अगनहिंडोला (उपन्यास अंश)

अगनहिंडोला (उपन्यास अंश)

आने वाले मजलूमों में एक मारवाड़ से आया क्षत्रिय जय सिंह था। मारवाड़ इलाके में अकाल पड़ गया था। एक-एक काफिले बनाकर पूरब की ओर निकल आये थे, जय सिंह ने रोहतास में शरण पाई थी। उन्हें खेत मिला था फसलें उगाने को। उनके साथ उनकी कमसिन बेटी थी, बला की खूबसूरत। फरीद गर्मी की भरी दुपहरी में अपना तालुका घूमकर आ रहा था। खेतों की हरियाली मन मोह रही थी। खेत जहाँ खत्म हुए वहाँ कुछ नये बने घर देखे फरीद ने। प्यास से उसका गला सूख रहा था। अभी हवेली दूर थी, गले में काँटे उग आये जान पड़ते थे। घोड़े से उतरकर उसने पास खड़े एक पेड़ से बाँध दिया और सामने की कुटिया में आवाज लगाईं–‘कोई है? राहगीर को पानी पिलाओ।’ आवाज सुनकर एक युवती कमर पर घड़ा रखे नमूदार हुई। फरीद को पानी पिलाया, फरीद अपलक उस लड़की को देखता रह गया। पीले रंग का घाघरा, हरी ओढ़नी। जरी गोटे और शीशे के काम से जगमग। पीली चोली पसीने से तर-बतर चिपक गई थी जोबन के उभार से। घड़े भर पानी पीकर भी फरीद की प्यास न बुझी। अजीब-सी कैफियत थी।

‘तुम कौन हो?’

‘मैं चंदा हूँ।’–फरीद उसके कपड़ों से जान गया कि यह इस जगह की नहीं है। नये आये किसी किसान की बेटी है।

‘तुम्हारे वालिदैन कहाँ हैं?’

‘सिर्फ पिता जी हैं, वे खेत से नहीं आये हैं अभी तक, मैं अकेली हूँ घर में।’

‘क्या नाम है उनका?’

‘जय सिंह हुजूर’–चंदा को समझ में आ रहा था कि जल की याचना करने वाला यह इनसान कोई साधारण नहीं है। जरूर कोई खास है। उसने कह कर नजरें नीची कर लीं।

‘यूँ अकेली किसी के भी पुकारने पर बाहर नहीं निकलना था, समझ गई?’–फरीद ने उसे बरजा और खुद घोड़े पर चढ़कर चला गया। चंदा ठगी-सी देखती रह गई। फरीद की खूबसूरती से बढ़कर उसका घोड़ा चढ़ने दौड़ाने का अंदाज और उससे भी बढ़कर उसकी हिदायत कि किसी के पुकारने पर बाहर न निकले। क्यों न निकले? अगर बाहर न निकलती तो उनको पानी कौन पिलाता? ऐसी गरमी की दुपहरी में प्यासे को पानी पिलाना धरम भी है और इंसानियत भी। चंदा को एक खुशबू का एहसास हुआ। जिस पेड़ के नीचे वह खड़ा था। वहाँ से हवा का एक खुशवार झोंका आकर उसकी ओढ़नी उड़ाने को आमादा हो गया। चंदा को लगा वह उस इनसान की ओर खिंचती चली जा रही है।

घोड़ा दौड़ाता फरीद एक जोहड़ के पास आया। उतर कर रास ढीली की। उसे पानी पीने को छोड़ दिया। गरमी और प्यास से घोड़ा बेचैन था। फरीद चंदा से पानी माँग कर घोड़े को पिला सकता था पर जाने क्यों वह उसके रूप की आँच सह नहीं पा रहा था; मन बेकाबू हो उठा था। वह भाग आया। चंदा के रूप के आँच से भाग आया। एक बार भी मुड़कर नहीं देखा, पर अब दौड़कर उसके पास जाने का दिल कर रहा है, अजीब-सी कैफियत है। उसके सुनहरे घने बाल, बड़ी-बड़ी नीली आँखें, भोला मुखड़ा इसके दिल में उतर गया हैं। पतली कमर और उस पर छलकता जोबन। चोली और चुनर के बीच की दिलकश दूरी जो बेकाबू हुआ जाता है। उसे कोई गैर न देखे इसी मंशा से फरीद ने कहा कि किसी को पानी पिलाने न निकले। जाने क्यों फरीद ने उसे अपना, निहायत खानगी मान लिया कुछ ही पलों में। धोड़ा पानी पीकर इधर-उधर चरने लगा। हरी-हरी दूब उसे दीख गई थी। शाम का झुटपुटा होने लगा था। गायें और बकरियाँ जंगल से चर कर घंटियाँ बजातीं गाँवों की ओर लौटने लगी थीं। फरीद भी घोड़े पर चढ़कर हवेली की ओर चल पड़ा।

जय सिंह खेत से घर आकर हाथ पैर धोने लगा। घड़े से पानी उड़ेलकर चंदा उनके हाथ पैर धुलवाने लगी। बिटिया ने चबेने, गुड़ के साथ डलिया में लेकर दिया। जय सिंह खाने लगे। खाली घड़ों को लेकर चंदा कुएँ पर जल भरने गई। दो चार अधेड़ औरतें वहाँ पहले से खड़ी थीं।

‘चंदा, मैंने घोड़े की टाप सुनी तो बाहर निकल कर देखा, किसी पठान को तुम घड़े से उड़ेलकर पानी पिला रही थी।’–एक स्त्री ने कहा।

‘हाँ काकी, एक राहगीर था, आवाज लगाई तो मैं बाहर गई। वह प्यासा था, चुल्लू में ही पानी पीने लगा। घड़ा भर पी गया।’–चकित सी कहा उसने।

‘अरी प्यासा ही था। पर चुल्लू में क्यों वह कोई बड़ा आदमी दिखाई दे रहा था, उसे लोटे में पानी देना था, गुड़ की भेली भी देनी थी।’–दूसरी ने कहा।

‘अब मैं क्या जानूँ, मुझे लगा प्यासा है उसने भी चुल्लू बाँध लिया।’

‘ठीक ही किया, अनजाने को क्या पानी पिलाना लोटे में?’–तीसरी स्त्री ने टीप दिया।

‘काकी, उसने भी जाते-जाते यही कहा।’

‘क्या कहा?’ एक जनी थीं।

‘कहा कि किसी के पुकारने पर यूँ अकेली नहीं निकलना चाहिए, अब लो, उसे पानी पिलाया, उसकी प्यास बुझाई वही नसीहत दे रहा है।’

हँस पड़ी चंदा। ‘समझदार इनसान होगा।’–दूसरी ने कहा।

‘जब से फरीद खाँ तालुका देखने लगे हैं कोई राहजनी चोरी, उठाईगीरी कहां होती है। सारे चोर उचक्के साधु हो गये हैं।’ तीसरी स्त्री ने कहा।

‘बिटिया, उसने ठीक कहा।’–घड़े भर गये थे, सभी ने अपने-अपने घड़े उठाये और चलती बनी।

चंदा एक के ऊपर एक-दो कलसी और एक कमर पर घड़ा लेकर चलती हुई आँगन आई। जय सिंह ने बिटिया के सर से घड़ा उतारा और घिड़ौंची पर रखा।

‘एक साथ इतने घड़े लेकर जाने की क्या जरूरत थी, मैं ले आता। इतना खालीकर रखती है।’

‘नहीं बापू, आज की बात ही जुदा है।’

‘क्या जुदा है?’

‘एक राहगीर प्यासा था, उसने पानी माँगा। मैं पिलाने बैठी तो सारा घड़ा ही पी गया। इनसान नहीं ऊँट था।’–वह खिलखिल हँसने लगी।

‘प्यासा होगा बेचारा। कौन था?’

‘मैं क्या जानू।’ अब और जोर से हँसने लगी।

‘कैसा था वह पूछ रहा हूँ।’

‘अच्छा सा जवान था।’

‘कपड़े कैसे पहने थे?’

‘ओहो, उसने बेशकीमती पठानी कपड़े पहने थे, पगड़ी भी वैसी ही थी।’

‘वही पूछ रहा था। वैसे तो इस छोटे से तालुके में अमन चैन है पर कौन जानता है किधर से कौन आता है? बुलावे पर बाहर न निकला कर।’–चंदा ने सोचा जैसा उस जवान इनसान ने कहा वैसा ही बापू भी कह रहे हैं। काकी लोग भी कह रही थी। नहीं निकलूँगी। मेरा क्या। दिनभर चक्की चलाकर चने पीसती रही थी चंदा। यहाँ ज्वार-बाजरे तो उपजे नहीं गेहूँ खूब उपजे। आज गट्टे की सब्जी और घी चुपड़ी गेहूँ की रोटियाँ खिलायेगी बापू को। पिता गंभीर मुद्रा में बैठकर मूंज की रस्सियाँ बाँटने लगा। खेतों सब्जियाँ बोई हैं। सारी सब्जियाँ बरसात में फलेंगी। उनके लिये मचानें खड़ी करनी पड़ेंगी। मूंज की रस्सी ही काम आयेगी। मचानों पर बरसाती लौकी, सतपुतिया और सेम फलेंगे। इस ओर की हरियाली देख जय सिंह का खेती करने का उत्साह दुगुना हो जाता है। अपनी कुटिया की दीवार पर टँगे तीर तलवार को देख आहें भरता कि कब वह एक सिपाही का रूप धारण करेगा। कब किसी सेना की भर्ती होगी और इसकी तलवार बोलेगी। खेती में मन रमता है, बिना माँ की बेटी को देख-देख जी भी तो जलता है। अपने मारवाड़ से दूर बिरादरी में लड़का देखना भी मुश्किल है। साथ आये बुजुर्ग लोग सांत्वना देते कि कुछ कमा धमा ले, अनाज पानी और ढोर डंगरों से; फिर ब्याह के लिए सब मिलकर कोई न कोई बिरादरी वाला ढूँढ़ ही लेंगे। रोहतास से भोजपुर, भोजपुर से पटना तक सैकड़ों मारवाड़ी आये होंगे, उनमें से कोई न कोई मिलेगा। अगर न मिले तो इधर के क्षत्रिय से बेटा माँगेगे। जय सिंह सा उच्च कुलीन क्षत्रिय और चंदा सी बिटिया देखकर कौन इंकार करेगा। सब कुछ होते हुए भी जय सिंह का पिता वाला हृदय केले के पत्ते की भाँति जरा सी बयार से डोल जाता। दिन को चैन न रात को नींद। सुना है और अनुभव भी किया है कि यहाँ किसी प्रकार की लूट मार नहीं है, फिर भी विधर्मियों का क्या भरोसा।

फरीद लौटकर आये तो ऊपर धुले परकोटे पर कपड़े बदल लेट गये। एक नौकर बड़ा-सा हाथ पंखा लेकर झलने लगे, थके फरीद को झपकी आ गई। नींद में उन्होंने चंदा को देखा। हाथ बढ़ाकर उसे छूने लगे कि वह खिलखिलाकर हँसने लगी और दूर भाग गई। लंबी चोटी उसकी पीठ पर लोट रही थी। उसके भागने से नागिन-सी बल खा रही थी। फरीद हाथ बढ़ाकर पकड़ना चाह रहा था कि सपना गायब हो गया। उन्होंने नौकर की ओर गुस्से से देखा। वह सकपका गया। उसे समझते देर न लगी कि उसका नौजवान मालिक किसी हसीन सपने की गिरफ्त में था। सपना टूट जाने की वजह से नाराज हो गया। उसके हाथ पंखे सहित ज्यादा तेजी से चलने लगे। फरीद ने फिर आँखें बंद कर लीं पर वो चुलबुली हसीना फिर लौटकर पलकों के बीच नहीं उतरी। फरीद उसका रूप याद कर आहें भरने लगा। दूसरे दिन आप से आप फरीद के पाँव चंदा के दरवाजे पर पहुँच गये। अबके सीधे उसके आँगन में पहुँच गया। चंदा चौंकी पर घबड़ाई नहीं। उसके पिता खेत की ओर गये थे। उसने अभी अभी खाना तैयार किया था और लेकर खेत जाने वाली थी। पोटली बाँध रही थी। 

‘तुम अपने वालिद के लिए खाना खेत ले जा रही हो?’

‘जी हाँ, खाँ साहेब।’–उसने आदर से कहा।

‘क्या बनाया है?’

‘रोटी और साग। आपको प्यास लगी है क्या? तनिक रुकिये’–दौड़ कर गुड़ की भेली और लोटे में पानी लेकर आई। फरीद अपलक उसे देखता रहा फिर कहा–

‘तुम मुझे रोटी नहीं खिलाओगी?’ वह हँस पड़ी।

‘आप पठान हैं, मालिक दीखते हैं। हमारे घर की सूखी रोटी और साग खायेंगे?’

‘बिलकुल खायेंगे। जो तुम खिलाओगी तब खाऊँगा।’

‘लीजिये’–आगे बढ़कर पोटली खोलने लगी कि फरीद ने उसका हाथ पकड़ लिया। ‘रहने दो, फिर कभी।’–फरीद उठकर जैसे ही आया था वैसे ही चला गया। हाथ पकड़ लेने की प्रतिक्रिया दोनों के ऊपर हुई पर अलग अलग। फरीद की आग अधिक भड़क उठी। इस आग से उसका आमना-सामना कभी नहीं हुआ था। वह या तो काफिला के अरवी पाठ से जूझता रहा या तीरंदाजी, तलवारबाजी के दाँव पक्के करता रहा। इतिहास पढ़ते वक्त सियासत के बारे में जानकारियाँ मिलीं, इश्क के पेचोखम से कहीं गुजरा। किसी पुरसुकून माहौल में कभी रहा नहीं, किसी के गेसू सँवारने का चाव कहाँ से पैदा होता। उसके दिल में एक बेचैनी थी जरूर पर औरत पाने की ललक नहीं थी कभी। उसने सिर्फ दो स्त्रियों को नजदीक से देखा था, एक उसकी अपनी अम्मा सबा खातून और दूसरी सौतेली अम्मा मुन्नी बाई। इसकी नजर में एक नियायत नेक सताई हुई औरत थी जो उसकी सगी अम्मा थी, दूसरी सताने वाली थी जिसने सबा खातून की बांदी बनकर हवेली में दाखिला लिया और सौत बन गई। फरीद के दिल में पहली बार जज्बात जागे वो इस शिद्दत से कि इसकी अक्ल को कुंद कर दिया।

वह रोज ब रोज चंदा के घर पहुँचने लगा। पूरी बस्ती में कानाफूसी होने लगीं। जय सिंह बेहद डर गया। उसने चुपचाप तीरथ के बहाने वहाँ से निकल जाने की योजना बना ली। दो घोड़ों का इंतजाम हो चुका था। नदी किनारे घोड़े छोड़ देने का इरादा था। नाव से रात में ही नदी पार कर दूसरे के जागीर में पहुँच जायेंगे। फरीद वहाँ न पहुँच सकेगा। नदी किनारे चंदा और जय सिंह पहुँचे ही थे कि चंद घुड़सवारों सहित फरीद वहाँ पहुँच गया। उन्हें घेर कर अपने किले में ले आया। ‘जय सिंह, मैं आपकी बेटी चंदा से मुहब्बत करता हूँ। आप इसे मुझसे दूर नहीं ले जा सकते।’–चीखकर कहा फरीद ने। जय सिंह का चेहरा क्रोध से लाल भभूका हो गया। उसके हाथ तलवार की मूठ पर चले गये। फिर अपने को उसने जब्त किया। उसे पता चल चुका था कि वह शिकारी की गिरफ्त में है। चंदा रोये जा रही थी। अब उसे सब कुछ समझ में आ गया था। कोने में चुपचाप भीगी गौरैया-सी दुबकी बैठी थी। जय सिंह जानता था कि रहम करने को कहेगा भी तो सुनवाई नहीं होगी। सो खून का घूँट पीकर चुप रहा। फरीद ने जय सिंह और चंदा के रहने का इंतजाम किले में ही कर दिया। फरीद अब बेकाबू हुआ जा रहा था। उसने चंदा को अपनी कोठरी से कहीं नहीं जाने दिया। इसके सामने अभी न पठानों अफगानों को एक करने का मसला था न तालुकेदार से सूबेदार बनने और सूबेदार से शहंशाह बनने का ख्वाब था। वह अमीर की पदवी भी नहीं चाहता था। उसे तो सिर्फ और सिर्फ यह हसीना जो इसके दिल की धड़कन बन गई थी उसे हासिल करना था। उतावला हो गया फरीद। आहिस्ते से अगर जय सिंह से बात करके चंदा उसकी वीबी हो जाती तो सब कुछ बड़ी आसानी से हो जाता पर अब जब वे अपनी खेती बाड़ी अपने जीने की आरजू छोड़कर भाग जाना चाहते थे तो वह बेहिस हो गया।

‘चंदा तुम्हें मालूम है न मैं तुमसे मुहब्बत करता हूँ। तुम्हारे बिना नहीं रह सकता। तुमसे निकाह करूँगा।’ फरीद ने इल्तिजा की। ‘हमारा निकाह कैसे होगा मालिक, हमारा धरम अलग है।’ रोती हुई चंदा ने कहा।

‘मुहब्बत धरम नहीं देखता। तुम क्या मुझसे मुहब्बत नहीं करती, दिल पर हाथ रखकर बोलो।’–चंदा सचमुच फरीद को प्यार करने लगी थी। पर धरम की दीवार और पिता जय सिंह का मान, क्या करती कैसे कहती। कश्मकश में थी। वह रोती रही। उसके आँसू फरीद से बर्दाश्त न हुए। उसने पहली बार उसे छुआ। उसने आँसू पोंछे, उसे सीने से लगाया। मुहब्बत की खुश्बू ने दोनों को अपने में समेट लिया। दो जिस्म दो जान एक हो गये। फरीद ने चंदा को पाकर मानो सब कुछ पा लिया। चंदा ने अपना समर्पण अपनी इच्छा से किया था यह जानते हुए भी आहत थी। फरीद उसे बार-बार कह रहा था कि वह औरतों की बेहद इज्जत करता है, उसे निकाह पढ़वायेगा।

रातभर जय सिंह पिंजड़े में बंद शेर की भाँति छटपटाता रहा। उसका दुर्भाग्य कि उसकी बेटी और बीबी खूबसूरती की मिसाल थी। मारवाड़ से निकलते ही इनका काफिला लूट गया था। काफिले की सभी जवान खूबसूरत औरतें लूट ली गई। जय सिंह की वीबी भी उनमें से एक थी। काफी दिनों तक बच्चे जवान और बूढ़े-बूढ़ी कोली बस्ती में शरण लेकर रहे। सुना कि पूरब देश का रोहतास इलाका लुटेरों से महफूज है। बेटी चंदा अब शुक्लपक्ष के चाँद की भाँति बढ़ती ही जा रही थी। पर हाय, यहाँ आकर भी क्या हुआ?

‘जय सिंह, ले कुछ खा पी ले और दिमाग लगाकर सोच फरीद मियाँ यहाँ के जागीरदार के बड़े बेटे हैं, दोनों जागीरों के शिकदार भी हैं, वे बड़े जाँबाज सिपाही हैं, पढ़े-लिखे हैं, इनका दिल आज तक किसी खातून की ओर नहीं आया था, तेरी बेटी भागोंवाली है। अरे वो उससे मुहब्बत करते हैं हम तो कहते हैं–शादी कर दे। तू भी सुख से रहेगा तेरी बेटी भी शान से रहेगी। क्यों नाहक जान देने पर तुला है।’ एक सिपाही ने उसे खाना परोसते हुए कहा।

‘तुम तो हिंदू जान पड़ते हो।’–जय सिंह ने कहा।

‘हाँ, तभी तो तेरा खाना लाया हूँ। मालिक ने कहा इसीलिये।’

‘हुंह, तेरे मालिक को यह ख्याल क्यों नहीं आया कि मुझ हिंदू की बेटी को उठाकर क्यों ले आया है?’

‘दिल का मामला है यार, तेरी बेटी पर दिल आ गया है। वह उससे शादी करना चाहता है।’

‘वो कैसे कर सकता है ऐसा? तू ऐसा अपनी बेटी के साथ करने दे सकता है?’

‘तो क्या करेगा? उसका वश में है वो जो चाहे करे। शादी करना रखैल बनाने से अच्छा है। फरीद खाँ सूर अच्छा इनसान है। वो रियाया के लिए कितना भला करता है।’

‘मैं तो धरम गँवा बैठा। इसीलिये शेखावाटी से चलकर आया था?’–जय सिंह सर धुनने लगा।

‘देख मेरे भाई, जबर्दस्ती अगर रोहतास का किलेदार राजा महाबली सिंह भी बेटी को उठाकर अपनी रनिवास में ले जाये तो भी बुरा है। यह शादी करना उसे जिंदगीभर निभाना चाहता है। आज कई सौ सालों में हजारों क्षत्रियों ने धरम बदला है। इसे तकदीर समझ।’

‘क्षत्राणियों ने जौहर भी तो किया है।’

‘तू कहीं का राजा है क्या?’

‘दिल का राजा हूँ।’

‘बड़ा जिद्दी है भाई, पर शेर के मुँह लगे शिकार को किसी युक्ति से ही निकाला जा सकता है।’–रातभर समझने और समझाने का दौर चलता रहा। जय सिंह ने मुँह जूठा किया और जल पीया। मन ही मन कुछ संकल्प लिये।

चंदा और फरीद एक दूजे के हो चुके थे। इनकी मुहब्बत का प्याला लबालब भरा हुआ था, जितना पीते उतना छलक रहा था। फरीद के इश्क की चाशनी में ऐसी डूबी कि उसके पंख न रहे साबूत। कोई शिकवा शिकायत नहीं, कोई नया अरमान नहीं। बस फरीद ही फरीद। दोनों का पहला पहला प्यार था वह भी कमसिनी का इश्क नहीं, कोई बेचोखम नहीं। फरीद ने सुनाया कि जय सिंह खुश है वह किले की सेवादारी करना चाहता है। अब चंदा का मन स्थिर हो गया था। उसे अपने महबूब से निकाह करने से भी इंकार नहीं था। उसे क्या मालूम धरम-करम वह तो फरीद की सच्ची सुच्ची मुहब्बत की गिरफ्त में थी।

जय सिंह अब फरीद के साथ रहता। वह अच्छा तलवारबाज था। उसके दिल में आग धधक रही थी। किसी तरह भूल नहीं पा रहा था कि जिस रात लुटेरे उसकी वीबी को लूट ले गये और जिस तालुके में शरण लेकर अपने को महफूज समझ रहा था उसके शिकदार ने जो तालुकेदार का वारिस है उसकी फूल-सी बेटी को बंदी बनाकर रखा छोड़ा है। उसके जहन में इश्क-मुहब्बत की जगह नहीं है। वह अपने आपको दुनिया का सबसे बदनसीब इनसान समझता है। वह अपनी स्त्री और बेटी की अस्मत नहीं बचा सका। फरीद के आसपास वह नफरत से लबरेज डोलता रहता।

‘लाइये मालिक मैं आपके सर को तेल लगाकर मालिश कर दूँ।’–थक कर आये फरीद से जय सिंह ने कहा।

‘ठीक है रहने दो। हमारे जैसे सिपाही को मालिश नहीं सोहता।’–फरीद तीमारदारी करवाने का कायल नहीं था। उसने देखा जय सिंह का चेहरा उतर गया। कहा–‘चलो कंधे दबा दो।’ जय सिंह आगे बढ़ गया।

‘शमशीर बाँधे हुए कंधे दबाओगे क्या?’ फरीद ने कहा और टेक लगाकर आँखें मूँद लीं। जय सिंह ने अच्छा मौका देखा। तलवार कमर से निकाल सीधा फरीद की गरदन पर वार कर दिया कि चीते-सी तेजी से फरीद उछला और उसी की तलवार से उसका गर्दन काट दिया। यह सब कुछ ही पल में गुजर गया। पास खड़े अमले सिपाही सकते में आ गये। यह क्या हो गया या खुदा। हे ईश्वर जय सिंह ने यह क्या कर डाला इसकी शंका तो मुझे भी न थी, उसके सदा निकट रहने वाले सिपाही ने सोचा और काँप गया कि कहीं फरीद इस पर न रूष्ट हो जाय। चाँद कुँअर को जब यह खबर पता लगी तो वह पागल सी हो गई। इधर उधर भागने लगी। फरीद आकर से समझाने लगा वह सुनने को भी तैयार न थी। उसे अनुभव हो रहा था कि यह सब उसके कारण ही हो रहा है। उसने देखते ही देखते अपने शरीर में आग लगा दी। फरीद बचाने दौड़ा। उसके अमलों ने उसे कसकर पकड़ लिया। ‘ऐ नीच दुष्ट फरीद अफगान तूने मेरा धरम भ्रष्ट किया मेरे पिता को मार डाला। कभी सुख नहीं पाएगा। जो मिलेगा वह तुझसे यूँ ही छिन जाएगा। जैसे मैं जलकर मर रही हूँ तू भी ताजिंदगी जलता रहेगा और मरेगा। अरे विधर्मी, मेरे तो किसी पूर्वजन्म का कृत्य होगा जो मैंने भोगा तुझे इसी जन्म में सब कुछ मिल जायेगा।’ चंदा ने दम तोड़ दिया। फरीद दीवाना हो चुका था। यह क्या हो गया? उसने ऐसा तो कभी नहीं सोचा था। किसी खातून के लिए मन में बुरा ख्याल नहीं लाया। आज इस नियामत की तरह आई मुहब्बत ने कयामत बरपा दिया। एक तो अपनी अजीज दिलवर को कोयला होना दूसरे घिनौने अपराध की तरह उसके पिता का सरकलम कर देना मुआफी के काबिल नहीं है। कहाँ गया उसका पत्थर जैसा ठोस इरादा और कहाँ गया बड़े से बड़ा इनसान बनने का सपना। सब चूर-चूर हो गया। वह बेचैन होकर भाग निकला परकोटे से। भागता चला गया जंगल की ओर। एक ऊँची पहाड़ी पर चढ़कर अपनी जहर बुझी कटार निकाल ली। अब मैं अपना कलंकित चेहरा लेकर जीकर क्या करूँगा। न जिंदगी में मुहब्बत रही न इज्जत। कटार उठाकर अपने सीने को चाक करने ही जा रहा था कि एक आवाज आई।

‘रुको फरीद, ये क्या कर रहे हो।’–संसार क्या है अलग-अलग इंसानों की कहानी है। इसी तरह के भाँति-भाँति के खेल होते हैं। जैसा डर था वैसा ही हुआ। इसी की मानिंद एक दिन सबको मिट्टी में मिलना है। जान जाने के बाद रोने से वापस नहीं आते, हमें पता नहीं यह किस को समझा बुझाकर सहसराम भेजा। फरीद जाना तो चाहता ही था फिर भी कहा–‘मैं अपने वालिद की दोनों जागीरों को सँभाल लूँगा, उनकी देखभाल भी करूँगा पर वे बेबस हैं। उनकी वीबी जो निहायत नाशुक्री है मुझे बर्दाश्त नहीं कर पाएगी। अगर उन्होंने उसकी बात पर कान दिया तो शायद वे मुझे न रख पायें।’

‘तुम्हें बड़े काम करने हैं, छोटी-छोटी परेशानियों से कभी न पशेमन होना। जाओ एक सिपाही की तरह जुट जाओ, अकीदतमंद की तरह अपनी सोच को अंजाम दो। आमीन’

रोहतास के पत्थर वाले दुर्ग के नीचे खड़े होकर हसन सूर ने उसका इस्तकबाल किया। वह दुर्ग राजा का था जहाँ जाना आसान नहीं था। राजा अपना फर्ज अच्छी तरह अदा करता था कभी भी जागीरदार को शिकायत का मौका नहीं देता था। हाँ, वह मुंडेश्वरी देवी के मंदिर में पूजा करने के लिए साल में एक बार ही किले से नीचे उतरता था। फरीद को देखकर हसन सूर बेहद खुश हुआ।

‘आओ बेटे अब तुम ही दोनों परगने देखो।’

‘मैं देखूँगा पर आप पूरी तरह मुझे देखने देंगे तब।’

‘मैंने तुम्हारे ऊपर सब कुछ छोड़ दिया है। तुम मेरे सबसे बड़ी औलाद हो। तुम पर ही तो भरोसा है।’

‘अब्बा हुजूर, यह मैं इसलिये कहता हूँ कि कई जगहों पर आपके रिश्तेदार जागीर का काम देख रहे हैं मैंने अगर उनके काम में गड़बड़ी पाई तो हटा दूँगा। रहम नहीं करूँगा।’

‘तुम्हें जागीर का शिकदार बनाया है अब तुम्हारे इख्तियार में हैं कि तुम कैसे चलाओ।’

इत्मीनान होकर फरीद अपने काम में जुट गये। फरीद ने सबसे पहले गाँवों की ओर रुख किया। गाँव के किसान ही किसी राज्य की धुरी हैं। वे अन्न उपजाते हैं, वे न हों तो सारी सभ्यता ही नष्ट हो जाय। अरबी, फारसी और हिन्दवी का विद्वान फरीद किसी मुगालते में न था कि कोई सिकदार या अमीर दुनिया चला सकता है। उसने महसूस किया कि रोहतास सासाराम और हवासपुर टांडा के किसान अच्छी खेती करते हैं और अच्छे नस्लों के ढोर पालते हैं पर बेहद तकलीफदेह जिंदगी गुजारते हैं। बारिश न हो और फसल अच्छी न हुई तो इलाके छोड़कर दूर जा बसते हैं। अपना इलाका खाली और बंजर हुआ जाता है। दरियाफ्त करने पर जाना कि मुहम्मद गोरी के समय से ही इन पर फाजिल माहसूल लगाया और वसूला जाता है। बेगार के लिये लोगों को पकड़ कर जबर्दस्ती ले जाया जाता है। समय पर खेती नहीं हो सकती, निकाई गुराई नहीं हो, समय पर खेतों में पानी न डाला जा सके तो खेतिहर भागकर ऐसे तालुके में चले जाते जहाँ यह सब नहीं होता। फरीद ने तुरत फुरत माहसूल बंद कराये और बेगार तो बिलकुल ही बंद करा दिया। दस घरों के ऊपर एक आदमी की बहाली सिर्फ इसलिये की कि वे किसानों की सलामती का ख्याल रख सकें। खूबसूरत नौजवान फरीद किसानों के बीच खड़ा होकर कहता–‘मैं इनसान की सहायता करने वाला एक सैयद हूँ। तुम सब जो मेरी रियाया हो मुझसे जरा भी न डरो, मुझसे बेखौफ होकर अपनी तकलीफें बयाँ करो।’


Image: A woman at a well gives a mounted prince a drink
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उषाकिरण खान द्वारा भी