आदिवासी लोकगीतों में रामचरित्र-चर्चा
- 1 May, 1953
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- 1 May, 1953
आदिवासी लोकगीतों में रामचरित्र-चर्चा
आदिवासी लोकगीतों के अध्ययन से यह प्रकट हो गया है कि आदिवासी साहित्य का भी साहित्य-परंपरा में अन्यतम स्थान है। इसमें भी सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि सभी भावनाओं का समुचित समावेश ही नहीं, वरन् उनका व्यापक विकास भी हुआ है। इसमें अत्युक्ति का लवलेश नहीं कि आज जिस साहित्य की गणना ‘सत्साहित्य’ में हो रही है, उसमें जितना ‘सत्’ का अंश है उतना ही ‘सत्’ का अंश आदिवासी साहित्य में भी, यथासंभव विशद रूप में ही, पाया जाता है। रस-विलास, हास-व्यंग्य, दया-ममता, शौर्य-वीर्य, घृणा-क्रोध, साहस-उत्साह, वात्सल्य-वैराग्य आदि समस्त मानवीय गुणावगुणों की सबलता तथा दुर्बलता के भाव-चित्र आदिवासी साहित्य में यद्यपि बिल्कुल सुस्पष्ट और सम्यक् ढंग से प्रतिफलित हुए हैं, फिर भी लगता है जैसे करुण रस में ही आदिवासी लोकगीतों के प्राण बसते हैं। पहाड़ की तराई से किसी भी विषय पर जब कभी कोकिल-कंठ-स्वर फूट पड़ा तो समझ लीजिए कि काले-कलूटे रुखड़े पहाड़ के ढोंकों के बीच से मीठी निर्झरिणी मचल चली है। जो हो, आदिवासी लोकगीतों में केवल कँपन ही नहीं, दर्द भी है; मिठास ही नहीं, तीखापन भी है; सौंदर्य ही नहीं, सजीवता भी है।
यों तो, रामचरित्र की चर्चा हर भाषा के साहित्य में चमकती ही है; वह संथाली-भाषा के साहित्य में भी ‘नहीं’ की शून्यता को बखूबी पूरा करती है। राम की वनवास-वेदना वन के पात-पात में समाई हुई थी और यह वन्य वायु में गूँज रही थी, जैसे। जिसकी मर्मवेधकता पहाड़ी हृदय को भी करुणाभिभूत वाल्मीकि के हृदय की तरह द्रवित कर उसमें प्रतिध्वनित हो उठी। और, जिसका जीता-जागता रेकार्ड तैयार हो गया तद्विषयक आदिवासी लोकगीत।
राम और लक्ष्मण दोनों भाई जंगल जा रहे हैं। उस समय पुरजनों के अंतस्तल में एक अद्भुत उन्मंथन जैसा हो रहा है। परंतु, उनमें से कोई भी दोनों को जंगल जाने से रोक भी नहीं सकता। एक अनिर्वचनीय विवश्ता है, अजीब बेकली है! म्नियमाण हृदयों की उखड़ी हुई उसासों को एक गीत में सुनिए–
“राम दलान द लिली बिछी
लखन दलान द लिखन गड़हन दायागे
राम गाढ़ ढायागे, लखन गाढ़ दायागे
गाढ़ किन बागी यादा।”
(भावार्थ–जब राम और लक्ष्मण जंगल जाने लगे तब वियोग-व्यथित पुरजनों के मुँह से एक दर्द-भरी धीमी-सी आह निकल पड़ी–‘सुख की सेज पर पले हुए बेचारे राम लक्ष्मण दोनों भाई राजमहल छोड़ जंगल चले!’)
उपर्युक्त गीत की पंक्तियों में कितना बड़ा दु:ख कराहता है जिसका स्वर कुचले हुए मर्म को बड़ी निर्दयता-पूर्वक छू देता है। स्वयं आई नहीं, वरन् बुलाकर लाई गई पीड़ा के प्रत्याख्यान का साहस किसी में संभव नहीं। मानव विवश है! आँखों के तारे टूट रहे हैं और इंसान देखता जा रहा है!
आदिवासी लोकगीतों में केवल करुण-कोमल भावनाओं का ही पर्याप्त प्रसार नहीं है, वरन् परंपरागत जन्मत: जीवन स्तर की भौतिक उन्नतिपरक सामाजिक विकास-वादिता–बच्चे का पैदा होना, उसका बड़ा होना, उसके द्वारा घर-बार बनवाया जाना, गृहस्थी सँभालना, उसको ऊँचा उठाना आदि–का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। छोटी उम्र में ही राम-लक्ष्मण को वन-वास मिल गया, जंगल में ही वे दोनों बढ़े, जवान हुए और घर-बार बनाया। देखिए–
“रामे लखम द कटीच्-काटीचू रेकिन
विदेश एना, हारा एना;
किन बुरु एना, किन बुरु,
लदाम रेकिन गाढ़ केदा।”
(भावार्थ–राम-लक्ष्मण को बिल्कुल छोटी उम्र में जंगल जाना पड़ा। जंगल में दोनों बड़े हुए तब उन्होंने वहाँ पहाड़ की तराई में अपना राजभवन बनाया।)
राजमहल से अपरिचित, आदिवासी गीतकार बंधु द्वारा चित्रकूट की पंचवटी की राम-निर्मित पर्णकुटी में राजभवन की कल्पना, आर्यों की आदर्श-भावना की विरोधिनी नहीं, वरन् उसकी पूरिका और परिपोषिका है। तथाकथित आर्य-भावना से, अनार्य (!) मानी जाने वाली इस भावना में कहीं अधिक श्रद्धा-भक्ति की अतिशयोक्ति है जो बिल्कुल स्वभावोक्ति-सी लगती है।
यह निर्णीत बात है, कोई भी जाति तभी तक ‘अनार्य’ कहलाती है जब तक उसका साहित्य लोक में अपरिचित रहता है। यही बात आदिवासियों पर भी लागू होती है । आदिवासी साहित्य से पूर्ण परिचित व्यक्ति आदिवासियों को ‘अनार्य’ कहने का कभी दु:साहस न कर सकेगा, यह असंदिग्ध है। आदिवासी अगर अनार्य रहते तो वे रावण के लोकविगर्ति कार्य–अकेली पराई स्त्री को बलपूर्वक उठा ले जाने को अच्छा ही समझ कर खुश होते और रावण को ‘पापिष्ठ’ विशेषण से कभी विभूषित नहीं करते। परंतु, उन्होंने रावण को पापिष्ट कह कर उसके उक्त घृण्य कार्य की भर्त्सना की है, जैसे। सुनिए–
“रामे लखन द उरुनी वीर
ते चेड़े टुटी किन से न,
अकाना रावण पापिष्ठा पाप द
सिता इदि केदे लेह लंकागाढ़।”
(भावार्थ–राम-लक्ष्म दोनों भाई शिकार खेलने कहीं दूर जंगल में निकल गए थे। पर्णकुटी में सीता अकेली थी। इसी बीच अवसर पाकर घोर पापी छली रावण वहाँ आया और अकेली सीता को बलपूर्वक उठाकर अपनी राजधानी लंकागढ़ ले गया!)
उपर्युक्त गीत की पंक्तियाँ यद्यपि सरल रीति से कही गई हैं, फिर भी उनमें रावण की निर्दय नीचता के भाव स्पष्ट प्रचंड हो उठे हैं। एक-एक शब्द में रावण के प्रति घोर घृणा तो भरी है ही, साथ ही सीता की बेबस अकेली नारी मूर्ति की दयनीयता भी मूर्त हो उठी है जो किसी भी मनुपुत्र के लिए क्षोभ, उद्वेग और ग्लानिजनक है!
सीताहरण का समाचार सुनते ही राम लक्ष्मण की वीरता जग पड़ी। नसों में खून खौलने लगा। तन गई भृकुटियों और भर गई भुजाओं में रावण-वध का संकल्प भूखा शेर हो उठा। राम ने धनुष उठाया और लक्ष्मण ने बंदूक सँभाली। और, चल पड़े पापी रावण को इस विश्व से निर्मूल करने। राम-लक्ष्मण को देखते ही रावण का दिल दिवाला बोलने लगा।
“राम लेला टुपुरी, लखन लेला बांदुक
चलो हो रावण ने माराल;
राम देखी, लखन देखी,
रावण ने आँखी लोड़ गिरे कि मुँह जल पड़े।”
(भावार्थ–राम ने धनुष उठाया, लक्ष्मण ने बंदूक सँभाली और दोनों रावण को मारने के लिए चल पड़े। वीर-वेश में राम-लक्ष्मण को देखते ही पापी रावण भय से रोने-काँपने लगा; साथ ही उसका मुँह-भी सूखने लगा।)
प्रस्तुत गीत में राम-लक्ष्मण की शुद्ध शूरता के समक्ष पापी रावण के धैर्य, बल और साहस के दिवाला बोल जाने का वर्णन भावानुकूल भाषा में बड़ा ही सरस है। परंतु, लक्षमण के हाथ में बंदुक देकर आदिवासी गीतकार ने पौराणिक युग की परंपरा की यौद्धिक सभ्यता का अविरंजित उल्लंघन किया है जो अनुचित और अभ्रद्र-सा लगता है। जो हो, यह गीत अतीव आधुनिक रचना है। भाषा हिंदी से अधिकांशत: मिलती-जुलती है, और गीतकार पर नई-पुरानी वर्णन-परंपरा की बेमेल खिचड़ी पकाने का दुष्प्रभाव बुरी तरह हावी है। फिर भी, आदिवासी गीतकार का यह भोलापन अक्षम्य नहीं!
आदिवासी लोकगीतों में भी सीता जन्म की घटना ठीक रामायण जैसी है। गीतकार ने रामायण की घटना को पढ़ा या सुना अवश्य है और उसी को अपनी भाषा में, अपने ढंग से, अभिव्यक्त किया है। अभिव्यक्तीकरम का अनूठापन देखिए–
“सेदल जुगे आकाल लेदा जनक राजा आजा आयूते,
धरती-भीतरी खोन खोना
लेदान गिदरा ये ञामएन
ञुतुम केदे याको सी माम सिता।”
(भावार्थ–पुराने जमाने की बात है। एक बार बहुत जोरों का अकाल पड़ा था। पुरोहितों ने कहा–‘यदि राजा जनक खेत में स्वयं हल चलावें तो बरसा होगी।’ राजा जनक ने खेत में हल चलाना शुरू किया। चलते-चलते हल एक जगह रुक गया। मिट्टी हटाकर देखा गया तो हल की फाल आगे एक नवजात बालिका पड़ी हुई मिली। सीत (जुताई के समय मिट्टी में हल से बनी गहरी लकीर) में मिलने से उस बालिका का नाम ‘सीता’ पड़ा।
प्रस्तुत गीत में ‘सीता’ शब्द की निरुक्ति बड़ी अच्छी बन पड़ी है। थोड़े शब्दों में बहुत बातों को बड़े अनोखे ढंग से सजाया गया है। अर्थ-गर्भ शब्दों का प्रयोग तो वस्तुत: मननीय हो उठा है।
पीर जहर को पीकर मुस्कुराने वाली, अग्नि-परीक्षा (संकट-बेला) में हँसते-हँसते उत्तीर्ण हो जाने वाली आदर्श नारी सीता में लोकोत्तर गुणों को देखकर प्रजाओं में यह धारणा बन-सी गई थी कि सीता साधारण नारी नहीं, देवी हैं। विस्मित प्रजाएँ सीता के बारे में लक्ष्मण से पूछ रही हैं–
“सिता दो लखन आकारेय जानाम लेन
ञुतुम केदे को सोना लेदा,
सिता दो लखन आयोध्या रेन रानी ए होय एन
दिसोम साना में मारसाल केदा।”
(भावार्थ–हे लक्ष्मण! सीता ने कहाँ जन्म लिया था? नाम तो बड़ा प्यारा है, सोने जैसा! वे अयोध्या की रानी बनीं और उन्होंने अपने दिव्य आदर्श चरित्र के आलोक द्वारा समस्त संसार को आलोकित कर दिया!)
प्रस्तुत गीत में प्रजा के विस्मय का चित्रण कितना सहज ढंग से हुआ है? मनुष्य में चारित्रिक विकास ही उसे दिव्यता का दान करता है, इस भाव को गीत की उक्त सरल पंक्तियों में ढूँढ़ना नहीं पड़ता है। भाषा के आईने में भावों का प्रतिबिंब साफ उग आया है।
इस प्रकार, उपर्युक्त गीतों के विवेचन से यह स्पष्ट है कि आदिवासी साहित्य भी गुणग्राम सीताराम की महिमा से आपातत: मधुर है ! राम की रस-माधुरी और सीता की पवित्र शीतलता से ओत-प्रोत है । संस्कृत साहित्य में बहते हुए राम-कथा के अमंद आनंद-स्रोत की शाखा-प्रशाखाएँ कितनी भाषाओं के साहित्य में जा मिली हैं यह गणनातीत है । परंतु, यह ज्ञानातीत नहीं कि रामचरित्र चर्चा जिस किसी भी भाषा के साहित्य में चर्चित हुई है, वह चमक उठी है । आदिवासी साहित्य भी इसका अपवाद नहीं ।
Image: Rama-Sita-and-Lakshman-in-the-jungle
Image Source: Wikimedia Commons
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