बादल राग
- 1 February, 2015
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- 1 February, 2015
बादल राग
इस दीवाली पर साथियों की सलाह पर विकास ने शहर की सभी शाखाओं और ऑफिस का एक ‘गेट-टूगेदर’ रखा। दीपावली की छुट्टी थी। सभी कर्मचारियों को बुलाया गया। चायपान की शानदार व्यवस्था की गई थी। अधिकांश लोग कुर्ते-पायजामे में और महिलाएँ साड़ियों में आई थीं। माहौल बहुत अच्छा था। पार्श्व में रविशंकर की सितार थी। आपस में अर्से बाद इस प्रकार का जमावड़ा हुआ था। बहुत जरूरी था अब के माहौल में। विकास सफेद कुर्ते-पायजामे में था। सबसे उत्साह से मिल रहा था। सभी कर्मचारी अपने परिवारों के साथ थे। बच्चों को बुलाया गया था। प्रीति भी गरिमा के साथ आई थी।
पुराने लोग जो सुनिधि को ऑफिस में रहते हुए देख चुके थे, वे विकास और सुनिधि को पास आते देखकर कानाफूसी करते। सुनिधि बहुत उत्साह में थी। वह बार-बार घुमड़कर विकास के साथ प्रीति और गरिमा के आसपास मँडराती। प्रीति से सुनिधि की हलचल छिपी नहीं रह सकी। वह अब गौर से उसे निहारने लगी। स्त्री-जनित उसकी टोह से सुनिधि बच नहीं सकी। हालाँकि सुनिधि की यह कोशिश होती कि वह अधिक से अधिक समय प्रीति के साथ बिताये। साथ ही, विकास हमेशा उसकी ‘रेंज’ में होते।
समाज में प्रेम बहुत रसभरा प्रसंग होता है। जिंदगी के भीतर झाँकने में सबको मजा आता है। अफवाहें भी खूब फैलती जाती हैं। कुछ का मानना था कि सुनिधि और विकास का ज्वाइंट अकाउंट भी है। कुछ तो यहाँ तक कह डालते कि उन्होंने गोवा में एक फ्लैट खरीदा है, जो उन दोनों के नाम है।
इन सारी बातों को झुठलाते हुए विकास अपने आपको सँवारने में लगा था। वह सभी कर्मचारियों और शहर के बड़े क्लाएंट के साथ समय दे रहा था।
कार्यक्रम ठीक रहा। उद्देश्य काफी हद तक पूरा हुआ। सुनिधि ने अनुमति ली और वहाँ से चलती बनी। रास्ते भर प्रीति ने विकास के साथ कोई बात नहीं की। विकास इसे समझ रहा था। अब तक प्रीति के मन में कुछ आशंकाएँ थीं। पर अब काफी बातें उसे चुभने लगी थीं। हालाँकि विकास अभी अपने कर्तव्य के बारे में संवेदनशील ही रहा। दीवाली के लिए खरीदे कपड़े आज प्रीति और गरिमा ने पहने थे। फिर भी खरीदारी के लिए उसने गाड़ी बाजार की ओर मोड़ दी थी। विकास के मन की दुविधा अब प्रीति से छिपी नहीं थी। पर वह किसी और मिट्टी की बनी थी। वह बतंगड़ में विश्वास न करती। जब भी कोई बात उसके सामने उभरती, वह अंतर्मुखी हो जाती। उसके स्वभाव में तर्क, दावा, हार-जीत को कोई खास जगह नहीं थी। पर आहत होने पर आँखें सब कुछ बयान कर जातीं, जिसे वह छिपाने की कोशिश भी न करती। वह किसी भी कीमत पर विकास को खोना नहीं चाहती थी।
एक दिन विकास को लगा कि वह शायद अब सुनिधि की पूरी गिरफ्त में चला गया है, क्योंकि उठते-बैठते, सोते-जागते उसमें केवल एक ही बात घुमड़ती रहती है–सुनिधि। विकास को लगने लगा कि वह प्रीति के प्रति अन्याय करने लगा है। इतना ही नहीं, गृहस्थी में पति की भूमिका भी वह ठीक से नहीं निभा पा रहा है। पत्नी के साथ सेक्स की इच्छा लगभग खत्म हो गई। वह कुछ डर-सा गया, अपने आपसे। क्योंकि उसकी मानसिकता में ऐसी सोच असहज थी। वह क्रूर नहीं हो सकता था। जो स्थितियाँ आईं, उसमें वह जरूर कुछ कमजोर महसूस करता रहा। सुनिधि उसके तन-मन पर हावी थी। पर वह कमजोर क्षणों में भी अपने को विवश न पाता। उन अर्थों में उसकी भीतरी बनावट बहुत मजबूत थी। आदमी कितना ही मजबूत क्यों न हो, कभी न कभी चुनौतियाँ उसे कमजोर करार दे ही देती थीं। विकास को भी लगा कि वह कभी कर्तव्य को लेकर उदासीन न हो जाए। उसने एक जरूरी निर्णय ले लिया–अपना घर हो, जिसमें प्रीति का नाम हो। प्रीति को बताये बिना उसने यह निर्णय ले लिया। मकान को अंतिम रूप प्रीति की सहमति से दिया। मकान प्रीति के नाम से खरीदा गया। विकास ने असमंजस का एक मोड़ पार कर लिया था।
पता नहीं इतने दिनों तक उसने हाउसिंग लोन से मकान खरीदने की बात क्यों नहीं सोची। अब वह अपने मकान में रहता है और किश्तें भी वेतन से जाने लगी हैं। इससे भी महत्त्वपूर्ण निर्णय यह लगता विकास को कि प्रीति के प्रति अन्याय से वह अपने आपको कुछ कम अपराधी पाने लगा था।
*
‘क्या तय किया’–विकास ने पहल की।
‘बस अलग होना है।’ ठंडे स्वर में सुनिधि ने कहा।
‘उसके बाद?’ विकास का सवाल सुनिधि को चौंका गया। उसने विकास को गौर से देखा। पर वह नहीं दिखा जो सुनिधि समझ रही थी।
‘कुछ सोचा नहीं…अभी तो इसी में दो-तीन साल निकल जाएँगे!’ सुनिधि ने विकास को दूसरी बार पढ़ते हुए निहारा। पर विकास तो दूब का एक-एक तिनका तोड़कर फेंकता जा रहा था। बोला, ‘सुनिधि तुम्हें अभी से कुछ तय कर लेना चाहिए। खैर छोड़ो, होस्टल कैसा है?’
‘बहुत अच्छा है। रोज-रोज की बंदी जिंदगी से तो बहुत अच्छा है…।’
‘माँ के घर से भी?’
‘हाँ, वहाँ तो अब बहुत घुटन महसूस होती है। अब मैंने अगली पढ़ाई शुरू कर दी है। मैंने बैंकिंग की परीक्षाएँ दे दीं। अब सी.ए. करना चाहती हूँ। जब तक अलग होने का समय आएगा मैं सी.ए. हो जाऊँगी।’
‘वह, बहुत खूब।’ विकास को सुनिधि का आत्मविश्वास भीतर तक छू गया। वह चाहता भी यही था कि वह अपने निर्णय स्वयं करे। लाचार न बने। बोला, ‘सुनिधि…!’
‘हूंऽऽ!’ ‘हूं’ कुछ इस अंदाज में कहा और ऐसे कोण से देखा कि विकास सिहर उठा। विकास अपने आपको समेटते हुए बोला, ‘तुम अब भीतर से बहुत मजबूत लगती हो। जब आई थी मेरे बैंक में तब से अब, जब तुम दूसरी शाखा में काम कर रही हो, जमीन-आसमान का फर्क आ गया है…।’
‘बस, आपके कारण…’ एक सूखा तिनका गहरे हरे दूब के बीच से उठाकर दूर फेंकती बोली सुनिधि।
‘सुनिधि अब तलाक की कार्रवाई जल्दी हो जानी चाहिए…।’ सलाहनुमा बात विकास कह गया।
‘हाँ, मुझे भी जल्दी है।’
‘मुझे भी…यानी?’
‘हाँ, मुझे जल्दी है’, सुनिधि ने तुरंत सुधार लिया। पर अगला वाक्य बोले बिना नहीं रह पाई, ‘अब तुम मुझे अपने साथ रख लो…मैं प्रीति जी से भी बात करने को तैयार हूँ। अपने घर में नहीं तो मैं बाहर अकेले रह लूँगी। मैं शादी नहीं करूँगी। तुम मेरे भीतर इतने बस गये हो कि तुम्हारी जगह मैं किसी को नहीं पा सकती। यदि यह नहीं हुआ तो मैं अकेले रह लूँगी…।’ सुनिधि का सिर विकास के कांधे से टिक गया।
विकास को काटो तो खून नहीं। उसने ऐसा कभी कुछ नहीं सोचा था। एक रुमानियत उसके भीतर जरूर थी, पर इस तरह कोई बात उसकी सोच से कोसों दूर थी। विकास को कहीं डूबकर सोचते देख सुनिधि ने कहा, ‘मैं तुम्हारे परिवार के बीच कभी नहीं आऊँगी। बेटी को मैं बेटी ही समझूँगी। प्रीति जी मुझे समझ लेंगी।’ सुनिधि ने विकास का हाथ अपने हाथों में ले लिया। विकास निःशब्द हो गया। प्रीति क्या समझेगी। बेटी को कैसे समझाएगा…नहीं…यह रास्ता गलत दिशा में जा रहा है।
एक चुप्पी उन दोनों के बीच रही।
सुनिधि ने जान लिया कि उसने गलत समय पर मन की बात कह डाली। एक लंबे समय से वह कहना चाहती थी। पर जब डाइवोर्स की बात विकास ने छेड़ दी तो उससे नहीं रहा गया। उसे लगा कि विकास कितना छिटक गया, एक ही बात से। सारी रोमांटिकता एक झोंके से झर गई। आदर और सम्मान अब भी उसकी आँखों में था। पर इतना काफी नहीं होता जीने के लिए। सुनिधि को लगा कि उसने विकास को डिस्टर्ब कर दिया। पर वह आज अपने भीतर की सारी बातें कह देना चाहती थी।
‘देखिए, मुझे मालूम है आपको परिवार का ध्यान रखना चाहिए। मुझे सब कुछ मान्य है, जैसा आप कहें। मैं अकेली जी लूँगी। शादी से मेरा मन खिन्न हो गया है। फिर कोई जोखिम नहीं उठाना चाहूँगी। बस…एक तमन्ना है जिंदगी में…’ विकास की ओर देखती, साहस बटोरकर मन की बात कह डाली, ‘मुझे आपसे एक संतान चाहिए…बस। मैं उसे सँभाल लूँगी। कभी परेशान नहीं करूँगी…मैं अलग रह लूँगी…आप जब चाहें, मेरे घर पर आपका स्वागत रहेगा…।’ कहकर वह विकास को निहारने लगी। मौन तोड़ने के लिए सुनिधि ने कहा, ‘मैं शादी नहीं चाहती। शादी शब्द से मुझे ऊब हो गई है…।’
‘बिना शादी के बच्चा…?’
‘क्या हुआ…क्यों नहीं हो सकता…मैं समर्थ हूँ…सामना कर सकती हूँ।’ सुनिधि को लगा कि वह अपना पक्ष पुरजोर ढंग से रख रही है। पर वह पक्ष रखने की बजाय रिश्ते में बह जाना चाहती थी।
‘स्कूल में बच्चे के पिता का नाम क्या लिखाओगी?’
‘अब पिता का नाम लिखवाना जरूरी नहीं, माँ का नाम भी लिखवाया जा सकेगा।’ सुनिधि जैसे पूरी तरह तैयार होकर ही आई थी।
‘लेकिन दुनिया इतनी आसान नहीं सुनिधि…इतनी अनदेखी अनचीन्ही दुनिया सामने आ खड़ी होती है कि मनुष्य पछताने लगता है। फिर तुम्हारे सामने पूरी जिंदगी है। तुम इतनी सुंदर, पढ़ी-लिखी, अच्छी नौकरी में हो कि तुम्हें अच्छे से अच्छा लड़का मिलेगा…।’ विकास कुछ समझाने की मुद्रा में था।
‘…सच तो यह है कि जिन हालात मेरी शादी हुई और जैसा पति मिला, मैं बुरी तरह आहत हूँ। फिर आप जैसे एक पूर्ण पुरुष के सान्निध्य में आई कि दूसरे में मैं आपको ही खोजती रहूँगी। मैं यह जोखिम नहीं उठाना चाहती। डर लगता है कि फिर ठेस लगी तो मैं पूरी तरह टूट जाऊँगी…।’ सुनिधि ने अपना पूरी काया विकास के सामने रख दी। ‘ठीक है, शादी की बात मैं समझ सकता हूँ। पर बच्चा क्यों चाहती हो?’ विकास विषय को किनारा देता बोला।
‘मैं आपका प्रतिरूप अपने भीतर विकसित करना चाहती हूँ। बस, माँ बनकर अपनी पूर्णता मुझे चाहिए…मेरा कोई स्वार्थ, कोई दावा नहीं है। कोई सुरक्षा नहीं चाहिए।’ सुनिधि और स्पष्ट करती बोली।
‘नहीं सुनिधि…यह सही है कि मैं तुम्हारी ओर खिंचता रहा हूँ। मुझे तुम्हारे पास सुकून मिलता है। सच कहूँ कि मैं अब तुमसे प्यार भी करने लगा हूँ। लेकिन तुम्हारी स्थितियों ने और मेरे हालातों ने यहाँ तक मुझे पहुँचाया है। मैं तुम्हारी इच्छाओं का आदर करता हूँ, लेकिन मैं ‘नाजायज’ बच्चा इस संसार को नहीं दे सकता। प्रीति के साथ के मानसिक अलगाव की बलि मैं गरिमा को नहीं चढ़ा सकता। मैं इन सारी बातों के लिए अपने आपको असमर्थ पाता हूँ। हम दोस्त हैं…एक-दूसरे को चाहते हैं, इसलिए हमसे जुड़े लोगों की दुनिया को डिस्टर्ब करना बहुत अन्याय करने की तरह होगा। दरअसल मैं यह कहना चाहता था कि तुम जल्दी से दूसरी शादी कर लो। यही एक सही रास्ता है। यही व्यावहारिक और जीवन भर के लिए मुझे ठीक लगता है…’
सुनिधि जानती है कि विकास की बात सही है। पर वह क्या करे? जिस तरह विकास एक बॉस, फिर हितचिंतक, दोस्त और आकर्षण की तरह मिलता गया कि सुनिधि विकास में एक पूर्ण पुरुष को पाने लगी। उसकी लता विकास के वृक्ष से लिपट जाना चाहती थी, हमेशा के लिए। लेकिन, उसकी बाँहें छोटी पड़ गईं और वृक्ष बहुत विशाल। उसकी चिकनाई फिसलने को विवश करती पर उस पर चढ़ने के लिए फिसलन ही सबसे बड़ी बाधा थी। इस वृक्ष का तना इतना बड़ा सिद्ध हुआ, इसमें लिपटने के लिए रास्ता निकालना सुनिधि के लिए बहुत टेढ़ी खीर लगने लगी।
दोनों लंबे समय तक मौन ही रहे। काफी देर बाद विकास ने सुनिधि को उसके होस्टल पर छोड़ दिया। दोनों के भीतर एक बवंडर था। हाथ मिले तो सही पर आज गर्माहट नहीं थी। आँखें नीची किए हुए ही सुनिधि ने चुपचाप विदा ली।
विकास को लगा कि आज उसने सुनिधि को दुःखी कर दिया। उसे नाउम्मीद कर दिया। पर उसके सामने कोई विकल्प भी कहाँ था?
सुनिधि का प्रस्ताव विकास को भीतर तक हिला गया। उसकी सारी रोमानियत झर गई। लड़खड़ा गया वह। वह सोचता रहा, सुनिधि में यह हिम्मत कहाँ से आई…स्थितियों ने उसे भीतर से मजबूत बना दिया। सारी दुनिया से टकरा जाने की उसकी हिम्मत है। सारा कुछ सहने और सामना करने की दृढ़ता उसके हर शब्द में थी। विकास ने मान लिया कि स्त्री जब चाहती है तो अपना सर्वस्त्र लुटा सकती है। वह अपने निर्णय पर अडिग रह सकती है। सारी बंदिशों को झटक सकती है। जिंदगी को अकेले निभा सकती है। भीतर-बाहर वह एक हो जाती है। वह जब चाहती है तो पूरे समर्पण के साथ। कभी दुविधा में नहीं जीती। कदम-कदम पर रावण उठा ले जाने के इरादों के सामने वह अपना रास्ता निकाल लेती है और जहाँ सौंपना होता है, वहाँ अपना सर्वस्व सौंप सकती है–स्त्री! विकास के मन में आज सुनिधि और दृढ़ और सुंदर रूप में स्थापित हो गई।
उधर सुनिधि बार-बार विकास की बातों को रातभर दुहराती रही। सुनिधि सोचती रही कि विकास ने यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। अच्छा ही हुआ। बहुत भावावेश में आकर लिए गए निर्णय जीवन के भावी क्षणों को अफसोस में बदल देते हैं। वह बार-बार सोचती रही कि विकास कितनी दूर की बात सोचते हैं। यही गुण तो सुनिधि को झकझोरता रहता है।
‘मैं तुमसे पंद्रह साल बड़ा हूँ सुनिधि।’
‘तो क्या हुआ?’
‘मैं जल्दी बूढ़ा जो जाऊँगा।’
‘मैं नहीं मानती।’ सुनिधि इन संवादों को याद करती रहती।
फिर विकास का कहा एक वाक्य उसके सामने बार-बार घूमता रहा। विकास क्षणिक मोह के प्रवाह में नहीं बहा बल्कि उसने एक ऐसी बात कही जिससे सुनिधि के मन में विकास की ऊँचाई कई गुना बढ़ गई…‘सुनिधि मैं तुम्हारी सारी भावनाओं का आदर करता हूँ। पर यह सब अव्यावहारिक और तुम्हारे भविष्य के खिलाफ है। दुनिया कितनी भी बदल जाए, आदमी कितना ही साहसी क्यों न हो, हमारा समाज चीजों को स्वीकार करने में उतना परिवर्तित नहीं हुआ है।…सच कहूँ सुनिधि, यह तुम्हारी खुशियों का माध्यम कभी नहीं हो सकता…तुम तो पूर्णता पाओगी या नहीं, नहीं मालूम…पर आने वाला बच्चा बेहद अपूर्ण, एकांगी महसूस करेगा। सामाजिक रूप से उपेक्षित और मानसिक रूप से वह अपाहिज-सा होगा। स्कूल में दूसरे बच्चों के साथ वह भटकन और प्रताड़ना अनुभव करेगा… तुमने मेरे सामने बात रखी…तुम्हारे विश्वास और समर्पण का मैं सम्मान करता हूँ…इसी का वास्ता देकर कहता हूँ कि किसी और के सामने यह प्रस्ताव सपने में भी मत रखना…कोई भी इस भावना का फायदा उठाकर तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ेगा…’
सुनिधि को लगा कि उसे आज विकास ने फिसलने से सँवार लिया। आज विकास, सुनिधि की निगाह में एक नये शिखर पर खड़ा था। विदा के समय हाथ ठंडे थे, लेकिन विकास के हाथों में विश्वास का कसाव था। सुनिधि के लिए चिंता थी। सुनिधि, विकास के और करीब आ गई। मन की बात कह कर वह हल्का भी अनुभव कर रही थी और उलझन भरे जंगल से एक सुरक्षित पगडंडी पाकर धन्य भी होती जा रही थी। विकास को न पाकर भी वह पूरी तरह विकास की हो गई थी।
*
बैंक के दफ्तर में एक ऐसा समय भी आता है, जब केवल जरूरी काम ही निपटते रहते हैं। सबका ध्यान कहीं और होता है। यह मौसम आ चुका था। प्रमोशन और ट्रांसफर का। वह दिन आ गया। कंप्यूटर की स्क्रिन पर एजीएम और जीएम के प्रमोशन की लिस्ट आ गई थी।
विकास को मालूम था कि उसका प्रमोशन बहुत मुश्किल है, क्योंकि इंटरव्यू के समय चेयरमैन जिस तरह सवाल पूछा रहा था, उससे तय था कि प्रमोशन न देने के वे संकेत ही हैं। जिस क्षेत्र में उसने कोई काम नहीं किया था, सारे सवाल वहीं से थे। इंटरनेशनल बैंकिंग से कृषि बैंकिंग तक के सवाल पूछे गए। लेकिन एक भी सवाल वर्तमान काम से संबंधित नहीं था। सवाल पूछते समय की आवाज, नजर और हाव-भाव इतने कठोर थे कि विकास को लगता कि इंटरव्यू कब खत्म हो। दूसरे सदस्यों को कुछ भी पूछने का मौका चेयरमैन ने नहीं दिया। हर सवाल के बाद विकास को लगता वह लहूलुहान होता जा रहा है। हालात ऐसी थी कि चूहा बिल्ली के पंजे में है, वह मार भी नहीं रही, खा भी नहीं रही। आँखें तरेरकर पंजों से केवल खेल रही है।
विकास का नाम डीजीएम की प्रमोशन सूची में नहीं था। पल भर में यह खबर पूरे रिजन में फैल गई। थोड़ी ही देर में हेड ऑफिस से और एक मेल आया, जिसमें रिजनल मैनजरों के तबादलों के आदेश थे। विकास का ट्रांसफर औरंगाबाद हो गया था। बैंक के रिकार्ड में बिजनेस के हिसाब से औरंगाबाद अच्छा सेंटर नहीं माना गया था। बहुत सारे लोन फंसे पड़े थे, राजनीतिक दखल बहुत ज्यादा था। स्टाफ में जमकर यूनियनबाजी थी। पिछले चार साल में तीन रिजनल मैनेजर बदले जा चुके थे। विकास के लिए प्रमोशन तो मुश्किल लग ही रहा था, साथ ही, ट्रांसफर की संभावना भी उसे लगी ही थी। पर ऐसे रिजन में उसे भेजा जाएगा, वह कल्पना उसके लिए दंडात्मक कार्रवाई लग रही थी। चेयरमैन ने विकास की जगह अपनी पसंद का रिजनल मैनेजर तैनात किया था। उसके द्वारा वह अपनी इच्छानुसार काम करवा सकेगा। जिसे अब पोस्ट किया है, उसे प्रमोशन पर भेजा जा रहा है। इसलिए उससे अनुकूल अपेक्षाएँ भी होंगी।
विकास तुरंत रिलीव होकर नई जगह ज्वाइन कर गया। पुराने ऑफिस से निकलते समय ‘कहीं खुशी कहीं गम’ वाला माहौल था। अधिकांश स्टाफ नये रिजनल मैनेजर के स्वागत में उत्सुक था। उगते सूरज को सभी नमस्कार करते हैं। दुनिया की यही रीत है। विकास तो ग्रहण लगा सूरज था, उसकी ओर देखने में अधिकांश लोगों को खतरे का अनुभव हो रहा था। केवल सुनिधि का फोन था। वह मिलने आना चाह रही थी, पर विकास ने उसे मना कर दिया था।
औरंगाबाद पहुँचने से पहले ही विकास की छवि पहुँच चुकी थी। एक ईमानदार, निष्पक्ष और समर्पित अधिकारी के रूप में वहाँ उसकी चर्चा थी। एक और खूबी उसके व्यक्तित्व में थी–ट्रांसफर होते ही तत्काल पुरानी जगह छोड़कर नई जगह जवाइन कर लेता, फिर गलती से भी पुरानी जगह न जाता न ही पुरानी जगह की किसी जानकारी में रुचि रखता। नई पोस्टिंग के स्टाफ के मन में विकास के बारे कुतूहल था। सीनियर अफसर विकास को रिसिव करने एयरपोर्ट पहुँचे थे। रात को विकास जिमखाना क्लब में ठहरा। स्थानीय अधिकारियों ने विकास के लिए यही तय किया था। जिमखाना क्लब किसी फाइव स्टार होटल से कम नहीं था। शानदार व्यवस्था।
नये ऑफिस का पहला दिन विकास के लिए व्यस्तता भरा रहा। विकास ने चुनौती स्वीकार कर ली। इस रिजन को वह ठीक करेगा। विश्वास और मेहनत का माहौल बनाएगा। दंड दिया होगा पर उसका मुकाबला वह सफलता से करेगा। बैंक के साथ उसकी कोई दुश्मनी, नाराजगी या लापरवाही बिलकुल नहीं होगी। उसने भीतर ही भीतर यह फैसला कर लिया था। आमतौर पर विकास जैसी स्थिति में, लोगों का मन काम से उचट जाता है। वे परपीड़क बन जाते हैं निरपेक्ष हो जाते हैं। समय काटना ही उनका उद्देश्य रह जाता है इसलिए बार-बार छुट्टी पर जाते हैं। पर विकास ने तय कर लिया था कि वह इस रिजन पर अपनी छाप छोड़ेगा, तमाम असफलताओं के बावजूद नये सिरे से वह कुछ कर दिखाएगा। स्टाफ, यूनियन और खातेदारों से वह भरपूर सहयोग हासिल करेगा। वह दिन-रात इसी ख्याल में लगा रहता।
विकास को औरंगाबाद में एक हफ्ता हो गया। बस काम और काम। शनिवार को भी देर तक बैठकर काम। अब तक का समय बहुत अच्छा बीता। स्टाफ ने भी अच्छा साथ दिया। खातेदारों से मुलाकातें अच्छी रहीं। बड़े लोन-खातेदारों से मिलकर वह रास्ता निकालने की कोशिश करने लगा। इसी बीच प्रीति और गरिमा के फोन आते रहे। ‘सब ठीक है’ का आदान-प्रदान होता रहा।
रविवार को विकास अजंता चला गया। काफी दिनों से वह चाह रहा था। अजंता देख नहीं पाया था। ड्राइवर लोकल ही था, वह काफी कुछ जानता था। उसके साथ अकेले ही विकास चला गया। हर गुफा में वह सुनिधि के साथ का अहसास पाता। कई बार लगा कि सुनिधि से बात करे। पर पता नहीं क्यों वह सुनिधि को डिस्टर्ब करने से अपने आपको रोकता रहा। अजंता की मुख्य गुफा में जहाँ बुद्ध लेटे हुए हैं, प्रसन्न हैं पर आँखें मुँदी हुई हैं, वहाँ विकास को लगा कि सुनिधि कांधे तक पहुँच गई और ऐसे देख रही है कि विकास भीतर तक रोमांचित होता रहा। दूरियाँ बहुत करीबी अहसास को जन्म देती हैं। इतने लोगों के बीच सुनिधि की यह करीबी विकास को बहुत गहरे छू रही थी। विकास को लगा कि विकास कोई मूर्ति हो और सुनिधि अपनी छेनी से उसे विशिष्ट आकार दे रही है। वह बुद्ध तो नहीं हो पाएगा, पर वह मूर्ति का बुद्ध नहीं होना चाहता था। वह छूना चाहता था, मूर्तिकार कों एक अजीब-सा मोह, एक वायवी हवा उसे छू रही थी। वह अकेला ही मुस्काने लगा था। लगा कि उसे कोई सत्य मिल गया है…वह कोई बुद्धा तो नहीं होता जा रहा है। वह गुफा से बाहर आकर पत्थर पर बैठ गया, जहाँ से पूरा अजंता दिखाई दे रहा था। वह भावुक हो गया। उसकी एकाग्रता पता नहीं कब तक वहाँ रहीं। लेकिन उसने देखा कि अधिकांश लोग लौट रहे हैं, वह भी चुपचाप लौटने लगा।
लौटते समय उसने एलोरा देखा। कैलाश मंदिर देखकर वह चकित था कि इतने बड़े पहाड़ को किस तरह काट-काटकर मंदिर में बदल दिया है। दुनिया में शायद, पूरे इतिहास में यह पहली घटना होगी कि कलश से होते हुए मंदिर-मूर्तियों को साकार करते हुए बुनियाद तक कला पहुँची है। वह शिल्पकारों की योजना, उनके समर्पण और अद्भुत कलाकारी से चकित था। इन सारी मूर्तियों में उसे सुनिधि दिखाई देती। इतनी गहराई से उसके भीतर सुनिधि की मूर्ति बन गई कि वह उसे व्यावहारिक दुनियादारी के बावजूद धूमिल न पाता। वह भीतर ही भीतर अपनी इस अवस्था को महसूस करता रहता। वह कब कार में बैठा। कब क्लब पहुँचा कब कॉफी मँगवाई, कुछ भी याद नहीं। पर कॉफी के साथ सुनिधि के संवाद उसे अपने में समेटने लगे। वह इन अहसासों में डूबा रहा। पता नहीं कब तक वह स्वीमिंग पुल में तैरता रहा। थक कर चूर होकर वह बाहर निकला। आज वह अपने पुराने ऑफिस कही उलझनों से पूरी तरह उबर चुका था।
खाना खाकर वह टीवी के सामने बैठ गया। क्लब में उसका यह स्यूट बहुत बड़ा है। सामने ड्राइंग रूम जैसा है, वहीं टीवी के सामने वह बैठा है। वैसे भीतर के बेडरूम में भी टीवी लगा है। पर वह बाहर ही सोफे पर बैठा-बैठा न्यूज चैनल सर्फिंग करता रहा। न्यूज में अब उसे एक ही न्यूज रह-रहकर अलग-अलग रूपों में दिखती। न्यू होती भ्रष्टाचार, सीबीआई, हाईकोर्ट-सुप्रीमकोर्ट के फैसले…सरकार किसी भी पार्टी की हो–भ्रष्टाचार में कोई फर्क नहीं। उसने तो भ्रष्टाचार अपने बैंक में पहुँचते देख लिया, करीब से। उसे लगा कि जिसे भी संभव है, वह हर तरह, किसी भी तरह तुरंत धनवान बनना चाहता है। धनवान और धनवान होना चाहता है। छोटा-सा पटवारी, इंजीनियर, मंत्री और आईएएस अफसर इस भ्रष्टाचार की चपेट में हैं। वह अपने चेयरमैन को भी याद करता है। बस, ऐसे समाचारों से उसे ऊब होने लगी…वह टीवी बंद करके भीतर सोने चला जाता है।
विकास आज इतना थका था कि उसे तुरंत नींद आ जानी चाहिए थी, पर नींद आने का नाम ही न लेती। लेटे-लेटे ही उसने ‘मस्ती’ चैनल ऑन कर दिया। ‘मस्ती’ इसलिए कि सुनिधि का पसंदीदा चैनल है, जो सिर्फ गानों का चैनल है। रात दस के आसपास सत्तर-अस्सी के दशक के गाने उसमें आते हैं। पसंदीदा व्यक्ति के पसंद के गानों का अनुभव कुछ और है। तभी ‘आँधी’ का गाना लगा, ‘इस मोड़ से जाते हैं…’ विकास इन गाने में डूब जाता है। इस गाने में नायिका का चलना उसने बहुत भाता है। चाँदनी रात और चिनार के पेड़ों के बीच गीत इतना भीतर तक उतर जाता है कि विकास खो जाता है, पूरी तरह! फिर कितने ही गीत आए, ‘आँधी’ की गंध उसकी रूह तक उतर चुकी थी।
पता नहीं गाने कब तक चलते रहे। सुनिधि के ध्यान में उसकी आँख लग गई। सुनिधि का अस्तित्व विकास के सोते-जागते अस्तित्व पर हावी पड़ गया था। नींद के पहले ही झोंके में सपने ने विकास को अपनी चपेट में ले लिया…सुनिधि का था वह कमरा और विकास ने दस्तक दी थी। दरवाजा सुनिधि ने खोला। दरवाजा खोलने के बाद वह सदा सतर्क-सी रहती कि उसे कोई हासिल तो नहीं कर लेगा। विकास को लगता कि उसके भीतर तक सुनिधि भी जानती थी। फिर भी उसकी छठी इंद्रिय हमेशा सतर्क रहती। विकास सकुचाते हुए भीतरी कमरे, यानी बेडरूम में पहुँचा और कुर्सी पर बैठ गया। सुनिधि बड़े से बेड पर सँभल कर लेट गई और विकास को भी बेड पर आने का इशारा किया। सकुचाते हुए विकास पास ही लेट गया। दोनों ने अपने-अपने मोबाइल में एक-दूसरे का क्लोजअप फोटो ले लिया। अचानक विकास बोल पड़ा–‘अभी कोई गलती हो जाए तो?’
‘मेरी इजाजत के बिना गलती कैसे हो सकती है?’ सुनिधि और नजदीक आती बोली। इतने पास थी सुनिधि और इजाजत नहीं। पल भरकर के लिए विकास का चेहरा उतर गया, लेकिन जल्दी ही वह सँवर गया। बोला, ‘सही है, तुम्हारी इजाजत के बिना कुछ भी नहीं होगा। गलती तो गलती से भी न हो, वही रिश्ता सही रिश्ता होगा…अच्छा हुआ तुमने मुझे यह अहसास दिला दिया…देह में बहना क्षणिक होता है, मन में बहना-देह के अस्तित्व से ऊपर होता है।’
…कुछ नहीं कहा सुनिधि ने, पर उसका मौन विश्वास जता रहा था–विकास के लिए।
दोनों अँगुलियों में उलझकर पता नहीं कब तक लेटे रहे।
रात के दो बजे रहे थे। जब दोनों कुछ सचेत हुए तो विकास ने कहा, ‘अब मैं चलता हूँ…!’
‘सो जाओ न यहीं। सुबह चले जाना।’
‘क्या करूँ सोकर? तुम गलती भी नहीं करने देती?’
फिर गलती?…क्या मिलेगा गलती करके। अफसोस…केवल अफसोस…बस सब कुछ झटक कर सो जाओ…!’ सुनिधि बहुत स्पष्ट थी।
‘नहीं, चलता हूँ…सुबह की हड़बड़ी नहीं चाहिए…!’ कहकर विकास, सुनिधि के कमरे से बाहर आ गया। सुनिधि ने दरवाजे पर बड़ी आत्मीयता से ‘बाय’ किया। सुनिधि की अँगुलियाँ विकास को बहुत अच्छी लगती है। ‘बाय’ कहते समय वह केवल सुनिधि की अँगुलियों में खोया रहता। अपने कमरे में आकर वह पता नहीं कब तक सुनिधि को सोचता रहा…
दरवाजे की बेल बजी और उसका सपना टूटा। देखा तो ‘मस्ती’ चैनल अभी भी चल रहा है। घड़ी देखी, सुबह के छह बजे गए हैं। यह कमरा सुनिधि का नहीं उसका अपना है। सुनिधि कहीं नहीं है। विकास ने ‘मस्ती’ को ऑफ किया। ड्राइंग रूम में आकर चाय का थरमस, अखबार लेकर सोफे पर बैठा सोचता रहा–जो सुनिधि उससे शादी के बिना ही बच्चा चाहती थी, सपने में भी गलती नहीं करने देती और स्वयं विकास जो नैतिकता की बात करता रहा अब सपने में गलती करना चाह रहा था। विकास जीवन की इस गुत्थी पर मुस्कुरा दिया, बुद्ध की मुस्कुराहट उसे याद आई। अखबार में खो गया वह। आज सोमवार है। आज के काम का सिलसिला उसकी आँखों के सामने घूमने लगा। वह थोड़ी ही देर में बाहर था और लॉन पर टहलते हुए पूरे दिन को साधने में व्यस्त हो गया।
सूरज की किरणों के स्पर्श तक विकास अपनी ही धुन में टहलता रहा। एक अजीब-सी सरसराहट उसने अपने भीतर महसूस की। उसे लगा कि उसके भीतर एक नया आदमी जन्म ले रहा है। रिश्तों को निरपेक्ष होकर देखने वाला आदमी। रात का सपना और सुनिधि का सपना। वह सुनिधि को अब हाड़-मांस की आकृति से कहीं अधिक अपने भीतर पा रहा था। सुनिधि का आकर्षण अब कहीं अधिक निखरकर उसके करीब एहसासों में आ गया। यह रिश्ता विकास को भीतर से मजबूत कर रहा था। एक नई परत उसने अपने भीतर खुलती अनुभव की। एक ऐसी परत जो आईने की तरह प्रतिबिंब उतारती है। यह प्रतिबिंब सुनिधि का था, ऐसी सुनिधि जिसे हासिल करने के लिए अब सुनिधि की अनुमति नहीं चाहिए। इतने गहरे कोई छवि जब जा बैठे तो मनुष्य अद्वैत में प्रवेश कर जाता है। ऐसी अद्वैत की सीढ़ी पर बैठकर विकास ने जल्दी से आ रहे शब्दों के आवेग को कागज पर उतार दिया। लगा वाह! क्या बात है…यह तो कविता की तरह उभर आया! हाँ, यह कविता वह लिखने के बाद दो बार पढ़ गया–‘दुनिया की आँख चुराकर/खिलता है सेमल का फूल/भीतर संवादों की दुनिया का/आखिरी दरवाजा जब खुलता है/तब एक जादुई संसार/कल्पवृक्ष झकझोरता है!/झरते हैं शब्द/तैरते हैं अर्थ/फुदकती हैं इच्छाएँ/मचता है ऊहापोह/मुखरित होती हैं संवेदनाएँ!/सब कुछ सपना-सपना-सा लगता है/अपनी ही हथेलियों पर निढ़ाल हो जाता है मन!/तब सेमल की रुई/सिरहाने से कहती है–/अपने से निकलो बाहर/अब सुबह होने वाली है…!’
Image: Woman Holding Fireworks, India, 19th century, watercolor on paper, Honolulu Museum of Art
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