बाबूजी की बातें बाबूजी की यादें

बाबूजी की बातें बाबूजी की यादें

प्रसिद्ध समालोचक, कोशकार, संपादक एवं अध्यापक प्रो. गोपाल राय का जन्म बिहार के बक्सर जिले के चुन्नी नामक गाँव में हुआ। उनकी आरंभिक शिक्षा बक्सर में हुई, किंतु उच्चत्तर शिक्षा पटना विश्वविद्यालय में पूरी हुई। शिक्षा समाप्ति के बाद 21 फरवरी, 1957 ई. को पटना कॉलेज से अध्यापन की उनकी यात्रा शुरू हुई। 4 दिसंबर, 1992 को प्रोफेसर एवं हिंदी विभागाध्यक्ष के रूप में उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से अवकाश ग्रहण किया। प्रो. गोपाल राय मुख्यतः अनुसंधानकर्ता थे। आरंभिक वर्षों में ही अपनी खोज से यह स्थापित किया कि हिंदी का पहला उपन्यास पं. गौरीदत्त कृत्त ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ (1870) है, जबकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल श्रीनिवास दास के ‘परीक्षा गुरु (1882) को हिंदी का पहला उपन्यास मानते थे। आज उनकी ही मान्यता लगभग सर्वमान्य है। कथालोचना में दर्जनाधिक पुस्तकों की रचना उन्होंने की, जिनमें प्रमुख हैं- ‘हिंदी उपन्यास का इतिहास’, ‘हिंदी कथा साहित्य और उसके विकास पर पाठकों की रूचि का प्रभाव’ (1966), ‘हिंदी उपन्यास कोश:खंड-1’ (1968), ‘हिंदी उपन्यास कोशः खंण्ड-2’ (1969), ‘उपन्यास का शिल्प’ (1973), ‘अज्ञेय और उनका उपन्यास’ (1975), ‘हिंदी भाषा का विकास’ (1995), ‘हिंदी उपन्यास का इतिहास’ (2002), ‘उपन्यास की संरचना’ (2005), ‘हिंदी कहानी का इतिहास खण्ड-1’(2008), ‘हिंदी कहानी का इतिहास खण्ड-2’ (2011), ‘हिंदी कहानी का इतिहास खण्ड-3’ (2014) आदि। अनेक पुस्तकों का संपादन भी उन्होंने किया जिनमें पं. गौरीदत्त कृत्त ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ (1966), ‘हिंदी साहित्याब्द कोश: 1967-80, ‘राष्ट्रकवि दिनकर’ (1975) आदि प्रमुख हैं। प्रो. गोपाल राय ने 1967 से पुस्तक-समीक्षा केंद्रित मासिक पत्रिका ‘समीक्षा’ का संपादन-प्रकाशन आरंभ किया, जो अब तक अविराम छप रही है। ‘समीक्षा’ का संपादन अब उनके पुत्र डॉ. सत्यकाम करते हैं। इन दिनों प्रो. राय ‘हिंदी के साहित्येतिहास का पुनर्लेखन’ प्रोजेक्ट पर कार्य कर रहे थे, जो उनके असामयिक निधन के कारण पूरा नहीं हो पाया। इसी तरह वे ‘हिंदी आलोचना का इतिहास’ भी लिखना चाहते थे और निधन-पूर्व उसी में सक्रिय थे।

एक सामान्य किसान परिवार में जन्म लेने के बावजूद अपनी साहित्य-साधना से वे जिस शिखर तक पहुँचे, उस पर पूरे साहित्य-जगत को गर्व है। उनके निधन के बाद ‘नई धारा’ के अनुरोध पर उनके लेखक-पुत्र डॉ. सत्यकेतु सांकृत एवं उनकी पत्नी रागिनी सांकृत ने उन पर जो संस्मरण लिखे, उन्हें यहाँ हम श्रद्धांजलि के रूप में ससम्मान प्रकाशित कर रहे हैं-संपादक

प्रेमचंद की यह उक्ति कि बुढ़ापा बचपन की पुनरावृत्ति होती है, को मैं बाबूजी ;स्वर्गीय प्रो. गोपाल राय के अंतिम दिनों में उनमें ही शब्दशः चरितार्थ होते हुए देखी हूँ। कहने को तो इतने बड़े विद्वान, आलोचक, साहित्यकार और पता नहीं क्या-क्या, पर मैंने तो उनमें एक पिता के साथ-साथ एक अशक्त, बीमार, 83 साल के उस वृद्ध शिशु (बाल गोपाल) का दीदार किया है जो अपने हठ में किसी बच्चे से कम नहीं थे। कैंसर के बाद से बाबूजी धीरे धीरे कमजोर होते जा रहे थे। उनकी यह कमजोरी धीरे धीरे लाचारी और फिर पराश्रित वाली स्थिति में आकर एकदम से कैसे बालहठ में बदल गई इसकी मैं साक्षी रही हूँ। बाबूजी का खीझना, रूठना, जिद्द करना, अपनी बात मनवाने के लिए तरह-तरह की चेष्टाएँ करना, ये सारी बातें जिसे मैं अपनें दोनों बच्चों में देख चुकी थी पता नहीं कहाँ से बाबूजी में घर कर गई थी। पिछले कुछ दिनों से बाबूजी में भोजन के प्रति भी अरूचि सी पैदा होने लगी थी। बाबूजी की देखभाल के लिए जो नर्सिंग स्टाफ रखा गया था वो बार-बार इस बात की शिकायत करता था कि बाबूजी न केवल खाना खाने में ही आनाकानी करते थे बल्कि दवा से भी परहेज करने लगे थे। बाबूजी को प्रति दिन होमियोपेथी के अलावा एलोपेथी की दस दवाइयाँ खानी पड़ती थी। इसके लिए उनका भोजन करना बहुत जरूरी था। मैं नित्य बाबूजी की रुचि के अनुसार उनसे पूछ कर ही भोजन बनाने लगी। मुझे याद है पटना में भी सदा भोजन बाबूजी के अनुसार ही बना करता था। भोजन न केवल बनता था बल्कि इस बात का इंतजार भी किया जाता था कि बाबूजी कब घर लौटें कि भोजन का कार्यक्रम शुरू हो। मैंने सुना था कि यह माँ के समय से ही बनाया गया क्रम था जो अबतक बदस्तूर जारी था। वही क्रम मैंने दिल्ली में अपने द्वारका वाले निवास स्थान पर भी शुरू किया। पहले बाबूजी का भोजन फिर किसी का। पर अब इतने से भी काम नहीं चलने वाला था। उन्हें भोजन कराना अब आसान नहीं था। उसके लिए मैं तरह-तरह के उपक्रम करने लगी। अब बाबूजी को नाश्ता खाना इत्यादि का जिम्मा मैंने अपने हाथें में ले लिया। अब उन्हें मैं अपने हाथ से ही खाना खिलाने लगी। मैं महसूस कर रही थी कि वे इन दिनों खाना खा नहीं रहे थे बल्कि निगल रहे थे। पर मैं जब उन्हे खाना खिलाती थी तो वे कभी अनाकानी नहीं करते और जब कुछ करते भी थे तो मैं उन्हें उनके प्रियजनों के कौर की बात कहकर अपना काम पूर्ण कर लेती थी।

मेरे पास एक ब्रह्मास्त्र आजी कौर का भी था। कभी-कभी जब मैं सारे कौरों के बाद भी बाबूजी को भोजन नहीं करा पाती थी तब इसका इस्तेमाल करती थी। यह कौर तो बाबूजी ना करने पर भी मना नहीं कर पाते थे। भला वे मना करते भी तो कैसे? वे तो अपनी माँ को अपना गुरू भी मानते थे और उन्होंने अपने गुरू की अवहेलना कभी नहीं की। बाबूजी अकसर कहते थे कि अगर आजी नहीं होतीं तो वे उस मुकाम तक कभी नहीं पहुंच पाते जहाँ वे तमाम अवरोधों के बावजूद पहुंचे थे। बाबूजी के लिए आजी कितनी अहम थीं और वे उनका कितना प्रेमजनित सम्मान करते थे मैं इससे भली-भाँति परिचित थी। बाबूजी के इस कमजोर पक्ष का मैंने उन्हें फुसलाकर खिलानें में खूब इस्तेमाल किया। बाबूजी अब बिलकुल उस बच्चे की तरह हो गए थे जिसे हर पल निगरानी की आवश्यकता होती है। एक बहू होने के नाते मैं तो किंकर्तव्यविमूढ़ की अवस्था में आ गई थी। पर मैं भी बाबूजी की सेवा के लिए कृतसंकल्प थी। निश्चय कर लिया कि अब उनकी सेवा के लिए मुझे जिस रूप को भी धारण करना पड़े उसे स्वीकार करूँगीं। जिन्हें अबतक मैं स्वसुर के रूप में सम्मान और इज्जत से देखा करती थी, उन्हें ही उनकी बालकोचित हरकतों के कारण अब स्नेह करने लगी थी। बाबूजी के नित्यकर्म या रात में जब गीला डायपरादि बदलने में उनकी सहायता करती तो वे परिहास की मुद्रा में कह उठते माँ जवान और बच्चा बूढ़ा। मैं उनकी झिझक को मिटानें के लिए कह उठती प्रभु ने एक महान साहित्यकार को मुझे तीसरे बच्चे के रूप में प्रदान किया है। पता नही क्यों बाबूजी मुझे कुछ दिनों से माँ कहकर भी बुलाने लगे थे। जब भी मैं उन्हें उनकी मँझली बहू होने की याद दिलाती तो कह उठते तुम बहू नहीं मेरी माँ हो। इतना वात्सल्य एक माँ में ही हो सकता है। वे मुझसे हमेशा कहा करते थे कि मैं तुम्हारी सेवा से कैसे ऋण मुक्त हो पाऊंगा। मैं कहती जब कोई ऋण ही नहीं है तो फिर मुक्ति किससे। बाबूजी कहते अच्छा ऋण मुक्त कर दिया! फिर मुझसे नित्य की तरह गीता का पाठ सुनते हुए निश्चिंत होकर सो जाते थे।

मुझे इस बात का अहसास था कि मैं बाबूजी की परवरिश नहीं बल्कि उनकी सेवा कर रही हूँ। बाबूजी अक्सर अपनी लेखनी के बंद होने और पारिवारिक अनिश्चितता को लेकर चिंतित दिखाई पड़ते थे। मैं उन्हें समझाती कि अब आप पारिवारिक झंझटों से मुक्त होकर भगवान से नेह लगाइए क्योंकि आप वानप्रस्थोंन्मुखी हैं। बाबूजी बड़ी झुंझलाहट के साथ कह उठते, ‘अब तुम सिखलाओगी हमको, विद्वान मैं हूँ कि तुम?’ मैं हँसकर कहती विद्वान तो आप ही हैं इसीलिए तो मैं चाहती हूँ कि आप जल्द से जल्द स्वस्थ हो जाएँ ताकि जो कुछ आपसे सीखना है उसे फटाफट सीखकर मैं भी कुछ बन जाऊँ। बाबूजी कहते पहले तुम अपने उच्चारण की अशुद्धियों को ठीक करो। मेरी जान बूझकर की जाने वाली अशुद्धियो का भी एक रहस्य है। अपनी जीवन यात्रा के अंतिम दिनों में बाबूजी को रात में नींद नहीं आती थी और वे बहुत बेचैन रहा करते थे। उनकी बेचैनी को बहुत कुछ गीतादि के पाठों द्वारा मैं कम करने का प्रयास करती थी। बाबूजी मेरी थपकी के सहारे सो भी जाते थे। बाबूजी सोये हैं या नहीं इसे परखनें के लिए मैं बीच-बीच में उन श्लोकों का जानबूझकर गलत उच्चारण करती थी । बाबूजी जग रहे होते तो तत्काल उसे शुद्ध कर मुझे आगाह कर देते थे। अगर बाबूजी ने उन अशुद्धियों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं जाहिर की तो मैं समझ जाती थी कि बाबूजी से गए। यह क्रम कई दिनों तक निर्बाध चलता रहा पर एक दिन मेरी चोरी पकड़ ली गई। उसके बाद मैं जब भी बाबूजी को सोया समझकर वहाँ से खिसकने का प्रयास करती तो बिलकुल शिशु भाव से बाबूजी कह उठते रागिनी अभी मैं सोया नहीं हूँ।

मैं स्नेहासिक्त हो उठती। समझ गई चोरी पकड़ी गई। अब उन्हें सुलाने के लिए कोई अन्य रास्ता ढूढ़ना पड़ेगा।

पर नियति मानो नेपथ्य से अट्टहास कर रही थी। अब उन्हें सुलाने के लिए फुसलौवल की जरूरत नहीं थी। अब तो वे चिर निद्रा में सोने वाले जो थे। एक रात बाबूजी की तबीयत बिगड़ी। मैं उनको लेकर रॉकलैंड हॉस्पिटल भागी। उनकी चिंताजनक हालत को देखकर आपातकालीन सेवा के तहत उन्हें गहन चिकित्सा केंद्र में भरती किया गया। चिकित्सकों के अथक प्रयास के बावजूद बाबूजी को परलोकवासी होने से नहीं बचाया जा सका। एक सप्ताह तक अस्पताल में रहने के बाद आखिर वे अपनी जिंदगी की जंग हार गए जिस पर आजतक कोई अपना विजय पताका नहीं फहरा पाया है। बाबूजी का पार्थिव शरीर उसी कक्ष में लाकर रखा गया जहाँ मैं उन्हें सुलाने का भरसक प्रयास करती थी। आज बाबूजी सो रहे थे पर मैं रो रही थी। सब रो रहे थे, पूरा हिंदी जगत शोक संतप्त था। सहसा बाबूजी के एक लेख का शीर्षक याद आ गया ‘उड़ गये फुलवा, रह गये वास।’


Original Image: Elisabeth at the Table
Image Source: WikiArt
Artist: August Macke
Image in Public Domain
This is a Modified version of the Original Artwork

रागिनी सांकृत द्वारा भी