एक तमिल लोक-कथा

एक तमिल लोक-कथा

‘शिव’ यानी अच्छाई।
अच्छाई एकबार
जम करके, जड़ीभूत होकर
एक खंभा बनी।
आए तब धीमान ब्रह्मदेव,
आए तब श्रीमान विष्णुगुप्त,
देखने लगे खंभा,
जिसका न सिर-पैर
ओर-छोर कुछ भी नहीं।
दोनों ने की सलाह
हम पकड़ें दो राह :
ब्रह्मा, तुम हंस बनो,
विष्णु, बनो तुम वराह या सूअर।
खंभा बड़ा ऊँचा था
(एफ़िल टावर या कुतुबमीनार कुछ भई नहीं,
न्यूयार्क के सारे नभचुंबी वास्तु से भी)
और बड़ा गहरा था
(सोने की खान से भी, पनडुब्बी-गोते से)
बहुत यत्न किया
पर पाया नहीं अता-पता।
श्रीमानजी थके : ‘कमला थिर न रहीम कहि…’
धीमानजी थके : ‘त मेधया, न बहुधा श्रुतेन…’
आखिर उस पत्थर-सी अच्छाई के आगे
सिर नँवा
ग्रीवा झुका
बोले : हम बहुत ऊँचे उड़ने से
या कि बहुत गहरे पैठ जाने से
(राकेट से, राडर से) बाज़ आए,
नहीं तुझे पा सके ।
तब वह ‘शिव’-ता हुई
प्रकट उस खंभे से–
बोली यह मैं ही हूँ।
पत्थर जिसे समझे तुम !
(आकार नए-नए इसके बनाओ, प्रिय !
पत्थर-सी जड़ीभूत यह जनता।)
तबसे यह तमिल कवि शैव ऊपरस्वामी
हाथ में लिए छेनी-सी खुरपी
प्रतीक्षा में खड़े हैं, मूर्तिमंत !
रचना न श्रीमान, धीमान की खेला
रचना करती उन हंसों की अवहेला
(बोर्जुआ, हाथीदाँत मीनार वालों की कल्पनाएँ सूक्ष्मकेश)
रचना ने सूअरों को भी दूर है ठेला
(विलासी, पंकरत, सेक्स-चटपटे लेखकों श्री अभिनिवेश)
रचना तो उसकी हुई
जो कि जड़ता से आजीवन जूझा, विनम्र, निर्निमेष, अकेला।
रचना ही लिंग देह, रचना ही कामारि।


Original Image: Brahma Vishnuand Shiva within an OM in a Mahabharata manuscript from 1795
Image Source: Wikimedia Commons
Image in Public Domain
This is a Modified version of the Original Artwork

प्रभाकर माचवे द्वारा भी