विडंबनाओं के बीच
- 5 November, 1981
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- 5 November, 1981
विडंबनाओं के बीच
किरणमयी भूत और वर्तमान की देन है। पैर बीते हुए कल की लक्ष्मण रेखा पर आकर ठिठक गए हैं मगर मन आज की चकाचौंध में चौंधिया गया है। जनमी सुदूर गाँव में–पनपी और पली उसी वातावरण में–यह खाओ–यह न खाओ–यह छुओ–यह न छुओ। हर तीज व्रत से माँग का सिंदूर बरकरार रहता है और खरजिउतिया के व्रत से संतान जीवित रहती है। देवी के चौरे पर सिंदूर से भरी माँग और रत्नजटित नथ रगड़ने से मुँहमाँगी मुराद मिल जाती है और किसी तांत्रिक के कवच के प्रताप से पतिदेव उसी पर जीवनभर रीझे रहते हैं–चाहे बालों पर सफेदी छा जाए और गालों पर झुर्रियों का संसार बस जाए।
किरणमयी यौवन की देहरी पर आते-आते सचमुच किरणमयी हो गई। उषा की प्रथम किरण की तरह सुंदर, सेमल और सुखद। चेहरे पर ऐसा लावण्य उभर आया कि लाख में एक ही रही। फिर क्या कहने? पिता को दर-दर ठोकरें नहीं खानी पड़ीं बल्कि उसी का घर उम्मीदवारों से घिर गया। वह लाख समझाते कि वह मामूली किसान जो ठहरे–बेटी को कुछ पढ़ा-लिखा न सके–बस यों ही घर पर पहाड़ा और ककहरा सिखा कर रह गए, औकात कहाँ कि इसे ऊँची हवेली में बैठाने का सपना देखें मगर उत्तर मिलते कि हम सभी सुखी-संपन्न हैं–बेटी को अपने खर्चे से पढ़ा-लिखाकर नए जमाने की बना लेंगे। हमारा बेटा बड़ा विचारवान है–बेटी को कोई तकलीफ न होगी।
तो किरणमयी एक दिन अजीत की पत्नी बन नए जमाने की हवा पर बसे एक संभ्रांत परिवार की बहू बन बैठी। कहाँ देहात की ढिबरी और कहाँ बड़े शहर की रात को भी दिन के उजाले में परिवर्तित करती हुई बिजली की लौ उगलती रोशनी। फिर पति एक अँग्रेजी फर्म का नामी अभियंता। उसके पैर जमीन पर पड़ते ही नहीं। जीवन में एक नया उभार आया और वह नित नई-नई अनुभूतियों तथा संभावनाओं में खो गई।
अजीत मस्तमौला है। दिनभर भूत की तरह खटना और शाम को क्लब में बैठकर ह्विस्की और सोडा की चुस्की लेकर थकान मिटाकर चिकन और कबाब खाकर घर लौटना उसकी रोज की रूटीन है।
किरण के भी अब पर जम गए हैं–वह उसके साथ क्लब जाती और बैंड के सुर पर उसके साथ थिरकती मगर खबरदार कि कोई भी पर-पुरुष उसे सीने से सीना लगा ले और उसके पतिदेव को छोड़कर दूसरा कोई उसकी कमर में हाथ डाल दे। वहाँ उसका सतीत्व खूँखार हो उठता और इसके चलते उसने अपने पति के कितने अभिन्न मित्रों को रुष्ट कर दिया है और पति की तौहीनी कराई है। पति को रिझाने के लिए वह वर्तमान के सभी प्रसाधनों तथा प्रयासों का स्वागत करती मगर किसी पर-पुरुष के अंक में जाने से उसका भूत उसे सदा पीछे खींच लेता। अपने को ऐसी सजाती कि किसी भी अल्ट्रा मॉडर्न नारी के कान काटती और किसी भी मजलिस में नाज और अंदाज के ऐसे टुकड़े पेश करती कि सभी पहले तो पामाल हो उस पर हावी होना चाहते मगर पीछे उसके मिजाज से वाकिफ हो निराश ही हो जाते। सौंदर्य की वह निराली छटा सिर्फ एक की होकर रह जाती तो डांस हॉल के मनचलों के कलेजों में सिर्फ हूक उठकर रह जाती। एकाध फब्तियाँ भी कसते–किसी भी जात की बनाई हुई मछली खाने में इसे परहेज नहीं–वहाँ सामिष-निरामिष का कोई भेद नहीं–मगर हम जब डांस हॉल में उसे क्षणभर को आमंत्रित करते तो वह छी-मानुष करने लगती। ऐसी तपस्विनी सधवा तो कहीं देखने को न मिली।
आज रात को क्लब से लौटते मोटर में पतिदेव से गरमागरमी हो गई। नए साल के बहार का उत्सव क्लब में मनाया जा रहा है। सभी मयखाने में जूझे पड़े हैं। पैमानों से पैमाने टकरा रहे हैं। तीरे-नजर की चोट पर पामाल हो, जाने कितने हॉल में थिरक भी रहे हैं। कभी बत्ती ऑफ होती तो कभी बैंड के झन्नाटे के साथ तेज धार बन जाती–कहकहे लगते, तालियाँ पिटतीं। इन्हीं रंगरेलियों के माहौल में अजीत छेड़ बैठता–“आज भी तो एक क्षण कामथ के साथ नाचकर मेरा एहसान लौटा दो। उसकी बीवी घंटेभर मेरे साथ थिरकती रही–तुम भी तो उसके बदले…” मगर खबरदार–ऐसी बात कही क्यों–एक क्षण में उसका पारा आसमान पर चढ़ गया। कहा बेकहा हो गया।
वह ठमककर मोटर में जो जा बैठी तो उतरने का नाम नहीं लेती। अजीत का सारा मजा किरकिरा हो गया। मगर वह बीवी के मिजाज से परिचित है। क्षण में आग और क्षण में पानी। सुबह को हलाहल तो रात में अमृत। मन मार गाड़ी स्टार्ट कर घर लौट आया और रातभर करवटें बदलता रहा।
अजीत का बड़ा भाई अखिल ही सारे घर का भार अपने कंधे पर लिए चलता है। माँ अजीत को इस धरती की गोद में सौंप स्वर्ग सिधार गईं और अपनी जवानी में ही अजीत का भार अखिल को देकर पिता भी चल बसे थे। मगर पिता का अभाव अजीत को कभी खला नहीं। अखिल उसे पितातुल्य प्यार और दुलार देकर बराबर भरे रहा। किसी चीज की कमी उसे कभी खटकी नहीं और वह अखिल को ही अपना भाई और पिता दोनों मानता। उसमें अटूट आस्था थी उसकी।
उस दिन अखिल ने अपने दोस्तों को खाने पर बुलाया। अजीत और किरण किसी और जगह आमंत्रित हैं। अखिल ने अपने नौकर बिल्टू से कहा–“चूँकि किरणमयी मुर्गी से परहेज करती है इसलिए चिकन बाहर बरामदे में स्टोव पर चढ़ा दे।”
नौकर ने कहा–“मालिक, फ्रिज में घी, मक्खन तथा सब्जियाँ रखी हैं। उसे खोलेगा कौन? कहीं कुछ छू गया तो बहूरानी आसमान सर पर उठा लेंगी। ना बाबा ना, मैं उनका फ्रिज न छुऊँगा।”
“धत, मैं अभी फ्रिज खाली कर सभी सामान निकाल देता हूँ।”–अखिल को अग्रज होने की भावना ने अभिभूत कर दिया है। उसने झट फ्रिज खोलकर सारे सामान बाहर कर दिए और मुर्गी को जरा लज्जतदार बनाने में मालिक और नौकर दोनों पिल पड़े।
“वाह! अखिल, तुमने तो कमाल की चिकन बनाई।”
“यार, इसे बनाने को आज दिनभर कुक का बुक पढ़ता रहा। इसमें मसाले के साथ ही चीज और अंडे भी देने पड़े हैं।”
“वाह, तभी तो इतनी लज्जत है इसमें! यार, हमें भी इसका ‘रेसिपी’ बताना।”
“जरूर।”
अखिल के दोस्तों ने आज खूब सराह-सराह कर अखिल की बनाई हुई चिकन को जी भर खाया। उनकी मजलिस कुछ रात बीतने पर टूटी–और मेहमानों को विदा कर अखिल अपने पलंग पर लेट रहा।
अखिल अकेला है–उसने शादी नहीं की–सोचा, मातृ-पितृहीन अपने छोटे भाई को ही वह सर्वस्व देगा और उसी को सुखी देखकर अपने को सुखी समझेगा। घर-गिरहस्ती जब सब सँभल गई और छोटे भाई ने नौकरी पकड़कर शादी कर ली–तो बड़े भाई के समक्ष उसने बार-बार प्रस्ताव रखा कि वह भी शादी कर ले, घर बसा ले, मगर वह सदा कतराता रहा और अपने घर की गिरहस्ती की हर लगी-लिपटी सुलझाने में अपने को मशगूल रखा। आज रात आँखें झपकी ही थीं कि एकाएक शोर-सराबा सुनकर खुल गईं।–अरे, यह तो किरणमयी की कर्कश आवाज है–इतनी रात गई, क्यों नौकर पर बरस रही है? कान देकर सुनने लगा–“लो, सुन लो बिल्टू, आज से फ्रिज का कोई भी सामान हमारे लिए हराम हो गया। मैं बाहर क्या गई कि तुमने फ्रिज को मुर्गी के हाथों छू दिया। यह तो मैं पानी लेने गई तो सब पता चला वरना तुम तो हमारे सारे धरम-करम को धो देने पर तुले थे। कल से तूने घर में कदम रखा तो खैर नहीं और यह फ्रिज तो मेरे लिए आज से नापाक हो ही गया। वह बरसती रही–घंटों बरसती रही। बिल्टू सुबुक रहा है–सुबुक रहा है–रात भींगती चली जाती है। अखिल से अब सोया न गया। वह झट बत्ती बुझा बरामदे में चला आया–“किरणमयी, उस गरीब बिल्टू पर क्यों बिगड़ रही हो? गलती तो मेरी है। चिकन मैंने बनवाई, फ्रिज मैंने खोला, मेरे ही कहने पर उसने सारा सामान उसमें से निकलवाया।”
“तो लीजिए–मालिक-नौकर दोनों की साजिश थी मुझे बरबाद करने की। मैं बाल-बाल बच गई–अजी, सुनते हो जी, हाय राम!”–वह अजीत को जगाने लगी–“तुम्हारे बड़े भाई की यह सारी साजिश है। अब अभी फरिया लो। या तो ये इस घर में रहेंगे या मैं रहूँगी।”
इस वाण ने अखिल को झकझोर कर रख दिया। अजीत ने तो नींद के बहाने जो मुँह छिपाया तो फिर उसे खोला ही नहीं। अखिल ने बड़े जब्त हो कहा–“बहूरानी, क्या इसी दिन के लिए मैंने यह सारी परेशानी आजीवन उठा रखी है–तुम तिल का ताड़ कर रही हो–”
“सुनते हो जी–चादर में मुँह क्यों छिपा लिया? मैं ही दोषी ठहराई गई।”
“नहीं-नहीं, मैं तो अपना दोष कबूल ही कर रहा हूँ–अच्छा जाओ, जब ऐसी बात है तो मैं बाहर ही कहीं खा लिया करूँगा, यह चौका मेरे लिए आज से बंद ही समझो।”
वह गुस्सा पीते हुए अपने कमरे में चला गया और चिटखनी चढ़ाकर पड़ रहा। सोया या जागता रहा यह तो वही जाने मगर दूसरे दिन से उसने घर में खाना छोड़ दिया। बाहर ही कहीं कुछ खा लेता–कभी किसी रेस्तराँ में, कभी दोस्त-अहवाब के यहाँ। एक बिल्टू था–वह भी घर भाग चुका था। किरणमयी भी अपनी गिरहस्ती अलग ले जाने को अड़ी हुई है। वह भी उस चौके में खाना नहीं बनाती–बाजार से कुछ मँगाकर खा लेती। बीच में बेचारा अजीत पिस रहा है। एक ओर बीवी, दूसरी ओर भाई। खाऊँ किधर भी चोट, बचाऊँ किधर की चोट! एक दिन हिम्मत कर भाई से कहा भी–“भैया, तुम्हीं मान जाओ न। आखिर यह तनातनी कबतक चलेगी?” तो अखिल ने बड़े रोब में कहा–“वाह मैं ही बड़ा लड़ाका बन गया? तू अपनी पत्नी को क्यों नहीं समझाता?”
अजीत का चेहरा रुआँसा हो गया। वह आगे कुछ बोल न सका। इस उम्र में आँसू गिराना भी तो एक बड़ी पराजय की निशानी मानी जाती है!
आकाशवाणी के सौजन्य से