रेशमी साड़ी
- 5 November, 1981
शेयर करे close
शेयर करे close
शेयर करे close
- 5 November, 1981
रेशमी साड़ी
“दो फूल एक साथ फूले, किस्मत जुदा-जुदा है; नौशः के एक सर पर, एक कब्र पर पड़ा है–मेरा नाम कज्जन बाई, इलाहाबाद”–इतना बोलते-बोलते रिकार्ड समाप्त हो जाता और ग्रामोफोन की कुंजी भी खत्म हो जाती। गजल सुनना बंद हो जाता है। उन दिनों ग्रामोफोन पर गजल सुनाने के बाद गायिकाएँ अपना नाम-पता भी बोलतीं और गीतों की कड़ियाँ उनके नाम से सदा जुड़ी रहतीं। जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ती गई–इस गजल का अर्थ मुझे साफ होता गया और जब रासमनी देवी तथा राजमुनी देवी की जीवन-गाथाओं से मेरा परिचय हुआ तो इस गजल का अर्थ और भी विशाल हो गया।
जनवरी की मुलायम धूप–पशमीने की तरह कोमल, मगर उसकी तरह गरम नहीं–बदन से फिसलकर निकल भागती–मैं उसी की खोज में बाहर लॉन में बैठा हूँ कि मेरे जामाता राजमुनी देवी को लेकर मेरे पास आए, और मेरा उनसे परिचय कराकर कहीं चले गए। मैं उनसे पूछ बैठता हूँ–“आखिर कैसे कष्ट किया आपने?”
“मजबूरियों ने मुझे धकेल कर आपके यहाँ पहुँचा दिया।”
“हाँ, मजबूरियाँ तो इनसान से जो न कराएँ–बात तो आपने पते की कही।”–मैं चुप हो आकाश में बादलों तथा जाड़े की धूप की आँखमिचौनी देखने लगा। राजमुनी देवी अपने में खोई-सी चुप रहीं। मैं फिर पूछता हूँ–“आप मेरी क्या सेवाएँ चाहती हैं? मैं यथाशक्ति…”
“भाई साहब, मेरी बेटी की शादी है।…मैं तो एक ही प्राणी हूँ घर में कमानेवाली, फिर ब्लॉक की नर्स की कमाई ही कितनी! किसी तरह दो पुत्रों को पढ़ा रही हूँ और एक बेटी की शादी करने का साहस भी बटोर रही हूँ।”
“पतिदेव?”–मैंने देखा कि उनकी माँग भरी है।
“वह तो आज दो साल से लापता हैं।”
तब मुझे खट-से याद आईं आनंद जी की कही वे बातें–
भाग्य हो तो रासमनी जैसा–भगवान सबकी बेटी को वही भाग्य दे। शादी के पहले उसके पतिदेव के घर पर सत्रह किता मुकदमे थे–पाँच खून के तथा बारह सिविल; मगर वाह री मेरी रासमनी, सगाई होते-होते पाँचों खून के केस में मेहमान की रिहाई हो गई और आँगन में महावर से भरे पाँव रखते-रखते बारहों सिविल मुकदमों में सुलह की अर्जी पड़ गई। ‘देखना रासमनी की माँ, राजमुनी का भाग्य बड़ी बहन से बीस ही रहेगा–उन्नीस नहीं।’–रासमनी के पिता जी के ये उद्गार आज भी राजमुनी को याद हैं–रह-रह कर याद आते हैं।
राजमुनी की शादी में बारात द्वार पर आई और द्वारचार होने लगा तो स्त्रियों की पाँत में हल्ला मचा कि “दूल्हा जाने कैसा-कैसा कर रहा है–जरूर दिमाग से कमजोर है।” तो बेटी की माँ ने कड़ककर कहा–“फिर प्रपंच चालू हुआ? कई रातभर जग-जगकर तो शादी की रस्में पूरी होती हैं। बेचारा थक गया है–नींद से परेशान जो है। यह मीन-मेख न निकाल, अरी मंगल गा–मंगल।” गान तथा ढोल-मंजीरों के जोर पर अर्धरात्रि के उपरांत राजमुनी की माँग में सिंदूर तो पड़ गया मगर राजमुनी भी ताड़ गई कि वह घूरे पर फेंक दी गई और उसके माता-पिता भी समझ गए कि बरतुहारों ने पैसा हजम कर उनकी बेटी का गला काट दिया। विधि-निषेध के दायरे में फँसे किसी भी व्यक्ति में इतनी हिम्मत न थी कि बारात को बाहर ही से लौटा दे और राजमुनी की जान बचा ले। बस कानाफूसी होकर रह गई। यहाँ तो लोक-लाज पहले है, किसी बेटी की जान पीछे। तभी तो आज भी दहेज तथा बेमेल ब्याह की वेदी पर कितनी बेटियों को हलाल कर दिया जाता है।
खैर, टूटा हुआ मकान बनाया जा सकता है मगर पैदाइशी किसी का दिमाग तो जोड़ा नहीं जा सकता। सभी दुआएँ-मिन्नतें–दवा-दारू बेकार रही–रासबिहारी बाबू अलबटाह ही बने रहे और दो बेटों तथा एक बेटी का भार राजमुनी पर फेंककर एक दिन लापता हो गए। कोई कहता कि धनबाद के कोयले के ट्रक पर चढ़कर कहीं कोयला खदानों में खो गए और कोई कहता कि किसी ट्रेन पर बैठकर कहीं निकल गए तो फिर लौटने का रास्ता ही भूल गए। फिर भाइयों ने बँटवारा कर लिया–राजमुनी तथा उसके बच्चों का भार उठाने को कोई तैयार नहीं। सब ओर से निराश्रित हो गई। न कोई उसे देखने वाला और न कोई कमानेवाला। घर में फाकेमस्ती मच गई। टोले-मुहल्ले वालों ने कुछ दिन मदद करके हाथ समेट लिया। बड़ी बहन–जो सामर्थ्यवाली रही–कभी-कभार कुछ दे देती और माँ-बाप इसी कुहुक में स्वर्ग सिधार गए।
बड़े बहनोई एक दिन राजमुनी के घर आए और तीनों बच्चों तथा उसको अपने यहाँ ले गए। एक दिन समय निकालकर समझाया–“इस तरह रोने-धोने से कुछ नहीं होगा। तुम्हारा नाम हमने एक नर्सिंग स्कूल में लिखवा दिया है। तुम नर्सिंग की ट्रेनिंग ले लो और तुम्हारे बच्चे तबतक हमारे यहाँ अपनी मौसी के साथ रहेंगे। कमाने लगोगी तो दिन पलट आएँगे। निःसहाय औरतों के लिए इससे अच्छी और निर्दोष और कोई कमाई नहीं। दकियानूसी झिझक छोड़ दो नहीं तो इतनी लंबी जिंदगी तथा तीन-तीन बच्चों की परवरिश कैसे होगी? बहन ने भी उसे कई बार समझाया और अंत में वह राजी हो गई। दूसरा कोई रास्ता भी तो नहीं था।
समय को पर होते हैं। देखते-ही-देखते कहाँ-से-कहाँ भाग जाता है। सालभर बीतते-बीतते देर न लगी। नर्सिंग की ट्रेनिंग समाप्त होते-होते उसे एक ब्लॉक के अस्पताल में नौकरी मिल गई। फिर क्या कहने! दिन पलटने लगे। घर में चूल्हा-चक्की फिर चलने लगी। बच्चे ब्लॉक के ही स्कूल में पढ़ने लगे और उन्हें दो जून भोजन मिलने लगा। राजमुनी देवी अब सिस्टर राजमुनी हो गईं। बेटी वीणा नित-प्रतिदिन बढ़ने लगी। सिस्टर राजमुनी लाख चाहती कि वह अभी फ्राक में ही खिले मगर वह बेटी जो ठहरी! नदी की बाढ़ की तरह बढ़ती जाती।
फिर वह साड़ी पहनने लगी। मैट्रिक क्लास में पढ़ने लगी। बदन भरने लगा। हाय राम! राजमुनी एक फंदे से निकली तो दूसरे फंदे में फँसने की तैयारी हो गई। नियति ने शायद उसे संघर्षों से जूझते रहने के लिए ही बनाया है! वीणा की शादी की चिंता उसके सर पर आकर बैठ गई। उफ, अब कौन रास्ता निकाले?
एक दिन ब्लॉक ऑफिस के बड़ा बाबू ने उससे पूछा–“सिस्टर, वीणा की शादी के लिए अब दौड़धूप कीजिए। बेटी बड़ी हो रही है।”
“बड़ा बाबू! मैं औरत जाति जो ठहरी। कहाँ-कहाँ दौडूँ? फिर आज तो पैसे का बाजार गर्म है और मेरे पास पैसे कहाँ?”
“दौड़ने की कोई आवश्यकता नहीं। लड़का तो घर में ही है।”
“सच, तो वह किसका बेटा है?”
“अपने पैकेज ऑफिसर का। चलिए, आज शाम को उनके घर चलकर बाकायदा शादी लगा दी जाए। फिर तो मैं सारे ब्लॉक ऑफिस के स्टाफ को उनके पीछे लगा दूँगा। हर कोने से नाकेबंदी हो जाएगी।”
“बड़ा बाबू, आप तो मेरे लिए भगवान बनकर आ गए।”
“सिस्टर, आजकल बेटी का विवाह करा देने से बढ़कर दूसरा कोई पुण्य नहीं। लड़का ब्लॉक में ही क्लर्क हो गया है। बहाली की चिट्ठी मैंने आज ही भिजवाई है।”
“मगर मेरे पास पैसे कहाँ हैं? सरकारी नौकरी में लगे लड़के का तो आजकल बीस हजार का भाव है। महँगाई क्या आई, तिलक मार्केट में भी तेजी आ गई।”
“नहीं-नहीं, इतना नहीं लगेंगे। आप पी. एफ. से लोन ले लीजिए और कुछ मैं ब्लॉक में इकट्ठे करूँगा–लोन ही सही–मगर इस समय काम तो निकल जाए। फिर धीरे-धीरे देखा जाएगा। मामला कम ही में पट जाएगा। फिर आपके पास कुछ गहने-कपड़े निकल ही जाएँगे।”
“नहीं-नहीं, गहने ही तो अमीरी के शृंगार और गरीबी के आहार हैं। इतने दिनों आखिर हम जिये कैसे? बस, गहने बेच-बेच करके–गिरवी रखकर।”
बेटे की शादी का प्रस्ताव जब संध्या समय बड़ा बाबू तथा राजमुनी देवी ने पैकेज ऑफिसर साहब के सामने रखा तो वह भड़क गए–“वाह! आपलोग भी गजब करते हैं–उधर आज ही बेटे की नौकरी लगी और इधर आज ही आपलोग टपक पड़े। जी जनाब, अभी तो सत्यनारायण की कथा भी घर में नहीं हुई कि आपलोग सर पर सवार हो गए।”
“साहब, आपके सर पर सवार होने की बात कतई नहीं। हम तो सिर्फ आपके दरबार में अपना प्रस्ताव पेश करने आए हैं। प्रस्ताव पेश कर हम अब चले।”
“एक प्याली चाय तो पी लें।”
“हाँ, इतना तो अवश्य करेंगे–मुँह मीठा!”
साहब उधर चाय की आवाज लगाने उठे तो बड़ा बाबू ने राजमुनी देवी से कहा–“बस, आज इतना ही। पहला दिन जो है।”
दूसरे दिन पैकेज ऑफिसर जब ऑफिस में पहुँचे तो दोतरफी मुबारकबादी उन्हें मिलने लगी। बेटे की नौकरी की अलग और उसकी शादी तय होने की अलग। साहब बहादुर परेशान हैं। एक खबर की वह पुष्टि करते तथा दूसरे का खंडन। मगर लोगबाग कब माननेवाले! कहने लगे–“वाह साहब! मिठाई खिलाने से अभी भागने लगे? पर दो-दो बार हम मिठाई खाएँगे साहब!”
साहब बहादुर चुप। सारे ब्लॉक में यह बात फैलते देर न लगी। जिधर दौरे पर जाते उधर ही दोनों की बधाई मिलती। एक दिन राजमुनी देवी को बुलाकर उन्होंने कहा भी–“सिस्टर, मैं तो परेशान हूँ–अजब है यह इलाका। एक दिन बड़ा बाबू ने बात क्या चलाई कि सारे ब्लॉक में शादी तय हो जाने की खबर बिजली की तरह फैल गई। मैंने अभी शादी पक्की कहाँ की है? मैं तो अभी प्रस्तावों को सिर्फ इकट्ठा कर रहा हूँ।”
“साहब! आप जो समझें–मगर मैं तो अपना हक सबसे ऊपर समझती हूँ। यानी शादी ठीक ही समझती हूँ।”
“अच्छा तो आप भी इस साजिश के हिस्सेदार हैं?”
राजमुनी देवी हँसकर चुप हो गईं।
गर्दिश ने राजमुनी देवी में काफी तल्खी भर दी है। एक दिन वह पैकेज ऑफिसर साहब को मना-मनू कर शहर अपने बहन-बहनोई के घर ले गईं और वहाँ उनकी खूब आवभगत हुई। बीच-बीच में जब साहब बहादुर भागने की कोशिश करते तो राजमुनी देवी कुछ कड़ी होकर बोलतीं–“साहब! वीणा की शादी तो आपके बेटे से ही होगी–दूसरी जगह नहीं। वह सारे ब्लॉक की बेटी है और आप सारे ब्लॉक के सबसे बड़े अफसर। यह जोड़ी हमें कहाँ मिलेगी? फिर जोड़ी आसमान से बनकर आती है।”
पी. ओ. साहब चुप हो जाते।
जबतक पी. ओ. साहब शहर से लौटे–ब्लॉक ऑफिस के बाबुओं ने एक दिन ऑफिस में मिठाइयाँ बँटवा दीं और खबर फैला दी कि पी. ओ. साहब के बेटे की शादी सिस्टर राजमुनी की बेटी वीणा से तय हो गई और यह सगाई की मिठाई बँट रही है।
साहब बहादुर घर लौटे तो पाया कि उनके दरवाजे पर शहनाई भी बज रही है और सारे गाँव के लोग खुश हैं कि सगाई पर पी. ओ. साहब ने सबको पूछा और मिठाइयाँ भिजवाईं। उनकी तो हेकड़ी गुम। आखिर जनमत का खयाल कर–उन्होंने शादी का दिन भी मुकर्रर कर दिया।
तो मेरे पास राजमुनी देवी आज रेशमी साड़ियों की तलाश में आई हुई हैं। कहती हैं–“भैया! आपके आशीर्वाद से सब इंतजाम हो गया। मुझ अकिंचन की ब्लॉक ऑफिस वालों ने बड़ी सहायता की। सारा भार ही अपने कंधे पर उठा लिया है। अब सिर्फ घट रही है मेरी रेशमी साड़ी। एक रेशमी साड़ी का दाम ढाई-तीन सौ रुपये है और मेरी बहुत साध है कि रेशमी साड़ी पहनकर वर का परिछावन करूँ तथा कन्यादान दूँ। यदि इसमें आप मेरी सहायता करते तो…पुरानी ही सही, मगर लोक-लाज और साध दोनों तो पूरी हो जातीं।”
मैंने अपनी पत्नी से कहा–“कुछ एक पुरानी रेशमी साड़ियाँ निकालकर अभी इन्हें दे दो। माँग बहुत छोटी है।” पत्नी ने सर खुजलाया, कहा भी–“देखती हूँ, इनके काम की ऐसी साड़ियाँ मेरे पास हैं या नहीं–ढूँढ़ना होगा–खैर, आलमीरा में तलाशती हूँ–शायद।”
राजमुनी देवी का भाग्य अब साथ दे रहा है। एक नहीं–तीन-तीन रेशमी साड़ियाँ उन्हें मिल गईं। वह तो फूली नहीं समाईं।
शादी में मेरे जामाता आनंद जी ब्लॉक में गए भी थे। लौटे तो मुझे बताया–बड़ा मजा आया शादी में। राजमुनी दीदी तीनों रेशमी साड़ियों को एक ही रात में पहन गईं। एक साड़ी पहनकर जब एक रस्म कर गीत गाने बैठतीं तो चर्र-से वह फट जाती। फिर किसी तरह आँचल लपेटकर धीरे-से उठतीं और दूसरी साड़ी पहन लेतीं। वह भी कुछ देर बाद चर्र-से हो जाती। फिर तीसरी पहनी। इसी तरह सब रस्में समाप्त हुईं और गाँव की स्त्रियों में शुहरत हो गई कि आज सिस्टर राजमुनी इतनी खुश थीं कि एक रात में तीन-तीन रेशमी साड़ियाँ बदलीं उन्होंने। वाह री किस्मत!
आकाशवाणी के सौजन्य से