कहानी लिखने की वजह

कहानी लिखने की वजह

कहानीकारों की चिंता के सरोकार ही कहानी लिखने की वजह बनते हैं। वजह एक नहीं अनेक हैं, किंतु आज आपसे जिस वजह की चर्चा करूँगा वह यह नहीं है कि कहानी मानवता की रक्षा के लिए लिखी जाती रही है, अपने समय और समाज में कम होती मानवीय संवेदनाओं की रक्षा के लिए लिखी जाती रही है, जीवन की परिस्थितियों से उद्भूत भावुकता, सुख-दुख, पाप-पुण्य, गरीबी-अमीरी, निष्ठा-संघर्ष, चुनौतियाँ आदि की अभिव्यक्ति के लिए लिखी जाती रही है, एक संवेदनहीन व्यवस्था किस प्रकार जीते-जागते इंसान को निर्जीव पुतले में बदल सकती है की अभिव्यक्ति के लिए लिखी जाती रही है, भ्रष्ट राजनीति, प्रदूषित होती संस्कृति और भोगवादी समाज में अमृत घोलने के लिए कहानियाँ लिखी जाती रही है। कहानी लिखने की और भी कई वजहें हो सकती हैं, लेकिन मुझे अन्य वजह की चर्चा करनी है।

‘संवेदनशीलता’ की जरूरत कथा लेखक को जितनी है उतनी ही जरूरत पाठक वर्ग के लिए भी अपेक्षित है। इसके बगैर कहानी में प्राण का संचार एक सिद्धहस्त लेखक भी नहीं कर पाएगा और न ही कोई पाठक कहानी का ठीक-ठीक आस्वादन ही कर पाएगा। लेखक जब संवेदनशील होगा तभी उसकी कथा-वस्तु उसकी कल्पना से जुड़कर एक केंद्रीय संदेश की खोज करेगा जहाँ से उसकी रचना यात्रा आरंभ होकर परिधि की ओर उड़ान भरती है। ठीक इसके विपरीत पाठक की संवेदनशीलता कहानी पढ़ते समय लेखक की कल्पना से जुड़ने में मदद करती है, उसे एक विशिष्ट कल्पना ग्रहीता बनाती है, जो कथानक की परिधि से चलकर कथा-केंद्र तक पहुँचते-पहुँचते कथा-संदेश की तलाश करता है। अगर यह मिल गया तो धन्य होती है कहानी और पाठक भी निहाल हो उठता है। लेखक और पाठक दोनों की सफलता पुष्ट हो जाती हैं। दोनों मुक्ति के अहसास से भर उठते हैं। कथाकार लिखकर जब पाठक तक पहुँचता है और पाठक पढ़कर लेखक के भीतर उतरता है तब दोनों मुक्ति महसूस करते हैं। इसका बहुत सीधा अर्थ यह हुआ कि लेखक और पाठक दोनों ही रचनाकार हैं। दोनों मिलकर ही रचनाप्रक्रिया को तथा लिखने की वजह को पूरी करते हैं। आज हमारे समक्ष एक प्रश्न उभरता है कि क्या कहानी लिखने की वजह पूरी हो रही है? इस प्रश्न के उत्तर में एक दीर्घकालीन संक्षिप्त पड़ताल प्रस्तुत करना चाहता हूँ। हिंदी-कहानी की शुरूआत पौराणिक आख्यानों से होती है जिसे विद्वानों ने ‘कथा’ की संज्ञा दी है। इसे ‘आख्यायिका’ और ‘गल्प’ भी कहा जाता रहा है। इसका आधुनिक रूप ‘कहानी’ 1900 ई. में प्रकट हुआ। तब से आज तक के काल को तीन भागों में विभक्त किया जाता है- आरंभ काल (1900-1910 ई.), विकास काल (1911-1946 ई.), उत्कर्ष काल (1947-अब तक)।

आरंभिक काल में कहानी की कथावस्तु रही पाश्चात्य भौतिकवादी दृष्टिकोण, राष्ट्रीय जागरण, सांस्कृतिक आंदोलन, व्यक्ति स्वातंत्र्य की वृद्धि, प्रेम वृत्ति, सामाजिक समानता के भाव आदि। विकास काल की कहानियों में मानसिक द्वंद्व, सैनिकों की वीरता, जीवन के यथार्थ एवं आदर्श, समाज की रूढ़ियाँ, धर्म के बाह्याडंबर, राजनीति के खोखलेपन, प्रबल राष्ट्रप्रेम, आर्थिक विषमता आदि को विषय वस्तु बनाया गया। इस काल के लेखकों से जीवन का कोई भी पक्ष अछूता नहीं था। इसी काल में मानव-मन की उलझनों, गुत्थियों और समस्याओं के मनोवैज्ञानिक चित्रण को भी कहानियों की विषयवस्तु बनाया गया। फ्रायड के सिद्धांतों की छाया भी इस काल की कहानियों में दिखाई पड़ने लगी। मानव की प्रत्येक मानसिक उलझन के मूल में यौन-भावना को देखा जाने लगा। इसी काल में प्रगतिवादी कहानियों की रचना भी आरंभ हुई। इन कहानियों में जीवन के उग्र यथार्थ तथा आर्थिक विषमताओं का चित्रण, समकालीन सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं एवं स्त्री-पुरुष-संबंधों की चर्चा होती थी। इस युग में कहानी समाज से व्यक्ति की ओर तथा स्थूल से सूक्ष्म की ओर उन्मुख होती गई और उसमें मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक चिंतन आदि का स्वर प्रवलतर होता गया। उत्कर्ष काल की कहानियों में कुछ नई प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं। ‘आंचलिक कहानी’ और ‘नई कहानी’ इस युग की विशिष्ट देन है। आंचलिक कहानियों में प्रदेश विशेष के जन-जीवन का चित्रण मिलता है। प्राकृतिक सौंदर्य, ग्रामीण रीति-रिवाज, सर्वोदय आदि विषयों पर कहानियाँ लिखी गई। ‘नई कहानी’ में कहानी की विषयवस्तु वैश्विक होती है। जीवन की उलझनों में व्यक्ति की कुंठाओं और समस्याओं का चित्रण किया गया है। नई कहानी आजादी के बाद देश में पनपे भ्रष्टाचार, बेइमानी, स्वार्थांधता, अवसरवादिता की महामारी जैसी स्थितियों का चित्रण करती है। यह राजनीतिक जीवन की विसंगतियों, सरकारी कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार, देश विभाजन की त्रासदी, यांत्रिक जीवन की कर्कशता, महानगरीय जीवन के संत्रास, घुटन, व्यथा, भय, भौतिक प्रियता, एकाकीपन, पीढ़ी संघर्ष, पारिवारिक विघटन, रिश्तों में तनाव, परिवर्तित प्रेम-संबंधों की कहानी कहती है। इसी प्रकार नारी चेतना और यौन जीवन की कथाएँ भी लिखी गई हैं जिनमें अनेक समस्याओं को रेखांकित किया गया है।

प्रश्न यह है कि कहानी के आरंभ काल से अब तक उपर्युक्त विविध मानवीय समस्याओं पर अनगिनत कहानियाँ लिखी गई हैं, तो क्या कहानी लिखने की वजह का लक्ष्य प्राप्त हुआ ? इसके उत्तर में पूर्व के युगों की कहानियों के लिखे जाने की वजह की पड़ताल अपेक्षित है। प्रेमचंद युगीन कहानियों को देखें तो उस काल में ग्राम समस्या पर बहुत ही गहराई और गंभीरता से विचार किया गया और यह समझा गया कि देश में अगर 80 फीसदी आबादी गाँवों में है तो निश्चय ही यह मानना होगा कि गाँव का सुख राष्ट्र का सुख, और गाँव का दुःख राष्ट्र का दुःख। यही समझ कर प्रेमचंद ने अपनी कहानी में जिन ग्रामीण समस्याओं को चित्रित किया वे हैं – ऋण की समस्या, अच्छे बीज की समस्या, अनावृष्टि की समस्या, खाद की समस्या, जमींदार का आतंक, महाजनों का शोषण, पुलिस का अत्याचार, गरीबी आदि।

आज इन समस्याओं के संदर्भ में विचार करने से यह साफ दिखाई दे रहा है कि सरकार इन सभी समस्याओं के निदान के लिए विशेष सक्रिय है। ग्रामीण बैंकों की स्थापना, कोऑपरेटिव सोसाइटी की स्थापना से क्रमशः ऋण की समस्या एवं बीज तथा खाद की समस्या सुलझ सकती है। जमींदारी -प्रथा समाप्त हो चुकी तो उनका शोषण भी समाप्त हो जाना चाहिए। सिंचाई के लिए नलकूप और जुताई के लिए ट्रेक्टर आदि विकसित हो चुके हैं। सरकार अनाजों की खरीद उचित मूल्य पर स्वयं फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के माध्यम से करने लगी है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन समस्याओं का लेखक जितना संवेदनशील था पाठक वर्ग भी उतना ही संवेदशील था तभी तो इन समस्याओं के निदान के उपाय रचे जाने लगे हैं। निश्चय ही धीरे-धीरे समस्याएँ निर्मूल होंगी। तब यह निःसंकोच कहा जा सकेगा कि कहानी लिखने की वजह पूर्ण होती ही है।

दूसरी ओर कुछ समस्याएँ प्रेमचंद द्वारा उठाए जाने के बाद भी आज कम होने की बजाए बढ़ती जा रही हैं, जैसे – विधवा विवाह की समस्या, वृद्धावस्था में माता-पिता की समस्या, वेश्यावृत्ति की समस्या, रिश्वत की समस्या, नैतिक पतन की समस्या, खंडित इंमानदारी की समस्या, पुलिस की निरंकुशता, विवाह में अपव्यय की समस्या आदि आज तक बरकरार हैं। इन समस्याओं को देखकर यही प्रतीत होता है कि लेखक और पाठक दोनों वर्गों की संवेदनशीलता इन समस्याओं के प्रति जरूर कम है। जरूरत है इन विषयों पर और अधिक ईमानदारी से लिखने की और पढ़ने की। लेखक अपनी जवाबदेही का विस्तार करे तथा पाठक अपनी जागरूकता और जिम्मेवारी को महसूस करे। कहानी लिखने की वजह तभी पूरी होगी। संवेदनहीनता को तोड़ना, उखाड़ना, निर्मूल कर देना लेखकीय लक्ष्य बने। कुछ लोगों ने ‘संवेदनहीनता’ के पर्याय के रूप में ‘अमानवीयकरण’ शब्द का प्रयोग किया है, वस्तुतः दोनों एक ही हैं क्योंकि संवेदनहीनता से ही अमानवीयकरण का उद्भव होता है। ये दोनों ही हमारी केंद्रीय चिंता के विषय हैं। भारतीय संस्कृति में हमें सदैव पढ़ाया गया संवेदनशीलता और मानवीयता किंतु पाश्चात्य संस्कृति का विकृत स्वरूप मेरे देश में संवेदनहीनता और अमानवीयकरण जैसी अपसंस्कृति के साथ अपने पाँव फैलाने लगी है। तेजी से इनका विस्तार होता जा रहा है। हमारी सभ्यता थी- ‘तेन त्यक्तेन भुजिथा’, आज इसकी जगह ले रही है ‘भोग करो और त्यागो’ अर्थात् डिस्पोजिबल संस्कृति। इसके कारण क्या हैं ? उत्तर सरल है – भारतीय संस्कृति के तत्व हैं: लोक, शास्त्र, नैतिकता और जनतंत्र जिनपर हमारी पकड़ कम होती जा रही है और इसका कारण है भूमंडलीकरण, बहुराष्ट्रवाद, उदारीकरण और तमाम संचार माध्यम। इनके कारण ही व्यक्ति की संवेदनशीलता बड़ी तीव्रता से संवेदनहीनता में और उसके मानवीयकरण के सारे उपादान उपभोग के दायरे में सिमट कर मूल्य निरपेक्ष, निर्वैयक्तिक और अमानवीय रूपों में बदलते जा रहे हैं। मानव को मानव बनाए रखने वाले सारे उपक्रम अपनी अर्थवत्ता और प्रासंगिकता खोते जा रहे हैं। समाज के कोने-कोने में संवेदनहीनता और अमानवीयकरण का मंत्र व्याप्त है। ऐसे में हम अपनी सांस्कृतिक पहचान तो खोते ही जा रहे हैं अपने अस्तित्व की शर्त और जीने की अपरिहार्य भाषा भी भूलते जा रहे हैं। अतः कहानी लेखक साहित्य सभी साहित्यकर्मी रहे अपनी-अपनी विधाओं के माध्यम से आदमी को इंसान और इंसान को बेहतर इंसान बनाने के लिए मुस्तैद हैं। अब तक इन विषयों पर काफी कहानियाँ लिखी जा चुकी हैं और आगे भी काफी कुछ लिखा जाना शेष है। हम कह सकते हैं कि साहित्य की मुठभेड़ इन खतरों से जारी है और यह आगे भी जारी रहेगी-यही है कहानी लिखने की वजह।

एक वजह और है कि लेखक सीमाओं में बँधकर नहीं सोचता है। वह आम आदमी से आगे बढ़कर कई सीमाओं, बँधनों, रूढ़ियों को तोड़कर विचार करता है। उसकी दृष्टि वर्तमान में जितनी देख पाती है भविष्य पर भी उतनी ही विचार करती है। यही कारण है कि अनेक लेखकों ने अपनी कहानियों में जहाँ युगीन समस्याओं पर विचार किया है वहीं कुछ समस्याओं की ओर भी संकेत किया है जो उनके समय में कहीं आगे की थी। हमें चाहिए कि उन निर्देशों को ग्रहण करके उन समस्याओं को दूर कर लें अथवा दूर करने का यथा संभव प्रयास करें।

इस संदर्भ में एक भौगोलिक उदाहरण प्रासंगिक प्रतीत होता है जो समाज में लेखकों की भूमिका को स्पष्ट करता है – कुछ दिन पूर्व तक पनडुब्बियों में खरगोश रखे जाते थे क्योंकि ऑक्सीजन मापने के यंत्र का आविष्कार नहीं हुआ था। पनडुब्बी में ऑक्सीजन की कमी होते ही अल्पप्राण खरगोश मर जाता तो ज्ञात हो जाता था कि इसमंन ऑक्सीजन की कमी हो गई है। इसी प्रकार भूमिगत खदानों में कहीं-कहीं विषैली गैसों की जानकारी के लिए श्रमिक/अधिकारी ‘लाइफ लैंप’ लेकर चलते थे। लैंप बुझ जाने पर ज्ञात होता कि इधर जहरीली गैस है। लेखक समाज में पनडुब्बी के खरगोश की तरह और भूमिगत खदानों के ‘लाइफ लैंप’ की तरह होता है जो भविष्य का संकेतक होता है। यह भी कह सकते हैं कि लेखक को भविष्य का संकेत पहले ही मिल जाता है। लेखक खरगोश की तरह मरकर या लैंप की तरह बुझ कर अर्थात् रचकर भविष्य के प्रति समाज को सचेत करता है। लेखक के साथ एक सजग पाठक भी ऐसा ही होता है, समाज का सचेतक। स्मरण रहे लिखने/पढ़ने की वजह यही है।


Original Image: Woman writing on a table
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Artist: Thomas Pollock Anshutz
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