योरोपीय समाज

योरोपीय समाज

बंबई से पहले तो अवश्य ही योरोप का सुनहला स्वप्न मुझे अपनी ओर खींच रहा था, पर ज्योंही हम मसावा पहुँचे थे कि प्रवासी इतालवियों के एक बड़े जत्थे के कारण मेरे मन की अँधियारी मिट गई, कल्पना की मनोहर किरणें धीरे-धीरे संकुचित होने लगीं, मन के मनोहर स्वप्न यथार्थता की दृढ़ दीवार से टकराकर चकनाचूर होने लगे। स्वप्नों का स्थान मन के भयंकर संघर्ष ने ले लिया जिसका अनवरत एक नारा था ‘क्यों और केवल क्यों?’ आज लगभग एक वर्ष समाप्त हो गया है, मेरे योरोपीय प्रवास के दिन धीरे-धीरे नीरस लगने लगे हैं। फिर भी मैं उसी प्रश्न में उलझा हुआ हूँ ‘क्यों ?’

भारत बहुत दिनों तक मुसलमानी छत्रछाया में उनकी कूटनीति तथा कुत्सित धर्म-नीति का शिकार होता रहा और ज्योंही भारत की शक्ति ने उनकी दृढ़ दीवार को झकझोर गिराना चाहा कि पश्चिमी तूफान ने उसे हवा कर दिया। फलत: किसी न किसी प्रकार हम भारतीय निरंतर लगभग 300 वर्ष अँग्रेजी कूटनीति के षडयंत्र में पड़े रहे। यह तो आज भी नहीं कहा जा सकता कि हम उस षडयंत्र से बाहर आ गए हैं पर हाँ, दासता की कड़ियाँ टूट गई हैं; हम जग पड़े हैं; हमारे होठों पर स्वतंत्रता की हलकी सी मुस्कान आ गई है। अँग्रेजों ने राजनीतिक दासता के साथ ही मानसिक विकारों को उद्भूत करने का सफल प्रयत्न किया है और हम इसे आज निस्संदेह स्वीकार करते हैं कि योरोपीय सभ्यता का झूठा स्वप्न जिस प्रकार भारत की मानसिक पृष्टभूमि पर बिखेरा गया, और आज भी बिखेरा जा रहा है, वह एक धोखे की टट्टी है और हम अंधे हैं!

मेरे मन में जिस योरोपीय समाज की कल्पना थी, वह पूर्णत: निराधार निकली! मैं सोचता था कि समाज का गठन दृढ़ होगा, उनके पीछे एक बहुत बड़ी सभ्यता की दीवार होगी, और जीवन-दर्शन का दृढ़ गढ़ होगा। पर मुझे मिला क्या है–केवल बनावट, अंधविश्वास, प्रपंच और विलास की मनोहर कहानियाँ! हमें इन तत्त्वों को देखने से पहले अपनी विचारधारा को बहुत संतुलित एवं उदार रखना चाहिए। यह सही है कि योरोपीय दर्शन और भारतीय जीवन में एकता नहीं आ सकती, पर साथ ही यह भी मानना पड़ेगा कि जीवन के तत्त्व सार्वभौमिक हैं, एकदेशीय नहीं।

योरोपीय समाज पूर्णत: अकेले परिवारों का समूहमात्र है, भारत जैसी सम्मिलित परिवार प्रणाली यहाँ किसी भी देश में देखने को नहीं मिल सकती। इसके लिए योरोपीयन बड़ा गंभीर तर्क देते हैं और जिसके हम भारतीय भी कायल होते हैं (सभी नहीं) कि सम्मिलित परिवार का अंकुश जीवन की सरसता चूस लेता है। इस पर मुझे यह कहना है कि इसमें बहुत कुछ माँ-बाप की असमर्थता और व्यक्तिविशेष के अनुत्तरदायित्व का अधिक स्थान आता है। उदाहरण के रूप में, परिवार बनने से पहले लड़की और लड़के दोनों अपनी-अपनी खोज में निकलते हैं, दो-चार वर्ष का चक्कर लगाकर कहीं डूबते हैं, कहीं तैरते हैं और तब कहीं हजार में एक का शिकार कर पाते हैं। ऐसी दशा में यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि शत-प्रतिशत लड़कियाँ तथा लड़के (दोनों) अपना पारिवारिक जीवन प्रारंभ करने से पहले किसी भी अंश में कुमारी या कुमार नहीं रह जाते। जब एक लड़का किसी लड़की को पसंद कर लेता है तो लड़की को वर्षों उसके साथ ट्रायल (Trial) में रहना पड़ता है। प्राय: ऐसा ही होता है कि लड़के की प्रवृत्ति चंचल भ्रमर की होती है; रस पीकर रास्ता पकड़ता है। और लड़की फिर किसी दूसरे को फँसाने का प्रयत्न करती है। यह है यहाँ की मँगनी (शादी होने के पहले की प्रथा)। इतना ही नहीं, शादी होने के पश्चात् भी एक दूसरे का विश्वास नहीं करते और न तो पति अपनी पत्नी से पूरा प्यार चाहता है और न पत्नी अपने पति से। फिर भी दोनों इस तत्त्व को छिपाकर किसी न किसी प्रकार जिंदगी के ठेले को घसीटते हैं!

वैवाहिक जीवन प्रारंभ होने से पहले इस प्रकार का प्रयोगात्मक परिचय उन देशों में बड़ी ही स्वतंत्रता से होता है जहाँ त्याग (Divorce) की तनिक भी गुंजाइश नहीं है। कैथोलिक धर्म में, पारिवारिक जीवन पर प्रकाश डालते हुए, सब से पहला रूढ़ नियम ‘पत्नीव्रत’ का है; चाहे वह पत्नीव्रत धोखे की टट्टी ही क्यों न हो! आज यहाँ वास्तविक धर्म की रूप-रेखा और व्यावहारिकता में जमीन-आसमान का अंतर आ गया है! इसका कारण धर्म की रूढ़िवादिता और गति-हीनता ही कहा जा सकता है। चाहे जो कुछ हो; जिस भी अंधविश्वास के साथ हो, खंडहर के रूप में ही सही, भारतीय हिंदू संस्कृति धर्म का दामन पकड़े हुए आज भी हमारे जीवन की गति से गति मिला कर चलना चाहती है। भारत में मैं स्वयं अपने धर्म के लिए तथा संस्कृति के लिए उपेक्षा की दृष्टि रखता था और पश्चिमी सभ्यता की नई तितली को अमर मानने का पक्षपाती था पर अब मैं अपनी बेवकूफी पर आज हँसता हूँ यह मेरी ही दशा नहीं है वरन् समस्त भारतीय विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों की, स्नातकों की दशा यही है! वहाँ हम अपने आदर्शों के प्रति भी संघर्ष कर रहे हैं; यहाँ कमजोरियों को भी आभूषण बना रहे हैं, हम धर्म में आवश्यक सुधार के पक्षपाती हैं पर समूल संस्कृति के विनाश के लिए उठाई जाने वाली आवाज के कट्टर विरोधी भी हैं। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि योरोपीयन भारतीय-संस्कृति के संदेश के लिए तरस रहे हैं, और हम भारतीय ठोकर खाकर भी अपने को संभाल नहीं पाए हैं; अंधों जैसे तितली सभ्यता के पीछे दौड़ रहे हैं।

चरित्र की संज्ञा तो योरोप में अवश्य है पर उसका विश्लेषण नहीं! इनके जीवन में ‘चरित्र’ व्यावहारिक तत्त्वों का सफल प्रयोगमात्र है। हम भारतीय जिस अर्थ में ‘चरित्र’ शब्द का प्रयोग करते हैं; वह यहाँ केवल भाषा-कोशों में ही प्राप्त हो सकता है। आत्म-संयम तथा दर्शन का कोई भी संबंध व्यावहारिक योरोपीय जीवन से नहीं है। दंपति बनने से पहले यह आवश्यक है कि वे कम से कम एक बार वासना से पराजित अवश्य हुए हों! इसे वे शारीरिक आवश्यकता मानते हैं। इसलिए वासना-शांति की इस प्रवृत्ति का उनके विचारों में चरित्र से कोई संबंध नहीं है।

पत्नीत्याग की प्रथा अवश्य ही कुछ असंयमित है। भारतीय जन्म से ही कुछ न कुछ वेदांती होता है; धैर्य और संतोष उसके अस्त्र होते हैं। वह जीवन की गति पर चलते हुए भी अपने व्यक्तित्व में शक्ति भरता है, उसे जीवन से अलग करते हुए भी जीवन के साथ चलने के लिए तैयार करता है इसलिए भारत के लिए पत्नी त्याग (Divorce) का प्रश्न ही बड़ा उट-पटाँग प्रश्न है। यद्यपि यह प्रश्न देश के मान्य नेताओं द्वारा प्रस्तुत किया गया है पर हो सकता है कि वे योरोपीय सभ्यता के, इस तितली सभ्यता के, मानसिक रूप में, शिकार हों। मनुष्य वे भी हैं उनके भीतर भी कमजोरियाँ हैं। यदि वे इसकी हामी भरें कि उनमें कमजोरियाँ नहीं हैं तो वे हमारा प्रतिनिधित्व, मानव मात्र का प्रतिनिधित्व करने के अधिकारी नहीं हैं। हो सकता है कि उन्हें संस्कृति की कटुता किसी व्यक्तिगत संबंध में सहनी पड़ी हो और उस आघात से आकुल हो कर इस प्रवृत्ति ने इतना बल पकड़ लिया हो कि आज वे संस्कृति के समूल विनाश के लिए तैयार हो गए हों। उन्हें समझना चाहिए कि संस्कृति एक दिन की चीज नहीं है, वह न तो एक दिन में बनी है और न एक नियम से बिगड़ेगी। अस्तु…

इस प्रथा का शिकार आज इतालिया और वेटिगन को छोड़ कर संपूर्ण योरोप हो रहा है; व्यक्तिगत रूप से कोई भी इस प्रथा के पक्ष में नहीं है। न तो कोई लड़की इसे पसंद करती है और न कोई लड़का। ‘पत्नी-त्याग का प्रश्न वस्तुत: मार्टिन लूथर द्वारा किए गए धार्मिक आंदोलन का एक मात्र अंश है जिसका पक्ष हेनरी अष्टम ने अपने स्वार्थ के कारण लिया था, और जिसे आगे चलकर, एलिजाबेथ ने अपने अधिकारों के लिए संजोया था। फ्रांस में भी इस प्रवृत्ति का उसी समय प्रतिपादन हुआ जिस समय जर्मनी में मार्टिन लूथर का आंदोलन चल रहा था जिसे आगे चल कर फ्रांस के धर्माधिकारी ने भी स्वीकार कर लिया था। जर्मनी, इंगलैंड, स्काटलैंड, फ्रांस, स्विटजरलैंड, नार्वे, स्वीडन ने तो इस धार्मिक आंदोलन के कारण त्याग-प्रणाली (Divorce system) को अपना लिया था ! रूस अपने नए दर्शन के कारण इसे स्वीकार करता है।’

धार्मिक पक्ष पर देखने से भी योरोप में एक बहुत बड़ा ढोंग दिखाई देता है! कैथोलिक प्रणाली में पुरोहित (Priests) धर्म का डंका पीटते हुए प्रतिनिधित्व करते हैं। समाज को अंधविश्वास का उपदेश देते हैं! वे स्वयं चरित्र में इतने पतित होते हैं कि उदाहरण प्रस्तुत करना तो कठिन है ही, चरित्र पर बल देना भी कठिन है। सभी पुरोहित इसी प्रकार के नहीं हैं उनमें कुछ अपवाद स्वरूप भी मिल जाते हैं जिनका नाम निशान शायद ही कोई जानता हो और जिन्हें वस्तुत: धर्म का ज्ञान है। पर वे संख्या में इने-गिने हैं। भारत के मंदिरों को देखने पर कुछ विकारों का अधिकतर प्रभाव मेरे ऊपर होता था पर यहाँ के गिरजों को देखने पर आँखें खुल गई हैं। लोग अंधविश्वास के कारण गिरजे में जाते हैं; पैसे चढ़ाते हैं, पैर पड़ते हैं। भारत में स्थित धार्मिक संस्थाएँ सर्वदा भारत की खिल्ली उड़ाती रही हैं, विशेषकर उन्हीं तत्त्वों को लेकर; पर ये स्वयं क्या करते हैं–इस पर हँसी आती है। पुरोहित को अविवाहित रहना चाहिए ठीक है, वह अविवाहित रहता है पर अवैधानिक ढंग से न जाने कितनी कुमारियों का चरित्र भ्रष्ट करता है। उसे लोभ सब से अधिक है, मोह सब से अधिक है और वासना सब से अधिक है; साथ ही वह धर्म का अधिकारी भी है। यह नि:संदेह कहा जा सकता है कि भारत को इस धर्म की आवश्यकता नहीं है। प्रोटेस्टैंट तो और ही दूसरी कला है।

अब आपका ध्यान यहाँ के सामाजिक उत्सवों की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ! ‘बड़ा दिन’ इनका सब से बड़ा त्योहार है। लोग उसे बहुत ही संयम से बिताते हैं ! इस त्योहार को हम अपनी दिवाली के समकक्ष किसी प्रकार रख सकते हैं! फरवरी के प्रारंभ से लेकर अंत तक, संपूर्ण योरोप में इस समय होली जैसा एक त्योहार मनाया जाता है जिसे ‘कार्नेवाल’ कहते हैं। हम होली एक दिन हँसकर मनाते हैं; कहीं-कहीं इसमें विकार आ जाने के कारण होली के समय गालियों का प्रयोग भी होता है । मैं इसका कट्टर विरोधी था। इतना ही नहीं; मैं सर्वदा इसका किसी न किसी प्रकार विरोध करता आया था और आगे भी करने को सोचा था। यहाँ का दूसरा उत्सव देखने के बाद मैं आश्चर्य में पड़ गया कि ‘यह’ क्या हो रहा है। एक सप्ताह लगातार चलते हुए, राह पर, आती हुई किसी भी स्त्री को देखकर उस पर अपना निर्णय देना तो सीमा में है पर उसका चुंबन लेना, उसे और भी अधिक परेशान करना भी इसकी सीमा में है। इसके लिए समाज गर्व करता है! इस उत्सव के अंतिम दिन लोग ‘नाच-घर’ में जाते हैं और खुले रूप में चुंबन-आलिंगन करते हैं! इसमें भाग लेने वाली स्त्रियों में अधिकांशत:, लगभग 90 प्रतिशत, अंकुरित यौवना नायिकाएँ होती हैं। यह उत्सव संपूर्ण योरोप में मनाया जाता है! तीसरा उत्सव अप्रैल में आता है, जिसे ईस्कारा कहते हैं। यह इनका धार्मिक उत्सव है। पर धर्म के नाम पर कीचड़ फेकना मात्र ही इसमें होता है।

संपूर्ण योरोप में जर्मनी, नार्वे, स्वीडन, आस्ट्रिया तथा इटली के लोग अधिक मिलनसार होते हैं। विशेषकर इटली में किसी प्रकार की बनावट देखने को नहीं मिलती। मानवता के चिह्न यहाँ अधिक मिलते हैं। निस्पक्ष रूप से कहा जा सकता है कि इतालिया में व्यावहारिक मानवता अपेक्षाकृत अधिक है। जर्मनी के लोग स्वभावत: रूखे हैं; उनमें चरित्र का मानदंड अवश्य कुछ ऊँचा है। इंगलैंड, फ्रांस, बेलजियम आदि देशों के लोग नीरस जैसे मालूम होते हैं; उनमें जीवन का कोई भी संकेत नहीं मिलता है।

जो भी हो, भारत को, आधुनिक भारत को शक्ति तो प्राचीन भारतीय संस्कृति से लेनी है और आज की प्रकृति के अनुकूल रखने की क्षमता योरोप से! न तो हमें इनकी सभ्यता चाहिए और न इनका धर्म; न हमें इनका समाज चाहिए और न इनके विकार। यदि हमें कुछ इनसे लेना है तो केवल प्रतिपादन प्रणाली और उसे भी भारतीय रंग में रंग कर, सुधार कर। योरोपीय सभ्यता आज एक रोग का रूप धारण कर रही है; इससे हम भारतीयों को बचना है! यदि नहीं बचे, तो देश की संस्कृति का फिर कहीं पता न लगेगा। देश के कर्णधारो, सचेत हो, यही अंतिम विनय है!


Image: Le Pont de lEurope
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Artist: Gustave Caillebotte
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