मुझे याद है (तीसरी कड़ी)
- 1 May, 1953
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- 1 May, 1953
मुझे याद है (तीसरी कड़ी)
बाढ़ का बेटा!
कुछ दिन हुए, इच्छा हुई थी, अपनी आत्मकथा लिखूँ और उसका नाम रख दिया था, बाढ़ का बेटा!
बाढ़ का बेटा–जो तरंगों पर खेले, तरंगों पर पले, तरंगों पर बढ़े ! जिसे धारा से प्रेम हो, प्रवाह से प्रेम हो, गति से प्रेम हो। जो किनारों को नहीं माने, सीमाओं को नहीं माने, बंधनों को नहीं माने। जिसे ढूहों को गिराने, बड़े-बड़े वृक्षों को उखाड़ने, बड़ी-बड़ी नावों को डुबाने में मजा आवे! जो अनियंत्रित हो, उछृंखल हो, मौजी हो ! मौजी हो–इसका मतलब समझा? यह मौज शब्द से बना है, जिसका अर्थ ही है तरंग!
बाढ़ ! कभी आपने बाढ़ देखी है? देखी भी होगी, किंतु, मेरा दावा है, जिस तरह बहुत-सी चीज़ों को देख कर भी आप नहीं देखते, उसी तरह बाढ़ को देख कर भी आपने नहीं देखा होगा! बाढ़–प्रकृति की वह उद्दाम, तरल, उच्छल लीला!
मुझे याद है, बचपन में जब हम खेलते होते, पढ़ते होते, या आँगन में कुहराम मचाते होते कि किसी बुजुर्ग के मुँह से आवाज आती, बाढ़ आ रही है। बाढ़ आ रही है; हमारी नसों में उमंग की बाढ़ आ जाती! बाढ़, जब नालों में पानी छुरी की तरह काट करने लगेगा, जब खेतों में पानी-पानी होगा, जब पानी में मछलियाँ उछलने लगेंगी; जब थोड़ी देर में गाँव के चारों ओर पानी ही पानी होगा–उस पानी पर साँप-भँसे जा रहे होंगे, गोह तैर रहे होंगे–गोह, वह पंद्रह फीट का पीला, लंबा जानवर जिसकी पूँछ पर काँटे होते, जो अपने लंबे थुथने को निकाले जीवित यमराज-सा इधर-उधर घूमता!
किंतु, हमें क्या डर, क्या भय? बाढ़ की बात सुनी और पहुँच गए नाले में। कीचड़ से सना पीला-पीला पानी। हम चुभक रहे हैं, उछल रहे हैं , तरंगों पर तैर रहे हैं । मछुए अपने जाल लेकर आ गए, वे मछलियाँ मार रहे हैं। नए पानी का झाग खाकर पागल बनी मछलियाँ इधर-उधर मारी-मारी फिर रही हैं। हम बच्चे भी, खाली हाथ, उनमें से कुछ को पकड़ पाते–पकड़ने में, उछल-कूद करने में कितना कोलाहल मचाते हम! किंतु, यह स्थिति ज्यादा देर तक नहीं रहती। पानी बढ़ता गया, बढ़ता गया! नालों से खेतों में पहुँचा और थोड़ी देर में ही हरी-भरी फसलें उसके विकराल उदर में समा जातीं। लोग उदास होते, किंतु, हमें इसमें मज़ा ही आता! क्योंकि अब नावों पर हम झिझरी खेलेंगे–गाना, बजाना होगा, उत्सव, उछाह होगा! हमारी नावें! तरंगों को कुचलती वे किस शान से चलेंगी!
हमारे बड़े-बुजुर्ग कुछ उदास होते, किंतु, उनकी उदासी भी क्षणिक होती। क्योंकि बाढ़ के सर्वनाशी रूप के साथ उसके कल्याणप्रद पहलू से भी वह परिचित थे। यह बाढ़ हटेगी, बागमती नदी की यह बाढ़–हटते ही खेतों में यह कुछ ऐसी कीचड़ रख जाएगी कि उस पर खेती करते ही फसल ऐसी बढ़ेगी कि देखने वाले भी दंग रह जाएँगे। बेनीपुर का धान मर्द से भी जो ऊँचा बढ़ जाता है, बेनीपुर की रब्बी जो खेतों में सड़ जाती है–धान की वे लंबी-लंबी बालियाँ, सरसों की वह पीली-पीली चादर, तीसी-खेसारी की वे चकमक बूँटेदार चोलियाँ–ये सब बाढ़ के ही तो वरदान हैं ! कुछ खेत कट जाएँगे, तो कटें, नए खेत भी तो ऊपर होंगे!
जब गाँव को बाढ़ घेर लेती, गाँव में कोई काम नहीं होने से, खेल-कूद का बाजार लग जाता! दरवाजे-दरवाज पर तरह-तरह के खेल जमते–कौड़ियों के, गोटियों के, ताश के, गुल्ली-डंडे के। दिन भर खेल–ठहाके मचते, ललकारें लगतीं, हाहा-हूहू का समाँ बँधता! दिनभर खेल, रात-भर झिंझरी! बूढ़े लोग झींखा करें, जवानों के लिए, बच्चों के लिए तो बाढ़ वरदान बनकर आती!
बाढ़–बेनीपुर के जीवन के साथ बँधी है ! बेनीपुर की नस में बाढ़ है। बचपन में ही जो यह मेरी नस में समाई, वह आज तक बनी हुई है! आज भी, जब शायद खून का रफ्तार मंद पड़ गया है–अपने को तरंगों पर फेंक देने में मुझे ज़रा भी झिझक नहीं होती!
यह बाढ़ का गाँव–यहाँ हमारे पूर्वज आ कर क्यों बसे? यहाँ तो मछुओं को बसना चाहिए था, खेतिहरों का यह गाँव कैसे बना!
अपने बाबा के मुँह से सुना था, यह बेनीपुर कोई पुराना गाँव नहीं है। यह नई आबादी है। हमारे पूर्वज यहाँ पश्चिम से आए। पहले वे यहाँ गर्मियों में अपने बैलों को चराने के लिए लाया करते थे। नीची, दलदली जमीन–गर्मियों में भी यहाँ हरिअरी रहती। एक बड़ा-सा चौर, उसमें सदा पानी रहता। चार महीनों तक वे यहाँ अपने ढोर चराते, फिर वापस जाते। किंतु धीरे-धीरे उनका मन यहाँ रमता गया। वे यहाँ बस गए और न जानें किस पुण्यात्मा के नाम पर इसका नाम बेनीपुर रख दिया!
उन्हीं के साथ कुछ और लोग भी यहाँ, उन्हीं की तरह, कुछ महीनों के लिए आया करते थे। बेनीपुर के साथ ही उन लोगों ने उसके आसपास कुछ और बस्तियाँ बसाईं । उनमें आपस में प्रेम था, किंतु जब झगड़े उठते, वे भीषण रूप धारण कर लेते। एक प्रचंड झगड़ा उठा था, मेरे गाँव और बगल के एक गाँव की सीमा-बंदी को लेकर। बचपन में सुना उस झगड़े का रोमांचक वर्णन मुझे अब तक याद है।
एक दिन तय हुआ कि सीमा के झगड़े को लाठी से फरिया लिया जाए। उस गाँव के लोगों के साथ सात भाई पठान थे, बड़े मुस्तंडे, बड़े बहादुर। उनके सामने कौन खड़ा होगा? मेरे गाँव में भी एक पहलवान थे। अपने गाँव का अपमान होने देते? भाई में अकेले, माँ ने जाने से मना किया। तब भी चल पड़े। माँ बाँह से लिपट गई। वह बाँह में लिपटी है, पहलवान जी, उन्हें उठाए, आगे बढ़ रहे हैं। अंत में माँ ने बाँह छोड़ दी; वह लाठी लेकर दौड़ पड़े। ज्यों ही उन्हें आते देखा, एक पठान ने चिल्ला कर कहा–कहो, माँ को सलाम करके आए हो न? फिर मिल न सकोगे! बात-बात में लाठियाँ चलने लगीं घमासान मच गया। उस गाँव के लोग, सातों पठान के साथ, भागे। यह उन्हें खदेड़ने लगे!
तीसरे गाँव के लोग यह तमाशा देख रहे थे ! उनमें से एक ने पुकार कर कहा–कहाँ भागे जा रहे हो? एक आदमी और तुम हजार! अरे, खेत में ढेले हैं, फेंक-फेंक कर मारो न? अब एक आदमी पर हजार-हजार ढेले। लाठी क्या करे? ताकत क्या करे? दो-चार बार उनकी ओर दौड़े, फिर व्याकुल होकर भागे, किंतु अपने गाँव की सीमा पर आते-आते बेहोश हो गए! जब होश में आए, लोगों ने ढोकर गाँव में ले जाना चाहा। उन्होंने कहा, नहीं, कोई जरा कंधे का आसरा दे, मैं उस तालाब में जाऊँगा! वहीं तालाब के पानी में पड़े रहे, जब चोट कुछ कम हुई, स्वयं घर आए।
फिर मुकद्दमे शुरू हुए–कलकत्ता तक मुकद्दमे गए थे। तब लोग साढ़नी पर कलकत्ता जाते थे। किंतु, संयोग ऐसा कि दोनों गाँवों के लोगों को जेल की सज़ा हुई । वहीं जेल में, एक साथ, विपदा के दिन काटते समय, फिर उन लोगों में दोस्ती हुई। पंचायत से सीमाबंदी कर लेने को तय कर दोनों गाँव के लोग लौटे।
इस सीमाबंद की भी विचित्र व्यवस्था हुई। निकट के एक गाँव के सज्जन को पंच माना गया और तय हुआ, वह दोनों गाँवों के बीच से जिस रास्ते निकल जाएँगे, वही सीमा मान लिया जाएगा। एक ओर से वह चले। वह कुछ इस तरह जा रहे थे कि मेरे गाँव को कम जमीन मिल पाती। किंतु, उन्हें रोके कौन, टोके कौन? उन्हीं के गाँव के एक सज्जन को यह सह्य नहीं हुआ–उन्होंने ललकार कर कहा, दुष्ट, यह क्या कर रहा है? अब इधर बढ़े नहीं कि पैर तोड़ दूँगा। वह सज्जन तब उस गाँव की ओर मुँड़ गए, सीमा रेखा टेढ़ी हो गई, किंतु मेरे गाँव को कुछ अधिक जमीन मिल गई!
कैसे थे वे लोग, कितने सबल, कितने सरल! हाँ सबलता और सरलता साथ-साथ चलती है न? सबलता और सरलता के सबूत तो मैंने अपने बचपन तक पाए थे। मुझे याद है, मेरे सभी चाचा और चचेरे भाई उन दिनों कितने ही मरदाने खेल खेलते। गर्मियों में पेड़ों की छाया में, जब बरसात शुरू हुई, तो धनखेतों में वे सब के सब जुटते। पुष्ट जाँघ, चौड़ी छाती, लंबी बाहों वाले वे तगड़े लोग–उछलकूद होती, धमाचौकड़ी मचती, उठापटक से भी वे बाज़ नहीं आते। किसी को मोंच आई, किसी की चमड़ी छिली, कई बार हड्डियाँ भी टूटीं। किंतु, किसको इनकी परवाह! ललकारों में सब कुछ भूल जाते। जब दो दलों में बँटकर खेलते, लगता, दुश्मनों के दो दल आमने-सामने खड़े हैं। जब खेल खत्म हुआ, फिर सब एक हो जाते–हँसते-खेलते घर लौटते।
पिताजी की मृत्यु के थोड़े ही दिनों बाद, एक दिन, बड़े तड़के, सूर्योदय के पहले ही, मैं बेनीपुर को छोड़ रहा था। कितने दिनों के लिए? मैं उस समय नहीं जान सका था, किंतु, रह-रह कर दिल में एक हूक उठती थी! यह मिट्टी का मोह था! आज भी तो वह मोह बना हुआ है। जब कभी, दो-चार महीने भी, बाहर-बाहर रह जाता हूँ, इस गाँव में जाने के लिए तबीयत पड़पती है। मेरे नाम के साथ इस गाँव का नाम जो जुड़ गया है, यह कोई आकस्मिक या औपचारिक बात नहीं है। और, धीरे-धीरे ‘बेनीपुरी’ ने जो ‘रामवृक्ष’ को नीचे दबा दिया है, उसके अस्तित्व तक को छिपा दिया है, यह भी एक स्वाभाविक बात ही हुई है! अपने गाँव के सारे सुख-दुख, उत्साह-उमंग, व्यथा-कथा का मैं अपने को प्रतीक मानता हूँ और मेरे सारे विचारों और सिद्धांतों पर ही नहीं, मेरी भाषा और शैली पर भी इस गाँव की अमिट छाप है! आज मैं जो कुछ हूँ, वह ‘रामवृक्ष’ नहीं हूँ, ‘बेनीपुरी’ है–इसमें रंचमात्र भी संदेह की गुँजाइश नहीं।
Image: On the Beach
Image Source: WikiArt
Artist: Fyodor Vasilyev
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