविदा अन्ना’ उनके अमेरिका प्रवास से जुड़े अनुभवों और अनुभूतियों का सुंदर आख्यान है। अंतर-बाहर की इस यात्रा के दौरान, हर छोटी-बड़ी चीजों को जाँचने-परखने की लेखिका की सजग दृष्टि और उतने ही जीवंत चित्रण से, पाठक अनायास ही इस यात्रा से जुड़ जाता है। ‘अलविदा अन्ना’ के माध्यम से लेखिका ने समय और भौगोलिक सीमाओं से परे, अलग-अलग भाव-विश्वों की एक अत्यंत दुरुह, अनिश्चित मगर निर्णायक यात्रा का दस्तावेज प्रस्तुत किया है। ‘पहले यह मात्र ‘विदेश’ था, अब ‘घर’ है बेटे का’ की स्वीकारोक्ति के बावजूद बार-बार लगता है कि कहीं कुछ बेगानापन, अलगाव सा है। ‘जन-संकुल’ के निर्जन में अनु आया नहीं छूट सा गया है। समृद्ध शहर की थकी हाफती संपन्न एकरसता लेखिका के मन में अवसाद भरती है। नर्म नाजुक रूई के फाहे की तरह गिरती हुई बर्फ, तह दर तह जम कर जब इतनी सख्त हो जाती है कि उसके बीच रास्ता बनाना भी मुश्किल हो जात है–जब हमारे भीतर और बाहर फैलती हुई बर्फ की पर्तों की अपनी लेखनी की आँच से पिघलाती हुई लेखिका, उनमें अमलतास और गुलमोहर के रंग बिखेरना चाहती है। बोस्टन में चारों ओर जमी बर्फ के बीच वे सूर्य और ऊष्मा का आह्वान करती है।

संग्रह की मुख्य रचना ‘अलविदा अन्ना’ लेखिका का लेखन कौशल मात्र नहीं है, वरन नए प्रयोगों-युक्तियों, समझौतों-संकल्पों और आत्मीयता के जिद्दी दुस्साहसी प्रयासों द्वारा अपनो के बीच की दूरिया पाटने का अनोखा अंदाज है। दरअसल अन्ना यानी अनिंदिता के साथ ‘पहली मुठभेड़’ में ही उसकी दादी यानी लेखिका को यह अहसास हो जाता है कि कहानी स्क्रिप्ट से बाहर की है। सात समुंदर पार आकर अपनी पोती से मिलने, उसे दुलारने का उत्साह, उतावली और एक आत्मीय खुशी, बहुत जल्दी अन्ना के ठंडे, रुखे, बेगाने से प्रतिवाद को पाकर जम जाती है। उधेड़बुनों के बस हुजूम में उमड़ते है कितने ही प्रश्न और चुनौतियाँ और उससे भी अधिक आहत कर देने वाला था, अपने अनावश्यक अनुपयोगी होने का अहसास। सभ्रांत, सुशिक्षित, मर्यादासंपन्न परिवारों में मिलते दादा-दादी के ओहदे का गौरव, बुजुर्गीयत के सम्मान, शिष्टता सभ्यता के तमाम प्रतिमानों की धज्जियाँ उड़ाता ‘हे गाइज’ का अपमानजनक संबोधन भारतीय आत्मा को आकाश से पाताल पर गिराने के लिए पर्याप्त था। ‘आस-हुलास के साथ मुरादों भरी पोटलियाँ बाँध कर आए वे लोग मोहभंग और खारिज होने के बाद स्तब्ध रह गए थे’। वर्षों का ज्ञान और अनुभव, उस पाँच वर्षीया बालिका के तर्कों के आगे बौना साबित हो रहा था। उन्हें पूर्णतः उपेक्षित अवहेलित करती अन्ना घर में किसी ‘हैली’ अथवा ‘एन’ के आने पर सहज महसूस करती थी। उस पर त्रासदी यह कि दो-चार दिन नहीं, पूरे चार महीने उन्हें अन्ना के उद्दंड और तानाशाही अधिपत्य में जीने थे। लेखिका के शब्दों में कहें तो ‘बर्फीली सतह की इस छोटी-सी मगरी से बैर कर हम कहाँ जाएँगे?’

अपनी सांस्कृतिक धरोहर पर गर्व होने के बावजूद सूर्यबाला जी, समृद्धि और वैभव के चरम शिखर पर पहुँचे उस देश की उपलब्धियों और जगमगाती सफलताओं, कर्मठ जीवन और अनुशासन की प्रशंसा करती है मगर साथ ही वहाँ व्यक्तिवाद के चरम पर पहुँचने से संबंधों में आ रहे अलगाव और विघटन की दुर्भाग्यपूर्ण हकीकत को भी गहराई से महसूस करती है। वहाँ के ताने-बाने में मौजूद असुरक्षा, आपसी अविश्वास, कुंठा और अवसाद जैसी सूक्ष्म से सूक्ष्म और सघनतम चीजों की बारीकी से पड़ताल करती है–‘परिवार के नाम पर खंडित विखंडित जटिल कोलाज।’ सिंगल माँ-बाप तक भी ठीक परंतु माँ सौतेले पिता और सौतेली माँ, हाफ ब्रदर और हाफ सिस्टर के साथ ठंडा भावहीन जीवन और खून के रिश्तों की खत्मप्राय प्रासंगिकता–जहाँ बच्चे के अधिकारों और अस्मिता का दायित्व पुलिस और प्रशासन पर है। ‘गेरुई शाम की गहराती घाटी में बहुत सारे अबोध प्रश्नों की प्रतिध्वनियाँ गूँज रही है।’ उन प्रश्नों की, जिनका समाधान लेखिका के पास नहीं है–शायद किसी के पास भी नहीं।

पीढ़ियों के अंतराल, संस्कृतियों के द्वंद्व, नितांत भिन्न वैचारिक-मानसिक धरातल, मूल्यों-मान्यताओं-प्राथमिकताओं के बीच खाई नहीं, लहराते सात समुंदर थे। मगर लेखिका अपने सुरक्षित किनारे पर सीमा चौकी बना कर उसे महिमा मंडित नहीं करना चाहती थी। वे तो एक सेतु-सा रच कर, उन दोनों किनारों को पाटना चाहती थी; या पाट सकना भी संभव न हो सके तो निरंतर आवाजाही के जरिये एक संपर्क और संवाद तो बनाए रखना ही चाहती थी। उनके पास आस्था और विश्वास ही नहीं, साहस और संकल्प ही नहीं, आत्मीयता की धारा भी थी, जो पथरीली सतहों के बीच से भी निकलने के रास्ते तलाश लेती है। अन्ना तो आखिर उनका अपना ही अभिन्न हिस्सा है–यह विश्वास उन्हें बल देता है। उस नितांत नवीन लोक के आकाश, धरती, नदी, समुद्र, पहाड़, मरुस्थल, हरियाली और छोटे बड़े द्वीपों को देखने-समझने, स्पर्श करने से उत्साहित हो उठी।
माँ और दीदीपन का अनुभव और अहसास सँजोये, बाल मनोविज्ञान की समझ और इससे भी अधिक अपने जिद्दी और जुझारूपन को लेकर वे प्रणपूर्वक उस हठी, उच्छृंखल और अपनी निजता स्वतंत्रता की दुनिया के बाहर ही प्रवेश निषेध की तख्ती लगाए उस नन्हीं बच्ची के आगे खड़ी हो गई नई-नई युक्तियाँ लेकर उस मजबूत किले में सेंध लगाने। चूँकि अन्ना के मन-मस्तिष्क में उतरने के लिए अपने ज्ञान, अनुभव और ओहदे का हौवा खड़ा करना निष्प्रभावी ही होता, अतः भाव संवेदनाओं के समान धरातल पर जाकर वे अपनी उपस्थिति दर्ज करती है। अन्ना को अपना बनाने की कोशिश की शुरुआत वे उसकी महत्ता, सोच-संवेदना और इच्छाओं को स्वीकृत करने से ही करती है–‘यू आर नॉट सपोस्ड टु टीच मी एनिथिंग-ओन्ली पेरेंट्स ऑर टीचर्स केन टीच’ जैसे विष बुझे शब्द सुनने के बाद भी पूरी दृढ़ता के साथ, कभी उसी के तर्कों का विस्तार करती है–‘मैंने तो तुम्हारे पापा को भी टीच किया है, ग्रैंड पेरेंट्स भी टीच कर सकते हैं यह तुम्हें आगे पढ़ाया जाएगा’…जैसी चतुराई और ‘जब तुम स्माइल करती हो न तब बड़ी प्रिटी लगती हो’ जैसी बातों के जरिये, अन्ना की दुनिया में प्रवेश पा जाती है।

अन्ना के द्वारा अपने को स्वीकारे जाने के लिए तथा उसकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए भी शिद्दत के साथ प्रयास जारी थे। इन्हीं छोटे-छोटे प्रवेश द्वार को ढूँढ़ कर वे अन्ना के स्वप्नों और आकांक्षाओं के विस्तीर्ण आकाश में विचर सकी, उसके खेल-खिलौनों-कल्पनाओं-परिकथाओं की अनूठी रंगबिरंगी सम्मोह दुनिया को न सिर्फ देख और छू सकी, वरन् उसका हिस्सा भी बन गई। कभी ‘फ्लफी’ बनी अन्ना को ब्लैंकी ओढ़ाकर तो कभी रंगबिरंगी मोती-मनको से सजी प्रिंसेस अन्ना या स्लीपिंग ब्यूटी ‘असरा’ तो कभी पौराणिक पात्रों की सीता, उर्मिला के साथ एकरूप होती अन्ना द्वारा दिये चरित्ररोल खामोशी से निभाकर, उसके बालमन की अथाह गहराइयों की थाह ले सकी। उसके खेलों में हिस्सेदारी, कहानियों, जिज्ञासापूर्ण प्रश्नों के समाधान, गीतों-लोरियाँ के जरिये, उसकी सोच-समझ-संवेदनाओं को एक नया वितान दे सकी।

अन्ना को अपनी ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विरासत की मंजूषा सौंपने को उत्साहित उत्सवप्रेमी लेखिका, होली के दिनों में चारों ओर जमी बर्फ से परेशान थी ‘बच्चों को कहूँगी थोड़ी हल्दी ही मल दो एक-दूसरे के चेहरों पर’ तभी सूझा क्यों न अन्ना को होलिका और प्रह्लाद की कहानी सुना कर होली मना ली जाये। फिर तो ऐतिहासिक-पौराणिक चरित्रों की कहानी किस्सों से रामलीला के प्रसंग, कृष्ण-सुदामा आदि का सिलसिला चल निकला। सस्वर शांताकारम एवं नीलांबजम के श्लोकपाठ आरंभ हो गए। इस यादगार उपलब्धि में, अन्ना को देना ही नहीं, उससे बहुत ज्यादा पाना भी दर्ज है। अन्ना की बुद्धिमत्ता, स्वावलंबन, तर्कशक्ति, स्पष्टवादिता पर गर्वित चमत्कृत तो वे पहले भी थी ही लेकिन ‘अन्ना द्वारा निर्मित, नितांत विलक्षण संसार की यात्रा में, उसी की बनाई डोंगी के सहारे निर्बाध बहते हुए पूरब से पश्चिम, लोक-अलोक, अतीत से वर्तमान और भविष्य के कल्पनालोक तक चलती जाती ये अनायास की अंतर्यात्राएँ एक विरल अनुभव से गुजार रही थी जिसका सुख अनिर्वचनीय था।’

रचना का भाव एक देश में पली बढ़ी दादी और दूसरे देश की पोती के रिश्तों तक सीमित नहीं है। समय, सीमा और उम्र से भी बढ़कर अपने से नितांत भिन्न मनःस्थिति को समझने या सामंजस्य मात्र का नहीं, उससे एकरूप हो जाने का है। अन्ना को अलविदा कहना–एक देश से, उस देश में बसे बेटे, उसके परिवार और विशेष तौर पर अपनी नन्हीं पोती से विदा लेने का मार्मिक अहसास मात्र नहीं है। यह एक लंबी अंतर्यात्रा से गुजरने के दौरान, अनेक-अनेक पड़ावों पर मिले खट्टे-मीठे अनुभवों-अनुभूतियों को बटोरने, दो विपरीत सभ्यताओं-संस्कृतियों, मूल्यों, प्रतिमानों के बीच द्वंद्व और समझौते की कशमकश के बीच एक नन्हें मन की प्रतिक्रियाओं को जानने-समझने, अन्ना से नई ऊर्जा और नई कल्पनाएँ पाने और अपनी विरासत के कुछ अंश सौंप देने के दौरान साँझा संवेदनाओं के दुर्मिल क्षणों से वंचित होने का भारी अहसास है। ‘अगली बार जब अमेरिका आएँगे, अन्ना यह अन्ना थोड़े ही रहेगी। बदल चुकी होगी, नदी की बदलती धारा की तरह’ फिर भी उन्हें आश्वस्ति है ‘कुछ न कुछ बचा अवश्य रह जाएगा…इस समय खंड का…जीवन भी…किसी न किसी रूप में।’

और अंत में, अन्ना की दादी की उपलब्धियों को जानने के पश्चात् एक प्रश्नचिह्न और आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता पाठक के लिए अपनी-अपनी दुनिया में जीते हुए हम (बेशक एक ही देश, प्रांत, शहर और घर में भी) किसी दूसरे (अपने आत्मीय ही) को कितना जानते समझते हैं, उसकी दुनिया में किस हद तक प्रवेश कर सकते हैं, संवेदनाओं और अनुभूतियों को कितना साझा करते हैं या अंततः प्रवेश निषेध की तख्ती लगा कर एक आत्मकेंद्रित दुनिया में ही जी रहे हैं?

इस आत्मकेंद्रित दुनिया की अलगाव एवं अवसाद भरी जिंदगी की गूँज संग्रह की और भी रचनाओं में सुनी जा सकती है, विशेषकर ‘क्या लालसाओं ने हमें अतृप्त और अकेले कर दिया है’ में, विकसित देशों की घटती जनसंख्या और निरंतर अकेले पड़ते जा रहे आदमी की व्यथा उन्होंने शिद्दत से महसूस की है। ‘स्त्री सब कुछ क्यों नहीं चाह सकती’ में कैंपस के अनौपचारिक निश्चिंत माहौल में विद्यार्थियों के साथ संवाद, सवाल जवाब के साथ ‘पूर्ण चैतन्य नारी की परिकल्पना’ पर चर्चा और विमर्श भी है। ‘हे बाब! इज दैट यू’ एक नन्हें बच्चे की व्यथा और विडंबना की बड़ी ही मार्मिक गाथा है। माता-पिता के तलाक के बाद बचपन में ही अपने भाई से अलगाव के लिए विवश माइकल का एक तोते के मार्फत उसे याद करना, मन को तिक्तता और करुणा से भर देता है। यही अनुभव ‘एक नन्हीं सहयात्री’ के साथ छोटी सी यात्रा के दौरान होता है, जहाँ उस बच्ची का आत्मविश्वास, संतुलन और परिपक्वता लेखिका को प्रभावित करता है–मगर अपने पिता की मृत्यु की सूचना से सहमी लेखिका को यह कह कर सांत्वना देना कि ‘नेवर माइंड ही वाज माय स्टेप फादर’ अवाक स्तब्ध कर देता है।

इन अनुभवों से उलट बोस्टन में ही मौजूद ‘एक घर लिटिल वूमन का’ में लुईसा-में-एलकाट का संग्रहालय घूमते हुए, वहाँ की सुव्यवस्था और भव्यता को देखकर, अपनी विरासत को सँजोने-कद्र करने की अमेरिकी परंपरा से वे प्रभावित होती है। साथ ही उन्हें भारतीय रचनाकारों, कलाकारों के जन्मस्थल या रचना स्थल (संग्रहालय तो कदापि नहीं) की बदहाली और उपेक्षा और क्रोध और क्षोभ भी होता है–यहाँ तक कि वे सोचती हैं ‘काश प्रेमचंद और प्रसाद अमेरिका में ही जन्में होते।’

ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में बहुत पाने और उससे भी बहुत ज्यादा खो देने का अहसास और मलाल, अधिकतर रचनाओं में व्यक्त हुआ है। वे स्पष्ट अनुभव कर रही है कि विदेश में बसा उनका बेटा (आत्मीय) किन-किन संघर्षों से गुजर रहा है–‘एकदम अकेले’, उस तक न पहुँच पाने, दूर छिटक जाने का दर्द उनके शब्दों में है। ‘अमलतास के झूलते वंदनवारों और गुलमोहरों की पीली-सिंदुरी रंगोलियों वाली देहरी से उठा कर बर्फ के इन स्तूपों की ओर तुम्हें कौन ले आया है? शायद आकांक्षा, जिजीविषा या सभ्यता के विकास की विडंबना।’ एक अनु ही क्यों? ‘नौजवानों की ऊर्जा, जिजीविषा, हँसी और सारी खुशियाँ बहुत तेजी से थोक के भाव में निर्यात हो रही है।’ मगर यह दुश्चक्र थमता नजर नहीं आता–वर्तमान परिदृश्य में तो कतई नहीं।

संग्रह की रचनाएँ जीवन के हर रंग और रस को समेटे हुए है। चूँकि लेखिका के मन में संवेदनाओं की सघनता के साथ-साथ तर्क और विश्लेषण की प्रखर दृष्टि भी है, अतः रचना जितनी यथार्थपरक, उतनी ही मन को छूती, अपने ही अनुभवों की थाती होने जैसा अहसास जगाती है। एक तरफ जहाँ असुरक्षा और अवसाद से टूटे परिवारों में बटे-बिखरे, माँ-बाप के प्यार और भाई-बहिन के सान्निध्य के मूलभूत अधिकारों को खोते बच्चों की व्यथा और सहजता के साथ सब कुछ स्वीकार करने की उनकी कशमकश हमें करुणा और व्यथा से भर देती है, वही लेखिका की जिंदादिली, तथा सहज अनूठी शैली रचना को बोझिल या ट्रेजिक नहीं होने देती वरन उसे सतत जीवंत और औत्सुक्यपूर्ण बनाए रखती है।


Image: A Walk in the Snow
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Artist: Joseph Farquharson
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प्रभा मजुमदार द्वारा भी