‘नई धारा’ की प्राण-धारा

‘नई धारा’ की प्राण-धारा

अम्मा जी नहीं रहीं!

अम्मा यानी श्रीमती शीला सिन्हा…‘नई धारा के संस्थापक संपादक एवं प्रसिद्ध साहित्यकार उदय राज सिंह की धर्मपत्नी! विगत 27 जुलाई, 2021 को 90 वर्ष की आयु में उनका लोकांतरण हो गया। ‘नई धारा’ की वह प्राण-धारा थीं। अंत-अंत तक हमें प्रेरित करती रहीं। जाने कितने वर्षों से हम उनकी वत्सल-छाँव में थे। हम सब की वह ‘अम्मा’ थीं!

अम्मा से मेरी पहली मुलाकात 1984 में हुई थी। उदय राज सिंह की विदेश यात्रा पर आधारित सद्यः प्रकाशित संस्मरणात्मक पुस्तक ‘परिक्रमा’ का पटना के शेखपुरा स्थित ‘नई धारा’ कार्यालय में लोकार्पण था, जिसमें महाकवि पं. रामदयाल पांडेय के संग साथ मैं भी शामिल हुआ था। उसी लोकार्पण उत्सव में पहली बार श्री उदय राज सिंह एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती शीला सिन्हा को देखा था। उदय राज सिंह धोती-कुर्ता जैसे भारतीय परिधान में दिव्य आभा बिखेर रहे थे, तो उनकी धर्मपत्नी का उदात्त व्यक्तित्व भी हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करता। आयोजन के बाद जलपान की व्यवस्था में सहज गृहिणी-सी उनकी भूमिका भी गहरे प्रभाव डालने वाली थी। उनके निकट संपर्क में तो 1990 के बाद आया। 1984 में मैं जया पब्लिकेशंस की दो पत्रिकाएँ मासिक ‘शिक्षा डाइजेस्ट’ और साप्ताहिक ‘देखा-लेखा’ का संपादन करता था, जिसका कार्यालय बोरिंग कैनाल रोड स्थित होटल ललिता में था। तब वहाँ रामगोपाल शर्मा रुद्र, कवि रमण, शंकरदयाल सिंह सहित एक से एक यशस्वी रचनाकार आया करते। वहीं एक दिन रुद्र जी से मिलने उदय राज सिंह आए थे। उनकी मोटर बाहर ही खड़ी रही। वे मोटर में ही बैठे रहे। रुद्र जी उनसे मिलने बाहर निकले थे, मैं भी साथ था। रुद्र जी ने उनसे मेरा परिचय कराया था। तभी पता चला था कि वे पास ही रहते हैं। जाने कितने बार उनसे मिलने या अपनी रचना देने सूर्यपुरा हाउस जाता रहा। वहाँ जाने पर अम्मा जी से भेंट हो जाती। अक्सर वे बरामदे में बैठी मिलतीं।

1990 में मैं ‘नई धारा’ के संपादन से जुड़ा। दो-चार वर्षों तक तो मेरी स्थिति वहाँ प्रशिक्षु जैसी रही। यदा-कदा ही मैं सूर्यपुरा हाउस जाता। अक्सर ‘नई धारा’ के प्रबंधक रामचंद्र प्रसाद जी ही पूरी सामग्री मुझे मेरे आवास पर पहुँचा दिया करते, फिर मुझसे ले प्रेस में ले जाते। उस बीच उदय राज बाबू मुझे अक्सर मिलने पर उस पत्रिका की परंपरा, नीति, रचना चयन, संपादकीय संलेख लेखन आदि के बारे में विस्तार से जानकारी देते। लगता जैसे वे मुझे भविष्य के लिए तैयार कर रहे हों! अम्मा जी पास ही बैठी रहतीं। वे बस सुनती रहतीं। कभी कभार मुझसे मेरी पारिवारिक स्थितियों से संबंधित बातचीत करतीं। एकदम घरेलू बातचीत। अक्सर मुझसे जलपान के लिए पूछतीं। मेरे ‘ना’ कहने पर भी कुछ न कुछ घरेलू चीजें मुझे खिलवा ही देतीं। एक बार बिहार सरकार के आमंत्रण पर प्रसिद्ध कथा लेखिका शिवानी जी एक पुरस्कार ग्रहण करने के लिए पटना आई थीं। उन्हें होटल कौटिल्य में ठहराया गया था, लेकिन अगले ही दिन वे सूर्यपुरा हाउस आ गईं यह कहते हुए कि ‘जब भाई का घर पटना में हो, तो होटल में क्यों ठहऊँगी?’ मुझे उनके आतिथ्य एवं पटना के ऐतिहासिक स्थलों के भ्रमण कराने का दायित्व मिला था। अम्मा जी की खास हिदायत रहती कि उन्हें बाहर का कुछ खाने न दूँ और भोजन-नाश्ते के समय हर हाल में उन्हें सूर्यपुरा हाउस में लेता आऊँ। उनके आतिथ्य एवं भोजन कराने में वे सोत्साह भाग लेतीं। उनकी रुचि का हर व्यंजन वे सहर्ष परोसतीं। उनके आतिथ्य सत्कार में बेहद अपनेपन का भाव झलकता। इस हद तक कि कोई भी अतिथि बार-बार उनका आतिथ्य ग्रहण करने की इच्छा मन में रखें!

अम्मा समाजसेविका के रूप में ख्यात रहीं। बिहार महिला परिषद एवं अखिल भारतीय महिला परिषद से जुड़ी रहीं। उनके घर समाजसेवी महिलाओं की भीड़ लगी रहती। उनकी दिनचर्या व्यस्तताओं से भरी रहती; बावजूद इसके अक्सर वे उदय राज बाबू के साथ महत्त्वपूर्ण आयोजनों में शामिल होतीं। यों भी ‘सूर्यपुरा हाउस’ साहित्य का तीर्थ रहा है। राजा साहब के जमाने से साहित्यकारों का जाना वहाँ लगा रहता। 1995 में राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह की 105वीं जयंती के अवसर पर अलीगढ़ से ख्यात गीति-कवि रवींद्र भ्रमर को व्याख्यान करने के लिए बुलाया गया था। मुख्य आयोजन सोन भवन के स्काडा बिजनेस सेंटर में हुआ था, किंतु उसकी अगली सुबह सूर्यपुरा हाउस में ही रवींद्र भ्रमर के सम्मान में काव्यपाठ रखा गया था, जिसकी अध्यक्षता उदय राज बाबू ने की थी। शहर भर के चर्चित कवि मौजूद थे। उस आयोजन में आम्मा जी की सक्रियता विशेषकर उनके द्वारा एक-एक कवि का सत्कार करना देखते ही बनता था। लंबे समय तक उस आयोजन में अम्मा जी की सक्रियता की स्मृति कवियों के मन में बनी रही। कोई भी वरिष्ठ लेखक बाहर से पटना आते, तो उनके सम्मान में वहाँ आयोजन आवश्य होता। ऐसे आयोजन वहाँ होते ही रहते। इस तरह हिंदी के असंख्य लेखकों से अम्मा परिचित रहतीं और अक्सर उनकी कोई रचना उनकी नजर से गुजरती तो वे मुझसे उसकी चर्चा अवश्य करतीं। लेखकों से संबंधित छोटी से छोटी बातें उन्हें दीर्घकाल तक याद रहतीं। कहानी, संस्मरण, डायरी आदि वे ‘नई धारा’ अथवा वहाँ आने वाली अन्य साहित्यिक पत्रिकाओं से खोज खोजकर पढ़ती। किसी पत्रिका में कोई रचना उन्हें बहुत पसंद आती, तो भेंट होने पर वह मुझे प्रेरित करतीं कि उस लेखक की कोई अच्छी रचना मँगवा कर ‘नई धारा’ में भी प्रकाशित करूँ। तब ‘नई धारा’ के प्रति उनका ममत्व देखते ही बनता।

सन् 2004 में ‘नई धारा’ के संस्थापक संपादक उदय राज बाबू का निधन हो जाने पर अम्मा जी पर दुःख का पहाड़ टूट पड़ा। ‘सूर्यपुरा हाउस’ के परिसर में उदासी पसरने लगी थी। हर ओर एकाकीपन छाया रहता। लेकिन अम्मा जी की अदम्य जिजीविषा और उनके उदात्त सबल व्यक्तित्व का प्रभाव ही था कि उस परिसर के पेड़-पौधे फिर से मुस्कराने लगे। चहल-पहल बढ़ने लगी। उन दिनों ‘नई धारा’ के पहले पृष्ठ पर मैं उदय राज सिंह के पितामह राजा राजराजेश्वरी प्रसाद सिंह ‘प्यारे कवि’ की रचना छापा करता था। सवैया, कवित्त या फिर कोई भी छंद, जो किसी न किसी ऋतु-पर्व आदि से संबंधित रहता। भेंट होने पर अम्मा जी उनमें से किसी छंद का मुझसे अर्थ पूछतीं। मैं विस्तार से उसकी व्याख्या करता। वे खुश हो जातीं। फिर मुझसे पूछतीं–‘आप श्रीमद्भागवत गीता पढ़ते हैं।’ मेरे ‘हाँ’ कहने पर वे किसी प्रसंग के उल्लेख के साथ सूरदास के किसी पद की दो-एक पंक्ति सुनातीं। मैं महसूस किए बिना नहीं रहता कि उनके कथन में धीरे-धीरे दर्शन का प्रवेश होने लगा था। कई बार मैं चौंक पड़ता, जब उनकी बातचीत में उदय राज बाबू के अध्यात्म रस का स्वाद महसूस करता। उदय राज बाबू धार्मिक-आध्यात्मिक रुचि के थे, यह तो मैं जानता था। वे अपने मानस गुरु पंडित जगदीश शुक्ल की प्रेरणा से मुंबई के स्वामी अखंडानंद के धार्मिक ग्रंथों का मनोयोगपूर्वक अध्ययन करते और उनके ‘भक्तियोग’ तथा ‘गीता-दर्शन’ (भाग-1 से 7 तक) से लिए गए वचनों का संग्रह ‘अनमोल रत्न’ (2 खंड) नाम से प्रकाशन करवा चुके थे। ‘शिवसहस्रस्तोत्र’ का नियमित पाठ ही नहीं करते, उसकी हजार-हजार प्रतियाँ छपवाकर मुफ्त वितरण भी करवाते। वे मानते रहे कि मनुष्य के आत्मबल को बढ़ाने में अध्यात्म का अपूर्व योगदान रहता है। उदय राज बाबू के निधन के पहले अम्मा जी में अध्यात्म के प्रति आकर्षण का भाव मैंने नहीं देखा था, जो उनकी बातचीत से अब झलकने लगा था।

मुझे अपने छात्र-जीवन से ही ‘गीता’ के प्रति विशेष आकर्षण रहा है। एक समय मुझे उसके सभी सात सौ श्लोक कंठस्थ थे। ये सब संतों-गुणियों के साहचर्य से संभव हो पाया। गीता के एक-एक श्लोक पर उनसे चर्चाएँ सुनता, विविध प्रसंगों के साथ उसकी खुबियों को आत्मसात करता। आगे चलकर वे सब मेरे बहुत काम आए। उदय राज बाबू के निधन के कोई साल भर बाद मैं जब भी सूर्यपुरा हाउस जाता, अम्मा जी किसी बहाने आध्यात्मिक चर्चा छेड़ देतीं और मुझसे गीता पर आख्यान सुनतीं। उन्हीं दिनों पता चला कि पटने में एक ‘गीता क्लब’ भी चलता है, जिसमें 20-25 परिवारों के लोग प्रति सप्ताह किसी दिन किसी एक परिवार में सपत्नीक उपस्थित होते और वहाँ ‘गीता’ के विशेषज्ञ को भी आमंत्रित किया जाता। 2006 के किसी माह मुझे भी अम्मा की प्रेरणा से ‘गीता-क्लब’ में भागीदारी का अवसर मिला था, जो सूर्यपुरा हाउस में ही आयोजित था। 10-12 लोग सपत्नीक उस सभा में उपस्थित थे। अम्मा जी ने मेरा परिचय कराते हुए मुझसे श्लोक चर्चा का अनुरोध किया था। उस दिन ‘गीता’ के दूसरे अध्याय से 55 से 64वें तक के स्थितप्रज्ञ संबंधित श्लोकों पर चर्चा होनी थी। मैंने उन श्लोकों के पाठ के साथ उन पर यथाशक्ति चर्चा की थी। वहाँ सभी बुजुर्गवार थे और मैं एकदम युवा, फिर भी अम्मा जी की वजह से मेरी चर्चा सुनी गई थी। वह मेरे जीवन का एक यादगार अनुभव रहा। उसी अनुभव के कारण आगे चलकर मैंने दर्शन, इतिहास, राजनीतिविज्ञान, नृविज्ञान आदि का भी गहन अध्ययन किया। धर्म और अध्यात्म में तो मेरी रुचि रही ही। उसी रुचि के कारण आचार्य किशोर कुणाल ने मुझे ‘धर्मायण’ पत्रिका के संपादन का दायित्व सौंपा, जो ‘नई धारा’ में आने तक निभाता रहा। उदय राज बाबू के निधन के बाद मैंने अम्मा जी को भी धीरे-धीरे उन्हीं की रुचि के अनुकूल ढलते पाया। ‘नई धारा’ की चिंता भी उनमें शामिल थीं।

अम्मा जी से जुड़ी इतनी सारी यादें हैं, कि उन पर एक पुस्तक ही तैयार हो सकती हैं। अब किन-किन यादों का जिक्र करूँ! मेरी बेटी समन्विता के बारे में अक्सर पूछतीं। उसकी शिक्षा, रुचि आदि के विषय में। कई बार अपनी बेटी को उनसे मिलवाया भी। पिछले साल अक्टूबर में मेरे पुत्र समन्वय की सगाई का रिंग सेरेमनी पटना के होटल मौर्या में निर्धारित हुआ, तो मैंने अम्मा जी से आशीर्वाद देने का अनुरोध किया। चाहकर भी वे नहीं जा सकीं। कहा, विवाह के बाद रिसेप्शन में जरूर आशीर्वाद देने जाऊँगी। इसी वर्ष फरवरी में बेटे का विवाहोपरान्त रिसेप्शन का समय आया, तो अम्मा दिल्ली में थीं। उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था। वहाँ उनका ईलाज चल रहा था। मनुष्य कुछ तय करता है, नियति कुछ और! इधर साल भर से वे अधिक संवेदनक्षम हो रही थीं। अनगिन छोटी-छोटी बातों की ओर उनका ध्यान जाता! 2007 में जब प्रमथ जी की प्रेरणा से उदय राज सिंह स्मृति सम्मान और व्याख्यान आरंभ हुआ, तो पहला आयोजन पटना के तारा मंडल में होना था। दिल्ली से प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. रामदरश मिश्र जी आए हुए थे। उस आयोजन की अध्यक्षता बिहार विधान परिषद के सभापति श्री अरुण कुमार को करनी थी, जो किसी कारण आयोजन में पहुँच नहीं पाए। तत्काल तय किया गया कि अम्मा जी को ही अध्यक्षता की जिम्मेदारी निभाने को तैयार किया जाए। किंचित संकोच के साथ अम्मा तैयार हो गईं। आज भी मुझे याद है, अपने संक्षिप्त अध्यक्षीय उद्बोधन में जो कुछ उन्होंने कहा, उससे सभी भाव-विह्वल हो उठे थे। उसकी याद लंबे समय तक लोगों को रही। रामदरश मिश्र जी चर्चा चलने पर बहुत प्रेम से आज भी अम्मा जी के उस संबोधन का जिक्र करते हैं। 2019 तक के सभी वार्षिक आयोजनों में अम्मा जी शामिल होती रहीं। आयोजन संपन्न होने के बाद वे लेखकों से घिरी रहतीं। हर कोई उनसे मिलने को उत्सुक रहते। अम्मा जी अपने परिवार, समाज के लिए पथ-प्रदर्शक रहीं, लेकिन विगत 16-17 सालों से ‘नई धारा’ की भी प्राण-धारा बनी रहीं।

इस अंक के द्वारा उनकी स्मृति को हम अपना संबल मानते हुए उनके प्रति अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।


Image Source : Nayi Dhara Archive

शिवनारायण द्वारा भी