श्री राधाकृष्ण : एक इंटरव्यू
- 1 May, 1964
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- 1 May, 1964
श्री राधाकृष्ण : एक इंटरव्यू
इसी वर्ष जनवरी मास में ‘आलोक-संगम’ के एक कार्य से राँची जाना हुआ। सोचा, क्यों न इस यात्रा को और भी उपयोगी बनाया जाए। मन में आया कि यहाँ हिंदी के लब्धकीर्ति कथाकार राधाकृष्ण जी रहते हैं। उन्हीं से क्यों न इंटरव्यू ले लिया जाए।
दो बजे दिन में पहुँच ही गया उनके भट्टाचार्य लेन स्थित निवास स्थान पर। आवाज दी। एक तेरह-चौदह साल का लड़का भीतर से निकला।
‘क्या राधाकृष्ण जी हैं?’
‘हाँ, हैं, अभी बुला देता हूँ।’
राधाकृष्ण जी आए। मैंने उनसे अपनी इच्छा व्यक्त की। वे हँसे। दूसरे दिन 9 बजे सुबह बुलाया।
सुबह। ठिठुरन भरी सुबह!
9 बजे राधाकृष्ण जी के यहाँ जाना है। जल्दी-जल्दी तैयार होकर ठीक 9 बजे उनके यहाँ पहुँच गया। बाहरवाला कमरा बंद था। मैंने आवाज लगाई। एक व्यक्ति झाँका। राधाकृष्ण जी बाहर आए।
‘प्रणाम।’
‘प्रणाम कर्ण जी’ बड़े तपाक से मिले।
एक बच्चे से चाय लाने को कह दिया। बाहर कमरे की चाभी भीतर ही छूट गई थी। उसे लाने भीतर गए।
हमलोग भीतर कमरे में आए। छोटा कमरा। दरी पर चादर बिछी हुई। चादर भी साधारण। शायद हफ्तों से धुली नहीं है। राधाकृष्ण जी पद्मासन बैठ गए। मैंने जब कभी भी बैठे देखा, इसी रूप में देखा है। कमरे में नजर दौड़ाई। नजर पास में ही रुक जाती थी। कमरा छोटा था न! पिछली यात्राओं में जब आया था तब दीवार पर राधाकृष्ण जी का एक चित्र (स्केच) टंगा रहता था। आज वह नहीं था। नंगी दीवार।
हमलोगों के लिए चाय आ गई थी। राधाकृष्ण जी दवा मिली चाय पीते हैं।
‘गत वर्ष जब मैं आया था तब आपके पेट में कुछ दर्द था।’ ‘हाँ, गत वर्ष तो मैं बुरी तरह परेशान था दर्द से। कल भी जब आए थे आप लोग तो आँत के चारो ओर लगता था जैसे घाव हो गया है। उससे दर्द हो रहा था।’
बातें चल ही रही थीं कि मोहन प्रसाद ‘मधुराज’ और सुरेंद्र कुमार वर्मा ‘व्यथित’ आ गए। इन लोगों के लिए भी चाय आई। इस बीच हमलोग इधर-उधर की बातें करते रहे।
चाय खत्म हो गई। मैंने अपने कागज संभाले। मैंने कुछ प्रश्न उनसे पूछने के लिए लिख लिए थे। ‘लाइए तो देखूँ आपके क्या-क्या प्रश्न हैं?’ देखने के बाद उन्होंने कहा–‘प्रश्नों की सूची तो बड़ी लंबी है।’ मैंने मुस्कुरा दिया।
प्रश्नों की सूची राधाकृष्ण जी ने अपने ही सामने रखी। उन्होंने अपने जो विचार प्रकट किए उसके भाव उनके हैं, भले कहीं-कहीं शब्द मेरे हो गए हैं।
‘अपने प्रारंभिक जीवन के संबंध में बताइए।’ मैंने कहा। ‘मेरा जन्म 18 सितंबर 1912 ई. को राँची में हुआ। प्रारंभिक जीवन बहुत ही संघर्षमय बीता।’
‘आपने साहित्यिक जीवन में किस तरह प्रवेश किया? लिखने की प्रेरणा किससे मिली? पत्र-पत्रिकाओं में कबसे छपने लगी?’ मेरे एक साथ ही कितने ही प्रश्न थे। ‘मेरे साहित्यिक जीवन में प्रवेश करने के पीछे कोई घटना नहीं है। अन्य साहित्यकारों की तरह मैं भी लेखन के क्षेत्र में आया।
लिखने की प्रेरणा किसी व्यक्ति से नहीं मिली। यह तो एक प्रेरणा है, भीतरी ‘अर्ज’ है। लिखने की प्रेरणा मुझे अध्ययन से मिली।
पहली कहानी अप्रैल 1929 में ‘हिंदी गल्पमाला’, बनारस में छपी। इस पत्र के संपादक थे जयशंकर प्रसाद जी के मामा श्री अंबिका प्रसाद गुप्त। कहानी का शीर्षक था–‘सिंहा साहब’।
‘आपने साहित्य की विभिन्न विधाओं पर कलम चलाई है। किंतु आपको अपना कौन-सा रूप पसंद है?’ उन्होंने कहा–‘जो विधा लेखक पसंद करता है उसी पर न कलम चलाता है! जिन विधाओं पर मैंने लिखा है सबमें मेरा मन रमा है।’
‘हिंदी-कथा क्षेत्र में ‘नई कहानी’ की जो प्रवृत्ति चली है उस संबंध में आपके क्या विचार हैं? इसके स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करते हैं?’
राधाकृष्ण जी इस प्रश्न को नजरअंदाज कर जाना चाहते थे। उन्होंने कहा–‘मुझे इस प्रश्न में न उलझाइए तो अच्छा है क्योंकि यह आज की ऐसी विवादास्पद समस्या है जिसपर चुप रहना ही उचित है। फिर इस पर विचार देना तो कोई आवश्यक भी नहीं।’
‘जी नहीं, इस समस्या पर आपका विचार जानना आवश्यक प्रतीत होता है क्योंकि आपके रूप में प्रेमचंद कथायुग का विचार प्रकट होगा।’ मैं इस संबंध में उनके विचार जानने को उत्सुक था।
‘मैं अपने विचार तो व्यक्त कर रहा हूँ मगर इसे लिखिएगा मत। वैसे ही हमलोग इस पर बातचीत के तौर पर विचार करें।’ लगता था जैसे वे इस प्रश्न से कतरा रहे हैं। उन्होंने बार-बार मुझसे अनुरोध किया कि उनके इन विचारों को ‘इंटरव्यू’ में शामिल न करूँ। किंतु मैं उनकी आज्ञा की अवहेलना कर ‘नई कहानी’ के संबंध में उनके विचार दे रहा हूँ। इसके लिए मैं राधाकृष्ण जी से क्षमा माँग ले रहा हूँ। उन्होंने ‘नई कहानी’ के संबंध में जो विचार व्यक्त किए वे कमोबेश इस प्रकार हैं–
‘आज की कहानी की टेकनीक नई नहीं है। नई कहानी के तत्व भी नए होने चाहिए। आज का कहानीकार कथावस्तु को भाव के द्वारा ग्रहण नहीं करता है। इसीलिए उसमें ग्राहिया शक्ति भी नहीं होती है। वह बुद्धि प्रधान हो जाती है।
आज नए लोग कहानियाँ लिख रहे हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं कि उनकी लिखी कहानी भी नई हो गई। चाहे पुराना कहानीकार लिखे या नया कहानीकार जिसकी कहानी में कहानीपन अधिक होगा वही कहानी कहानी है। आज के कहानीकार सच्चाई को फाँकी दे देते हैं। जो सत्य है उसकी अभिव्यक्ति नहीं करते। सभी का जीवन गड़बड़ है–जनता से लेकर सरकार तक का…जनता के अंत:करण की भावधारा को किसी ने समझने का प्रयास नहीं किया। प्रेमचंद युग के कहानीकार कुछ समझ पाए। नए तो कुछ समझ ही नहीं पाए। आप कुछ भी लिख लें अगर जनता की भावना को अभिव्यक्ति नहीं देते हैं तो उसकी सार्थकता कुछ नहीं। चार साहित्यिक मिलकर एक-दूसरे की तारीफ़ करें तो इससे तो कुछ नहीं होता।’
‘नई कहानियों में प्रतीक-योजना तथा बिंब-विधान आदि नए तत्त्व जो आए हैं वे क्या इसे पुरानी कहानी से अलग नहीं करते?’ मैंने बीच में ही नई कहानी की विशिष्टताओं की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिहाज से पूछा।
‘तो क्या बिंब-विधान तथा प्रतीक-योजना पुरानी कहानियों में नहीं थे?’ उन्होंने आगे कहा–‘कविता के क्षेत्र में भी प्रयोगवाद का नारा लगाया जा रहा है। हर कवि अपने युग में प्रयोग करता है। क्या वाल्मीकि ने प्रयोग नहीं किया? फिर उसे प्रयोगवाद की संज्ञा क्यों नहीं दी गई?’ आगे उन्होंने कहा–‘कम्युनिस्टों ने प्रगतिवाद को गाँठा। अमेरिकन प्रभाव से जो लिख रहे हैं उसे प्रयोगवाद कहते हैं। सब जगह राजनीति है।’
मेरा अगला प्रश्न था–‘आपके उपन्यासों में सर्वश्रेष्ठता किसे प्राप्त है?’
‘हम अभी तक सर्वश्रेष्ठ उपन्यास नहीं लिख पाए हैं।’ उन्होंने कहा।
‘जी, मेरा यह मतलब नहीं है। मेरा प्रश्न है कि आपके अपने उपन्यासों में सर्वश्रेष्ठ कौन है?’
‘रूपांतर’ मेरे उपन्यासों में सर्वश्रेष्ठ है।’ उन्होंने बताया।
‘उपन्यास और कहानी दोनों विधाओं में विचार प्रकाशन की दृष्टि से कौन श्रेष्ठ है?’
उन्होंने बताया–‘उपन्यास में आसानी के साथ अपने विचार व्यक्त किए जा सकते हैं। कहानी में वह बहुत सीमाबद्ध है।’
‘कहानियों में आप शिल्प को अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं या कथानक को?’
‘शिल्प और कथानक दोनों महत्त्वपूर्ण हैं। अगर कथानक अच्छा है और शिल्प उत्तम नहीं हो तो बात बनती नहीं है। आज की कहानियों में तीन पेज पढ़ जाइए तब भी कथानक का पता नहीं चलता है। इससे बात बनती नहीं है।’
‘हास्य कथाओं में आपको अधिक सफलता मिली है। इसके पीछे क्या रहस्य है?’
‘इसके पीछे कोई खास रहस्य नहीं है। हाँ, हम किसी भी बात को सीरियसली सोचते और अनुभव करते हैं। इसीलिए सफलता मिली है। किसी वस्तु को सीरियसली के विपरीत लिखने से उसमें हास्य और व्यंग उत्पन्न होता है।’ उदाहरणस्वरूप उन्होंने अपनी एक नई लघु हास्य कथा सुनाई। कथा इस प्रकार है–पब्लिक सर्विस कमीशन से एक वांटेड निकला कि एक एम. ए. पास व्यक्ति की जिसकी नाक पर मासा है अमुक पद के लिए आवश्यकता है। एक दूसरा व्यक्ति जो एम. ए. और उसकी नाक पर मासा भी है, आवेदन पत्र देता है। दूसरे दिन अखबार में संशोधन निकलता है कि उसकी पीठ पर लहसन भी होना चाहिए।
‘वैसे बात साधारण-सी है कि आजकल नियुक्तियों में धाँधली होती है। भाई-भतीजावाद है। किंतु उसी को उल्टाकर कहने में हास्य उत्पन्न हो जाता है।’
‘आप अपनी रचनाओं के लिए सामग्री कैसे जुटाते हैं?’ ‘कहना कठिन है भाई! लेकिन सिनेमा देखकर नहीं जुटाते हैं। हमारी प्रेरणा के स्रोत हैं पठन-पाठन, अखबार के समाचार और जो मैं देखता हूँ।’
‘देशी-विदेशी लेखकों में किसने आपको सर्वाधिक प्रभावित किया है?’
‘देशी लेखकों में प्रेमचंद तथा विदेशी लेखकों में ओ. हेनरी और चेखव ने सर्वाधिक प्रभावित किया है।’
‘हिंदी पत्रकारिता के संबंध में आपके क्या विचार हैं?’
‘हिंदी पत्रकारिता कोई चीज नहीं है। न कमाई के लिए अच्छा है और न लिखने के ख्याल से। जब तक कमाई के ख्याल से इसका महत्त्व नहीं बढ़ता है तब तक इस पर क्या विचार किया जाए।’
‘क्या आप इसे स्वीकार करेंगे कि पत्रकारिता किसी भी लेखक के शाश्वत साहित्य लिखने में बाधक होती है?’
‘बेशक बाधक होती है। हिंदी पत्रों में जनता के विचार प्रकाशन के लिए नहीं उसे गोल करने के लिए लिखा जाता है। स्वतंत्र विचार आजकल की पत्रकारिता में चल ही नहीं सकता है, असंभव बात है। किसी भी सम्माननीय व्यक्ति को इस पेशे में नहीं आना चाहिए।’
राधाकृष्णजी पत्रकारिता के संबंध में विचार व्यक्त करते हुए उत्तेजित हो उठे थे।
मैंने आगे पूछा–‘क्या साहित्यिक पत्रिकाओं के संबंध में भी आपके यही विचार हैं?’
‘ये विचार दैनिक पत्रों के संबंध में हैं। इसे दैनिक साप्ताहिक पत्रों तक ही सीमित रखा जाए तो ठीक रहेगा। वैसे मासिक पत्रों की स्थिति भी हिंदी में ठीक नहीं है। जिस पत्रिका के संपादक को अधिक पैसे मिलते हैं उन पर व्यवस्थापकों का दबाव भी उतना ही है। वह स्वतंत्र नहीं है। घटिया लेखकों के लिए पैसे भी कम ही देने पड़ते हैं। अच्छे लेखक तो अपना मूल्य जानते हैं। उन्हें अधिक पैसे देने पड़ते हैं। इसीलिए आज का संपादक ‘नई कहानी’ के नाम पर नया आदमी प्रोड्यूस करता है।’ उसी क्रम में उन्होंने बताया कि पत्रकारिता के क्षेत्र में उनका तीस वर्ष बीता है। पिछले सत्तरह वर्षों से ‘आदिवासी’ में हैं। ‘माया’ में भी रहे हैं। ‘कहानी’ के तो आदि संपादक ही थे।
‘हिंदी का लेखक लिखकर जी सकता है? अगर नहीं तो उसे अपने जीविकोपार्जन के लिए क्या करना चाहिए?’
‘हिंदी का लेखक लिखकर नहीं जी सकता है। उसके लिए दूसरा काम नहीं करे। उसके लिए सेल्समैनशिप चाहिए। हमको अपनी कहानियों को बेचने की कला भी आनी चाहिए। कहानी को, लेखन व्यवसाय को व्यापार बनाना होगा। जैसे अन्य व्यापार चलते हैं। उसके लिए प्रचारक और विक्रेता होते हैं। लेखकों को भी यह तरीका अपनाना होगा, उसके बिना काम नहीं चल सकता है। लिखने की अपेक्षा उसे छपवा लेना, बेचना, पैसा प्राप्त करना अधिक कठिन कार्य है।’
मैंने इसी क्रम में पूछा–‘क्या लेखकों को प्रकाशक भी होना चाहिए?’
उन्होंने तपाक से जवाब दिया–‘अवश्य होना चाहिए। अगर वह सेल कर सकता है तो लेखन पर उसका प्रभाव पड़ेगा। वह खुद न लिखकर दूसरों से लिखवाएगा और छापेगा अपने ना से। वह शोषण करेगा।’
‘नए लेखकों को आपकी क्या सलाह है?’
‘अभी तक अपने संबंध में नहीं समझ पाया हूँ कि क्या करना चाहिए। फिर दूसरे को क्या सिद्धांत सिखलाएँ।’
‘आपके जीवन की कोई अविस्मरणीय घटना?’
‘कोई वैसी घटना नहीं।’
‘आपके क्या शौक हैं?’
‘कभी घुड़सवारी, फोटोग्राफी से बहुत लगाव था। अब कुछ नहीं।’
‘इन दिनों क्या कुछ लिख रहे हैं?’
‘एक उपन्यास में हाथ लगा हुआ है। छोटी-छोटी कहानियाँ लिखने का प्रयोग कर रहा हूँ और इसमें मुझे सफलता भी मिली है।’
इंटरव्यू खत्म हो गया। राधाकृष्ण जी ने बताया कि सहयोगी प्रकाशन से उनकी तीन पुस्तकें छपी हैं। उन्होंने एक–‘पहली पुस्तक’–मुझे दी भी। यह वैज्ञानिक विधि से लिखी गई है। इस पुस्तक के माध्यम से तेरह भाषाओं का ज्ञान हो सकता है। वे देर तक हमलोगों को इस संबंध में बताते रहे।
11 बजने ही वाला था। हमने उनसे विदा माँगी।
‘पत्र लिखते रहिएगा कर्ण जी।’ राधाकृष्ण जी ने कहा। उनके सहज, सरल व्यक्तित्व ने मुझे बेहद प्रभावित किया।
प्रणाम कर हम लोग लौटे।
Image: Sadi in a Rose garden
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