सोने का भाव

सोने का भाव

उस दिन सुबह पार्क में टहलते हुए मुरारी बाबू से अचानक भेंट हुई तो मैंने पहले पहचाना ही नहीं। ऐसे झुके हुए गिरे-गिरे-से दिखे कि दिल को गवारा न हुआ कि ये वही व्यक्ति हैं जो सदा गुलफुल हँसते-हँसाते नजर आते। मैंने हिम्मत कर उन्हें टोका तो मुस्कुराने की कोशिश करते हुए उन्होंने कहा–“अच्छा, तो आप हैं–सिन्हा साहब! मोतियाबिंद के कारण अब आँख की ज्योति बहुत कम हो गई है और दूर से किसी को पहचान ही नहीं पाता। क्षमा करेंगे।”

“और मैं तो चश्मा लगाकर नजदीक से भी आपको नहीं पहचान सका।”–मैंने तपाक से कहा।

“क्यों?”–उन्होंने चकित होकर पूछा।

“इसलिए कि हँसते-हँसाते मुरारी बाबू यह मुर्दनी सूरत लिए कहाँ से चले आ रहे हैं! दोस्तों की मजलिस को झूम-झूमकर हँसा देना जिनके बायें हाथ का खेल रहा, वह आज क्या से क्या हो गए!”

वह झेंप गए।

मैंने फिर टोका–“आखिर यह आपको हो क्या गया है?”

“कुछ नहीं, कुछ यों ही, दिल ही तो है!”

“हाँ, यह मैंने माना कि दिल ही तो है, मगर जो हर दिल को टटोलकर, दर्दे-दिल की दवा करता रहा, वही आज अपने दिल कि दवा न ढूँढ़ सका?”

वह और झेंप गए–“आखिर सारी दुनिया से जीतकर मनुष्य अपने-आप से ही तो हार जाता है। यही तो हमारी सबसे बड़ी कमी है। जो अपने को जीत ले, उसे फिर यह दुनिया सताती नहीं।”

मुरारी बाबू के बुझे हुए चेहरे पर दर्शन की आभा नाच गई। मगर वह उषा की लाली में झट ही खो गई। हम पार्क में साथ-साथ टहलने लगे। उनकी कमर झुकी हुई, आवाज सहमी हुई। सवाल मैं ही करता–बहुत पूछने पर वह कभी-कभी खुल जाते।

“तो आपकी ऐसी हालत हुई क्यों?”

“क्या बताऊँ, सिन्हा साहब! मालती की शादी की फिक्र ने मुझे तोड़ दिया। बड़ी बिटिया सुधा की शादी की तो समझा था कि अपनी जाती के लोग उसके ससुरालवालों की ही तरह शरीफ और विचारवान हैं, मगर अब देखता हूँ कि मेरी धारणा बिलकुल गलत निकली। वे करोड़ों में एक रहे–यहाँ तो सभी के सभी–क्या बताऊँ साहब, उनके दिखाने के हाथी के दाँत कुछ और हैं, खाने के कुछ और। मालती का भाग्य ही ऐसा! तीन साल से दौड़ रहा हूँ, मगर जहाँ कहीं भी मन लायक लड़का मिलता है तो पैसे की माँग इतनी होती है कि दिल थर्राकर बैठ जाता है। दो सौ रुपये माहवार पर जिंदगी काट दी–अब बुढ़ापे में पंद्रह-बीस हजार की शादी कहाँ से करूँ! दो-दो बेटियों को ग्रेजुएट कराया, दो-दो बेटों को पढ़ा-लिखाकर काबिल किया–अब इससे भी ज्यादा यदि मुझसे समाज माँगता है तो मेरे ऊपर सरासर जुल्म है।”

“मुरारी बाबू, आप किताबी दुनिया की कहाँ से बातें करने लगे! साहित्यिक मिजाज के ठहरे इसलिए झट उपन्यासों में उठाए गए समाज के अत्याचारों की ओर आपकी निगाह दौड़ जाती है। अजी साहब, यही तो हमारा संसार है। इसी में उबचुब करते जीना-मरना है। जो जरा भाग्यवान है, वह इसी संसार में मौज-मजे लूट लेता है और जो हमारी-आपकी तरह किस्मत की मार खा गया है, वह रात-दिन डूबता-उतराता है।

“सिन्हा साहब, मुझे तो राजू ने धोखा दे दिया वरना आज मैं भी भाग्यवान रहता। क्या बताऊँ, उस अहमक को मैंने लाख समझाया कि बेटा! तुम बड़े बेटे हो, ओवरसियरी कर लो–सिर्फ तीन साल की मेहनत है, फिर तो रुपये बरसेंगे; मगर वह कतई तैयार न हुआ। कहता है कि मुझसे यह काम न होगा–मैं ठहरा आर्टिस्ट–पेंटिंग करके लाखोंलाख कमा लूँगा–आप पिता जी, फिक्र न करें। हूँ! सिन्हा साहब! यहाँ आर्ट की जो कद्र होती है, वह मैं खूब जानता हूँ। हिरणी की आँखें, पीन पयोधर तथा क्षीण कटि बनानेवाले अब गली-गली साइनबोर्ड बनाते फिर रहे हैं, मगर आज उस मार को कौन सह रहा है–बस, अकेला मैं। पत्नी ने तो फिक्र से खाट पकड़ ली है। आज दाने-दाने को मुहताज हूँ।”

“वाह, आपने भी खूब कहा! गाँव में तो आपकी दो-चार बीघे जमीन बिकते-बिकते भी बच गई थी। अभी हाल तक घर से गल्ला लाने को परमिट बनवाने मेरे ऑफिस में आप आया करते थे।”

“अजी साहब, उसकी भी तो अपनी अलग कहानी है। ऑफिस से एक बार कई साल से जमा होते हुए बोनस के पैसे एक ही साथ मिले थे। सोचा, इसे रेहन पर चला दूँ। घर से सूद पर कुछ गल्ला भी आ जाएगा। वैसे मेरा यह रुपया हाथ में रहता तो उड़-उड़ा जाता–इसलिए चलो, मालती की शादी के समय इसे वापस ले लूँगा। मगर आपके कहने के लिहाज से भाग्यवान तो मैं हूँ नहीं, बस एक भारी गलती कर बैठा। वर्षों बाद एक दिन रेहनदार कुल पैसा लेकर आया और बड़ी आजिजी से उसे मुझे लौटाने लगा, मगर मुझे अपने पर भरोसा न था–उस समय तक मालती की शादी बहुत दौड़-धूपकर भी ठीक न कर सका था–इसलिए कहा–भाई, अभी जल्दी क्या है! रुपये अपने पास ही रखो–तुमसे बहुत पुराना संबंध है। बिटिया की शादी ठीक होते ही तुमसे माँग लूँगा। वह रुपया लेकर चला गया। मगर वाह री मेरी किस्मत! रेहन का कानून बदला और मेरा कुल रुपया डूब गया। मैं रेहनदार के पीछे-पीछे दौड़ता रहा, मगर उसने पीठ पर हाथ ही नहीं रखने दिया। कानून का साया उसके ऊपर था–मेरा कुल रुपया डूब गया।”

मैं मुरारी बाबू को भौचक हो देखने लगा–जो आँखें सदा हँसती रहती थीं, उनमें आज एकाएक आँसू छलछला आए। मैं चुप हो गया–वह भी चुप हो अतीत की ओर बढ़ चले। दोनों टहल रहे हैं, मगर एक दूसरे से कुछ भी नहीं कहते–कुछ भी नहीं पूछते।

फिर उनकी तंद्रा टूटी और उन्होंने कहना शुरू किया–“सिन्हा साहब, उसके बाद जहाँ कहीं भी जाता, यही सुनने को मिलता कि अमुक दिन को फलदान में इतने रुपये चढ़ा दें, इतने सूटपीस, चाँदी के कटोरे, अक्षत, पान-फूल-कसैली-नारियल–चाँदी के, सोने के भी। माथा चकरा जाता–पान-फूल-कसैली-नारियल–चाँदी के सोने के भी। सूटपीस, चाँदी के कटोरे–नकद भी। बाप रे! यहाँ टेंट में कानी चित्ती भी नहीं। बस, भागा घर। औने-पौने किसी तरह तीस जेठ के पहले खेत बेचकर दस हजार रुपये इकट्ठे किए तो कहीं जान में जान आई। खोया हुआ आत्मविश्वास फिर लौट आया।”

मुरारी बाबू की इस दयनीय स्थिति का अंदाज लगाकर मुझे बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने अपनी आखिरी निधि भी खो दी। अब खेत बेचकर वह दाने-दाने को सचमुच मुहताज हो गए। मैंने फिर उन्हें झकझोरा–“मुरारी बाबू, खेत बेचकर आपने अच्छा नहीं किया। यही तो आपका आखिरी सहारा था।”

“तो दूसरा चारा भी क्या था? डूबते का यही एक सहारा रहा।”

“आपकी बेटी विदुषी है। बी. ए. पास है। उसे बी-एड. कराकर अपने पैर पर खड़ा कर दें। फिर वह अपना शौहर खुद चुन लेगी। आप उसके लिए क्यों परेशान हो रहे हैं?”

“यही न आप गलत कह रहे हैं। यह तो आप-जैसे अमीरों के चोंचले हैं। हमारी औकात के लोगों में इसकी कोई कीमत नहीं। पढ़ाई-लिखाई सब अपनी जगह पर–मगर जहाँ विवाह का सवाल उठा कि लड़कावाला अपना मोल-तोल करने लगता है। लड़के की पढ़ाई पर किए गए खर्च का हिसाब तो बेटे का बाप कर लेता है, मगर बेटी की शिक्षा पर खर्च किए हुए रुपये पर कोई ध्यान ही नहीं दिया जाता। अजी साहब, यह तो अब आवश्यक अतिरिक्त योग्यता है–लड़की चुनने की होड़ में आपको इसके लिए नंबर कुछ ज्यादा मिलेंगे, मगर जहाँ पैसे का सवाल है वह तो अपनी जगह अटल है।”

“आप ठीक कहते हैं मुरारी बाबू! जैसे अँग्रेजी स्कूल यानी कान्वेंट में पढ़ी हुई लड़की को अमीरजादों की टोली में ज्यादा मार्क्स मिलते हैं। एम. ए. के साथ-ही-साथ यदि वह कान्वेंट में भी पढ़ी हुई है तो फिर सोने में सुहागा।”

मुरारी बाबू इस बार जरा मुस्कुरा दिए–“अजी सिन्हा साहब, भगवान न करे, कोई बेटी का बाप बने। वर्किंग बूमेन को आजकल के मॉडर्न कहे जाने वाले सभी लड़के पसंद नहीं करते। वही दकियानूसी खयाल सब जगह हावी है। मर्दों के बीच बीवी को नहीं काम करने देंगे–और फिर बीवी घर की इज्जत है–वह भला बाहर काम करेगी? आधुनिकता पर कहानी पढ़ते रहिए, मगर आपको बहुत कम घर ऐसे मिलेंगे, जहाँ आधुनिकता का कोई असर हुआ हो–खासकर लड़कियों की शादी के मामले में। बस, सबकी एक ही कैफियत है सिन्हा साहब,–कोउ न रहा बिनु दाँत निपोरे।”

“मुरारी बाबू! तो जब आपने पैसे का सारा इंतजाम कर ही लिया तो देर काहे की–चिंता किस बात की?”

मुरारी बाबू की भौंहें तन गईं–“कहाँ तक गिनाऊँ–कहाँ तक! दस हजार का प्रबंध किया तो इधर सोने का भाव बढ़ गया। अब नई बीमारी शुरू हुई। सोने के भाव पर मोल-तोल होने लगा। अभी एक लड़का पसंद आया। राजू का जाना-पहचाना–एक हमजोली। सोचा, सस्ते में पट जाएगा। लड़के के माँ-बाप ने मालती को देखा–सराहा भी, एक आशा बँधी मगर वहाँ जाता हूँ तो बेटे के बाप ने पहले ही कहा–“साहब, दस भर सोना तो मैं मंडप में चढ़ाऊँगा–फिर बँगलोर सिल्क की साड़ियाँ–कपड़े-लत्ते–बस के खर्चे। आपकी खातिर पर जो खर्च होंगे या बर-विदाई में जो हमारा खर्च होगा वह तो मैं सह लूँगा, मगर पंद्रह हजार के नीचे तो किसी भी तरह काम न चलेगा। यह तो कम-से-कम। हाँ, सोने का भाव पुराना रहता तो दस हजार में काम चल जाता–यहाँ तो सोने का भाव पौने ग्यारह सौ रुपये है–अब कोई गुंजाइश नहीं।”

“तब…?”

“तब क्या! उन्हें बहुत समझाया कि हमें गहने नहीं चाहिए–मेरी बेटी को गहने कतई पसंद नहीं। वह तो विदुषी है–दिन-रात पढ़ती रहती है। तो उन्होंने तपाक से कहा–बस, रहने दीजिए। आखिर दीन-दुनिया को मुझे मुँह दिखाना है या नहीं? बिना जेवर के कहीं शादी होती है? न मेरे घर में खैर, न आपके घर में खैर। मार-मार तो बेटे के बाप की होगी। आप तो बाल-बाल बच जाएँगे। दोनों पक्ष की औरतें यही कहेंगी कि बेटे के बाप ने सब रुपये हज्म कर डाले। मैं अपनी तौहीनी कराने को हरगिज तैयार नहीं।”

“फिर?”

“फिर क्या! मैंने उन्हें लाख समझाया कि मुझ पर रहम करें–आखिर मैं भी तो बेटी को यों ही डोली पर न चढ़ा दूँगा। फिर बराती-सराती दोनों का खर्च। सोने के भाव पर मेरी बेटी को न तौलें, मगर वे मेरी एक भी सुनने को तैयार नहीं। कहते ही चले गए कि यही तो एक मौका है, जब बहू के लिए गहने बन जाते हैं। फिर घर-गृहस्थी से पैसे बचते कहाँ हैं कि उसके लिए कुछ हो सके। आखिर गहने ही तो अमीरी के शृंगार हैं और गरीबी के आहार।”

“तो आपने क्या किया?”

“करता क्या–उनकी बातें कोरी बकवास नहीं हैं–कुछ तत्त्व भी है उनमें–मगर मेरा तो गला कट गया। किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो धीरे-से चला आया। उठते-उठते कह आया कि अभी तो खरमास है–अच्छे दिनों में आऊँगा तो सारी बातें तय होंगी।”

हमलोग अब कुछ तेजी से टहलने लगे। ऐसा जान पड़ा कि मुरारी बाबू मेरी भी राय जानने को उत्सुक हो रहे हैं और इधर मैं अपने आप में खोता चला गया। मैंने सोचा कि यह शादी न होगी तो मुरारी बाबू से फिर कोई भी शादी ठीक न हो सकेगी। तीन साल दौड़-धूप कर तो तीतर पकड़ा मगर वह भी अब उड़ना चाहता है। घर-द्वार, लड़की सभी योग्य हैं। लड़की भी पसंद आ गई है। सिर्फ कुछ पैसों के लिए यह अवसर खोना ठीक न होगा। एक बात मेरे मन में कौंध गई। मैंने झट कहा–“अच्छा, एक बात तो बताएँ! आपका दूसरा लड़का क्या करता है?”

“आपके आशीर्वाद से वह एक विदेशी फर्म में अच्छी नौकरी पा गया है–हजार के करीब उसे अब पैसे मिलने लगेंगे।”

“वाह! तब सोचना क्या! कहीं से कर्ज-गुलाम लेकर काम चला लें और उसकी शादी में पंद्रह हजार रुपये वसूल कर कमी पूरी कर लें।”

मैं बड़े गौर से मुरारी बाबू को देखने लगा। उनके जिस्म पर क्षणभर को हरियाली छा गई। वह कूद पड़े–“हाँ, यह तो बड़ा अच्छा सुझाव है। आज आपके साथ घूमना फल गया।”

…मगर ऐं, यह क्या? क्षणभर बाद वह आभा कहीं खो गई और वह बड़े गुमसुम हो गए। मैं भी चुप हो उनके साथ टहलता रहा। उन्हें छेड़ना ठीक नहीं। सोचा, शायद हिसाब-किताब वह ठीक कर रहे होंगे। कुछ देर बाद मैंने ही शांति भंग की–“आप इतने गुमसुम क्यों हो गए! क्या मेरी बात आपको जँची नहीं?”

“क्या कहूँ साहब! सोने का भाव मुझे भी तो सता रहा है! अमर के लिए जितने ग्राहक आते हैं–सभी से मैं भी तो यही सवाल करता हूँ। सोने के भाव इस कदर बढ़ रहे हैं कि मैं खाऊँ किधर की चोट, बचाऊँ किधर की चोट! एक ओर गरीबी तो दूसरी ओर लोक-निंदा, लोक-लाज! उफ, बड़ी परेशानी है!”

अबतक पार्क में सूर्य की रोशनी फैल चुकी है। हमने शीघ्र ही बाहर निकल अपनी-अपनी राह पकड़ी। निरुत्तर-निरुत्तर ही रहा।

आकाशवाणी के सौजन्य से

उदय राज सिंह द्वारा भी