अफ्रीका
- 1 May, 1964
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- 1 May, 1964
अफ्रीका
अफ्रीका एक ऐसी रचना है, जिसमें महाकवि ने बिल्कुल पिछड़े महादेश अफ्रीका के निर्दोष, निर्बोध आदिमवासियों के ऊपर होनेवाले तथाकथित सभ्य पाश्चात्य जगत के अमानुषिक व्यवहार के प्रति अपना संवेदनशील विरोध प्रगट किया था तथा विश्व के सारे कवि-समाज को उस कुत्सा के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए आमंत्रित किया था। अफ्रीका के उन दलित वर्गों के प्रति महाकवि की सहानुभूतिपूर्ण संवेदनशीलता आज भी विश्व के समस्त दलित वर्गों के प्रति हमें संवेदनशील बने रहने की प्रेरणा देती है। आज की अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति को देखते हुए, जो प्राय: पिछड़े देशों को ही अपनी पैतरेबाजी का अखाड़ा बनाती जा रही है, यह मानना पड़ता है कि प्रस्तुत रचना आज भी उतनी ही प्रेरक सिद्ध होगी, जितनी रचना-काल में।
(मूल)
उद्भ्रांत सेई आदिम युगे
स्रष्टा जखन निजेर प्रति असंतोषे
नूतन सृष्टि के बारबार करे छिलेन विध्वस्त;
तार सेई अधैर्य घन-घन माथा नाड़ार दिने
रुद्र समुद्रेर बाहु
प्राची धरित्रिर बुकेर थेके
छिनिये निये गेलो तोमाके अफ्रिका
बाँधले तोमाके बनस्पतिर निबिड़ पाहराय
कृपण आलोय अंत:पुरे।
से खाने निभृत अवकाशे तुमि
संग्रह कर छिले दुर्गमेर रहस्य
चिनछिले जल स्थल आकाशेर दुर्बोध संकेत
प्रकृतिर दृष्टि अतीत जादू
मंत्र जागाच्छिले तोमार चेतनातीत मने
विद्रुप कर छिले भीषण के
विरुपेर छद्म वेशे
शंका के चाच्छिले हार मानाते
आपना के उग्र कर विभिषिकार प्रचंड महिमाय
तांडवेर दुंदुभि निनादे।
(2)
हाय छायावृता,
कालो घोमहार नीचे
अपरिचित छिलो तोमार मानव रूप
उपेक्खार आविल दृष्टि ते।
एलो ओरा लोहार हातकड़ि निये
नख जादेर तीख्न तोमार नेकड़ेर चेये
एलो मानुष धरार दल,
गर्वे जारा अंध तोमार सूर्यहारा अरण्येर चेये
सभ्येर बर्बर लोभ
नग्न कर लो आपन निर्लज्ज अमानुषता
तोमार भाषाहीन क्रंदने वाष्पाकुल अरण्य-पथे।
पंकिल हल धूलि तोमार रक्ते अश्रुते मिशे
दस्यु-पायेर काँटा-मारा जूतोर तलाय–
वीभत्स कादार पिंड
चिर चिह्न दिये गेलो तोमार अपमानित इतिहासे।
(3)
समुद्र पारे सेई मुहुर्तेई तादेर पाड़ाय पाड़ाय
मंदिरे बाजद्दिलो पूजार घंटा
सकाले संध्याय दयामय देवतार नामे
शिशुरा खेल छिलो मायेर कोले
कविर संगीते बेचे उठे छिलो
सुंदरेर अराधना।
आज जखन पश्चिम दिगंते
प्रदोष काल झंझा वातासे रुद्ध स्वास
(4)
जखन गुपुगह्वर थेके पशुरा बेरिये ऐलो
अशुभ ध्वनि ते घोषणा कर लो दिनेर अंतिम-काल
एसो युगांतेर कवि
आसन्न संध्यार शेष रश्मिपाते
दाँड़ाओ वोई मानहारा मानवीर द्वारे
बोलो, खमा करो!
हिंस्र प्रलापेर मध्ये
एई होक् तोमार सभ्यतार शेष पुण्यवाणी।
(अनुवाद)
उद्भ्रांत आदि युग वह
स्रष्टा जब अपने में असंतुष्ट
नवीन सृष्टि को कर रहा था बार-बार विध्वस्त
उसकी उस निरंतर विक्षुब्धता के दिन
रुद्र समुद्र की भुजायें–
प्राच्य धरित्रि के हृदयांतर से
ओ अफ्रिका तुम्हें छीन ले गया
तथा बाँध दिया वन वनस्पतियों के पहरे में
कृपण किरणों के अंत:पुर में
जहाँ तू एकांत अवकाश में
संग्रहित था कर रहा दुर्गम रहस्य
था समझ रहा जल थल नभ का दुर्बोध संकेत
प्रकृति के परे का जादू
मंत्र था जगा रहा तेरे चेतनाहीन मन में
तू कर रहा था भीषण की प्रवंचना
रूपहीन छद्मवेश में
तू चाह रहा था शंका को हार मनाना
बना कर उग्र अपने को विभीषिका की प्रचंड महिमा में
तांडव की दुंदुभिनिनाद में।
(2)
हाय छायावृता
काली घूंघट के नीचे
अपरिचित था तुम्हारा मानव रूप
उपेक्षा की कुत्सित दृष्टि में।
आये वे लोहे की हथकड़ी लेकर
नाखून जिनके तेरे भेड़ियों से भी तीक्ष्णतर
हाँ आदम-शिकारी दल
बिल्कुल गर्वांध तेरे आलोक शून्य अरण्य से बढ़कर।
सभ्यजनों का बर्बर लोभ
जिसने नग्न की अपनी निर्लज्ज अमानुषिकता
तेरे भाषाहीन क्रंदन में वाष्प भरे वन-पथ में।
धूल बनी कादो मिलकर तेरे रक्ताश्रु में
लुटेरों के पावों के काँटी जड़े जूतों के तले–
वीभत्स कीचड़ का लोंदा
चिर चिह्न दे गया तेरे अपमानित इतिहास में।
(3)
तभी समुंदर के पार वहाँ
टोले-टोले में बज रहा था मंदिर में घंटा
सुबह-शाम देवता के नाम पर
शिशुगण खेल रहा था माँ की गोद में
और कवि के संगीत में बज उठा था वहाँ
सुंदर की आराधना।
(4)
आज जब पश्चिमी दिगंत में
गोधूलि बेला, हू-हू-हहास में रुद्ध साँस
जब गुप्त गह्वर से निकल आया है पशुदल
घोषणा की है अमंगल दिवस का अंतिम काल
हे युगांतर-कवि,
ऐसी आसन्न संध्या के शेष रश्मि-पात में
आ उपस्थित हो जा–उन मानभ्रष्ट मानवों के द्वार पर
बोलो क्षमा करो
और हिंस्र प्रलापों के मध्य
यही हो तुम्हारी सभ्यता की शेष पुण्यवाणी।
अनुवादक-भगवान चंद्र घोष
Image: African Motiff
Image Source: WikiArt
Artist: Ilya Repin
Image in Public Domain