कश्मीर की सैर
- 1 May, 1953
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- 1 May, 1953
कश्मीर की सैर
कश्मीर भ्रमण करने की इच्छा मुझे बहुत दिनों से थी। लोगों का कहना था कि यदि इस पृथ्वी पर स्वर्ग कहीं है तो कश्मीर ही है। यों तो हिमालय के सभी हिल स्टेशन सुंदर हैं, परंतु कश्मीर का मुकाबला कोई भी नहीं कर सकता। हमारे कितने मित्र जिन्होंने विदेश का भी भ्रमण किया है, कहते थे कि कश्मीर की शोभा स्विट्जरलैंड की पहाड़ी से भी अनुपम है। स्विट्जरलैंड तो पहले कई बार गया हूँ पर कश्मीर जाने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था। हिमालय में भी मैंने काफी भ्रमण किया है। हिमालय की गोद में स्थित दार्जिलिंग, मंसूरी आदि सुंदर-सुंदर स्थानों को देख कर मैं पहले ही मुग्ध हो चुका था। पहाड़ों पर क्रीड़ा करते बादल, हिमाच्छादित शिखर, देवदार के सुंदर जंगल, छोटे-बड़े झरनों का अपूर्व सौंदर्य मैं देख चुका था। परंतु मित्रों का कहना था कि कश्मीर जाकर उन सबों को भूल जाओगे।
वर्षों से सोचते रहने के बाद पिछले साल मुझे कश्मीर में छुट्टी बिताने का सुंदर अवसल मिला। पटना से श्रीनगर बहुत ही दूर है। मई महीने की गर्मी में दो दिनों के ट्रेन सफर के बाद जम्मू और काश्मी की पहाड़ियों में पहुँच गया। पठानकोट से श्रीनगर ढाई सौ मील से अधिक दूरी पर है। बस पर दो दिन लग जाते हैं। थकावट तो बहुत होती है परंतु पहाड़ों के सौंदर्य-पान से तुरंत ही दूर हो जाती है। बस का सफर भी मुझे बहुत दिनों तक याद रहेगा। जम्मू के बाद पहाड़ ही पहाड़–और सड़क इधर उधर साँप की तरह घूमती हुई एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी पर चली जाती है। कभी हम सात हजार फीट ऊपर चले जाते थे और फिर उतर कर घाटियों में पहुँच जाते थे। बटोट से चिनाब नदी का दृश्य बड़ा ही सुंदर था। चिनाब जैसी विशाल नदी दूर से एक पतली रस्सी-सी दीखती थी। पत्थरों पर टकराने से उसकी आवाज दूर तक सुनाई देती थी। सबसे आश्चर्य की बात तो यह थी कि उसका पानी लाल था। कुछ दूर आगे बढ़ने पर देखा कि वहाँ की पथरीली भूमि बिलकुल लाल है। और वहाँ के छोटे-छोटे स्रोतों का जल, चिनाब में मिलकर, उसे भी लाल बना रहा है।
चिनाब को पारकर हमलोग बनिहाल की ओर बढ़े। सड़क बहुत ही तंग थी। कुछ ही मीलों में हम करीब 9000 फीट की ऊँचाई पर पहुँच गए। चारों तरफ बरफीले पहाड़ दिखाई पड़ते थे। नीचे बनिहाल की ओर धान के खेतों की शोभा थी। कहीं हरे-भरे धान लगे थे, कहीं खेतों में सिंचाई का जल भरा था। बनिहाल-पास की ऊँचाई पर से देखने से ऐसा प्रतीत होता था कि चारों तरफ रंग-रंग के कारपेट लगे हैं। इस प्रकार की शोभा हमने हले कभी नहीं देखी। हम इसे देख ही रहे थे कि सहसा गाड़ी अंधकार में जा पहुँची। ड्राइवर ने कहा कि यही बनिहाल का विश्व-प्रसिद्ध सुरंग है। इस सुरंग को कश्मीर का द्वार कहा जा सकता है। आजकल भारत से कश्मीर जाने का यही एक मात्र रास्ता है। जाड़े में जब यह सुरंग बर्फ से ढककर बंद हो जाती है उस समय श्रीनगर केवल हवाई जहाज द्वारा पहुँचा जा सकता है।
सुरंग से निकलते ही कश्मीर की प्रसिद्ध घाटी की झलक मिली। दूर में चारों ओर विशाल हिमाच्छादित शृंग उसके बीच हरी-भरी समतल भूमि। कवियों का कहना ठीक है, कश्मीर मोतियों के बीच जड़ा पन्ना है।
सुरंग के आसपास बर्फीली चट्टानें पड़ी थीं। रास्ता बर्फ काटकर निकाला गया था। बर्फ की शोभा और कश्मीर की सुंदर घाटी को देखकर बस के सारे यात्री आनंदमय हो गए। तीन दिन की थकावट इस सौंदर्य को देखते ही दूर-सी हो गई और श्रीनगर पहुँचने के लिए लोग उत्सुक हो उठे।
श्रीनगर की स्मृति अभी तक सजीव है। पहली वस्तु तो वहाँ का हाउस बोट है। हम लोग कल्पना भी नहीं कर सके थे कि हाउस बोट कैसा होता है । बड़ी-बड़ी नावों पर देवदार की लकड़ी का विशाल घर बना रखा है। सोफा, मेज़, चित्र आदि सभी चीजों से सजा बैठने का कमरा, खाने का कमरा, अलग-अलग। सोने का कमरा इन्हीं नावों पर बने रहते हैं। साथ ही रसोई आदि के प्रबंध के लिए दूसरी नाव भी लगी रहती है। इन हाउस बोटों पर आराम की सभी चीजें रहती हैं। इसमें जीवन बसर करना एक अपूर्व अनुभव है। सब काम नाव पर ही होता है। सब्जी, जलावन आदि लेकर नाव वाला सुबह ही पहुँच जाता है। फिर दिन भर छोटी नावों पर दुकानदार तरह-तरह की दूकान लेकर आते रहते हैं।
पेपर माशे के सामान सबसे आकर्षक थे। लकड़ी के टुकड़े, कागज आदि मिलाकर फूलदान, बिजली का लम्प, ट्रे, बक्स आदि सुंदर-सुंदर वस्तुएँ बनी थीं। उन पर रंग-बिरंग के काश्मीरी फूल, पक्षी, जानवरों का चित्र बनाकर अत्यंत ही आकर्षक बनाया गया था।
लकड़ी का सामान भी अच्छा मिलता है। कश्मीर के लकड़ी के काम के विषय में मैंने पहले भी सुना था। पर काश्मीरी वस्तुओं को देखकर चकित हो गया कि यहाँ के कारीगर हाथों से इस तरह महीन काम किस प्रकार कर लेते हैं।
इसके अतिरिक्त शाल, पश्मीने, कारपेट और कालीन सुंदर से सुंदर और कामदार पाए जाते हैं। इन सब चीजों को देखकर लेशमात्र भी संदेह नहीं रहा कि कश्मीर जैसे कारीगर, संसार में कहीं भी नहीं होते।
दो-चार दिन हाउस बोट में विश्राम कर हमलोग श्रीनगर की शोभा देखने निकले। झेलम की दोनों ओर शहर बसा हुआ है। इस पार से उस पार तक जाने के लिए सात पुल बने हैं, पुराने ढंग के लकड़ी के पुल। हमलोग एक शिकारे पर बैठकर निकले। छोटी-छोटी नाव को वहाँ शिकारा कहते हैं। यात्रियों को घूमने के लिए यह बहुत ही सुविधा की चीज है। स्प्रींगदार गद्दा लगा रहता है और उस पर आराम से लेट जाइए। शिकारा झेलम के प्रवाह के साथ तेजी से बहता जाता है।
श्रीनगर में मकान लकड़ी के बने हैं। अनेक मकानों की छतों पर लोगों ने गेहूँ, फूल आदि छोटे-छोटे पौधे लगा रखे हैं। इन रूफ गार्डेन–छत पर के उद्यान को देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। पूछने से पता चला कि मकान की छतों पर मिट्टी जमाकर फूल-पौधे लगाना यहाँ का बहुत ही पुराना रिवाज है। इन रूफ गार्डेन द्वारा शहर की शोभा बहुत ही बढ़ जाती है। दूर में हिमालय की ऊँची-ऊँची बर्फीली चोटी, झेलम की कल-कल करती धारा, पुराने ढंग के घर और उन पर छोटे-छोटे फूल, सौंदर्य का ऐसा सम्मिश्रण मिलना कठिन है। लोगों ने श्रीनगर का नाम प्राच्य वेनिस रखा है। हमारी समझ में श्रीनगर सुंदरता में वेनिस से भी बढ़ा-चढ़ा है।
डल-लेक यहाँ की बहुत बड़ी और रमणीय झील है। यहाँ का सूर्यास्त मैं कभी नहीं भूल सकता। संध्या समय रक्तवर्ण आकाश की परछाईं, डल-लेक में जल पर पड़ती है। छोटे-छोटे शिकारे इधर-उधर क्रीड़ा करते रहते हैं। लंबे-लंबे पोपलर वृक्ष और दूर स्थित पर्वतों का प्रतिबिंब सब एक दूसरे से मिलकर सौंदर्य को बढ़ा रहे हैं।
डल लेक में शिकारे की सफर भूलने की चीज नहीं है। सबसे आश्चर्यजनक और अद्भुत वस्तु यहाँ के तैरते हुए खेत हैं। घास-पात और मिट्टी को साथ कर जल में तैरा देते हैं। फिर उस पर खीरा, खरबूजे, टमाटर इत्यादि सब्जी लगाते हैं। मैंने सुना था कि कश्मीर में लोगों की जमीन चोरी चली जाती है। मैं उस बात को असंभव-सा समझता था। इन तैरते बागों को देखकर इसका रहस्य समझ में आया। रात्रि के समय चोर नाव पर यहाँ आते हैं और इन बहते हुए जमीन के बंधन को काटकर चुपचाप दूसरी जगह बहाकर ले जाते हैं। उन्हीं लोगों पर जमीन चोरी का इल्जाम लगाया जाता है।
डल में नगीन नामक जगह अपूर्व है। यहाँ का जल एकदम स्वच्छ है। पोपलर, चिनार और पर्वतों के प्रतिबिंब जल में इनते साफ और सुंदर मैंने कहीं नहीं देखे।
नगीन में बहुत ही अच्छे-अच्छे हाउस बोट लगे हैं। बड़े और धनी लोग यहीं रहना पसंद करते हैं।
नगीन के पास हजरत वल की प्रसिद्ध मस्जिद है। शुक्रवार को शहर भर के मुसलमान यहाँ नमाज पढ़ने आते हैं। वास्तव में एक विशाल मेला लग जाता है। यह मुसलमानों का प्रसिद्ध तीर्थ-स्थान है।
श्रीनगर का सबसे आकर्षक स्थान मुगलबाग है। मुगल बादशाह सौंदर्य के उपासक थे और उनलोगों ने कश्मीर में जहाँ-तहाँ सुंदर-सुंदर बाग लगा रखे हैं। उनमें शालीमार और निशांत सबसे सुंदर और प्रसिद्ध हैं। जहाँगीर ने शालीमार का निर्माण लाहौर-स्थित इसी नाम के बगीचे के ढाँचे पर किया। एक झरने की दोनों ओर तरह-तरह के फूल और फल के वृक्ष लगे हैं। रविवार को हजारों लोग यहाँ छुट्टी बिताने आते हैं। हरी घास पर यात्री विश्राम करते रहते हैं और कुछ लोग यहाँ पिकनिक भी करते हैं।
शालीमार के पास ही निशांत बाग है। इसका निर्माण जहाँगीर की पत्नी नूरजहाँ ने किया। डल-लेक के किनारे पहाड़ी ढाल पर यह बाग सात सतहों में लगा है। बीच होकर एक छोटा-सा पहाड़ी स्रोत बहती है और उसमें सात झरने बने हैं। हम लोगों को यह उपवन इतना पसंद आया कि प्रत्येक रविवार को यहाँ पिकनिक के लिए चले जाते थे।
श्रीनगर से प्राय: 30 मील की दूरी पर गुलमर्ग है। देवदार और चीड़ के वन होकर बहुत ही कठिन मार्ग है। तीन मील या तो पैदल, नहीं तो घोड़े पर जाना पड़ता है। चढ़ाई इतनी कड़ी है कि बड़े-बड़े जवान पैदल जाने से हिम्मत हार जाते हैं।
देवदार के वन होकर हमलोग सहसा एक हरे-भरे मैदान में पहुँचे। कुछ टूटे-फूटे मकान थे। पता चला कि काबुली लुटेरों ने इस सुंदर स्थान को तहस-नहस कर डाला था। बाजार, मकान आदि तो ध्वंस हो चुके थे, किंतु प्रकृति के सौंदर्य को कौन नष्ट कर सकता है? एक तरफ अलपत्थर और खिलनमर्ग की बर्फीले ग्लेसियर और पूरब की ओर नंगा पर्वत की विशाल हिमाच्छादित श्रेणी। प्रात:काल का दृश्य देखने योग्य होता है। सूर्य की पहली किरण जब बर्फ के शिखरों पर पड़ती है तो सहसा सारी पर्वतश्रेती सोने की बन जाती है। धीरे-धीरे उसकी छटा बदलती जाती है और शिखर धवलाकृत हो जाते हैं। सूर्योदय की शोभा देखकर हम लोग खिलनमर्ग तक चले गए। बर्फों का चट्टान इधर-उधर पड़ा था। ऊपर बर्फ की नदी बह रही थी। हम लोग उसके ऊपर चढ़े। वहाँ बहुत से लोग बर्फों के गोले बनाकर खेल रहे थे। हम लोगों ने भी उसमें भाग लिया। बरफ पर फिसलने का भी आनंद मिला।
आस-पास गद्दीदार घास का मैदान था। रंग-बिरंग के छोटे-छोटे फूलों को मानों प्रकृति ने स्वयं यहाँ लगा दिया था। बरफ पर खेलने के पश्चात् हम लोग थक कर इस हरे गद्दे पर सो गए। ऐसा आराम और आनंद कभी नहीं मिला था।
गुलमर्ग से लौटने के बाद हम लोगों ने पहलगाँम की यात्रा की! यह लिदर नदी की घाटी में सात हजार फीट की ऊँचाई पर स्थित अत्यंत ही रमणीय स्थान है। चारों तरफ ऊँचे-ऊँचे बर्फीले शिखर हैं और यहाँ की आबहवा बहुत ही अच्छी है। उसी जगह से श्री अमरनाथ जाने का रास्ता है। रास्ता तो बर्फ से ढके रहने के कारण खुला नहीं था। फिर भी हम लोग घोड़े पर चढ़कर उसी ओर निकले। रास्ता बिलकुल संकीर्ण और पथरीला था। लिदर नदी एक तरफ बड़े-बड़े चट्टानों से टकराकर और बड़े-बड़े जलप्रपात बना कर शोर मचा रही थी, और दूसरी तरफ बरफ से ढके विशाल पर्वत-शृंग थे। रास्ते में कई जगह बरफ ही बरफ थी। घोड़े फिसल कर गिर जाते थे। कहीं-कहीं नदी के ऊपर भी बरफ पड़ी हुई थी। लिदर की तेज धारा नीचे से बह रही थी और ऊपर प्रकृति ने बरफ का ही पुल मानों यात्रियों की सुविधा के लिए बना दिया था। यह एक आश्चर्यजनक वस्तु थी। पहले तो हम लोग इस बर्फीली पुल पर जाने से घबराए। पर बर्फ की सतह इतनी मोटी थी कि नदी में गिरने का कोई भय नहीं था। तीन-चार घंटे की कठिन चढ़ाई के बाद हम लोग अमरनाथ-मार्ग का प्रथम विश्राम-स्थान, चंदनवाड़ी पहुँचे। यात्रियों के लिए कुछ छोटी-छोटी झोपड़ियाँ बनी थीं। चारों तरफ बर्फ का मैदान ही मैदान था। अमरनाथ और शेषनाग की जाने की उत्कट आकांक्षा थी और हमलोग आगे बढ़े। पर सबों ने बताया कि आगे का रास्ता अच्छा नहीं है। फिर भी हमलोग आगे बढ़े। कुछ दूर जाने के बाद रास्ता एकदम बर्फीला और दुर्गम दिख पड़ा। विवश होकर हम लोग पहलगाँव लौट गए।
इस प्रकार हमने डेढ़ महीने की छुट्टी कश्मीर के नैसर्गिक सौंदर्य के बीच बिताई। गुलमर्ग, पहलगाँव के अतिरिक्त हमने सोनमर्ग, तुलतियन आदि अनेक जगहों का भ्रमण किया। सब की स्मृतियाँ अभी जीती-जागती हैं । वास्तव में सारे विश्व में कश्मीर जैसी जगह नहीं। यहां सुंदरता जैसे मूर्त्तमान हैं। पोपलर और चिनार वृक्ष, तरह-तरह के फल और फूल, हरे-भरे पहाड़ और सूखे पहाड़, हिमशृंग, समतल भूमि, धान के खेत, उपवन जलप्रपात। जान पड़ता है प्रकृति कश्मीर की रचना करते समय तन्मय हो गई होगी।
Image: Ladakh Kashmir
Image Source: WikiArt
Artist: Nicholas Roerich
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