गत्यात्मक रहस्यवाद

गत्यात्मक रहस्यवाद

बर्गसां ने हिंदू रहस्यवाद के स्वरूप का निर्धारण करते हुए उसे स्थित्यात्मक ठहराया है क्योंकि इसमें गतिशील जीवन का स्वर मुखरित नहीं; यह जीवन से एक प्रकार का पलायन है। डॉ. महेंद्रनाथ सरकार जब बर्गसां से उसके घर पर पेरिस में मिले तो बर्गसां ने उनसे पूछा–“क्या आप लोग शून्य के उपासक हैं?” डॉ. सरकार ने उत्तर में निवेदन किया कि हम हिंदू लोग आनंद के उपासक हैं, उस आनंद के जिसके संबंध में उपनिषद् के ऋषियों ने कहा है–

“आनंदाद्ध खल्विमानि भूतानि जायंते, आनंदेन जातानि जीवंति, आनंदं प्रत्यभिविशंति।” अर्थात् आनंद से ही ये प्राणी उत्पन्न होते हैं, आनंद से ही उत्पन्न हुए प्राणी जीवित रहते हैं और अंत में आनंद में ही समा जाते हैं। बर्गसां उस उत्तर को सुन कर बड़े संतुष्ट हुए।

उपनिषदों के स्वर-में-स्वर मिलाए हुए ही आगमवादियों ने कहा था–“आनंदोच्छलिता शक्ति: सृजत्यात्मानमात्मना” अर्थात् आनंद से उच्छालित ज्ञक्ति ही अपने द्वारा अपनी सृष्टि करती है।

तंत्रों में रहस्यवाद के गत्यात्मक स्वरूप की अभिव्यक्ति हुई है । ससीम में शाश्वत असीम सोया रहता है; वह अपने आपको अभिव्यक्त करना चाहता है, अपने प्रकृत रूप में स्थित होना चाहता है। आत्मा अपने असली स्वरूप में विभु है, मात्र एक शरीर की कारा में वह बद्ध नहीं रहना चाहती; बहुल ही उसका गुण है, प्रसार ही उसका धर्म है। इसलिए कुछ विचारकों की दृष्टि में तो रहस्यवाद आत्मोपलब्धि का ही स्वाभाविक प्रयास है। ससीम जब असीम की अनुभूति के लिए पर्युत्सुक हो उठता है, तभी रहस्यवाद का जन्म होता है। और फिर असीम भी तो हमसे कहीं दूर नहीं हैं; इसलिए साधक को जब उस तथ्य की प्रतीति होने लगती है कि वह असीम भी उसी के हृदेश में अवस्थित है, तब उसकी बेकली का, उसकी बेचैनी का क्या कहना! इसी प्रकार के किन्हीं क्षणों में जायसी का कंठ फूट पड़ा था–

“पिउ हिरदे में भेंट न होई । को रे मिलाब, कहौं केहि रोई।”

प्रश्न यह है कि यदि ससीम में असीम सुप्तावस्था में रहता है, जो अभिव्यक्ति होना चाहता है, तो फिर प्रत्येक व्यक्ति रहस्यवादी क्यों नहीं हो जाता? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कठोपनिषद् में कहा गया है कि भगवान् ने मनुष्य की इंद्रियों को बहिर्मुखी बनाया है, इसलिए वह प्रत्यक्ष से ही प्रभावित हो जाता है, अंतरात्मा का वह दर्शन नहीं कर पाता । कोई धीर अंतर्मुखी वृत्ति वाला पुरुष ही आत्म-साक्षात्कार के इस कठिन व्यापार में प्रवृत्त होता है।*

हिंदू दर्शन-शास्त्रों पर बहुधा यह आक्षेप किया जाता है कि वैराग्यसाधना-जन्य मुक्ति का उपदेश देकर, संसार को माया-जाल बतला कर उन्होंने भारतीयों को अकर्मण्य बना दिया है। संसार के बंधनों में भी परमात्मा की सत्ता का अनुभव करना, निष्काम कर्मयोग की भावना रखना–इस तत्त्वज्ञान की उपेक्षा के कारण ही हिंदू-सभ्यता पंगु हो गई और परिणामस्वरूप वह संसार के विकासोन्मुख एवं प्रगतिशील देशों के साथ दौड़ में पिछड़ गई। संभवत: इसीलिए लोकमान्य तिलक को ‘गीता-रहस्य’ में कर्मयोग का विशद विवेचन करना पड़ा। इसी बात को स्पष्ट करते हुए श्री रवींद्रनाथ ने भी अपने ‘साधना’ नामक ग्रंथ में लिखा है–

“मुझे अपने श्रोताओं को अच्छी तरह बतला देना चाहिए कि भारत के ऋषियों ने यह उपदेश नहीं दिया है कि संसार और अहं का त्याग किया जाए, इसका फल तो कोरी निषेधात्मक शून्यता है। उनका उद्देश्य अहं का त्याग नहीं, किंतु अहं की संकीर्ण परिधि का विस्तार और आत्म-तत्त्व का ज्ञान था अर्थात् दूसरे शब्दों में विश्व के पूर्ण सत्य रूप की पहचान थी। संसार और व्यक्ति का अस्तित्त्व भुला देने से तो केवल शून्यता रह जाती है, संसार और अहं में आसक्ति एवं अभिमान को मिटाना चाहिए।”

“अनेक प्रकार के त्याग-विराग, साधना-संयम, जप-तप, नीति-रीतियों के नियम-बंधन के सहारे हम जिस सत्य को ग्रहण करने का असंभव, निष्फल प्रयत्न करते आए हैं, वही अज्ञेय अग्रहणीय सत्य जैसे अनंत अनुराग, आनंद, सुख, सौंदर्य, लीला, नृत्य, आशा-आकांक्षा, रूप-रंगों द्वारा अपने को सृष्टि के चिरंतन बंधनों में बाँध रहा है । आत्मा अपने को रूप के लिए फिर-फिर बलिदान कर रही है । हमारे दर्शनों ने सत्य के जिस महाभाव का बोध कराया है, हमने उसे न समझ सकने के कारण उस महाभाव को अभाव और शून्य में घटित कर दिया है। ज्ञान का निष्क्रिय प्रयोग कर हमने नि:सीम को ससीम से तथा भाव को रूप से विच्छिन्न कर उन्हें भिन्न मान लिया है। ज्ञान के सक्रिय प्रयोग द्वारा हम उस महाभाव का नाम रूप में तथा नि:सीम का ससीम में साक्षात् नहीं कर पाए हैं।”

–पंत (बन्नू कहानी से)

काश्मीर शैवागमों में जिस तत्त्वज्ञान की प्रतिष्ठा हुई, वह निश्चय ही गत्यात्मक है, स्थितिशील नहीं। शंकर अद्वैतवादियों की तरह, शैवागमवादी संसार को मिथ्या मान कर नहीं चले। दु:खवाद से उत्पन्न संन्यास और संसार से वैराग्य भी इनकी दृष्टि में अनावश्यक समझा गया। आधुनिक युग के सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य ‘कामायनी’ में गत्यात्मक रहस्यवाद की सुंदर अभिव्यक्ति हुई है। कामायनी का तत्त्व ज्ञान प्रवृत्यात्मक नहीं। इस संबंध में ‘मनु’ और ‘कामायनी’ का निम्नलिखित संवाद पठनीय है–

“लगे कहने मनु सहित विषाद, मधुर मारुत से ये अच्छ्वास

अधिक उत्साह तरंग अबाध, उठाते मानस में सविलास।

किंतु जीवन कितना निरुपाय लिया है देख नहीं संदेह,

निराशा है जिसका परिणाम सफलता का वह कल्पित गेह।”

कहा आगंतुक ने सस्नेह, “अरे तुम इतने हुए अधीर!

हार बैठे जीवन का दाँव, जीतते मर कर जिसको वीर।

तप नहीं केवल जीवन सत्य करुण यह क्षणिक दीन अवसाद,

तरल आकांक्षा से है भरा सो रहा आशा का आह्लाद।

प्रकृति के यौवन का शृंगार करेंगे कभी न बासी फूल,

मिलेंगे वे जाकर अतिशीघ्र आह उत्सुक हैं उनकी धूल।”

मनु की उक्तियों को ‘पूर्वपक्ष’ के रूप में ग्रहण करना चाहिए; सिद्धांद-पक्ष कामायनी द्वारा उपस्थित किया गया है । कामायनी ने तो त्याग और तपस्या तक का विरोध किया है। ‘शक्तिशाली हो, विजयी बनो’–यही उसका मूल स्वर है।

गत्यात्मक रहस्यवाद का विवेचन करते समय हम कबीर को भी नहीं भुला सकते । शून्यवादी होने के कारण कुछ लोग कबीर को अभाववादी ठहरा दिया करते हैं किंतु उन्हें यह समझ रखना चाहिए कि कबीर का शून्यवाद निषेधात्मक नहीं है, वह भावात्मक है अथवा उनका शून्यवाद वह चरम स्थिति है जहाँ भाव और अभाव के द्वंद्व विगलित हो जाते हैं। दूसरे, कबीर के संबंध में सबसे बड़ी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे निरे रहस्यवादी ही नहीं, रहस्यवादी होने के साथ-साथ बड़े भारी समाज-सुधारक भी थे। यही कारण है कि उनके रहस्यवाद में प्रवृत्यात्मकता और सक्रियता का अंश बहुत बड़े परिणाम में उपलब्ध होता है । ब्रह्मज्ञानी होते हुए भी वे अपने पेशे से विमुख नहीं थे।

मध्ययुग के संतों ने जो तत्त्वज्ञान भारतीय जनता के सामने रखा, वह जीवन की चेतना से भास्वर था, मृत्यु की जड़ता से निस्पंद नहीं।

आधुनिक युग में सामान्यत: पलायनवाद का एक प्रकार मान कर ही रहस्यवाद की व्याख्या की जाती है किंतु जहाँ तक गत्यात्मक रहस्यवाद का संबंध है, उसे पलायनवाद में परिगणित नहीं किया जा सकता। गाँधी जी को रूढ़ अर्थ में चाहे कवि न कहा जाए किंतु सच्चे अर्थ में वे आधुनिक युग के महान् गत्यात्मक रहस्यवादी थे। रहस्यवादी होते हुए भी जीवन से पलायन उन्होंने नहीं सिखलाया।

गत्यात्मक रहस्यवाद के संबंध में जो विचार इस लेख में प्रकट किए गए हैं, उनको लक्ष्य में रख कर भी हिंदी-साहित्य के रहस्यवादी कवियों का आज मूल्यांकन होना चाहिए। इस निबंध के द्वारा सुधी-समीक्षकों का ध्यान मैं इसी ओर आकृष्ट कर रहा हूँ।


* “परांचि खानि व्यतृणत् स्वयंभू:, तस्मान्नरो पश्यति नान्तरात्मा।”


Original Image: Akbar-and-Tansen-visit-Haridas Image Source: Wikimedia Commons
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