दृग मिले रहें, औ होते रहें बसेरे
- 1 May, 1953
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- 1 May, 1953
दृग मिले रहें, औ होते रहें बसेरे
दृग मिले रहें, औ होते रहें बसेरे
बस इसी तरह तुम रहो सामने मेरे
1
मैं धूप-छाँव में हास-रुदन के गीत लिखूँ सुन जाओ
मैं फूल-फूल में शूल-शूल की प्रीति लिखूँ चुन जाओ
अपने अभाव की कहता रहूँ कहानी
दिन-रात चाव से सुनती रहे जवानी
2
कब तड़प-तड़प कर हरसिंगार मुरझाया था बोलो तो
अपनी पीड़ा का राज नहीं खुल पाया था खोलो तो
मैं दूँ तुमको अपने आँसू की माला
तुम दो मुझको अपने अंतर की ज्वाला
3
मैं संघर्षों में डूब-डूब कर जीवित हूँ, तुम क्या हो
मैं अपनी मस्ती के कारण ही पीड़ित हूँ, तुम क्या हो
मैं छेड़ू जब अपने जीवन की बंसी
तब उड़कर सुनने आए मन का पंछी
Image: Portrat des Balwant Singh von Jammu
Image Source: Wikimedia Commons
Image in Public Domain