मैं तेरा शहर छोड़ जाऊँगा

मैं तेरा शहर छोड़ जाऊँगा

मैंने नहीं देखा कि कैसे थे पिता। माँ ही बताती थी कि मेरे पिता बहुत सुंदर और बहुत मेहनती थी। माँ यह भी बताती थी कि पिता मेहनती तो इतने थे कि सारे-सारे दिन काम करने के बाद रात में भी काम करते थे। माँ कई बार जब बहुत खुश होती तब बताया करती थी कि पिता माँ को बहुत प्यार करते थे। माँ पिता की यादों में ही जीती रही नहीं तो नाना-मामा चाहते थे कि पिता के मरने के बाद माँ अपना घर बसा ले और जवानी में विधवा बनकर न रहे लेकिन माँ ने उनकी एक न सुनी थी और पिता के बिना ही पिता की यादों के सहारे मुझे छाती से लगाए जीवन जीने के लिए प्रतिबद्ध थी। माँ मुझे कई बार पूजा लगती तो कई बार वंदना और कई बार जी करता माँ की अर्चना करता रहूँ।

माँ देखने में सुंदर नहीं थी। खूब काली, मोटी और अनपढ़। मेरी माँ मुझे हमेशा देवियों सी लगती थी। मन भी चाहता था कि उसी की चरणों में सिर रखे सोता रहूँ।

पिता के न रहने पर माँ अपनी सहेलियों से एक ही बात कहा करती, ‘एक जिजी एक ही डरैया छोड़ि गए वे… जाई पे जिन्नगी निकार दिएं….।’ माँ ने इसी जीवन सूत्र को अपनी साड़ी की पल्लू में गांठ सदृश बांधा और मुझे पढ़ाया-लिखाया।

फिर वही बात, माँ पढ़ी लिखी नहीं थी। पिता की मृत्यु के पश्चात् कमाने का कोई साधन भी नहीं था। शहर भी नहीं था जो माँ लोगों के घरों में झाड़ू-पोंछा-बरतन करके या फिर कहीं फैक्टरियों में काम करके पैसा अर्जित करती और मुझे पढ़ाती-लिखाती और हम दोनों के पेट का आयतन भरती। लेकिन बड़ी हिम्मतवाली भी थी माँ – गाँव में जहाँ पतियोंवाली औरतें अपने बच्चों के देखभाल नहीं कर पाती थीं वहीं माँ मुझे पढ़ाने-लिखाने से लेकर खाने-पहनने तक मेरा पूरा ध्यान रखती थी। माँ जादूगरनी नहीं थी कि कहीं से पैसा ले आती हो। माँ ने गाँव में भी काम ढूंढ़ लिया था। माँ खेत-द्वार से गायों, भैसों का गोबर इकट्ठा करके कंडे पाथती, खेतों से लकड़ियाँ बीनकर लाती, घास छीलती और बाजार में बेच आती। लोगों के खेतों में मजदूरी कर आती और जो पैसा मिलता उससे मुझे पढ़ाती थी माँ और मैं मेहनत से पढ़ता भी था।

मैं पिता की तरह सुंदर नहीं था जैसी छवि माँ ने पिता की बताई थी। सही बताऊ मैं। पिता के पावों की धोअन भी नहीं था। मैंने एक दिन पूछा भी था माँ से, ‘माँ मैं इतना कुरूप क्यों हूँ।’ तो माँ ने जवाब दिया था, ‘बेटा मैं तेरे पिता के न रहने के बाद तेरी अच्छी देखभाल नहीं कर पाई शायद इसीलिए तू…।’ माँ बात को घुमाकर अपनी धोती के पल्लू से अपनी आंखें पोछती हुई चली गई थी। मैंने फिर माँ से कभी अपनी कुरूपता के बारे में नहीं पूछा। हालांकि बड़ी चाची ने बताया था कि एक दिन, ‘रामऔतार, तुम जब छोटे थे तब तुम्हें बड़ी माता निकली थीं। उन दिनों बड़ी माता का प्रकोप ज्यादा होता था। और तुम रंग रूप में अपनी माँ पर गए हो। ऊपर से बड़ी माता का प्रकोप। इसलिए तुम देखने में सुंदर नहीं लगते। लेकिन उससे क्या… हो तो तुम खूब होशियार।’ बड़ी चाची ने बात साफ कर दी थी। माँ का रंग और माँ का ही शरीर लेकर बड़ी माता का प्रकोप लिए मैं खूब पढ़ता रहा, लिखता रहा और धीरे-धीरे मैंने दसवीं कक्षा पास कर ली। जिस दिन दसवीं कक्षा का परिणाम आया मैं जिले में प्रथम स्थान पर था। माँ की खुशी का पारावार नहीं था। माँ उसी शाम को पास में मुसलमानों के कब्रिस्तान में बने पीर बाबा की मजार पर चद्दर चढ़ाने गई थी। पूरे मोहल्ले में माँ ने बुलौआ दिया था, ‘रामोतार पास होई गओ…चलो भैन पीरबाबा पे चद्दर चढ़ाई आएं।’ और कोई जलन तो कोई माँ के साथ सहानुभूतिवश चली गई थीं। चादर मेरे ही हाथों से चढ़वाई थी मौलवीजी ने और दोनों हाथ फैलाए न जाने क्या-क्या कहते रहे थे। माँ आंखें बंद किए वहीं पीर बाबा की मजार पर सिर रखे कुछ बुदबुदाती रही थी।

दसवीं पास करने के बाद जब तक ग्यारहवीं में, मैं दाखिला लेता मैंने पोलिटैक्निक का फार्म भर दिया था। सही समय पर परीक्षा हुई। परीक्षा का परिणाम आया और मैं पास हो गया था। मैंने माँ को बताया था तो माँ के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। ‘तुमाओ लला खूब बड़ी पढ़ाई में पास होइ गओ…रामोतार के बापू।’ मैंने देखा था उस दिन माँ की आंखों में आँसू तो थे लेकिन उनमें विश्वास भी था।
क्योंकि मैंने कम्पटीटिव एग्जाम बहुत अच्छे नंबरों से पास की थी इसलिए जिले के ही पोलिटेक्निक संस्थान में सिविल इंजीनियर के रूप में मेरा एडमीशन हो गया। शुरू-शुरू में गाँव के मास्टर चाचा ने मेरी मदद कर दी थी, ‘भाभी तुम चिंता मत करो राम अवतार के लिए जितने भी पैसे या जैसी भी मदद होगी मैं करूँगा। आपका बेटा देखना एक दिन बहुत बड़ा आदमी बनेगा।’ माँ ने एक बार फिर ऊपर की ओर हाथ जोड़ दिए थे।

मेरा एडमिशन हो गया। मैंने मेहनत से पढ़ाई की। तीन साल की पढ़ाई मैंने तीन साल में ही पूरी कर ली जबकि लगभग छात्र चार-पांच साल में पूरी कर पाए थे। मैं खूब अच्छे नंबरों से पोलिटैक्निक का डिप्लोमा करके पास हुआ था।

माँ बहुत खुश थी तो माँ की कुछ सहेलियाँ दुखी भी थीं क्योंकि उनके बच्चे, अभी भी नवीं-दसवीं कक्षा में ही जूझ रहे थे। खैर…

अब मैं समझदार हो गया था। कई-कामों में माँ का हाथ भी बंटवा देता था। हालांकि माँ मना भी करती थी और इसी दौरान मैंने नौकरी के लिए कई जगह फार्म भरे उनमें से कई के इंटरव्यू भी हुए और मैं रेलवे में जूनियर इंजीनियर के लिए चुन लिया गया। माँ ने एक बार फिर खुशी के आँसू छलकाए थे। मैंने अपनी नौकरी दूसरे शहर में शुरू की थी। एक दो महीने मुश्किल से निकाले और फिर जैसे ही मुझे सरकारी आवास मिला मैं अपनी माँ को भी साथ ले आया था।

हमारे सभी दुख मिट गए थे। माँ की पूजा पूरी हो गई थी फिर भी माँ रोज ही पूजा, अर्चना करती थी। और कई-बार पिता को याद करके बिलखने भी लगती थी, ‘रामोतार कित्तो बड़ो आदिमी बन गओ आजु तुम होते तो देखते।’ लेकिन पिता तो थे ही नहीं सो कैसे देखते।

मेरी नौकरी की बात धीरे-धीरे सारी रिश्तेदारी में फैल गई। मेरे पिता की मृत्यु के बाद मेरे जिन रिश्तेदारों ने मेरी माँ को संसार के झंझावतों में अकेले जूझने को छोड़ दिया था अब सगे-सहोदरे बनने लगे थे और इन्हीं सगे-सहोदरों में कामता मामा भी था। कामता मामा को अम्मा हमेशा कमतुआ ही कहती थी। पिता के मरने के पश्चात् मामा ने कभी पलटकर नहीं देखा था। मेरी नौकरी की सुनी तो ‘जिजी-जिजी’ करता हुआ आ गया था। माँ ने कामता मामा को बड़े सम्मान के साथ बैठाया था। उसे अपनत्व दिया। उसे प्यार दिया था।

‘जिजी एक बात कहन चात थे तो से।’ कामता मामा ने माँ से यह बात उस समय शुरू की थी जब माँ उसे खाना परोस रही थी।

‘बोल भइया।’ माँ ने थाली सजाते हुए पूछा था।

‘जिजी रमोतार को व्याव कल्लि लेती।’ कामता मामा मुझे रामअवतार नहीं रमोतार ही कहता था।

‘ए भइया, हमारे रामोतार को तो बापहु नांहि है…बाप बालिन की तो शादी होती नाहीं… भइया काहे केले मजाक कत्तु है।’ माँ बोली थी। माँ नहीं जानती थी कि उसका बेटा अब नौकरी करता है और नौकरी करने वाले की शादी…।

‘देखु जिजी हमाए पास देन लेन के ले तो कछु है नाहि…कंतिया तो तूने देखी ही है। नांहि देखी…जरूर देखी हुइए। जिजी बाय अपनी बहू बनाए ले…बाउकी जिन्नगी संभर जइए और मैं हूं गंगा जी नहाय लिएं।’

अगर मामा की भाषा को छोड़ दें तो सीधी बात ये थी कि मामा अपनी बेटी की शादी मुझसे करना चाहता था।

‘हम कहां मने कत्त हैं। रामोतार को तू मनाइले।’ माँ ने अपनी स्वीकृति दे दी थी। माँ ने पूछा भी था मुझसे, ‘ए लला बू कमतुआ अपनी लौंडिया के ले तेरो ब्याहु कन्नो चाहत है तू हां करे तो बताए दे और…।’

‘माँ, कामता मामा की लड़की मैंने देखी है…माँ वह तो बहुत सुंदर है…माँ…मैं…मेरे मुँह पर चेचक के भयानक दाग…रंग काला…मोटा सा मैं….देखले माँ…जो तुझे अच्छा लगे… मैं…।’ मैंने अपना पक्ष रखा था। माँ कुछ नाराज सी लगी थी, ‘मतलब मैं जा समझें तोए कोई और लौंडिया पसंद है।’

‘नहीं…नहीं…न..न..न माँ… नहीं बिल्कुल नहीं। जैसा तुम कहो वैसा ही होगां’ माँ को नाराज होते देख मैं बिलबिलाने लगा था।

‘नांहि तेरे मन में होइ सो बता….लला, अब तू नौकरी पेसा वाली होइ गओ…अब का…।’

माँ का गुस्सा कब्जे में ही नहीं आ रहा था और मैं परेशान होने लगा था। मैंने माँ को अपनी बाहों में भर लिया था लेकिन माँ की नाराजी दूर नहीं हो रही थी। तभी मुझे अपना एक ही तरीका याद आने लगा था। मैंने माँ को पहली बाँहा से अलग करते हुए कहा था, ‘तो ठीक है’, और मैं रोने बैठ गया था। पहले भी ऐसा होता था जब मुझे अपनी जायज या नाजायज बात मनवानी होती तो मैं ‘तो ठीक है’ कहकर रोने बैठ जाता था। माँ खुद-ब-खुद मान जाती थी। इस बार भी माँ मान गई थी।

और तीन महीने के अंतराल पर मेरी शादी हो गई थी। कांति मेरे घर मेरी पत्नी बनकर आ गई थी। वह माँ को माँ नहीं कहती थी, बुआ ही कहती थी और माँ उसे बहू नहीं कहती ‘लली’ ही कहती थी। और मैं माँ को खुश देख-देखकर बल्लियों उछला करता था।

मेरी नौकरी में रेलवे के पुल बनवाना, प्लेटफार्म बनवाना, ऑफिसर्स क्वाट्र्स बनवाना अर्थात् टोटल कांस्ट्रक्शन का कार्य था। ठेकेदारों से अनाप-शनाप पैसा हमारे घर आता था। मैंने गरीबी देखी थी, दुख उठाए थे, माँ के हाथों के छाले देखे थे, पीड़ा झेली थी, कष्ट सहे थे। सो मैं खूब रिश्वत लेता था। कई बार तो परसंटेज के हिसाब से भी लेता था। ठेकेदारों को कोई आपत्ति नहीं होती। और इसी पैसे को मैं ऊपर तक एक्जीक्यूटिव इंजीनियर, सुपरेंटेंडेंट इंजीनियर, एकाउंटेंट, कैशियर, क्लर्क, चपरासी तक बांटता था। आफिस के लोग मुझे बहुत मानते थे। चाहे लालच ही कहें, पूरा आफिस मेरा बहुत सम्मान करता था।

माँ खुश थी। माँ को मैं फूलों से तौलकर रखता था। कांति खुश थी और इस खुशी-खुशी में कांति ने एक दिन कहा था, ‘सुनो’

मैंने कहा था, ‘हाँ, क्या हुआ कांति।’

‘मैं माँ बनने वाली हूं।’ और इतना कहकर वह मुझमें समा गई थी।

मेरी खुशी का पारावार नहीं था। मैं माँ के पास गया था। माँ को बताया। माँ ने सिर्फ आसमान की तरफ अपनी धोती का आंचल फैला दिया था। उस दिन मैंने देखा था माँ की आँखों में समुंदर हिलोरें मार रहा था।

ठीक नौ महीने बाद…तुम पैदा हुई थी। तुम्हें पाकर माँ स्वर्ग में उतर जाना चाहती थी। माँ की खुशियों को पंख लग गए थे। माँ पुराने विचारों की जरूर थी लेकिन बेटा-बेटी में उसे कोई भेद नहीं था। और ये जो तुम मुझसे बार-बार कहती हो कि पापा आपने मेरा नाम इतना पुराना क्यों रखा। सच बताएँ तुम्हारा ये नाम माँ ने ही रखा था। रामा। मैंने पूछा भी था, ‘माँ तुमने बेटी का नाम रामा क्यों रखा।’

‘हाय दइया… तेरो नाव रामोतार है तो तेरी बिटिया को नाव रामा… तेरे नाव पे ई तो धरो है… देखो तो।’ तर्क था या माँ का प्यार कोई नहीं जानता। हालांकि मैं तो तुम्हें हमेशा रोमा ही बुलाता था। माँ शायद नहीं जान पाती थी कि मैं तुम्हें रामा नहीं रोमा जानबूझकर कहता हूँ। तभी तो कहा करती थी…रोमा नांय रामा, कहो… देखो तो रामोतार इतनो बड़ो आदिमी हाइगओ…अभही ढंग से नाव तक नांय ले पातु।’

खैर, माँ की लीला, माँ ही जाने।

तुम्हारे पैदा होने के ठीक दसवें महीने में तुम्हारी माँ मुझे छोड़कर चली गई थी। कहाँ गई। कोई नहीं जानता था। उस दिन मैं साइट से आया था। मैंने गाड़ी बाहर खड़ी की और अंदर आया तो माँ बिलख-बिलखकर रो रही थी, ‘लला, कंतिया चली गई… लला बाय कोई भजाए ले गओ…लला बा कछुले नाहि गई… तुमाओ एक तुनिकाउ नाई छुओ बाने…लला…।’

मैंने सुना तो सन्न रह गया। कांति ने आखिर ऐसा क्यों किया। मैं तो उसे खूब प्यार करता था। पैसों के बारे में कभी उससे नहीं पूछा। कभी उससे एक शब्द नहीं बोला। उसने बहुत बुरा किया। मुझसे कोई गलती हुई थी तो बताती… शायद मैं सुधार लेता…। माँ रोए जा रही थी, ‘लला अब का मोंह दिखाइएं… लला मेरे घर को नजरि लग गई काऊ की।’

मैंने माँ को हिम्मत बंधाई थी, ‘मत रो माँ अगर कांति हमें अपना समझेगी तो आ जाएगी और जब आ जाएगी तो पूछेंगे उससे।’ लेकिन कांति आने के लिए नहीं गई थी सो आती कैसे। वह कभी नहीं आई।

और इसी दुख में एक दिन…

मैं जब अपने आफिस में था तो मेरे घर में काम करने वाली आया ने फोन किया था। आया को तो तुम जानती ही हो। तुम्हारी बसंती आंटी जिसे तुम कितनी ही बार ममी, ममी बोल देती थीं, ‘साब माँ…मा…साब।’

‘क्या हुआ माँ को।’ मैंने पूछा था बसंती से।

‘साब घर आ जाओ अभी के अभी माँ…माँ…।’ बसंती फोन पर ही बिलख पड़ी थी। आफिस से मैं घर आया था। माँ हम सभी को छोड़कर चली गई थी। मैं अपनी पूरी ताकत लगाकर रोया था तो लगा था कि शैलाब आ जाएगा और उसमें सबकुछ बह जाएगा लेकिन शैलाब नहीं आया और कुछ भी नहीं बहा था।

माँ का अंतिम संस्कार करके मैं घर लौटा था। माँ, कांति के चले जाने के कारण वह सदमा, वह अपमान, उसका बिछोह बर्दाश्त नहीं कर पाई थी। और तब मुझे लगा था कि लाखों-करोड़ों रुपयों के अंबार लगाने वाला मैं बिल्कुल निर्धन हो गया था। अब मेरे सामने सबसे बड़ी समस्या तुम्हें पालने-पोसने की थी। तुम्हारी बसंती आंटी ने मेरा खूब साथ दिया। उन्होंने तुम्हें माँ के समान पाला। तुम्हारी देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी। समाज का मान-अपमान सहा और एक दिन जब कामता मामा ने आकर तुम्हें बसंती के हाथों में देखा तो कहा था ‘…भांजे अब समझा मेरी कांति क्यों चली गई तुम्हें छोड़कर।’

मैंने सिर्फ इतना ही कहा था, ‘मामा अगर थोड़ी भी शरम बची हो तो… मेरे घर… तुम कभी…भी मत….। तुम्हारी बेटी मेरी माँ की हत्यारिन…।’

कामता मामा चले गए थे और आज तक नहीं आए। तुम धीरे-धीरे बड़ी होने लगी और जब मुझसे अपनी माँ के बारे में पूछती तो मैं यही कह देता, ‘बेटा तुम्हारी माँ भगवान के पास चली गई है।’ तुम क्या समझती क्या नहीं, मैं नहीं जानता। कई बार तुम पूछती, ‘पापा आपकी वाइफ कहाँ है।’ मैं हमेशा यही कहता, ‘बेटा मेरी वाइफ भगवान के पास चली गई है।’

तुम सिर्फ अच्छा कहकर रह जाती। मैं अंदर-अंदर टूटने लगा था।

धीरे-धीरे तुम थोड़ी समझदार हुई तो मैंने अपना ट्रांसफर कानपुर में करवा लिया। नौकर-चाकर तुम्हारी देखभाल में चैबीसों घंटे रहते।

तभी एक दिन…

मैं साइट पर गया था। एक्चुअली ठेकेदार ने बुलाया था। काम लगभग पूरा होने को था। कुछ पेमेंट का मसला था। आफिसर्स क्वार्टर्स बन रहे थे। मैं एक-एक कमरे को देख रहा था कि…कि…मेरी नजर मेरे घर में दूध बेचने वाले दूधिया पर पड़ी थी। ये वही दूधिया था जो मेरे घर रोज दूध देने आता था जब तुम अपनी माँ के पेट में थी। दूधिया बहुत सुंदर था। रंग उसका खूब गोरा। छरहरा सा बदन। बहुत ही करीने से बाल सजाता था। बहुत ही शऊर से रहता था वह। ‘अरे रामधन तुम…तुम यहाँ क्या कर रहे हो।; फिर मैंने उसके हाथ में तसला और फावड़ा देखा तो समझ गया था कि वह मजदूरी करता है। जब मैं उससे बातें कर रहा था तो उसके पीछे एक औरत गंदी-संदी साड़ी पहने। हाथ भर लंबा घूंघट खींचे खड़ी थी। उसकी तरफ देखकर मैंने कहा, ‘अच्छा अब दूधिया का काम छोड़ दिया। मजदूरी करने लगे हो। कोई बात नहीं। काम कोई भी हो छोटा बड़ा थोड़े ही होता है। बस बेइमानी का न हो। मेहनत का हो… अच्छा-अच्छा अब समझा दोनों जने, मेरा मतलब पति-पत्नी एक साथ काम करते हो। चलो अच्छा है।… ये ठेकेदार तुम्हें परेशान तो नहीं करता…।’ फिर मैं ठेकेदार की ओर मुँह करके बोला था, ‘चौधरी, रामधन मेरे घर में दूध बेचने आता था। बड़ा नेक दिल आदमी है। …इसे तंग मत करना… नहीं तो…और हाँ इन्हें और इनकी पत्नी को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए और आपको इनसे कोई दिक्कत हो तो मैं सोल्व कर दूँगा। समझे तुम।’

ठेकेदार ‘जी साहब… जी मालिक’ ही बोल पाया था कि …तभी रामधन की पत्नी जो घूंघट निकाले खड़ी थी, बड़ी जोर से रोई थी।

‘क्या हुआ रामधन तुम्हारी पत्नी को।’ मैंने रामधन से पूछा था।

रामधन बेर के पत्ते की तरह कांप रहा था।

‘अरे रामधन क्या हुआ। कोई गलती कर दी क्या। कोई बात नहीं ठेकेदार को बोलता हूँ मैं। आप से कुछ नहीं कहेगा।’ और जैसे ही मैं ठेकेदार की ओर मुँह करके कुछ बोलना चाहा था कि रोक दिया था रामधन ने मुझे।

‘हजूर माफ कर दो मुझे…ये…।’ फिर अपनी पत्नी की ओर देखकर बोला था, ‘मालकिन’

‘क्या’ मुझे लगा था सारे आफिसर्स क्वार्टर्स आपस में गडमड हो रहे हों और हरहराकर मुझ पर ढह जाना चाहते हों। मैं वहाँ खड़ा नहीं रह सका था।

गाड़ी स्टार्ट की थी मैंने और सिर्फ इतना ही बोला था ठेकेदार से, ‘इन दोनों को मेरे पास गेस्ट हाउस लेकर पहुँचाओ’

मैं जैसे ही गेस्ट हाउस पहुँचा उसके दो घंटे बाद ही ठेकेदार की जीप में बैठकर रामधन और कांति गेस्ट हाउस पहुँचा दिए गए थे और मेरे सामने खड़े थे।

दोनों खड़े कांप रहे थे।

मैंने कांति अर्थात् रामधन की पत्नी अर्थात् तुम्हारी मम्मी… की ओर देखकर कहा था, ‘आपसे एक बात जानना चाहता था कांति।’

‘जी’

‘आपने मुझे क्यों छोड़ दिया। मुझसे क्या भूल हो गई थी।’ मैंने बिल्कुल नहीं कहा था ‘मेरे पास क्या नहीं था-गाड़ी, बंगला, बैंक बैलेंस, नाम, शोहरत, इज्जत।’

‘साब’ कांति कांप रही थी।

‘डरने की जरूरत नहीं है। मैं तुम दोनों का कोई बुरा नहीं करूँगा। सिर्फ एक बार…एक बार मेरा अपराध बता दो कांति।’ मैं लगभग रूआंसा हो रहा था।

‘साब आपके चेहरे पर माता, चेचक के दाग हैं। आप काले हैं और मोटे भी जबकि ये रामधन…।’

इसके पहले कांति कुछ और बोलती मैंने रोक दिया था उसे।

मैं जान गया था अपना अपराध।

मैंने ठेकेदार से कहकर उन्हें साइट पर छुड़वा दिया था।

मैं उस जगह पर आल इन आल था। मैं कुछ भी निर्णय ले सकता था। मैंने अपने अधीनस्थ को बुलवाया था, ‘सुनो।’

‘जी’ मेरा अधीनस्थ हाथ बांधे खड़ा था।

‘ऑफिसर्स क्वार्टर्स पर रामधन और उसकी पत्नी कांति काम करते हैं। उन दोनों को साइट के आफिस में स्थाई तौर पर रख लो। उसके कन्फर्मेशन के कागज ठीक एक घंटे में मेरी टेबुल पर होने चाहिए और अगले एक घंटे में उनके आर्डर हेडआफिस पहुँच जाए।’

मेरे अधीनस्थ ने ठीक एक घंटे में कागज तैयार कर दिए थे। मैंने उन दोनों के चपरासी के पद के लिए कन्फर्मेशन के आर्डर पर साइन कर दिए थे।

और ठीक अगले ही दिन…

मैंने बड़े साहब से कहकर अपना ट्रांसफर कानपुर से यहाँ करवा लिया था।

मेरी पूरी जीवन व्यथा सुनकर मेरी बेटी रोमा सिर्फ इतना ही बोली थी, ‘पापा’ और मेरे गले से लगकर खूब रोई थी बाद में वह कब चुप हुई मुझे पता नहीं।


Original Image: Peasant woman
Image Source: WikiArt
Artist: Vincenzo Cabianca
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