मधुकर सिंह की कहानियाँ

मधुकर सिंह की कहानियाँ

किसान, मजदूर, दलित, शोषित, वंचित आमजन के दुख-दर्द को, उनके संघर्ष को अपनी कहानियों का विषय बनाने वाले सुप्रसिद्ध कथाकार मधुकर सिंह की रचनाओं में उनके प्रति गहरी संवेदना है, इसलिए लेखन के साथ ही उन्होंने उन संघर्षों में भागीदारी भी की। मधुकर सिंह का लेखन सामाजिक उद्देश्य का लेखन है। वहाँ गाँवों का जीवन है, उसकी विसंगतियाँ हैं और उससे पार पाने के लिए संघर्ष का आह्वान है।

मधुकर सिंह का जीवन अधिकांश लेखकों की तरह, बल्कि उनसे कुछ ज्यादा ही, अभावों के बीच रहा। धरहारा (आरा) के निवासी मधुकर सिंह का जन्म 2 जनवरी 1934 को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में हुआ, जहाँ उनके पिताजी पुलिस की नौकरी में थे। मधुकर सिंह का लेखन भोजपुरी गीतों से शुरू हुआ। गीतों का संकलन ‘रूक जा बदरा’ नाम से प्रकाशित है। ‘कहानी,’ ‘सारिका,’ ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ समेत देश की लगभग सभी महत्वपूर्ण साहित्यिक, व्यावसायिक पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ प्रकाशित हुई। उनके प्रकाशित कथा संग्रह हैं – ‘पूरा सन्नाटा’, ‘भाई का जख्म’, ‘हरिजन सेवक’, ‘अगनु कापड़, ‘भाई’, ‘माइकल जैक्सन की टोपी’, ‘पाठशाला’, ‘श्रेष्ठ आँचलिक कहानियाँ’, ‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’ आदि। उनके प्रकाशित उपन्यास हैं- ‘सबसे बड़ा छल,’ ‘सीताराम नमस्कार,’ ‘बदनाम,’ ‘बेमतलब जिंदगियाँ,’ ‘आंगन देवी,’ ‘अर्जुन जिंदा है,’ ‘नपुंसक,’ ‘मेरे गाँव की लोग,’ ‘सहदेव राम का इस्तिफा,’ ‘सोनभद्र की राधा,’ ‘आचार्य चाण्क्य,’ ‘बेनीमाधव तिवारी की पतोहू,’ ‘धरमपुर की बहू,’ ‘समकाल,’ ‘जगदीश कभी नहीं मरते,’ ‘कथा कहो कुंती माई,’ ‘नक्सलाइट रामरतन मास्टर,’ आदि। मधुकर सिंह ने नाटक की भी रचना की। भिखारी ठाकुर पर केंद्रित नाटक ‘कुतुब बाजार’ और सामंती-वर्णवादी व्यवस्था के विरूद्ध स्त्री का प्रतिरोध ‘लाखो’ नाटक की काफी चर्चा हुई। मधुकर सिंह ने दर्जनों बाल कहानियाँ और नाटक की रचना की।

‘सन् साठ के बाद की कहानियाँ’ तथा ‘ग्राम जीवन की श्रेष्ठ कहानियाँ’ जैसी पुस्तकों का संपादन किया। अनेक भाषाओं में इनकी कहानियों का अनुवाद हुआ, साथ ही अंग्रेजी, चीनी, जापानी, रूसी भाषाओं में इनकी कहानियाँ अनुवादित हुई। देश के कई विश्वविद्यालयों में इनकी किताबें पाठ्यक्रम में रखी गई हैं। सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, बिहार राष्ट्रभाषा पुरस्कार, बिहार राजभाषा पुरस्कार, नई धारा रचना सम्मान सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से मधुकर सिंह को सम्मानित किया गया है।

मधुकर सिंह को वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था के विरूद्ध एक गहरा असंतोष है, आक्रोश है। यह सब कुछ उनकी रचनाओं में पूरी तरह से आया है। उनकी कहानियों में समाज के सर्वाधिक शोषित-पीड़ित जनता की तस्वीर है। इसके टूटन और पिछड़ेपन को उस कहानीकार ने अपनी पैनी निगाह से परखने की कोशिश की है। इसके पीछे की तमाम साजिशों पर उनकी कड़ी नजर है। वह अपने पात्रों को बेहाथ हुई जा रही व्यवस्था के प्रति सचेत करते हुए मुक्तिकामी बनाता है। वह भारत के नए आदमी के निर्माण की कहानियाँ रचता है।

मधुकर सिंह की रचनाओं से गुजरने पर व्यवस्था के खतरनाक, अमानवीय और घिनौने रूप का पता चलता है और स्पष्ट दिखने लगता है खेतिहर मजदूरों और गरीब किसानों का मोर्चा, मजदूरों की हड़तालें-संघर्ष, विरोध-विद्रोह। वर्ग संघर्ष की जमीन तैयार करने वाले और अपने विपरीत यथार्थ की भूमि पर खड़ा रहने वाले उनके पात्र जहाँ हैं, वे सजग हैं-चेतना संपन्न हैं, इसलिए संघर्ष करते हैं, संघर्ष का नेतृत्व करते हैं। सवर्णों और दलितों का संघर्ष, भूस्वामियों और भूमिहीनों का संघर्ष, छात्रों और शिक्षा व्यवस्था के बीच का संघर्ष उनकी रचनाओं में है। जरूरी नहीं कि वे संघर्षशील शक्तियाँ हर जगह कामयाब ही होती हैं, लेकिन यह सत्य है कि वे प्रतिरोध करती हैं, संघर्ष करती हैं, संघर्ष की भूमि तैयार करती हैं और साथ ही संघर्ष को नाकामयाब करने वालों का असली चेहरा समाज को दिखाती हैं।

मधुकर सिंह की कहानियाँ कहती हैं कि आजादी के बाद जनता के बीच जो उम्मीद बँधी थी, वह पूरी नहीं हुई। बेरोजगारी बढ़ी, आर्थिक-सामाजिक विषमता बढ़ी। रिश्वतखोरों, काला बाजारियों के साथ सत्ता का गठजोड़ हुआ। नेता, नौकरशाह, डॉक्टर, प्रोफेसर, वकील, भूस्वामी, पूँजीपति-यहाँ तक कि पत्रकार-सभी का जनविरोधी चेहरा इसमें दर्ज है। आम जनता इस स्थिति से क्षुब्ध हो आंदोलन कर रहा है और इस जायज प्रतिरोध को दबाने के लिए पुलिस हथियार के साथ खड़ी है।

स्पष्ट है कि मधुकर सिंह ने अपनी कहानियों में निम्न वर्ग के शोषण, उत्पीड़न को उजागर किया है, उन्हें नायकत्व प्रदान किया है। भूमिहीन तबके से आए उनके स्त्री चरित्र सामाजिक-आर्थिक एवं यौन शोषण का प्रतिरोध करते है। उनके पुरुष पात्र स्त्री पात्रों के संघर्ष में सहयोग करते हैं। उनकी कहानियों का संसार गरीब एवं सीमांत किसान की अशिक्षा, कुपोषण, यौन शोषण एवं सामाजिक न्याय के संघर्ष का कथा संसार है। उन्होंने निम्न वर्ग से राजनीति के शिखर पर पहुँचे राजनेताओं की अवसरवादिता एवं उच्च वर्ग के साथ गठबंधन स्थापित करने की चेष्ठा का पर्दाफाश किया है। ‘दुश्मन’ कहानी में दलित वर्ग से आए एक राष्ट्रीय नेता के पूँजीपति एवं सामंत वर्ग के साथ सहयोग को कलात्मक ढंग से उजागर किया है। ‘दुश्मन’ कहानी का दलित नेता दलितों के साथ पाँत में बैठकर माँस-भात खाने से मना कर देता है और स्वयं जनेऊ धारण कर एक पुरोहित के यहाँ भोजन का आमंत्रण स्वीकार करता है। दलित नेता सत्ता में भागीदारी मिलने के बाद अपने शोषित वर्ग को भूल जाता है, जिसने संघर्ष करके उसे ऊपर उठाया। वह उनकी निश्छल भावना तक की परवाह नहीं करता। इसलिए शोषित वर्ग के बीच अमीरी के कुछ टापू जरूर बने, लेकिन उनका समावेशी विकास नहीं हो सका।

मधुकर सिंह की एक कहानी ‘कटहल का पेड़’ इसलिए उल्लेखनीय है कि इसे प्रेमचंद की कहानी ‘सवा सेर गेहूँ’ की कड़ी में रखकर पढ़ा जा सकता है। सामंत जब सूदखोर बन जाता है तो उसकी निष्ठुरता यहुदी शाइलॉक से कम नहीं होती। वह 6 रुपये का 136 रुपए वसूलता है। कथा नायिका अपने पति से कहती है कि ‘कटहल का पेड़ काट डालो ताकि न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी।’ और इस वाक्य के बाद कहानी महाजनी सभ्यता के खिलाफ एक प्रतिरोध चेतना की कहानी बन जाती है। कथा का समकालीन सौंदर्य यह कि प्रतिरोध करने वाली एक ग्रामीण निम्नवर्ग की महिला है। इसमें प्रतिरोध के कई आयाम खुलते हैं। उत्पीड़िता का निम्न वर्ग से आना, उसका ग्रामीण होना, उसका अशिक्षित होना, उसका स्त्री होना महत्वपूर्ण है।

मधुकर सिंह की कहानियों को याद करते हुए कहानी ‘हरिजन सेवक’ याद आती है। इस ‘हरिजन सेवक’ की कथावस्तु में एक छद्म गाँधीवादी शिक्षक का चरित्र उजागर किया गया है। एक शिक्षक के रूप में वह निम्न जाति के विद्यार्थियों का शुभचिंतक होने का परिचय देता है, लेकिन यह एक अद्भुत छद्म है। वह हरिजनों को चारपाई पर बैठने नहीं देता, उनका छुआ पानी नहीं पीता, परंतु उनके सुंदर-सुघड़ बच्चों को दुलारने/सहलाने की कुचेष्टाओं से बाज नहीं आता। लेकिन इस प्रकार का दिखावा/ढोंग करता है जैसे लगता है वह उनके प्रति गहरा स्नेह रखता है। सामंत दलितों की झोपड़ियों में आग लगा देते हैं, लेकिन यह हरिजन सेवक ढोंग करता है कि झोपड़ियों के जलने से वह मर्माहत है। वह महात्मा गाँधी की नकल करते हुए अपना मतलब साधता है। मधुकर सिंह ने स्पष्ट कर दिया है कि समाज के दलित-उत्पीड़ित समुदाय को न तो ‘दुश्मन’ का जगेसर उबार सकता है, न ही ‘हरिजन सेवक’ का मुंशी रामशरण लाल। वास्तव में ये दोनों वर्ग शत्रु हैं। नए, भेद-भाव और विषमता मूलक समाज के शत्रु। ‘लहू पुकारे आदमी’ भी मधुकर सिंह की सशक्त कहानियों की कड़ी में से एक है। यहाँ नगीना मुसहर और भैरव त्रिपाठी की दोस्ती दिखाई गई है। मगर यह दोस्ती पूरे गाँव के आँख की किरकिरी है। सामंती समाज नहीं चाहता कि नगीना मुसहर पढ़-लिखकर उनकी बराबरी करे। वह यह भी नहीं चाहता कि भैरव त्रिपाठी के ब्राह्मणत्व में बट्टा लगाए। यह ग्रामीण समाज न अपना शीर्ष खोना चाहता है, न ही वर्चस्व। इसके लिए वह नगीना को न बड़ा होने देना चाहता है, न ही गोलबंद। कहानीकार ने जाति वर्ण और वर्ग के इस सम्यक संघर्ष को खूब धिक्कारा है। यहाँ वह मानवीय पक्ष को रखने में भी नहीं हिचकता। ‘लहू’ और ‘आदमी’ के प्रतीक समानता की पुकार लगाते नजर आते हैं। मधुकर सिंह की कथादृष्टि की यह बड़ी खासियत है। कई बार लोग आरोप लगाते हैं कि मधुकर सिंह के रचना-संसार में पुनरावृतियाँ दिखती हैं। लेकिन ‘पूरा सन्नाटा’, ‘दुश्मन’, ‘कटहल का पेड़’, ‘सुबल की भैंस’, ‘कवि भुनेसर मास्टर’, ‘भाई का जख्म’ पढ़ते हुए नहीं लगा कि इन कहानियों में कथा प्रसंगों का कोई पुनरावृति दोष है। इनमें से प्रत्येक कहानी की कथा-वस्तु और कथा-प्रसंग एकदम भिन्न है। वैसे मधुकर सिंह ने कहा था- ‘मेरे लेखक मित्र मेरे लेखन पर पुनरावृत्ति का दोष लगाते हैं। मगर मैं क्या करूँ ? मैं जिन परिस्थितियों के बीच घिरा हूँ, उनसे अलग हो पाना अब मेरे वश की बात नहीं है। अब तो मैं अपने पात्रों के संघर्ष में शामिल हूँ। डॉ.. रमेश कुँतल मेघ ने मुझे लिखा भी था- ‘आपकी कहानियाँ जिस आधारभूत वर्ग में पैर जमाए हैं, उससे वे कल की दिशाएँ देंगी। यह मैं अतिशयोक्ति नहीं कर रहा। अलबत्ता आप रिपीट न करें, थीम की विविधता रखें’- मगर यह सब महसूस करते हुए भी मेरी लाचारी है। मैंने तो गुलाब के लिए तरसना भी छोड़ दिया है।’

पुलिस की क्रूरता मधुकर सिंह को बार-बार सालती है। इस संबंध में उन्होंने कहा था – बाबा जेल पुलिस में थे। मैंने देखा है, तब मुश्किल से दस साल का था, बाबा जेल में कैदियों को बड़ी क्रूरता से पीटते थे-मिदनापुर का वह सेंट्रल जेल, जिसके बाहर एक फूसनुमा माटी के घर में मेरा जन्म हुआ था। तभी से पुलिस की क्रूरता आज भी मेरे दिमाग में है। मैंने अपनी कई कहानियों में ‘और अर्जुन जिंदा है’, ‘मेरे गाँव के लोग’, ‘उत्तरगाथा’ जैसे उपन्यासों में पुलिस की क्रूरता की -व्यापक अमानवीयता को उजागर करने की कोशिश की है।

प्रेमचन्द की परंपरा के सशक्त हस्ताक्षर मधुकर सिंह गाँव, किसान, मजदूर, शोषित वंचित, दलित के दुख दर्द, पीड़ा, संघर्ष को केवल कथा में ही नहीं उतारते, बल्कि उनके संघर्ष में भागीदारी करते हैं। अपने लिखे गीत, नाटक के साथ उन गाँवों में जाते हैं, जहाँ संघर्ष हो रहे हैं। उन्होंने खुद कहा था – ‘माटी कहे कुम्हार से, सुबल की भैंस, पहला पाठ, अरे ओ बटोही, सत्ताधारी, पहली मुक्ति, रामविलास भाई, माई, असाढ़ का पहला दिन, कटहल का पेड़ आदि मेरे इर्द-गिर्द चल रही लड़ाइयों की कथाएं हैं। मधुकर सिंह ने जितना कुछ लिखा है, वह कथा साहित्य में उनके अमर होने के लिए काफी है। लगभग 5-6 वर्ष पक्षाघात की पीड़ा झेलने, सुनने की शक्ति खोने के दौरान भी उनकी गजब की जिजीविषा कुछ न कुछ लिखने पर मजबूर करती रही, वे लिखते रहे। अन्य रचनाओं के अलावा ‘नक्सलाइट रामरतन मास्टर’ नाम से उपन्यास भी लिखा जो ‘जनपथ’ के मधुकर सिंह अंक में प्रकाशित हुआ। लेकिन 15 जुलाई, 2013 के अपराह्न 4.30 में उनका निधन हो गया। उनका निधन साहित्य जगत के लिए बहुत बड़ी क्षति है। वैसे उनकी लिखी रचनाएँ भविष्य में भी हमें दिशा देती रहेंगी।


Original Image: Plowing in the Nivernais
Image Source: WikiArt
Artist: Rosa Bonheur
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