अकेले का अभिसार
- 1 July, 1953
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- 1 July, 1953
अकेले का अभिसार
ग्रीष्म ऋतु :
ये गर्मी है या आफ़त!
रात भर प्यास रहती है।
जाम हूँ, कोई लब रहता
तो पीता औ’ पिलाता।
वर्षा ऋतु :
न पास आती हैं न जातीं दूर,
ये ख्याली बुतें मेरी क्रूर।
मेघ, जा के यक्ष से कह दो,
लोग तुमसे भी हैं मजबूर।
शरद ऋतु :
रंगीनियाँ दिल में उतर आईं
तो सुफ़ेद हो गए कास औ’ बादल।
सुबह में रोज़ सिहरन देकर
हल्का-हल्का बुखार आता है।
शिशिर और हेमंत ऋतु :
घाघ ने या माघ ने या दाग़ ने
सर्दी दूर करने के बताए हैं तरीक़े तीन–
रुइए कि धुइए, कि दुइए।
दो को मैं आजमा चुका, बेकार हैं;
घाघ न था घाघ, माघ ने माघ देखा न था,
ख्यालियाँ भी दाग़ की बेदाग़ नहीं थीं।
बसंत ऋतु :
आँचल की लहरी-सी हिल ओ, बह री यों न बसंत-बयार !
शीतल स्पर्श !
खेल बालों से !
कौन ?
दिशाएँ मौन।
टकराते हतभाग्य अनींदे दृग खुल सूनी दीवालों से।
जगे सपनों का खोता प्यार।
अरी निर्मम, चल भाग बतास, छेड़ती उर उदास बेकार।
अरी, तू व्याध-तरुणि-सुकुमार !
आँचल की लहरी-सी हिल ओ, बह री यों न बसंत-बयार !
यह दीप-शिखा !
जैसे सलज्ज मुग्धा कोई हो बुझा रही
यों झोंकों में रुक-रुक कँपना।
जाग्रत् सपनाही मात्र ।
किसी कोने में कोई कहाँ कहीं ?
यह हवा महामरु थार।
ओठों पर खाली प्याले-सा रचता प्यास बढ़ाने वाला जो मृगजल-अभिसार।
बजे ज्यों आधी कड़ी सितार।
आँचल की लहरी-सी हिल ओ, बह री यों न बसंत-बयार !
धीमा यह द्वार-पटों का चर्र् !
शय्या-पट का कंपन ! झिन-झिन !
कलेजा धक् !!!
सेज-कोन तक
ज़रा खुल गए ये दरवाजे से मौन आ गई प्रतनु चाँदनी की लाइन।
पर न कोई शशि मूर्त दुलार।
अरी, जा लग तू अपनी राह हवा, मत तरसा-तरसा मार,
न मार !
आँचल की लहरी-सी हिल ओ, बह री यों न बसंत-बयार!
Original Image: Birds and flowers of the four seasons
Image Source: WikiArt
Artist: Kano Eitoku
Image in Public Domain
This is a Modified version of the Original Artwork