इमाम साहब
- 1 May, 1953
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- 1 May, 1953
इमाम साहब
प्रात: ही से मेंह बरस रहा था। और इमाम साहब खिड़की पर बैठे भरी-भरी दृष्टि से अपनी भग्नावशेष मस्जिद को देख रहे हैं जिसकी खिड़कियाँ बंद हैं, दरवाजा बंद है और वर्षा में ऐसी दीख रही है जैसे कोई निर्धन रोगी हस्पताल के बाहर भींगी हुई दीवार के नीचे ऊघ रहा हो। ‘मस्जिद की छत से न जाने कितना पानी अंदर टपका होगा’, इस विचार के आते ही इमाम साहब सिहर उठे। उन्होंने लाठी उठाई और मस्जिद की ओर गए। उनकी विधवा बेटी, जो पति की मृत्यु के पश्चात् अब घर की ही होकर रह गई थी, उनके पीछे-पीछे हो ली, और उसका बेटा अर्धनग्न अवस्था में रोने लगा।
इमाम साहब ने मस्जिद का द्वार खोला। चारों चट्टाइयाँ पानी से भींग गई थीं। बाप-बेटी एक दूसरे की ओर ऐसे देखने लगे जैसे बूझ रहे हों ‘अब क्या होगा? नमाज़ी कहाँ बैठेंगे?’ बेटी ने उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही चट्टाइयाँ लपेट लीं और दीवार के सहारे खड़ी कर दीं। इमाम साहब को सांत्वना-सी मिली। वह द्वार के बाहर दो ज़ीनों वाली सीढ़ी पर बैठकर सुस्ताने लगे। आज जुमा था और इसी दिन उन्हें पाँच-छ: रुपए की आय होती थी। लेकिन चिह्न बता रहे थे कि आज कोई भी व्यक्ति नमाज़ पढ़ने नहीं आएगा। इस भय का प्रभाव बाप-बेटी की आँखों में साफ झलक रहा था। परंतु दोनों अवाक् थे। बुढ़ापे और नवयुवक जमाई की असमय मृत्यु ने इमाम साहब को कहीं का न रखा था। उनकी आँखों का प्रकाश मंद पड़ गया था। यौवन अब अंतिम घड़ियाँ गिन रहा था परंतु बेटी और पोते का प्रेम उन्हें जीवित रहने पर विवश कर रहा था। उन्होंने बेटी को पुनर्विवाह पर बहुत जोर दिया था परंतु बेटी ने बूढ़े बाप को असहाय छोड़ना उचित न समझा। ‘यह तो कुछ वर्षों के सबर की बात थी, तब तक शिशु रेशमखाने की मज़दूरी के योग्य हो जाएगा’–इसी आशा पर इमाम साहब जी रहे थे। उनका बूढ़ा और दु:खी मस्तिष्क समय से पूर्व ही बच्चे और सारे कुटुंब के भविष्य के विषय में सुनहरे जाल बुला करता था।
इमाम साहब अभाग्यवश कुछ अधिक पढ़े भी न थे। बचपन में उन्होंने कुरान मजीद का दरस लिया था और हदीस की मोटी-मोटी बातें रट ली थीं। यही उनकी पूँजी थी। प्रकृति से वह मितभाषी और एकांतप्रिय थे। शायद इसी कारण कि उन्होंने आवश्यकता से अधिक समय का उतार-चढ़ाव देखा था। आरंभ से दु:ख तथा निर्धनता, भूख और नग्नत्व, के बीच उनका पालन हुआ था। अब उनकी कुल संपत्ति भग्नावशेष मस्जिद की इमामत थी, जो नगर के उत्तरी भाग में उन्होंने अपने ही मकान के आँगन में बनाई थी और जहाँ कुछ सरकारी दफ्तरों के मुलाज़िम और पथिक हर जुमे को नमाज़ पढ़ने आया करते थे। इन्हें पिता की ओर से एक पुराना चौगा बिरसे में मिला था; पश्मीने का बना हुआ जिस पर कहीं-कहीं रेशम की कशीदाकारी थी। इसमें यद्यपि बहुत से छेद थे तथापि इमाम साहब इसे कभी न पहनते थे। यह केवल शुक्र को मस्ज़िद के भीतर खोंटे पर टलकाया जाता था। लोग नमाज़ अदा करने के पश्चात् इसकी जेबों में कुछ न कुछ दिया करते थे। जब मस्ज़िद खाली हो जाती तो वे अहिस्ता से चौगा उठाते और लाठी टेकते हुए चले जाते । चौगे की जेबों से वह अनुमान लगा सकते कि इसमें कितने की रेज़गारी होंगी, जो किसी भी सूरत में छ:-सात रुपये से अधिक न निकलती। दुअन्नियाँ, चवन्नियाँ, आने, टके और किसी समय एक-आध नोट भी रुपए का, जिसपर तीन शेरों की छाप होती । इसी रेज़गारी से घर का खरचा पूरा होता।
कुछ देर सुस्ताने के उपरांत इमाम साहब दो ज़ीनों वाली सीढ़ी से उठे और धीरे-धीरे ऊपर चले गए। उनका हृदय डूबा जा रहा था। यदि आज नमाज़ के लिए कोई न आया तो…
ग्यारह बजे के लगभग, वर्षा थम गई और आकाश पर फैले बादल में बड़े-बड़े शिग़ाफ पड़ गए। इमाम साहब की जान में जान आई। उनके नेत्र नाचने लगे। होंट फड़कने लगे, उनमें जैसे नए यौवन का संचार हुआ हो। ‘मेहरी !’ उन्होंने पुकारा ‘बादल छूट रहे हैं, जाकर मस्ज़िद में चट्टाइयाँ बिछा दो।’ मेहरी ने खिड़की से सिर निकाल कर देखा, सचमुच बादल छँट रहे थे, आकाश साफ हो रहा था। इमाम साहब से अब न रहा गया, वे चौगा उठाकर फिर नीचे आ गए।
मस्ज़िद में चट्टाइयाँ बिछ गई थीं। वह अब भी गीली थीं परंतु ‘इसका क्या है ? जो लोग खुदा के हुज़ूर में झुकते हैं वे सर्दी और गरमी से बे नियाज़ होते हैं।’
एक बजे के लगभग नमाज़ी आने लगे। इमाम साहब ने खोंचे पर चौगा लटकाया। आने वाले सब जाने-पहचाने थे; डाकखाने के कर्ल्क, तार घर के बाबू, बैंक के मुलाजिम, आस-पास के कुछ एक माँझी और दूसरे लोग। सबकी जीभ पर वर्षा की शिकायत थी। यदि कुछ देर और वर्षा होती तो संभवत: नमाज भी अदा न हो सकती।
इमाम साहब इमामत के लिए खड़े हो गए। उनके पीछे दो पंक्तियाँ लगीं और पंक्तियों के पीछे जूतों और बूटों की पंक्ति।
नमाज़ अदा हो गई। मस्जिद से निकलते-निकलते कई हाथ खोंटी पर लटकते हुए चौगे की जेब में गए, परंतु कुछ ऐसे भी थे जो जूते पहनकर मस्जिद से निकले। इमाम साहब की दृष्टि ऐसे लोगों का पीछा दूर तक करती रही।
थोड़ी देर बाद मस्जिद खाली हुई। इधर-उधर देखने के उपरांत इमाम साहब ने खोंटे से चौगा उतारा, मस्जिद का द्वार बंद किया और घर की ओर चल दिए । आज चौगे की जेबें उन्हें हल्की प्रतीत हुईं। उनका हृदय डूबने लगा। मेहरी खिड़की पर बैठी मुस्कुरा रही थी। किंतु पिता का चिंतित मुख देखकर उसकी मुस्कान सहसा एक गंभीर-सी मुद्रा में परिणत हुई। उसने कुछ पूछना उचित न समझा क्योंकि उसे विदित था कि चौगे की जेबों से जो कुछ निकलता है, इमाम साहब गिनने के उपरांत, ताक्चे पर रख देते हैं।
इमाम साहब ने जूती उतारी, लाठी एक ओर रख दी, और खिड़की के बराबर बैठ गए। उन्हें बहुत रोष था कि कुछ नमाजी चौगे का विचार किए बिना ही चल दियेए थे। ऐसे लोगों को न ईश्वर का भय होता है न औरों की निर्धनता से सहानुभूति। परंतु यह हो भी कैसे सकता है, संसार तो स्वार्थपरता का दूसरा नाम है।
थोड़ी देर के पश्चात् इमाम साहब का काँपता हुआ हाथ चौगे की जेब टटोलने लगा। दाईं जेब से वही निकला जिसका अनुमान उन्होंने लगाया था। तीन रुपए, साढ़े बारह आने । दूसरी जेब बिल्कुल हलकी थी फिर भी इमाम साहब ने अपना काँपता हुआ हाथ इसमें डाला, इसमें से एक बड़ा नोट निकला। इमाम साहब स्तब्ध रह गए। कुछ क्षणों तक वे यह निर्णय ही न कर सके कि यह क्या है और कैसे आ गया। उनकी आँखों के आगे अँधेरा छा गया। उन्होंने घबरा कर बेटी को पुकारा–“यह देख रही हो, जेब से निकला है।” मेहरी ने नोट लिया उसे उलट-पुलट कर देखा और बोली “नोट है लेकिन मैंने आज तक इतना बड़ा नोट नहीं देखा है।”
“आज के नोट नए होते हैं, यह पुराना है बेटी। अंग्रेज का चित्र नहीं देख रही हो?” इमाम साहब ने कहा।
“इससे क्या होता है, नोट ही तो है ।” बेटी ने पूछा।
“तुम नहीं जानती, अब अंग्रेज कहाँ रहे जो उनका सिक्का चले। उन्हें तो देश से निकाल दिया गया।” इमाम साहब ने गंभीरता से कहा।
“तब–?” मेहरी सिर से पाँव तक एक प्रश्न सूचक चिह्न बन गई।
“किसी ने मजाक किया है । जेब में खोटा नोट डाल दिया है।”
“इन लोगों को ईश्वर का भय भी न रहा” मेहरी ने कहा, “निर्धनों से भी मज़ाक़ करते हैं? ज़माना बहुत बुरा हो गया है बेटी।”
“किसी को तो दिखा दो, शायद चल जाए।” मेहरी ने कहा।
इमाम साहब चौंक पड़े । उनके होठों पर थरथरी-सी छा गई। “क्या कहा किसी को दिखा दूँ? जानती भी हो। खोटा नोट रखना बहुत बड़ा जुर्म है! जिसे दिखा दूँगा वही कलाई पकड़कर थाने पहुँचा देगा।”
मेहरी काँप उठी। एक बार उसके मृत-पति को पुलिस ने किसी दोष में पकड़ लिया था। आठ दिन तक मार-पिट हुई थी। फिर पच्चास रुपए देकर पिंड छुड़ाया था । मेहरी कुछ और न कह सकी। नोट उसके हाथ से छूटकर भूमि पर आ गिरा। और वह उठकर चली गई। उसके पलक अश्रुपूर्ण थे और गला भरा हुआ था। कुछ क्षणों के पश्चात् इमाम साहब ने पुन: नोट हाथ में उठाया और उसे बड़ी ध्यानपूर्वक दृष्टि से देखा। काश! यह नोट आज से छ: वर्ष पहले उन्हें चौगे की जेब से मिला होता, तो घर की कितनी ही आवश्यकताएँ पूरी हो जातीं–मेहरी के लिए ‘क्रेप’ का पैरहन और शलवार आता, मस्जिद की मरम्मत होती, लड़के का खाना होता और दूध के लिए बकरी आ जाती, परंतु आज इतनी छापों और इतने चिह्नों के होते हुए यह नोट एक कागज़ के पुरजे से अधिक मूल्य नहीं रखाता था। क्योंकि अंग्रेज जा चुके थे। उनका सिक्का जा चुका था । उनका आधिपत्य जा चुका था। यह सब कुछ कैसे हुआ था? यह बात इमाम साहब की समझ में न आती थी । उन्हें यूँ लगा मानों नोट पर छपा चित्र कह रहा हो–इसमें मेरा क्या दोष? दोष उनका है जिन्होंने मेरे सिक्के और मेरे शासन का अंत कर दिया। और देश के लिए स्वतंत्रता माँगी।
इमाम साहब के हृदय में घृणा की एक हल्की-सी लहर उठी। उनकी आँखों के सामने पिछले युद्ध-काल का चलचित्र घूमने लगा जब बंड पर अंग्रेज-ही-अंग्रेज दृष्टिगोचर होते थे। प्रसन्न-चित्त और उल्लसित अंग्रेज, टमाटर की भाँति लाल और चिकने । जो पानी की नाई धन का व्यय करते थे। परंतु अब तो कुछ भी नहीं। बंड पर न चहल-पहल होती है, न कहकहे सुनाई देते हैं। वह किसी अफयूनी की भाँति लेटा हुआ है और लोग निस्तब्ध उसे रौंदते हुए चले जाते हैं। अफयूनी न हिलता है न इस अत्याचार के विरुद्ध कोई विरोध करता है। जैसे उसकी ग़ैरत ही मर चुकी हो।
कानवेंट के क्लॉक ने चार बजाए। इमाम साहब रैजगारी को ताक्चे पर रखकर उठे। उनके हाथ में नोट था। उन्होंने मज़ाक़ करने वाले का अन्वेषण करने का निश्चय किया परंतु जब वह कच्चे पुल पर पहुँचे तो उनके पग स्वत: रुक गए। सोचने लगे, अन्वेषण करूँ, किससे पूछूँ? फिर भी वह धीरे-धीरे बंड पर आ गए और नई चुनी हुई दीवार के सहारे बैठ गए इस आशा पर कि संभवत: मज़ाक़ करने वाला स्वयम् ही क्षमा माँगने के लिए आएगा। इमाम साहब उससे झगड़ा नहीं करेंगे परंतु इतना अवश्य कहेंगे कि ऐसे लोगों से मज़ाक नहीं करते जिनकी आत्मा तक गम और दु:ख में डूबी हुई हो।
शाम तक कोई न आया! वैसे जाने-पहचाने लोग ‘सलाम अलैक’ कहकर चले गए परंतु किसी ने नोट का नाम न लिया।
दीपक के टिमटिमाते प्रकाश में भी इमाम साहब यही सोचते रहे और जब वह बुझ गया और मैली ही चाँदनी कमरे के भीतर प्रविष्ट हुई तो इमाम साहब खिड़की पर आ बैठे। उनके पाए ऐसी वस्तु थी जो वह न किसी को दिखा सकते थे न अपने पास रख सकते थे। इसे नष्ट करना भी उन्हें सहन न था। ‘संभव है कभी-कभी मजाक करने वाले का पता चल जाए’ इसी सोच में रात निकल गई। उनके पपोटे बोझल हो गये थे, उनका अंग-अंग टूट गया था फिर वह आँगन में आकर किसी की प्रतीक्षा करने लगे। कभी टहलते, कभी मस्जिद के भीतर चले जाते, कभी आँखों का खुमार कम करने के लिए मुँह हाथ और पाँव धो लेते।
एकाएक दोपहर के पश्चात् उनके मस्तिष्क में एक विचार आया। उन्होंने नोट को पैरहन की जेब में छुपा लिया, लाठी टेकते हुए निकले, पुल को पार किया, बंड पर चढ़े और बैंक की ओर चल दिए। वहाँ उनका एक मुरीद था जो प्रत्येक जुमे को मस्जिद में नमाज़ पढ़ने आता था। यद्यपि वह कल नहीं आया था तो भी इमाम साहब को उसी पर पूर्ण विश्वास था।
बैंक में काफी भीड़ थी । शनिवार के कारण एक-आध घंटे के उपरांत बैंक बंद हो रहा था और लोग बैंक बंद होने से पहले ही कार्य समाप्त करना चाहते थे।
द्वार पर संतरी ने इमाम साहब को रोका–“बाबा, यहाँ कुछ नहीं मिलेगा, यह बैंक है।” इमाम साहब ने ऊपर से नीचे तक अपने आपको देखा और फिर एक अकथनीय अदीनता के भाव से कहा, “मैं गदागर नहीं हूँ–मुरीद से मिलना चाहता हूँ।”
संतरी उन्हें विस्मय से देखता रहा। शायद उसे विश्वास नहीं आया फिर भी उसने रोका नहीं और इमाम साहब फूँक-फूँक कर कदम उठाते हुए अंदर चले गए। वे इतनी बड़ी भीड़ और इतने रुपए देखकर विस्मित हुए। साथ ही उनके मन में यह भयपूर्ण विचार भी उत्पन्न हुआ कि कहीं कोई उनकी जेब में खोटा नोट न देख ले। इस परेशानी की अवस्था में इधर-उधर देखते रहे कि सहसा दूर से स्वर आ पड़ा, “इमाम साहब–” इमाम साहब का हृदय रबड़ की गेंद के समान उछलने लगा। उन्होंने आँखों के ऊपर दाहिना हाथ फैला कर देखा। उनका मुरीद बुला रहा था।
“आप यहाँ कैसे इमाम साहेब?” वह कौंटर से बाहर निकल कर पूछने लगा। कुछ क्षणों तक इमाम साहब कुछ भी न कह सके फिर उन्होंने मुरीद का हाथ थाम लिया और कुछ कहे बिना बैंक से बाहर ले गए। “खैर तो है इमाम साहब ?” मुरीद ने धीरे से कहा। उनका दायाँ हाथ अपने आप पैरहन की जेब में चला गया–“कल किसी कम्बख्त ने खोटा नोट दिया है, वही दिखाने आया हूँ…”
“खोटा नोट?…कितने का है?”
इमाम साहब का हृदय फिर धड़कने लगा। उन्होंने कहा–“दिखा दूँगा लेकिन किसी से न कहना, मैं पुलिस से बहुत डरता हूँ।–”
मुरीद ने हँसकर कहा, “वहाँ तक बात ही न पहुँचेगी। आप दिखाइए तो–”
इमाम साहब से उसकी ठुड्डी छूकर मिन्नत की, “मेरे बुढ़ापे पर रहम करना।”
“आप यह क्या कह रहे हैं इमाम साहब, आप मुझ पर विश्वास रखिए।” मुरीद ने धीरज बंधाते कहा।
इमाम साहब ने काँपते हुए हाथों से मुरीद के हाथ में नोट थमा दिया–“यह?” “यह तो सौ रुपए का नोट है इमाम साहब।”
“सौ रुपए का?” इमाम साहब की आँखें फैल गईं । “हाँ, हाँ, सौ रुपए का–परंतु यह खोटा नहीं।” मुरीद ने हँस कर कहा।
“खोटा नहीं–? यह कैसे हो सकता है?” इमाम साहब सोचने लगे फिर उन्होंने उतावले होकर पूछा–“परंतु इस पर अंग्रेज का चित्र है, यह खरा कैसे हो सकता है?”
“यह बातें आप नहीं समझ सकते। आप यहीं ठहरिए।” मुरीद हाथ में नोट लेकर भीतर चला गया। इमाम साहब की नाड़ी छूटने लगी। वह ऊपर से नीचे तक पसीने से शराबोर हो गए। विश्वास दिलाए जाने पर भी उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे अभी उनके हाथों में हथकड़ियाँ पड़ने वाली हैं। अभी पुलिस के सिपाही उन्हें घसीट-घसीट कर थाने की ओर ले जाते होंगे। फिर मार-पीट होगी। प्रश्न पूछे जाएँगे। “यह नोट कहाँ से आया, क्यों आया, कब आया?” और इन तर्कों का उत्तर इमाम साहब के पास कुछ भी न था।
उन्होंने बैंक से भागने का भी निश्चय किया और अभी फाटक तक ही पहुँचे थे कि पीछे से मुरीद ने पुकारा–“इमाम साहब!”
इमाम साहब के पग रुके। मुरीद ने समीप आकर एक-एक रुपए वाले सौ नौटों का नया बंडल उनके हाथों में थमा दिया। यह लीजिए, इमाम साहब । आपका खोटा नोट बैंक ने रख लिया।
इमाम साहब इतने नोट लेने से घबड़ा गए। बड़ी कठिनता से उन्होंने हाथ पसारा और बंडल ले लिया।
मुरीद ने हँसकर पूछा–“मगर यह नोट दिया किसने था–?”
इमाम साहब ने संभ्रम-हीन होकर अपने को संभालते हुए कहा–“किसी ने नहीं, यह अपना ही ही है–बिल्कुल अपना–”
यह कहकर वह लौट चले। बंड पर पहुँच कर उन्होंने खद्दर की चादर से अपना सिर ढाँप लिया और तेज-तेज पग धरते हुए चलने लगे। आती बार वह रास्ता कुछ क्षणों में कट गया था परंतु अब जैसे यह मार्ग लंबा हो रहा था। उनका हृदय धक्-धक् करता था। हाथ-पाँव काँप रहे थे । वह बच-बच कर चल रहे थे कि कोई उन्हें पहचान न ले।
घर पहुँचकर उन्होंने रहस्य भरे भाव से कहा, “मेहरी–नोट खरा था। यह देख ले।” मेहरी ने नोटों का बंडल देखा तो प्रसन्नता से मतवाली हो गई और इमाम साहब ने शीघ्रता से कहा–“अब कोई मुझसे मिलने आए तो कह देना इमाम साहब घर पर नहीं–गाँव चले गए हैं–न मालूम कब लौटेंगे।”
मेहरी ने विस्मित होकर पिता की ओर देखा और इमाम साहब ने फिर कहा–“सावधान, किसी को यह न कहना कि मैं यहीं हूँ। बच्चे को भी मना कर रखना–”
“तो क्या आप सचमुच गाँव चले जाएँगे–?” मेहरी ने पूछा!
“नहीं–गाँव में मेरा कौन है–?” इमाम साहब ने उत्तर दिया, कमरे की खिड़की बंद की और चादर ओढ़कर सो गए।
Image: Portrait of a dervish
Image Source: WikiArt
Artist: Kamal ud Din Behzad
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