श्रव्य काव्य
- 1 May, 1953
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- 1 May, 1953
श्रव्य काव्य
हिंदी साहित्य का जो काल-विभाजन किया गया है उसमें आदिकाल को वीरगाथाकाल या चारण-युग कहा गया है। चारण-युग इसलिए कि उस समय चारण और भाट गाँवों में घूम-घूम कर लोगों को कविताएँ सुनाया करते थे। उनकी वीररसपूर्ण कविताओं को सुन कर अपढ़-अशिक्षित जनता में भी उत्साह और उमंग उद्दीप्त हो उठती थी। दल के दल युवक देशप्रेम की उन्मादना में उन्मत्त होकर रणभूमि में मरण-त्योहार मनाने के लिए चल पड़ते थे। वीरस के लिए छप्पय, कवित्त और सवैया छंद अधिक उपयुक्त समझे जाते थे। इसलिए चारण और भाट एक खास तर्ज के साथ इन छंदों को पढ़ कर सुनाया करते थे। आज भी यज्ञोपवीत, विवाह आदि शुभ अनुष्ठानों के अवसर पर भाट कवित्त और सवैया सुनाकर श्रोताओं को रसमग्न कर देते हैं। इन पंक्तियों के लेखक ने इस प्रकार के सैकड़ों छंद भाटों के मुँह से सुने हैं। भाट जब कवित्त सुनाने लगते थे तो कवित्त और सवैयों का तांता लग जाता था। अविरामगति से एक के बाद दूसरा छंद सुनाते चले जाते थे और वह भी प्रसंगानुकूल। केवल भाट ही नहीं, कत्थक भी, जो नृत्य-विद्या में कुशल होते थे, सूर, तुलसी से लेकर रीतिकाल के अंतिम श्रेष्ठ पद्माकर तक के न मालूम कितने पद, गीत, कवित्त और सवैया ताल, स्वर और लय युक्त सुना कर साधारणजनों में भी कविता और संगीत के प्रति सुरुचि उत्पन्न कर देते थे। इस प्रकार काव्य और संगीत के शास्त्रीय तत्त्वों को न समझने वाले भी उसके आनंद से वंचित नहीं रह जाते थे। श्रव्यकाव्य को दृश्य काव्य का रूप देने वाले इन चारणों और भाटों के वंशज आज अपनी परंपरागत वृत्ति को छोड़ कर अन्य कामों में लग गए हैं। इस समय जो भाट पाए जाते भी हैं वे अपने पूर्वजों की तरह कवित्त और सवैये चाहे जिस प्रसंग के अनुकूल कंठस्थ नहीं सुना सकते। कत्थकों का नृत्यसंगीत तो आज लुप्तप्राय ही हो चला है। पाठ्य या श्रव्य और दृश्य काव्य के बीच संयोगसूत्र स्थापित करने वाले तथा कवि के काव्य और सहृदय श्रोताओं के मध्य दूत का काम करने वाले चारण, भाट और कत्थकों को अब समाज द्वारा वह प्रश्रय नहीं मिलता जो पहले मिलता था।
केवल हमारे देश में ही नहीं संसार के सभी देशों में काव्य-साहित्य के इतिहास के साथ इन चारण और बंदी जनों का इतिहास विजड़ित है। जब से काव्य का आरंभ हुआ तभी से काव्य को पढ़ कर या सस्वर गा कर सुनाने वालों का भी आविर्भाव पाया जाता है। ग्रीस, इटली, फ्रांस, इंगलैंड इन सब देशों में ऐसे लोग थे जो सस्वर कविता-पाठ करके जनता का मनोविनोद किया करते थे। इतना ही नहीं, बल्कि हिंदी-काव्य साहित्य के इतिहास की आलोचना करने से यह भी ज्ञात होता है कि बहुत से कवि स्वयं भी अपनी कविताएँ पढ़ कर सुनाया करते थे। इस कला में वे कुशल होते थे। अपनी कविताओं को सस्वर और हाव-भाव के साथ पढ़ने वाले कवि जनता में लोकप्रियता प्राप्त करते थे। हिंदी के रीतिकालीन कवियों में इस प्रकार के कितने ही कवि थे जो राजदरबारों में अपनी कविताएँ पढ़ कर सुनाया करते थे। गंग कवि के संबंध में यह प्रवाद प्रसिद्ध है कि उन्हें एक कवित्त पढ़ कर सुनाने के लिए 36 लाख रुपए पुरस्कार स्वरूप मिले थे।
इस समय जिस प्रकार किसी साहित्यकार या कवि को प्रोत्साहन प्रदान करके आगे बढ़ाने के लिए प्रेस और पार्टी की पोषकता आवश्यक होती है उसी प्रकार उन दिनों भी किसी राजा या सामंत को पोषकता प्राप्त किये बिना कोई कवि प्रसिद्धि नहीं प्राप्त कर सकता था। यह ठीक है कि तुलसी और सूर जैसे कवियों को किसी राजदरबार की पोषकता नहीं मिली थी किंतु यह स्मरण रखना चाहिए कि इन कवियों की ख्याति अपने समय में कवि के रूप में उतनी नहीं हुई थी जितनी संत और महात्मा के रूप में। कवि-कर्म इनके लिए साध्य न होकर साधन मात्र था। कविता के माध्यम से ये अपने इष्टदेव का गुणगान एवं महिमा-कीर्तन करके आत्मतुष्टि लाभ करते थे। किसी राजा या सामंत के दरबार में प्रश्रय पाने के लिए कवि को अपनी कविता राजदरबार में पढ़ कर उपस्थित जनों को प्रभावित करना पड़ता था। श्रोतागण उनकी रचनाओं को सुन कर दाद देते थे और तब राजा और रईस उन्हें अपने यहाँ आश्रय देते थे अथवा पुरस्कृत करते थे। इस समय जैसा उस समय नीरव कवि नहीं होते थे। कारण इस समय का कोई भी कवि पत्र-पत्रिकाओं अथवा पुस्तकों के द्वारा अपनी रचनाओं को सहृदय पाठकों तक पहुँचा सकता है। किंतु उस समय इन साधनों का अभाव होने से एकमात्र उपाय यही था कि कवि अपनी वाणी को मुखरित करे। सभा के बीच राजा, सामंत और दरबारियों को तथा मंदिरों में भक्त-श्रोताओं को अपनी रचनाएँ सुना कर आनंद प्रदान किया जाय। उस समय के कवियों को केवल शब्दशिल्पी ही नहीं स्वरशिल्पी भी बनना पड़ता था। अक्षरों में जिस काव्य-रूप को वे प्रस्फुटित करते थे उसे कंठ के सुर में तरंगित करना पड़ता था। सुरशिल्पी भले हो न हो किंतु स्वरशिल्पी होना तो उनके लिए आवश्यक था। चारण और वंदीजन, जो कवियों की रचनाएँ पढ़कर सुनाया करते थे अथवा जो लोग रामायण, महाभारत और पुराणों की कथाओं को गाकर श्रोताओं में विस्मययुक्त भक्ति की भावना भरा करते थे, उनका आविर्भाव तत्कालीन समाज के प्रयोजनानुसार ही हुआ था। राम, लक्ष्मण, भरत, हनुमान, रावण, विभीषण, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, सावित्री-सत्यवान, नल-दमयंती इन सब की कहानियों को जब कथा बांचने वाले गाकर सुनाते तो उनका रूप श्रोताओं के मानस-चक्षु के सामने जीवंत रूप में प्रतिभासित हो उठता। कथा कहने वाले को एक साथ ही स्रष्टा एवं सृष्टि का अभिनय करके दिखाना पड़ता। उस युग के साधारणजन चारण, भाट, कत्थक और गायक कत्थकड़ी के मुँह से छंद, गीत और छंदोबद्ध कथाएँ सुनकर ही काव्यरस का आस्वादन किया करते थे। इससे केवल उनके रसपिपासु मन को परितोष ही नहीं मिलता था बल्कि उनका ज्ञानवर्धन भी होता था। इस रूप में ही इस देश के लाखों स्त्री-पुरुष अशिक्षित होने पर भी आदर्श चरित्रों एवं धर्म तथा सदाचार के मौलिक तत्त्वों से परिचित हो जाते थे।
मध्ययुग में यदि चारण, भाट, कत्थक और कत्थकड़ कवियों की रचनाओं का गा-गा कर प्रचार नहीं करते तो काव्यसाहित्य राज प्रासाद की चहारदीवारियों के अंदर ही मृतवत् पड़ा रहता और जन-साधारण तक उसकी पहुँच नहीं हो पाती। काव्य को अचलायतन के घेरे से उन्मुक्त करने का श्रेय इन चारण और कत्थकों को ही है। मध्ययुग में इन्होंने इस ऐतिहासिक दायित्व को ग्रहण करके समाज के सांस्कृतिक स्तर को ऊँचा रखा था। जिस आदिम युग में प्रकृति के साथ मनुष्य का संग्राम आरंभ हुआ था उस संग्राम के साथ ही साथ मनुष्य में नृत्य एवं गीत की भावना जाग्रत हो उठी थी। नृत्य एवं गीत उसकी संस्कृति के एक अविच्छेद अंग बन कर जीवित रहे हैं। प्रकृति एवं मनुष्य के बीच जो कठोर संग्राम चलता रहा उसमें काव्य उसके विजयाभियान का एक गौरवपूर्ण अध्याय बन गया। मनुष्य एक जीव मात्र नहीं है यह काव्य-साहित्य हमें बार-बार स्मरण करा देता है । साहित्य ने ही सर्वप्रथम कल्पना के स्वर्ग से देवी-देवता को लाकर इस पृथ्वी पर मनुष्य के बीच उपस्थित किया। साहित्य ने ही इस बात की घोषणा की कि देवता का आसन मानव-समाज के बीच होगा। कल्पना के देवता वास्तविक देवता बनकर समाज का मंगल साधन करेंगे। हमारा काव्य-साहित्य केवल विलास और अवकाश का समय व्यतीत करने का साधन किसी दिन भी नहीं रहा। जन-गण के प्राणों के साथ उसका संपर्क किसी न किसी रूप में बराबर बना रहा। आनंद का वितरण करने के साथ-साथ वह जनता के सामने जीवन के महत् आदर्श उपस्थित करता था और नैतिक मूल्यों के प्रति उनके मन में श्रद्धा उत्पन्न करता था।
साहित्य के इस प्रयोजन की पूर्ति केवल कवि ही नहीं बल्कि चारण, भाट और कत्थकड़ भी किया करते थे। इन चारणों और कत्थकड़ों का ही यह काम था कि वे जनता को नैतिकता एवं उच्चादर्शों के प्रति आकृष्ट करते और मानवता के स्वरूप तथा महत्तर जीवन के लक्ष्य के प्रति उसे परिचित करा देते थे। काव्य के माध्यम द्वारा यह कार्य जितना सहज रूप में संपन्न हो सकता था उतना धर्मशास्त्रों के सहस्र-सहस्र वाक्यों द्वारा नहीं। बिहारी के एक दोहे ने विलासी राजा जयसिंह के अंदर कर्तव्यबुद्धि जागृत करने में जितना काम किया उतना क्या किसी उपदेशक के उपदेश कर सकते थे?
तो फिर चारण, भाट और कत्थकड़ों की वृत्ति आज लुप्तप्राय क्यों हो रही है? इस प्रश्न का उत्तर यही हो सकता है कि गीतों और कविताओं के प्रचार के लिए आज उनकी अपेक्षा अधिक योग्यतर साधन आविष्कृत हो चुके हैं। आज उनकी आवश्यकता उतनी नहीं रह गई है जितनी उस युग में थी जबकि छापाखाना, ग्रामोफोन, सिनेमा और रेडियो का प्रचार नहीं हुआ था। जो प्रयोजन की प्रेरणा थी उसका स्रोत ही जब शुष्क हो गया है तो फिर उसका प्रकाश का पथ लुप्तप्राय क्यों नहीं होगा? आधुनिक युग में चारण और कत्थकड़ों का प्रयोजन इसलिए नहीं रहा कि अपने साहित्य-प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए लोग नए-नए माध्यमों का उपयोग करने लगे हैं।
किंतु इस प्रसंग में एक बात उल्लेखनीय है। चारण और भाट, कत्थक और कत्थकड़ आज के युग में भले ही अनुपयुक्त एवं अनावश्यक प्रतीत हों उनका संपूर्ण विलोप नहीं हो सकता। भौतिक विज्ञान का यह नियम है कि किसी वस्तु का संपूर्ण विनाश नहीं होता। पुरातन का प्रत्यावर्तन नव-नव रूप में हुआ करता है। इतिहास जीर्ण-पुरातन के ध्वंस-स्तूप पर नूतन की रचना करता है जो पुरातन का ही परिवर्तित रूप होता है। इस नियम के अनुसार ही चारण की प्रथा का साहित्य-सम्मेलनों और सभा-समितियों में कवि-सम्मेलन कवि-दरबार और कवि-गोष्ठियों के रूप में नव जन्म हो रहा है। कवियों की रचनाओं को पुस्तकों में पढ़ने की अपेक्षा लोग उनके मुँह से सुन कर अधिक आनंद प्राप्त करते हैं। इस रूप में जनता के साथ कवियों का संपर्क और भी घनिष्ठतर होता है और कवि तथा सहृदय श्रोताओं के बीच हृदय का संबंध स्थापित हो जाता है।
Image: Blind meddah singing the epic of the prophet or the Arab storyteller
Image Source: WikiArt
Artist: Nasreddine Dinet
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