तट के बंधन
- 1 July, 1953
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- 1 July, 1953
तट के बंधन
अनीला को जब से उर्मि का पत्र मिला तब से उसके अंदर का अंतर्दाह निरंतर सुलगता रहा है। जब वह समझ रही थी कि एक जीवन का अंत हो चुका तभी उसमें सोई पड़ी प्राणों की चिनगारी सुलगने लगी। यह उपचेतना की बात थी पर उसकी चेतना इतनी प्राणवान् थी कि उसने उधर नेत्र मूँद लिए। पर एक ही मनुष्य के न जाने कितने भाग होते हैं। नेत्रों ने इधर से देखना बंद किया तो उधर देखने लगे और अनीला को लगने लगा कि वह कहीं भाग जाए। कहीं दूर, जहाँ न स्मृति हो और न स्मृति का कोई उपकरण। पर वह स्थान कहाँ है? और हो भी तो वह क्यों जाए! यह तो कायरता है निरी कायरता है ! वह कहीं नहीं जाएगी, यहीं रहेगी और गोपाल को बुला भेजेगी। गोपाल, कौन गोपाल ! हाय रे मन ! यही तो छल है। गोपाल कभी सामने आ खड़ा होता है, कभी मन पर अंकित हो जाता है, कभी स्मृति बन कर टीसने लगता है और इसी गोपाल को वह नहीं जानती। इसी से वह भाग जाना चाहती है।
उसने एक दिन अपने पति अजित से कहा–“काश कि हम न आते!”
अजित बोला–“न आते? आ चुके हैं अब तो? काश कि का क्या प्रश्न और आना बुरा भी क्या है ? उधर न सही, इधर सही। मुझे तो अपना काम करना है।”
अनीला काम को खूब जानती है पर अब उसे कुछ भय-सा लगने लगा है। बोल उठी–“दोनों को फिर एक करोगे?”
अजित हँसा–“पगली रानी! दोनों को फिर भारत नहीं बनाना मुझे। दोनों भारत और पाकिस्तान रहें पर उनकी हुकूमत एक तरह की हो। उनके विचार एक हों। इंसान एक हों–यह प्रयत्न मैं करता रहूँगा ।”
“कैसे?”
वह फिर हँसा–“कैसे? जैसे तुम कुछ नहीं जानती। मैं दोनों देशों में समाजवादी सरकार स्थापित करने का स्वप्न देखता हूँ, अनीला!”
अनीला अजित को बहुत अच्छी तरह जानती है। वह निर्मोही अर्जुन की तरह केवल लक्षवेधी है। कभी-कभी उसे अचरज होने लगता है कि वह इधर चला कैसे आया। आया तो रुका कैसे है! पर अपने व्यवहार में वह इतना नपा-तुला है कि जानती है कब क्या किया जाना है। प्यार के क्षण भी उसके नियत हैं। बस, उन क्षणों में वह प्यार करता है, जी भरकर जानवर की तरह प्यार करता है पर जब वे क्षण बीत जाते हैं तो वह निर्मोही जैसे पत्थर बन जाता है। उसके दिये का तेल चुक जाता है। वह समझता है सबेरा हो गया अब प्रेयसी के अन्नपूर्णा बनने का समय है। उस पार के देश में यह सब खूब चलता था, निभता था क्योंकि सर पर सदा एक तलवार लटकती थी। इस पार मुक्ति है सो अनीला को सब यंत्र जैसा लगता है। फिर उसे किसी की याद आती है। उस याद को भुलाने को अजित उसके पास और पास आता रहे पर हो यह रहा है कि अजित दूर जा रहा है। वह प्यार की नहीं, लक्ष की बातें करता है। एक दिन बोला–“अनीला ! अपनी प्रैक्टिस के साथ अपने लक्ष्य की बात न भूला करो। तुम्हें बहुत काम करना है। तुम कर सकती हो।”
“क्या काम” –अनीला जान कर अनजान बनी।
“जनता को जगाने का, उसे यह बताने का कि स्वराज्य का यह ढोंग अब अधिक दिन नहीं चलेगा। ये कागज के फूल हैं जो खुशबू नहीं दे सकते।”
“कागज के फूल?”
“हाँ, कागज के फूल, जो बच्चों को खुश कर सकते हैं। तुम्हें गाँवों में जाना चाहिए, तुम्हारे पास साधन हैं।”
अनीला मुस्कुरा कर रह गई। लेकिन अजित, जैसा कि उसका स्वभाव था, उसमें डूब गया और उसका पत्र शोले उगलने लगा। अनीला ऊपर से बराबर शांत रहती थी, रहने की जी जान से चेष्टा करती थी पर जब से मालती से उसका संपर्क बढ़ा, उसका जी सदा भाग जाने को करने लगा। मालती जब भी आती, गोपाल की बात चला देती। विशेषकर उर्मि के लिए उन्होंने क्या-क्या किया, ये सब बातें न जाने कैसे और क्यों बार-बार दोहराई जाती। तब अनीला को भी बहुत-कुछ याद आ जाता।
वह एक दिन मालती को आया जान कर दूसरे द्वार से कहीं चली गई। दूसरे दिन वह घर रही ही नहीं। तीसरे दिन उसने अजित से कहा–“मुझे साथ क्यों नहीं ले चलते।”
“मैं ले चलूँ ?”
“हाँ।”
“तुम्हें क्या हो गया है, अनीला ! तुम्हें कौन ले चलेगा, तुम्हें स्वयं दूसरों को ले चलना है। पर तुम हो कि सरकारी अफसरों की बिरादरी में घुसी जा रही हो।”
अनीला ने कहा–“ठीक है। मैं अब वहाँ नहीं जाऊँगी।”
उत्तर सुन कर अजित ने सहसा अनीला को देखा पर बोला कुछ नहीं। उस वक्त बाहर चला गया, पर रात को उसने कहा–“अनीला! मैं यह नहीं कहता तुम किसी से मिलो नहीं। मिलो, उनसे हमें बहुत-सी बातों का पता लगाना है पर अपने को भूलो मत। उनकी बनो मत। देश की बरबादी में इन लोगों का भी बहुत बड़ा हाथ है।”
अनीला ने कहा–“मैं जानती हूँ। ऐश करने के लिए उन्हें पैसा ही नहीं मिलता लाइसेंस भी मिलता है।”
“बेशक, इसी स्थिति को हमें सुधारना है। वह बिना समाजवाद के संभव नहीं है। और समाजवाद आएगा क्रांति से।”
“यानी रक्तपात से ?”
“शुरू में तो हम बिना रक्तपात के ही इस ढाँचे को बदलना चाहते हैं। उससे कुछ न हुआ तो हम दूसरे मार्ग को ग्रहण कर सकते हैं।”
“कौन सा मार्ग ?”
“उसकी अभी चिंता नहीं है। अभी तो इस रामराज्य की प्रवंचना से लोगों को सावधान करना है। तुम्हें गाँवों में जाना चाहिए।”
“मैं जाऊँगी।”
और सचमुच अनीला ने गाँवों में जाना शुरू कर दिया। लेकिन यह उत्साह पानी के बुलबुले की तरह था। दो-चार बार जाने के बाद उसे लगा जैसे वह रेगिस्तान में भटक रही है और गरमबालू ने उसके तन-मन को झुलस दिया है। उसने गाँवों में गरीबी देखी, अज्ञान देखा और एक चेतनता भी देखी पर उसके अंतर में उसे लगा जैसे राजनीति ने सब को त्रस्त कर रखा है। जो दर्दमंद उनके पास आते हैं, वे सचमुच इतने उनके दर्द दूर करने के इच्छुक नहीं हैं जितने स्वयं आगे आने के। यह बात उसे पहले तो बड़ी कड़वी लगी पर जैसे-तैसे वह अंदर प्रवेश करती गई उसकी धारणा पुष्ट होती गई। काँग्रेसी, समाजवादी, साम्यवादी, किसान-मजदूरवादी, हिंदू महासभा, जनसंघ रामराज्य सभी को उसने हमदर्द पाया। सभी उनके हितैषी थे पर कुछ को छोड़ कर शेष अपने हितैषी अधिक थे। जो सचमुच जनता का हितैषी है वह प्रत्येक बात को लेकर प्रतिद्वंद्वी को गिराने की चेष्टा नहीं करेगा लेकिन जनतंत्र तो अपने अतिरिक्त शेष को दुष्ट मान कर चलता है क्योंकि अपने को बड़ा और भला दिखाने के लिए उसे दूसरे को छोटा और बुरा दिखाना ही होगा। इस क्रम में उसका अपना सत्य भी पीछे रह जाता है।
अनीला के मन में ये अस्पष्ट और धुंधले विचार घर करने लगे। वह स्पष्टता के अभाव में तड़फड़ाने लगी। वह अजित पर अविश्वास नहीं कर सकती पर उसे याद है जब विभाजन से पूर्व वह गोपाल से घंटों बातें किया करती थी तो वह उसे कुछ इसी तरह की बातें बताया करता था। राजनीति में सबसे पहले मानवता की हत्या होती है। मानवता की रक्षा की पुकार लेकर जो चलते हैं वे ही सबसे पहले अपनी मानवता को कत्ल करते हैं। स्वतंत्रता और जनतंत्र जैसे शब्द धोखा देने वाले हैं क्योंकि स्वतंत्रता शब्द के अतिरिक्त और कहीं नहीं है। और जनतंत्र वास्तव में गिरोहतंत्र है जो कुटुंब और कबीले का कुछ विकसित रूप है। जिस दिन जनता शक्ति के योग्य बनेगी उस दिन तंत्र नहीं रहेगा…
अनीला ने दुखी होकर एक दिन कहा–“मैं डॉक्टर हूँ, मैं जनता की सेवा करूँगी। मैं किसी वाद में नहीं पड़ूँगी।”
अजित हँस पड़ा, बोला–“आदर्शवाद मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है अनीला ! वह उसे भागना सिखाता है।”
“कैसे ?”
“जैसे तुम भाग रही हो।”
“मैं भाग रही हूँ ? नहीं, मैं वही कर रही हूँ जो मुझे उचित लगता है। क्या अपनी आत्मा की आवाज सुनना भागना है ?”
“वह अपने आप में भागना हो या न हो पर जो भागना चाहते हैं उन बुजदिलों के लिए वह एक शानदार आवरण है।”
अनीला सहसा तिलमिला उठी। उसने कहा–“मैं भागना नहीं चाहती। मैं भागूँगी नहीं। तुमने मुझे देखा है। मैं अपना काम करते हुए मर जाऊँगी पर किसी व्यक्ति और दल की किसी गलती का लाभ उठा कर उसे कलंकित करने का शुभ काम मैं नहीं करूँगी।”
अजित ने अनीला की उत्तेजना को देखा तो, पर वह स्वयं अपने को खो बैठा । बोला–“अचरज है कि एक नारी ऐसा सोचती है।”
“क्या मतलब ?”
“मतलब समझाने की अब कोई जरूरत नहीं है। तुम नासमझ नहीं हो।”
अनीला का आवेश बहुत बढ़ चुका था। तीव्रता से बोली–“तुमने नारी की क्या बात कही ! क्या तुम कहना चाहते हो कि भावना नारी का स्वभाव है या कि वह किसी को गिराने में बहुत कुशल है ?”
अजित ने सहसा कुछ जवाब नहीं दिया। वह अपने को संभाल रहा था।
“मैं कहती हूँ कि तुम चुप क्यों हो ?”
“इसलिए कि तुम्हें आवेश आ रहा है !”
“और जैसे कि तुम शांत हो !”
“अनीला !”–अजित ने तिनक कर कहा–“तुम डॉक्टरनी हो वैसे भी बहुत कुछ देख चुकी हो। तुमसे बहस में पार पाना मेरे लिए आसान नहीं है। तुम कुछ भी करने को स्वतंत्र हो। मैं अब कुछ नहीं कहूँगा।”
और वह उठ कर चला गया। उसके उठने, उसके जाने में एक प्रयत्न था, एक आवेग था। उसके चेहरे पर कठोरता न हो पर एक उपेक्षा थी। उसकी गति पर भी उसी की छाया थी। अनीला ने देखा और उसकी चेतना ने उसका अर्थ अपमान करके लिया। कई क्षण स्तब्ध-सी वह देखती रही। फिर सहसा फफक-फफक कर रो उठी। बहुत देर तक रोती रही। बच्चे दोनों पास के कमरे में सो रहे थे। रोते-रोते अनीला को लगा जैसे उनमें से किसी ने पुकारा हो। तेजी से उठ कर अंदर गई पर वे दोनों मौन थे। दोनों मुस्करा रहे थे मानों स्वप्न-लोक में परियाँ उन्हें लोरियाँ सुना रही हों। कई क्षण तक केवल वह दोनों को देखती रही। दोनों का रूप अलग, रंग अलग, पर स्वभाव एक जैसा। दोनों शांत, दोनों अपने में डूबे-से पर, दोनों अद्भुत रूप से चतुर। बालक का नाम था मनोज और बालिका थी मँजु। दोनों को देखती –देखती अनीला कहीं से कहीं पहुँच गई, जैसे पिछले सारे जीवन का चित्र सामने घूमने लगा। उसे देखते-देखते उसके नेत्र तरल हुए, अंगार बरसे और फिर बुझ चले पर दूसरे ही क्षण वे फिर सुलग उठे और सहसा उसने गरदन उठा कर कहा–“नहीं, मैं वही करूँगी जो मुझे ठीक लगेगा। मैं किसी की गुलाम नहीं हूँ। मैं स्वतंत्र हूँ। अपनी राह पहचानती हूँ…लेकिन क्या अजित…नहीं, नहीं, मैं अजित की बात नहीं सोचूँगी…सोचनी पड़ेगी। अजित तुम्हारा पति है…पति…नहीं, पति से बढ़ कर है। तुम्हारा प्राण-रक्षक। तुम्हारी पुत्री का पिता। तुम्हारा मित्र। एक बहादुर और निडर मनुष्य। दूसरों के लिए प्राण देने वाला…ओह…ओह ! वह तिलमिला उठी। लोग दूसरों के लिए प्राण देते क्यों हैं और देते हैं तो उनसे आशा क्यों रखते हैं, क्यों…क्यों…क्यों !”
कि द्वार पर आहट हुई।
वह काँप उठी। फिर आहट हुई। यंत्रवत् उसने सोचा–अजित आहट क्यों करता है। ओह, मालती होगी, पर वह भी पुकारती आती है, तो कोई मरीज है…हाँ, मरीज हो सकता है। वह शीघ्रता से उठी। अपने को सँभाला। सोचती रही–अजित ने किवाड़ क्यों नहीं खोले और चलती रही। मार्ग में कहीं अजित नहीं था। द्वार पर आहट उठ रही थी। वह कुछ झिझकी। फिर आगे बढ़ कर किवाड़ खोल दिए–“आइए।”
कह कर देखा–वह कोई पुरुष है, कह रहा है–‘अच्छी हो अनीला!’
‘कौन…?’
‘मैं।’
‘गोपाल ? तुम… !!’
वह गोपाल था। अनीला तेजी से काँपी, बहुत तेजी से कि उसे दीवार थामनी पड़ी। फिर कहीं गोपाल भाप न ले, वह तेजी से भागती हुई अंदर चली गई। पर उसने जितना ही अपने को छिपाना चाहा उतना ही वह प्रगट हो गई।
गोपाल ने देख लिया, अनीला मानसिक रूप से बहुत अस्वस्थ है।
अजित का सात दिन तक कुछ पता नहीं लगा और सात दिन तक गोपाल उसकी तलाश में मारा-मारा फिरता रहा। वह अनीला के पास कभी देर तक नहीं रुका। भागा हो सो बात नहीं पर सदा दो टूक बात की। उसी रात को सब कुछ सुन कर उसने कहा–“तुमने जिंदगी को खिलवाड़ समझ लिया है। जैसा जी में आएगा करोगी। अरे, तुम्हारा जी ही तो सब कुछ नहीं है ! ये संस्कार, समाज, संस्कृति, ये जो आदमी के रक्त और पसीने की मीनारें हैं, इनका भी तो कुछ ध्यान रखना है ! जी की दुहाई देने वाले बर्बर सभ्यता के पोषक हैं।”
फिर कहा–“लोग शाश्वत गुणों की दुहाई देते हैं। मैं केवल एक ही शाश्वत गुण की बात जानता हूँ और वह किसी के लिए कुछ करना यानी ‘जी’ का त्याग।”
अनीला ने मुस्करा कर कहा–“यह क्या आदर्शवाद नहीं है?”
गोपाल ने तुरंत जवाब दिया–“आदर्श के बिना मनुष्य आगे नहीं बढ़ सकता पर वाद ऐसा ही है जैसे फांसी। मैं वाद रहित आदर्श का पोषक हूँ। और आदर्श भी सापेक्ष है अनीला ! अपेक्षा उसका जीवन है, उपेक्षा मौत। पर तुम शब्द-जाल में फँसती ही क्यों हो ! जो कर्म से डरते हैं वे ही शब्दों में उलझते हैं। मेरी तो समझ में नहीं आता कि इतना काम सामने रहने पर की विवाद में फँस कैसे जाता है।”
“लेकिन–” अनिला ने कुछ कहना चाहा।
बीच में टोक कर गोपाल बोला–“पहले अजित को ढूँढ़ो, बातें फिर करूँगा।”
“उन्हें कहाँ जाना है, कहीं पार्टी में होंगे।”
पर अनीला ने जितनी आसानी से यह कहा था, अजित का पता उतनी आसानी से नहीं लगा। गोपाल को लगा, उसे रुकना पड़ेगा। उसने तीन पत्र लिखे।
उर्मि के नाम
प्रिय उर्मि,
मैं यहाँ आया था एक दिन के लिए, पर अब रुकना पड़ गया। कुछ काम ऐसा ही आ पड़ा है। यह भी नहीं जानता कि कब तक रुकना पड़ेगा। इसलिए तुम मि. चावला और बैरिस्टर बुधबार से कह देना कि वे मेरी प्रतीक्षा न करें। यहाँ का काम मैं कर लूँगा। डॉ. अनीला की आवश्यकता हो तो तार दे देना। प्रभात से मिल चुका हूँ। वह बहुत आशावान् नहीं है। सरला कानून की दृष्टि से नहीं बच सकती। अब तो चावला साहब और बुधबार साहब की स्याह को सफेद करने वाली तर्कशक्ति ही उसको बचा सकती है पर उर्मि, कभी-कभी मुझे लगता है, जिसे न्याय न बचा सके, उसे अन्याय से नहीं बचाना चाहिए, उसकी बलि हो जाना ही शुभ है।
मैं नहीं चाहता उसे कालेपानी की सजा हो। या तो वह जेल से बाहर आए या फिर फाँसी पर झूल जाए। बीच का मार्ग उस निर्दोष के लिए भयंकर दंड होगा। हम उस दंड के साक्षी नहीं होना चाहते।
मैं अभी और मिलूँगा।
तुम जब इलाहाबाद से जाओ तो मुझे अनीला के पते पर तार दे देना। मेरे आने तक रुकी रहोगी तो आभार मानूँगा।
तुम्हारा
गोपाल
उर्मि का पत्र गोपाल के नाम
गोपाल दा,
पत्र पाया। जब तक नहीं आओगे, रुकूँगी। आभार का बोझ कुछ तो हल्का होगा ही।
आशा तो बंदरिया के बच्चे की तरह है, मर जाने पर भी मनुष्य क्या उसे छोड़ता है ? वह भी स्वयं नहीं छूटती, केवल छीजती है।
सुभाष आ गए हैं।
अनीला जीजी मालती को मेरा स्नेह पहुँचा देना। जीजा को प्रणाम कहना। और यह बी कहना कि न्यायाधीश बन कर अपराधियों के भाग्य से खिलवाड़ न किया करें।
शशि जीजी लखनऊ आने को कह रही थी। सुनील दा ने उन्हें रंगून बुलाया है। वहाँ से वे लोग स्याम, मलाया आदि में घूम लेना चाहते हैं।
प्रणाम दादा !
तुम्हारे स्नेह की भिखारिन
उर्मि
पत्र पढ़ कर गोपाल ने अनीला को दे दिया। अनीला ने पढ़ लिया तो कई क्षण भीगी रही। उसके मन में जो विषाद घुमड़ रहा था उसी पर इस पत्र ने चोट की। पर वह बोली इतना ही–‘यह सुभाष कौन है ?’
“एक कवि।”
“बँगाली है ?”
“हाँ।”
“उर्मि से क्या संबंध है ?”
“पड़ोस में किराया देने के वायदे पर आकर बसा था पर लगता है, पड़ोस से धीरे-धीरे वह घर के अंदर आ बसा है।”
“क्या मतलब ?”
“उर्मि से पूछना पड़ेगा !”
अनीला ठगी-सी गोपाल को देखती रह गई। समझ न सकी। पर जब समझी तो गोपाल वहाँ नहीं था। पाँचवें दिन वह आया और बोला–“अनीला, चलो।”
“कहाँ ?”
“इलाहाबाद। अजित वहीं है।”
अनीला ने एक क्षण चुप रह कर पूछा–“मैं चलूँ ?”
“क्या मतलब ?”
“….”
“अनीला !”–गोपाल ने जोर से कहा–“मैं फाँसी नहीं खाना चाहता। मैं जिंदा रहना चाहता हूँ। इतना त्याग तुम नहीं कर सकती।”
“गोपाल !”–अनीला काँप कर बोली।
“ओह !”–गोपाल ने सिर थाम लिया। कई क्षण उसी तरह बैठा रहा। फिर फुसफुसाया–“मैं भी कितना बोद्दा हूँ, प्रतिदिन माँगता हूँ !”
फिर स्तब्ध होकर कहा–“अनीला, हमें अपने को धोखा नहीं देना चाहिए। मैं तुम्हें बराबर प्रेम करता रहा हूँ और बराबर करता रहूँगा। शरीर से आज हम दूर जा पड़े हैं पर मन से नहीं हैं। प्रेम हो तो शरीर कोई बहुत मायने नहीं रखता। फिर भी तुम आना चाहोगी तो मैं सदा स्वागत करूँगा। लेकिन प्रश्न यह है कि स्वतंत्रता और अधिकार के नाम पर क्या मानवता की अरथी निकालनी ही पड़ेगी? तनिक सा मनमुटाव होने पर क्या अलग होना ही पड़ेगा?”
अनीला ने कहा–“बात इतनी ही न हो तो…।”
“तो…तो…” एक क्षण झिझक कर गोपाल ने कहा–“सवाल पर दूसरे पहलू से विचार करना होगा अनीला !”
“कौन सा ?”
“क्या तुम अजित से घृणा करती हो ?”
अनीला झिझकी पर वह क्षण उसे युग जितना लगा और उसने तेजी से कहा–“नहीं।”
“तो फिर उठो और मेरे साथ चलो।”
“लेकिन सुनो तो, घृणा नहीं है इस कारण क्या…”
“जी हाँ, इसी कारण तुम्हें चलना होगा।”
“गाड़ी जाने में देर नहीं है। बच्चों को तैयार करो। तब तक मैं तांगा लाता हूँ।”
और उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना, वह तांगे लेने चला गया। रात भर का सफर था, अनीला और बच्चों को सेकिंड में सुला कर आप थर्ड में ऊँघता रहा। बीच में नियम से हर स्टेशन पर उतर कर देख आता था। जानता था अनीला सोयेगी नहीं। अनीला ने एक बार पूछा–“तुम्हें आराम की जगह मिली है ?”
“पूरा आराम है।”
फिर पूछा–“बार-बार क्यों आते हो ?”
गोपाल हँस पड़ा–“पता नहीं !”
“अच्छा अब सो जाना।”
अनीला को पता नहीं वह सोया या नहीं पर सबेरे तक फिर उसे देखने नहीं आया। इलाहाबाद से पहले स्टेशन पर इतना कहा–“तुम्हारे पिताजी आएँगे। उनके साथ चली जाना।”
“क्यों ?”
“क्यों, क्या ठहरोगी नहीं ?”
“तुम कहाँ ठहरोगे ?”
“मेरा ठिकाना दूर है।”
“और वे कहाँ हैं ?”
“अजित ?”
“हाँ।”
“वह तो…अनीला, वह तो रहने की जगह न होकर विवाद करने की जगह है।”
“मैं वहीं जाऊँगी ।”
गोपाल ने चुपचाप पता दे दिया और अगले स्टेशन पर गाड़ी रुकने पर जब मि. चावला ने अपनी बेटी को देखा तो फफक-फफक कर रो पड़े। अनीला भी रोई पर शीघ्र ही उसने आँसू पोंछ कर विदा माँगी। चावला ने पूछा–“घर नहीं चलोगी ?”
“जा तो रही हूँ ।”
“मेरा मतलब मेरे साथ।”
“अब नहीं, अजीत के साथ आऊँगी।”
“पर बेटी…”
“प्रणाम पिताजी…”
और वह दोनों बच्चों को लेकर चली गई। मि. चावला देखते रह गए। गोपाल पास ही खड़ा था। बोला–“अनीला ने ठीक ही किया है काका जी ! आपके घर अब वह अकेली कैसे जा सकती है ? अजित के बिना वह अधूरी है।”
मि. चावला ने क्षण भर रुक कर गोपाल को देखा फिर आगे बढ़ गए। दृष्टि उनकी इतनी धुंधली थी–कई बार हर किसी से टकरा जाने के कारण उन्हें बार-बार अपशब्द सुनने पड़े।*
* इसी नाम के उपन्यास का एक परिच्छेद ।
Original Image: Portrait of a Woman
Image Source: WikiArt
Artist: Amedeo Modigliani
Image in Public Domain
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