आम
- 1 July, 1953
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- 1 July, 1953
आम
संस्कृत के एक कवि ने आमवृक्ष को संबोधित कर के कहा है कि हे रसाल ! न तो कोंहड़े के फल के समान तुम्हारे फल होते हैं, न तो बड़-पीपल की तरह तुम्हारी ऊँचाई होती है, न केले के पत्ते के समान तुम्हारे पत्ते होते हैं और न केवड़े के फूल के समान तुम्हारे फूल होते हैं। फिर भी तुम्हारे फूल और फल में कुछ ऐसी खूबी है कि और वृक्षों को छोड़कर संसार तुम्हारे ही गुणों की प्रशंसा करता है। सचमुच ही आम में कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जिनके कारण हम उसे पेड़ों का राजा कह सकते हैं। स्वर्ग के कल्पित कल्पवृक्ष के बाद उद्भिज वर्ग में आम का ही स्थान है। जन-श्रुति है कि पहले आम पृथ्वी पर नहीं था। इंद्र को जीतकर रावण इसे स्वर्ग से ले आया। हमें इस बात का गर्व है कि हमारे ही देश की मिट्टी पृथ्वी पर स्वर्ग के इस वृक्ष का जन्मस्थान बनी।
आम उष्ण-देशीय वृक्ष है। शीत-प्रधान देशों में वह नहीं होता। लोनी मिट्टी में वह तेजी से बढ़ता है। इसके अलावे खुश्क और कँकरीली जमीन में भी वह उपजता है। हिमालय पर जंगल में आम आप-ही-आप उपजता है। ऐसे जंगली आम को कोशांभ या कोभाम्र कहते हैं। इनके पत्ते और फूल छोटे होते हैं। छोटानागपुर और दक्षिए भारत में भी आम जंगली पेड़ों की तरह स्वयं उपजता था, पर अब तो हर जगह उसके पौधे लगाए जाते हैं। भारत के अतिरिक्त बर्मा, हिंद-चीन और मलयद्वीप में भी आम होता है।
शायद ही किसी पेड़ का ऐतिहासिक पृष्ठाधार इतना समृद्ध हो जितना आम का है। आम का चिरकालीन ममत्व हमारे यहाँ के अनेक स्थानों के नामकरण में उतर आया है। मेघदूत के आम्रकूट से लेकर आज के अमनौर, अमावाँ, आदि जैसे सैकड़ों नामों में आप इसका प्रमाण पा सकते हैं। हमारे भौतिक जीवन के समान ही आम हमारे सांस्कृतिक जीवन का भी अंग बन गया है। हमारे साहित्य, हमारी लोकवार्ताओं और हमारे धार्मिक रीति-रिवाजों से आम का घनिष्ठ संबंध जुड़ा हुआ है। वसंत पंचमी के दिन प्रसाद के साथ आम की मोजर भी चढ़ाई जाती है और खाई जाती है। यह नवाम्रखादनिका वसंतोत्सव के सिलसिले में काव्यग्रंथों में भी वर्णित है। आम्रपल्लव धूप, दीप, नैवेद्य के समान ही हमारे यहाँ की एक आवश्यक पूजा-सामग्री है। किसी भी पूजा के पहले जो कलशस्थापन किया जाता है, उसमें ‘अंबेऽम्बिकेऽम्बालिके न मानयति कंचन। ससस्त्यश्वक: सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीम्’ इस मंत्र से कलश में आम का पल्लव देना आवश्यक विधान माना गया है। देवताओं के प्रीत्यर्थ हवन के लिए आम की लकड़ी पवित्र मानी जाती है। मंडपकरण के लिए जो बंदरवार बाँधा जाता है, उसमें अम्रपल्लव का ही उपयोग किया जाता है। विवाहादि उत्सवों के अवसर पर डोरी में पिरोकर आम के नए पत्तों की झालर आँगन में और घर के दरवाजों पर लटका दी जाती है। वह बड़ी सुहावनी लगती है। आम्रपल्लव मंगल और शांति का सूचक है। स्वयं भगवान् बुद्ध को उपहार रूप में आम्रकानन दिया गया था, जिससे उसकी उदार छाया में वे विश्रांति प्राप्त कर सकें। इस प्रसंग में आम्र-शब्द का उच्चारण हमें बौद्ध युग की आम्रपाली या अंबपाली की याद दिलाकर अपने देश के उस वैभवपूर्ण अतीत के मनोहर स्वप्नलोक में पहुँचा देता है। अंबपाली मानो हमारे यहाँ के आम्रवनों की शोभा, सुषमा, सम्मोहन की अधिष्ठात्री देवी, उनकी अंतरात्मा हो।
आम्रवृक्ष धर्म, अर्थ और काम–इन तीनों का साधक त्रिवर्गफलदायक है। आर्थिक दृष्टि से जितना उसका उपयोग है उतना शायद ही किसी और वृक्ष का हो। पहले आम के फल को ही लीजिए। जैसे ही टिकोरे निकले कि चटनी की बढ़िया से बढ़िया सामग्री मिल गई। मेष संक्रांति के दिन, जिस हमारे यहाँ ‘सतुआन’ कहा जाता है, नवान्न सत्तू के साथ आम के टिकोरे की चटनी खाने की प्रथा है। उसमें ज़रा पुदीना मिला दीजिए तो फिर और मज़ा आ जाए। चाहिए तो नमक-मिर्च मिलाकर टिकोरों का कचूमर बना लीजिए। खट-मिट्ठी खाने का मन हो तो अमियों को उबालकर और गुड़ या चीनी की चासनी में डालकर गुड़ंबा बना लीजिए। फलों में जब आँठी आ जाए तो तेल या सिरके में डालकर तरह-तरह के अँचार बनवाइए। अच्छे आमों का मुरब्बा भी बनता है। जी चाहे तो छिलके के साथ धूप में सुखाकर खटाई या अमचूर तैयार कर लीजिए और शाक, दाल आदि में डालकर शौक से खाइए। आम के फल जब पक जाएँ तब तो फिर क्या कहना है ! रस पीजिए, गूदा खाइए। कतरन काटकर खाइए या चूस-चूसकर मज़ा लीजिए। आम को चूसकर खाने की प्रक्रिया को बोलचाल की भाषा में ‘चाभना’ कहते हैं। हिंदी कोशों में चाभने या चाबने का अर्थ चबाना दिया गया है। पर चाभने और चबाने में बहुत अंतर है, हालाँकि दोनों ही शब्द संस्कृत के चर्वण शब्द से ही निकले हैं। ‘चाभने’ की क्रिया में दाँत, जीभ, ओठ, तालु और प्राय: दोनों हाथों का भी प्रयोग करना पड़ता है। इस प्रकार इन सभी इंद्रियों के सहारे आम चाभ लेने के बाद उसकी गुठली का रसास्वादन किया जाता है। इस व्यापार में जो आनंद आता है, उसे तो, मत कुछ पूछिए, बस, ब्रह्मानंद-सहोदर ही समझना चाहिए ! यही एक दृष्टांत है, जिसमें मनुष्य अपनी थूक को भी मजे से चाटता है। एक बार नहीं, बार-बार मुँह से बाहर निकालता है और भीतर ले जाता है। बार-बार उगलता है और निगलता है। कुत्ता जैसे स्वयं क्षत-विक्षत होकर भी हड्डी चबाने में नहीं थकता, विषयी जैसे बार-बार विषयों में प्रवृत्त होकर भी नहीं तृप्त होता, वैसे ही बार-बार गुठली चूसकर भी आदमी नहीं अघाता। रस में उन्मंजन-निमंजन का यह व्यापार आम को छोड़कर और किसी भोज्य पदार्थ में असंभव है।
भगवान् मनु ने बड़े गर्व के साथ लिखा है कि हमारे ही अग्रजन्म पूर्वजों से पृथ्वी के सब लोगों ने अपने-अपने चरित्र की शिक्षा ली। आज अपने देश की दीनता की दशा में हमारे जगद्गुरुत्व का यह दावा और किसी विषय में ठीक हो या न हो, पर आम खाने और खास कर चाभने के विषय में तो बावन तोले पावरत्ती ठीक है। अभी उस दिन मेरे एक अँग्रेज मित्र आम खाने बैठे। मेज पर आम रखे हुए थे। आम खाने की प्रक्रिया के संबंध में उन्हें पहले ही एक लंबे प्रवचन से सब कुछ बता चुका था। पर जब सचमुच खाने लगे तो, क्या बताऊँ, ठीक वही दशा हुई जो बाल गोपाल लोगों की होती है जब कि वे दही, राबड़ी, मलाई जैसी कोई तरल चीज या आम खाने लगते हैं। ‘कछुक खात कछु धरनि गिरावत कछु मुखलेप किए !’ साहब बहादुर की भी वही हालत हुई। कुछ रस मूँछ में लगा, कुछ ओठ और कुछ दाढ़ी, कुछ टाई और कोट पर गिरा और कुछ पतलून पर। बड़ी विचित्र छवि थी ! स्फटिकवत् गौर मुख पर आम के पीले-पीले रस का लेप ऐसा जान पड़ता था जैसे हिमराशि से प्रात:काल की धूप लिपट रही हो। उन्हें फिर प्रयोगात्मक-प्रणाली से आम खाने और चाभने की प्रक्रिया बताई। तो भी वे सफलता के साथ नहीं सीख सके, नहीं सीख सके। हम भारतवर्ष के निवासी तो चाभने की क्रिया में इतने दक्ष हैं कि क्या मजाल कि एक बूँद भी मुँह के बाहर इधर-उधर गिर सके ! किसी भी दूसरे देश का निवासी इतनी सफाई के साथ आम नहीं चाभ सकता है ! अतएव इस विषय में हमारा जगद्गुरुत्व स्वत: सिद्ध है !
आम के मौसम में जब आम अच्छा फलता है तब उत्तर बिहार, खासकर मुजफ्फरपुर और दरभंगा जिले के देहातों में वह बहुत से लोगों का मुख्य भोजन बन जाता है। आम का रस सद्य: बलकारक होता है। लोकोक्ति है कि पके आम की रसी खाई न खाई देहे घसी। आम के रस को पत्ते पर पर्त गारकर और सुखाकर अमावट बना लिया जाता है जो बहुत दिनों तक रह जाता है। आम का रस चूस या गार लेने के बाद उसकी गुठली बेकार हो जाय, ऐसी बात नहीं है। मसल मशहूर है कि आम का आम और गुठली का दाम। गुठली को आग में भूनकर और फोड़कर उसके भीतर के बीज को खाया जाता है। उसे चूर्ण करके रोटी भी बनाई जाती है। कोंकण प्रदेश में जब तक धान नहीं उपजता तब तक गरमी और बरसात में बहुतेरे गरीबों का निर्वाह आम की गुठलियों से ही होता है, आम की तिजारत से बहुतों की जीविका चलती है। जहाहों द्वारा देश के बाहर भी आम भेजे जाते हैं। बाहर भेजने के लिए एक तरकीब यह है कि आम के मुँह को पहले मोम से बंद कर दिया जाता है। फिर टिन में मधु भरकर उसमें आम को डुबो देते हैं। टिन को ठिकाने से बंद कर दिया जाता है। इस तरह के चलानी आम विदेशों में बड़े स्वाद से खाए जाते हैं। पर सच पूँछें तो उनमें वह स्वाद नहीं होता जो ताजे आम में होता है।
अब तो हवाई जहाज से ताजे आम भी विदेशों में भेजे जा सकते हैं। अभी हाल में हमारे प्रधान मंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू इंगलिस्तान की महारानी एलिजाबेथ के अभिषेकोत्सव के अवसर पर जब लंदन गए थे तो उनसे यह जानकर कि उन बेचारों ने अब तक जीवन में कभी आम नहीं चखा था, फौरन हवाई जहाज से अपने यहाँ से निहायत उम्दे आम मँगवाकर उपहार-स्वरूप उन्हें दिए थे। हमारा विश्वास है कि भारतीय आमों के प्रथम रसास्वादन से उनके जीवन में अपूर्व सरसता का संचार हुआ होगा।
आम के कोमल पल्लव देखने में तो सुंदर लगते ही हैं। उन्हें तोड़कर पकौड़ी भी बनाई जाती है। आम के दिन बीत जाने पर भी पेड़ों में लगे हुए आम के पत्ते थके-माँदे बटोहियों को छाया प्रदान करके उनका श्रम हरते हैं। आम की लकड़ी यद्यपि बहुत मजबूत नहीं होती तो भी सागवान, शीशम आदि से बहुत कम खर्च में उससे चौकी, चौखट, किवाड़, अलमारी आदि बहुत-सी सस्ती चीज़ें बनती हैं। आम के पेड़ की छाल का चूर्ण नींबू के रस या तेल में मिलाकर लगाने से चर्म रोग में लाभ होता है। आम की छाल और पत्ते से पीला रंग तैयार किया जाता है। जानवरों को आम के पत्ते खिलाकर उनके पेशाब से प्योंरी रंग बनाया जाता है ! इस तरह आम के सभी भाग, सभी अंग सभी अवस्थाओं में हमारे जीवन के लिए परम उपयोगी और सुखदायक सिद्ध होते हैं।
आम के पेड़ दो तरह से उत्पन्न होते हैं। एक तो बीज से, जिन्हें बीजू कहते हैं और दूसरे कलम से, जिन्हें कलमी कहते हैं। कलमी आम तैयार करने के लिए पहले किसी जगह अच्छी मिट्टी और हड्डी की खाद डालकर बीज बो देते हैं। पौधा तैयार हो जाने पर अच्छे आम की डाल पर चढ़ा कर उसे बाँध दिया जाता है। दोनों जब मिल जाते हैं तो पौधे को निकाल लेते हैं। उसमें साथवाले आम का गुण खिंच आता है। संस्कृत में आम का सहकार नाम संभवत: इसी गुण के कारण पड़ा है ।
बीजू आम के पेड़ आकार में अक्सर बड़े और घने होते हैं। कलमी या मालदह आम के पेड़े अपेक्षाकृत छोटे होते हैं, पर उनके फल बीजू आम की अपेक्षा बड़े होते हैं। चूसकर खानेलायक तो बीजू आम ही होता है। मीठा बीजू आम वातपित्त-नाशक, बलकारक, हल्का और ठंढा होता है। कलमी आम गूदादार और अधिक स्वादिष्ट होता है, पर पचने में बीजू से भारी होता है। विटामिन तो आम में खूब होता है। पर बहुत अधिक आम खाने से अपच का डर रहता है। अति तो सर्वत्र वर्जित है ही।
पेड़े पर ही पक कर चू पड़नेवाले आम को टपका कहते हैं और भूसे, पैरे, अनाज या पत्तों में दबाकर पकाए हुए आम को पाल का आम या पाल का लड़ुआ कहते हैं। आम नाना रूप-रंग–गोले, चिपटे, लंबे, छोटे, बड़े, हरे, पीले, लाल आदि–और नाना भेद होते हैं। तदनुसार उनके स्वाद में भी अंतर होता है। मालदह या राजाम्र, बंबैया, लंगड़ा, अलफोन्सो, मिठुआ, सफेदा, दशहरी, हिमसागर, कृष्णभोग, पायरी, हापुस, फजली, बेगमफुली, गुलाबखस, सवैया, सुफुल, सेंदुरिया, तोतापरी, सुगिया, सिपिया आदि आम के मुख्य भेद हैं। यों तो सैकड़ों भेद गिनाए जा सकते हैं। बड़ा से बड़ा आम दो-ढाई सेर का होता है और छोटा-से-छोटा आम तोले भर का। सुगिया आम सुग्गे के ठोर के आकार का होता है और सिपिया सीप की तरह। सिंदूरिया आम का रंग लाल सिंदूर की तरह होता है। हाजीपुर का मिठुआ तथा लखनऊ का सुफेदा और दशहरी आम इतना सुगंधमय होता है कि खाने को कौन कहे, दूर से सूंघकर ही चित्त प्रसन्न हो जाता है। आम्र या अम्र शब्द की व्युत्पत्ति है अम्यते सौरभात् दूरात् ज्ञायते इति अमू+रक् अर्थात जो सुवास के द्वारा दूर से ही मालूम हो जाए। तो ऐसे आम आक्षरश: इस व्युत्पत्ति को सार्थक करते हैं।
कुछ आमों के नाम से जान पड़ता है कि मुगल राज्यकाल में कलम लगाकर वे नए प्रकार के आम तैयार किए गए थे। अकबर ने दरभंगे के निकट एक लाख आम के पेड़ लगवाकर ‘लाख बाग’ तैयार करवाया था।
अपने देश से बाहर की दुनिया का ध्यान आम की ओर सबसे पहले संभवत: प्रसिद्ध चीनी यात्री हुएनसांग ने ही आकर्षित किया था। बीज को सुरक्षित रखने की कठिनाई के कारण पश्चिम में आम का प्रवेश 1700 ई. के पहले नहीं हो सका था। सबसे पहले ब्रेजिल में आम रोपा गया। वहाँ से लेकर लोगों ने 1740 ई. के लगभग वेस्ट इंडीज में आम के पौधे लगाए। 1727 ई. में हैमिल्टन ने गोआ के आम की तारीफ़ में लिखा था कि वह दुनिया भर के फलों में सबसे अधिक स्वादिष्ट और स्वास्थ्यकर है। 1889 ई. में अमेरिका के कृषि-विभाग ने हमारे यहाँ से मलगोबा आम लेजाकर फ्लॉरिडा में रोपा। उसके बाद पचासों किस्म के और बढ़िया-बढ़िया आम वहाँ लोग ले गए और लगाए। उनमें स्वाद की दृष्टि से सबसे अच्छे उतरे मलगोबा, अमीमी और पयरी। अब तो दक्षिणी प्लॉरिडा में आम का एक अच्छा छोटा-मोटा व्यवसाय जम गया है। आम के लिए लैटिन भाषा में mangifera indica, अँग्रेजी और स्पैनिश भाषा में mango और पुर्तगाली में manga शब्द प्रचलित हैं। ये सभी शब्द तामिल मामर या ‘मांके’ शब्द से व्युत्पन्न हैं। इस प्रकार विदेशों में भी जाकर आम मानो हमारी ही भाषा और देश के यश का गीत गा रहा हो। ‘जहाँ-जहाँ जैहों तहाँ तेरो जस गाइहौं।’
इस विशाल विश्व में वह कौन है जो आम के प्रलोभन से बच सके। गोस्वामी तुलसीदास जी का यह चौपाई प्रसिद्ध है–
सियाराममय सबजगजानी ।
करौं प्रणाम जोरि जुग पानी ।।
अर्थात् यह सब जगजानी यानी हरी-भरी गजानी वा हथिनी के समान विशाल सृष्टि सियार और आममय है। सारांश यह कि यह सारा संसार एक दृष्टि से आममय है और उसमें सियार लोग भरे हुए हैं, जो बराबर इसी ताक में रहते हैं कि कब ऊपर से आम टपके और हम ले भागें ! संसार के सारे आम, समस्त भोग्य विषय, समस्त रस ऐसे सियार लोगों के द्वारा ही लूट लिए जाते हैं। इसलिए गोसाईं जी का कहना है कि यदि आज ऐसे धूर्त्त सियार लोगों से आम की रक्षा करना चाहते हैं और स्वयं उनका रस लेना चाहते हैं तो यह आवश्यक है कि जुग पानी यानी दोनों हाथों में जोरि यानी रस्सी लेकर उन्हें प्रणाम करें अर्थात् ऐसे-ऐसे स्वार्थ लोलुप सियार लोगों को अपने बुद्धि-बल से फँसकर ही आप इस दुनिया के आमों को, रसों को, सुखों को स्वत: प्राप्त कर सकते हैं। इस नए अर्थ में ‘सियार’ और ‘आम’ की यह नई व्याख्या अपने पुण्यस्मृति गुरु स्वर्गीय पंडित रामावतार शर्मा जी से मैंने सीखी थी। इस अर्थ की पुष्टि संस्कृत की इस सूक्ति से भी होती है–‘वीरभोग्या वसुंधरा।’ इसलिए जो अयोग्य हैं, संसार के सियारों को वश में करने में अक्षम हैं, उन्हें आम्ररस तो नहीं मिल सकता !
देश-विदेश के बड़े-बड़े राजे-महाराजे, रानियाँ-महारानियाँ आम के लिए लालायित रहा करते हैं। इस सबज गजानी-रूप सृष्टि के सियार और आममय द्वंद्वात्मक मायाप्रपंच से विमुक्त केवल वे थोड़े से कल्पतरु के वंदनीय निवासी, अव्यय कला-विलासी जन हैं, जिनके लिए शिव के सामने काम के समान आम सर्वथा विफल है। केवल वे ही हैं जो निर्लिप्त भाव से रसाल के रसगर्व को खर्व करते हुए खुलकर कह सकते हैं–
होइले रसाल ! तू भले ही जगजीव काज,
आसी ना तिहारे ये निवासी कल्पतरु के ।
किंतु किसी कल्पना-कलित, स्वप्निल, स्वर्णिल स्वप्न के निवासी महापतितों के लिए यह भले ही संभव हो, इस कठोर पृथ्वी पर बसने वाले हम साधारण जनों के लिए हमारा यह छायाप्रद, फलप्रद रसाल ही प्रत्यक्ष कल्पतरु है !
और सच पूछें तो हमारे रसाल को स्वयं रस का अहंकार हो ही क्यों कर ? वह तो अपने फल के भार से ही सदा झुका हुआ है । ‘भवन्ति नम्रा: तरव: फलोद्गमै:–’ यह उक्ति फलभार से अवनत आम पर जैसी ठीक बैठती है वैसी और किस वृक्ष पर ?
अत: जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, केवल अर्थ की ही दृष्टि से नहीं, धर्म और काम की दृष्टि से भी आम हमारे प्राणों में बसा हुआ है। आम के लिए संस्कृत में वसंतदूत, माधवद्रम, मध्वावास, मोदारक, कोकिलोत्सिव, कोकिलावास, पिकप्रिय, अलिप्रिय, कामवल्ल, मन्मथालय, कामशर आदि नाम व्यवहत हैं। ये सभी शब्द यथा नाम तथा गुण: के उदाहरण हैं। वसंत ऋतु में जब आम में मंजरी निकल आती है, जब कुंद और अरविंद को छोड़कर बौर की गंध से अंध बने बौराए मधुलंपट भौंरों की भीड़ मधुर-मधुर गंजार करती हुई उस पर मँडराने लगती हैं, जब उसके परिमल से व्याप्त मंथर मलयवायु उसकी ठंढी छाँह में घड़ीक विश्राम-सी करने लगती है और जब उसकी डाल पर बैठा हुआ कोकिल पंचम स्वर में कूक उठता है, उस समय की मुनियों के मन को भी डुला देने वाली उद्दीपक, मादक, मोहक छवि का हमारे साहित्य में विशद विवरण है। हमारे लोकवार्ता-साहित्य में भी ‘अमवा’ की डालपर कूकती हुई ‘कोइलिया’ की बोली की मिठास घुली हुई है। कामदेव के पंचबाणों में आम्रमंजरी का प्रभाव सबसे प्रखर माना गया है। प्राचीन ग्रंथों में वर्णन है कि वसंत में आम के साथ माध्वीलता के विवाह का उत्सव मनाया जाता था। अतिमुक्त पल्लविता लता के भार को सानंद वहन करने में एकमात्र समर्थ आम्रवृक्ष स्वयं स्त्रीप्रिय बताया गया है। संभवत: इसलिए कि प्राचीन काव्य परंपरा के अनुसार प्रियगु जैसे प्रमदाओं के स्पर्श से, वकुल जैसे उनके कुल्ले के पानी से, अशोक जैसे उनके बायें चरण के आघात से खिल उठता है वैसे ही साहित्य की वाटिका में आम्रवृक्ष के लिए भी और कोई खाद नहीं चाहिए। वह युवतियों के मुँह की हवा लगने से ही खिल उठता है। और वैसे ही रसाल आम्रवृक्ष के तले ‘रसो वै स:’ ‘रसो वै स:’ कहता हुआ हमारा मन भी खिल उठता है।
Original Image: Still life with mangoes
Image Source: WikiArt
Artist: Paul Gauguin
Image in Public Domain
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