बेटी

बेटी

साल का पहला दिन था, यानी फर्स्ट जनवरी। पूरा शहर नव वर्ष के स्वागत की खुशियों में मदमस्त था। ऐसे खुशनुमा माहौल में शालिनी की आत्महत्या की खबर ने न केवल उसके कलीग्स को अचंभित किया; बल्कि इस खबर ने पूरे शहर को अपने आगोश में ले लिया था। सभी की जुबाँ पर–‘अरे’, ‘ओह‘, ‘न-नहीं’, ‘कब’, ‘क्यों’, ‘कैसे’; जैसे अनगिनत विस्मयादिबोधक एवं प्रश्नवाचक शब्दों की बाढ़-सी आ गई थी–

‘शिक्षिका होकर भी, ऐसा क्यों किया उसने?’

‘भली थी बेचारी।’

‘ऐसी क्या मजबूरी थी उसकी?’ एक तो अपना गालिबपन झाड़ने से भी बाज नहीं आया–’

‘कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी…।’ खुदकुशी चाहे एवरेस्ट पर चढ़कर की गई हो या बेडरूम के पंखे से लटक कर, दोनों स्थितियों में मौत ही तो होती है और ऐसी विकट स्थिति में अनगिनत सवाल किसी की भी मौत के पीछे छूट जाते हैं।

समाज के कुछ भले मानस जिन्होंने खुद को प्रगाढ़ अनुभवी और कुशल पारखी समझने का भ्रम पाल रखा था, वे भी कुछ-कुछ इस प्रकार कह रहे थे–

‘भई इन स्त्रियों का तो कुछ पता ही नहीं होता। इनके दिमाग में क्या और कैसी खुराफातें चल रही होती हैं। ये कब क्या कर लें इसका पता तो बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी नहीं कर पाए।’ तभी किसी दूसरे पारखी ने भी अपना मंतव्य रखा–

‘ऐसे ही थोड़ी न इन्हें तिरिया चरित्तर की संज्ञा दी जाती है।’

‘ठीक कहा तुमने, ये भी तो ठीक ही कहा जाता है इनके संबंध में–‘औरतों की नाक न हो तो ये गू खाए लें।’ अब देखो तो खुद तो चली गई और परेशानी में डाल गयी घरवालों को।’ घंटे भर से बकबक-झकझक सुनते आ रहे वर्मा जी के धैर्य का बाँध टूटा–

‘प्लीज, अब बस भी करो। यह समय इस तरह की बातें करने का नहीं है। बेकार में किसी ने सुन लिया तो बेमतलब का हंगामा खड़ा हो जाएगा। वैसे भी हमें नहीं भूलना चाहिए कि वो हमारी कलीग्स थी। जब हम उसके लिए अपनी संवेदना प्रकट नहीं कर सकते तो हमें उसके लिए ऐसी असंवेदनशील बातें करने का भी कोई अधिकार नहीं।’ सवाल जवाब के इस दौर में सब जितना उसकी आत्महत्या के कारणों की तह में जाने की कोशिश करते, समस्या उतनी ही अनसुलझी गुत्थी की तरह रहस्यात्मकता में तब्दील होती जाती।

मीना और शालिनी की नियुक्ति एक ही वर्ष एक ही समय में अलग-अलग विषयों में एक ही कॉलेज में हुई थी। यही इनके बीच दोस्ती का संयोग बना था। इनके बीच पहले परिचय हुआ और बाद में यह छोटी-सी जान-पहचान धीरे-धीरे कब घनिष्ठ मित्रता में तब्दील हो गयी; इसका अंदाजा तो उन्हें भी न हुआ था। हालाँकि दोनों के व्यक्तित्व में काफी भिन्नता थी–शालिनी का स्वभाव सरल, सौम्य किंतु गंभीर और मृदुभाषी था, जबकि मीना खोजी प्रवृति की चंचल और मजाकिया होने के साथ एक लेखिका भी थी। वे एक-दूसरे से प्रभावित थीं। अत्यधिक व्यस्तता के बावजूद भी वे अक्सर हँसी-ठिठोली के लिए समय निकाल ही लेती थीं। शालिनी को दलित साहित्य पढ़ने का बेहद शौक था। मीना को उसने बताया था कि उसने उसकी कई पुस्तकें पढ़ी हैं। वह अक्सर पूछती थी–

‘नया क्या लिख रही हो?’ उसने बताया था कि अगर उसने पॉलिटिकल साइंस नहीं पढ़ी होती तो वह आज हिंदी की अस्सिटेंट प्रोफेसर होती। दरअसल उसके घरवालों और आसपास के लोगों ने उसके मन में बचपन से ही यह बात डाल दी थी–‘हिंदी, ये भी कोई सब्जेक्ट है। हिंदी तो हम सब बोलते हैं। इसे क्या पढ़ना? कितने तो पीएच.डी. और जेआरएफधारी खाक छानते फिर रहे हैं। कितने भी तेज तर्रार छात्र या छात्रा क्यों न हो बिना पैरवी के सब गुड़ गोबर। बिना गुरुओं की कृपा दृष्टि से शिष्यों का भविष्य अनिश्चित है। हम दलित छात्र-छात्राएँ उन जैसे गुरु द्रोणाचार्यों की कृपा दृष्टि कहाँ से लाएँ? हम आज भी एकलव्य बने हुए हैं। कभी-कभार कोई भूला भटका अपनी योग्यता-वियोग्ता साबित कर किसी कॉलेज यूनिवर्सिटी में घुस भी जाए तो सबकी गिद्ध नजरें उसी पर टिकी रहती हैं।’ वह बोले जा रही थी–

‘मीना, मैंने हिंदी भले नहीं पढ़ी है। हिंदी में मुझे रुचि है। मैं अपनी पसंद की पुस्तकें पढ़ती रहती हूँ और फिर पॉलिटिकल साइंस पढ़कर यहाँ तक आ सकी। हमारे बहुत से लोग तो यहाँ तक आने की सोचते भी नहीं हैं। कुछ लोग अपने बच्चों को आई.ए.एस., इंजीनियर, डॉक्टर बनाने के मुंगेरीलाल की तरह सिर्फ हसीन सपने ही देखते रहते हैं। अंत में उनके असफल बच्चे आत्महत्या करने को मजबूर होते हैं या फिर मजदूरी करने को विवश। वे लोग अपने बच्चों की क्षमता और रुचि को नहीं पहचानते हैं और न बच्चे अपनी क्षमता को पहचानते हैं। स्वप्न को साकार करने के लिए नींद और मेहनत की कुर्बानियाँ नहीं देते।’ इस तरह समय मिलता तो शालिनी और मीना खूब बातें करते। कुछ अपनी, कुछ शिक्षा की तो कुछ समाज की। उसने बताया कि उसके घर वाले कहते थे–

‘पॉलिटिकल साइंस पढ़ो। मौका मिले तो नेता बनो, या फिर आई.ए.एस. बनो। अस्सिटेंट प्रोफेसर बनना तो मेरे परिवार की लिस्ट में शामिल नहीं था। उनकी नजर में कॉलेज, यूनिवर्सिटी टीचर हो या प्राइमरी टीचर। हमारे परिवार और समाज के लिए तो सब मास्टर हैं। उनके पास न कोई रॉब होता है, न सरकारी गाड़ी, न सरकारी बंगला और न सलाम ठोकने वाले सरकारी लोग होते हैं। उनकी नजर में इससे बढ़िया तो सिपाही और दरोगा होते हैं पर मीना मेरा तो बचपन से ही टीचर बनने का सपना था।’ मन की बातों को मन में रखना शालिनी के व्यक्त्वि के परे था।

मीना को देखते ही शालिनी अपने चेहरे पर निश्छल मुस्कान बिखेर देती थी। पूरा कॉलेज उसके इस विलक्षण स्वभाव से अवगत था। मीना की स्मृति में वह अभी भी जीवित है। उसके लिए यह विश्वास करना कठिन से कठिनतर हो रहा है कि वह अब इस दुनिया में नहीं रही। उसे बार-बार आभास होता है कि वह कभी भी कहीं भी पीछे से आकर उसकी आँखें मीच लेगी। बस में, गाड़ी में या कॉलेज के गेट पर, ऑटो के इंतजार में खड़ी कहेगी–

‘आ जा मीना। मैं उधर ही चल रही हूँ, तुझे भी छोड़ दूँगी।’ और मीना के पैसे देते ही झट उसका हाथ पकड़ कर बोलेगी–

‘तुझे लिफ्ट मैंने दी है इसलिए पैसे भी मैं ही दूँगी।’ यह कहते अक्सर हँस देती थी शालिनी। उस दिन मीना ने बातों ही बातों में पूछ लिया था–

‘कब शहनाई बजवा रही हो?’ इस पर थोड़ा लजाते हुए शालिनी ने कहा था–‘जब बजेगी, तब देखा जाएगा, तुम बेफिक्र रहो। तुम्हें तो सबसे पहले इत्तला करूँगी। आखिर तुम्हें डांस भी तो करना है।’
उसके बाद शालिनी महीनों नहीं दिखी थी। शालिनी का यों बिना बताए महीनों गायब हो जाना थोड़ा तकलीफदेह लग रहा था मीना को, किंतु फैज का ‘और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा…।’ का मर्म वह जानती थी।

अचानक एक दिन शालिनी को दूर से आता देख मीना के चेहरे पर आश्चर्य विह्वल भीनी मुस्कुराहट छा गयी थी। चेहरा ही नहीं पूरी ऊपर से नीचे तक बदली हुई लग रही थी शालिनी। जींस-टॉप पहनने वाली शालिनी ने आज महरून कलर की सितारों से जड़ी-जगमगाती साड़ी पहन रखी थी। गले में काले मोतियों में गूँथा बडा-सा मंगलसूत्र उसके गले में घड़ी के पेंडुलम की तरह झूल रहा था। कानों में साड़ी से मैच करते इअर रिंग, हाथों में सुनहरी मेटल के साथ महरून चूडियाँ, होंठों पर हल्की-सी लिपिस्टिक लगाने वाली शालिनी ने आज गाढ़ी महरून लिपिस्टिक लगा रखी थी। ललाट पर भौंहों के एकदम बीच में मदर इंडिया की नरगिस की भाँति छोटी-सी महरून बिंदी लगाए हुए थी। बालों के बीचों बीच लाल सिंदूर से भरी माँग ऐसी लग रही थी मानो दो देशों के बीच पार्टिशन करने के लिए लाल डोरा खींच दिया हो। वह एक साथ अपने विवाह के कई प्रमाण पत्र दर्शाती हुई आ रही थी। देखने वाला दूर से ही समझ जाए कि अमुक स्त्री का अभी हाल में विवाह हुआ है।

दरअसल वह पहली शिक्षिका नहीं थी जो विवाह के बाद पहली बार कॉलेज सजधज कर और विवाह के अनेक प्रमाण पत्रों के साथ आई थी। यहाँ की 99 प्रतिशत शिक्षिकाएँ विवाह के बाद इसी तरह की पोशाकों में आती थीं। शिक्षिकाएँ ही क्यों दफ्तरों में काम करने वाली अन्य स्त्रियों को भी अपने विवाह के बाद ऐसे ही प्रमाण पत्र धारण किये अपने-अपने कार्यस्थल पर आते-जाते देखा है। कमाल की बात थी कि पुरुष भी विवाह के बाद आते थे तो उनमें कोई बदलाव नजर नहीं आता था। यदि उनके हाथ में मिठाई का डिब्बा न होता और स्वयं वे न बताते तो किसी को कुछ पता भी नहीं चलता कि अमुक टीचर की शादी हो गयी है।

सजी-धजी शालिनी के मेहँदी लगे हाथों में एक मिठाई का डिब्बा था जिससे वह सभी शिक्षकों को मिठाई खिलाती हुई साथ में उनकी बधाइयाँ भी बटोर रही थी। मीना को भी मिठाई खिलाई थी उसने। हालाँकि मीना ने डाइरेक्ट पूछा था उससे–‘क्यों भई, हमें तो बताया भी नहीं, कहाँ तो हमसे डांस करवाया जा रहा था।’ शालिनी ने प्रत्युत्तर में संक्षेप में कहा था–

‘असल में सब कुछ इतनी जल्दी हो गया कि किसी को खबर ही नहीं…। मैं तुमसे आराम से बात करूँगी तब सब बताऊँगी।’ काजू की बरफी का एक पीस अपने हाथ से मीना को खिलाती हुई कह कर वह मिठाई का डिब्बा पकड़े आगे बढ़ गयी थी।

शादी स्त्री के जीवन में कितना बदलाव ला देती है इसका उदाहरण शालिनी से बढ़कर मीना के लिए कोई न था। हो भी क्यों न आखिर दोनों की घनिष्ठ मित्रता को एक नहीं दो नहीं पूरे चार वर्ष जो हो गये थे। कॉलेज में अत्यधिक व्यस्तता के बावजूद वे एक-दूसरे से मिलने और बतियाने का समय निकाल ही लेती थीं और जिस दिन कॉलेज में छुट्टी रहती उस दिन तो बातों का सिलसिला जो फोन पर शुरू होता तो हिमालय से कन्याकुमारी तक की बातें होतीं। जब तक दोनों में से किसी एक का भी मोबाइल स्विच ऑफ न होता बातें बदस्तूर जारी ही रहतीं। किंतु आज महज छह महीनों में कितना कुछ बदलकर रख दिया था उसके जीवन को। घर-गृहस्थी में व्यस्त शालिनी को मीना के बर्थडे का भी स्मरण नहीं रहा। उसके विभाग की कुलीना मिश्रा और रस्तोगी मैम से पता चला था। शालिनी पिछले कई दिनों से छुट्टी पर थी। मीना ने कई बार फोन पर वजह पूछनी चाही थी उससे, पर वह फोन उठाएँ तब न। हालाँकि एक बार बात हुई थी फोन पर ही। तब उसने सहज रूप से तो बोला था मीना से–

‘तुम कैसी हो? कॉलेज की सभी मित्रों के साथ बिताए पल बेहद याद आते हैं। जल्द ही कॉलेज आती हूँ तो ढेर सारी बातें करूँगी।’

कॉलेज आई भी थी तो उसके होंठों की बनावटी और रहस्यात्मक हँसी यह बयाँ कर रही थी कि उसकी हँसी और मुस्कुराहट के पीछे कितने राज कितना दर्द वे छिपाए हुई है। मीना के पूछने पर बस इतना ही कहा था–

‘तबीयत ठीक नहीं रहती।’ क्लास में पढ़ाते-पढ़ाते पता नहीं उसका ध्यान कहाँ गुम हो जाता। वह किस दुनिया में खो जाती। क्लास में तनिक शोर होने पर अचानक ऐसे चिल्ला उठती कि बगल की कक्षा में पढ़ रहे छात्रों और प्राध्यापकों तक उसकी आवाज पहुँच जाती। उसके इस व्यवहार की सूचना जब हेड को मिली तो उन्होंने कारण पूछना चाहा था तो शर्मिंदा हो शालिनी बस इतना ही कह पाई थी–

‘आई एम सॉरी मैम। मैं थोड़ा डिस्टर्ब रहती हूँ।’ मैडम दीक्षिता ने उसे कुछ दिन छुट्टी लेकर आराम करने की सलाह भी दी थी। उस दिन के बाद शालिनी अनुपस्थित ही रही थी। मीना के कई बार फोन करने पर फोन उठता ही कहाँ था? आखिरी उपाय के रूप में उसने शालिनी को मैसेज किया था। तब जाकर उससे बात हो पायी थी। घबराई हुई शालिनी ने अपने भीतर उठे तूफान को छिपाने का भरसक प्रयास किया था पर हवा का हल्का-सा झोंका कहीं न कहीं मीना के कानों का स्पर्श पा गया था। फोन पर शालिनी ने रोते हुए कहा था–

‘वह मुझे मार देगा, प्लीज मुझे बचा लो, बचा लो।’ मीना ने कई बार पूछा–

‘कौन तुम्हें मार देगा? और क्यों मारेगा, कोई तुम्हें, प्लीज मुझे बताओ? तुम पुलिस को रिपोर्ट क्यों नहीं करती?’ पुलिस का नाम सुन शालिनी थोड़ी असहज हो उठी थी। उसका डर उसकी आवाज के साथ बाहर आ गया था। वह रुँधे गले धीरे-धीरे बुदबुदा रही थी–

‘नहीं मीना मैं ठीक हूँ। मैं बिलकुल ठीक हूँ। तुम घबराओ मत इस बार कॉलेज आती हूँ तो फिर तुमसे बात करती हूँ।’ इतना कहते हुए फोन रख दिया था शालिनी ने।

आज शालिनी जब नहीं रही तो उसकी बातें शूल बन कर मीना के हृदय को रह-रहकर बेधती हैं, आखिर क्यों नहीं वह शालिनी को समझ पायी? क्यों महज कोई बुरा सपना समझ मैंने उसकी बातों को नजरंदाज किया। आज उसकी मृत्यु ने मीना को अपराध-बोध से ग्रस्त बना दिया। उसे खुद से इतनी वितृष्णा क्यों हो रही है? आखिर दोषी कौन? शालिनी ने भी तो कुछ बताया नहीं उसे। एक पल को कहा भी था उसने पर दूसरे ही पल तो वे खुद ही उसे बेबुनियाद बता रही थी। गहरे द्वंद्व से जूझ रही मीना कभी खुद को धिक्कारती–

‘ऐसी भी क्या जिंदगी, सुबह से शाम तक, काम ही काम। काश, मैंने अपनी निजी जिंदगी से थोड़ा-सा समय निकालकर उसकी परेशानी जानने की कोशिश की होती तो शायद आज शालिनी हमारे बीच जीवित होती।’ वह अपने भीतर उठे तूफान से लड़ रही थी और स्वयं ही सवाल-उत्तर कर रही थी–

‘क्या उसे पुलिस पर भरोसा नहीं था? उसने अपने घरवालों को पहले क्यों कुछ नहीं बताया? बताया भी होगा तो अवश्य ही उसे पारंपरिक रूढ़िगत नियमों और सिद्धांतों का हवाला दिया होगा–

‘एडजस्ट करना ही होगा बेटी। नया घर, नये लोग, सब कुछ तो नया है ऐसे में कुछ दिन तो बर्दाश्त हर लड़की को करना होता है। एडजेस्ट करने में समय लगता है बेटा। कुछ दिनों में सब कुछ ठीक हो जाएगा। समस्याओं से डरकर भागने से समस्या कम नहीं हो जाती; बल्कि वह तो और भी बढ़ जाती है। किसी भी हाल में लड़की को अपना घर नहीं छोड़ना चाहिए और हम तुम्हें कब तक यहाँ रख पाएँगे? क्या कहेंगे लोग? इसलिए बेटी हर परिस्थिति में अपने को ढालने की कोशिश करो। जब तुम्हारे पापा के साथ मेरी शादी हुई थी दो-चार वर्ष तो मुझे भी एडजस्ट करने में लगे थे। तुम्हारे पापा से मेरे विचार बिलकुल भिन्न थे और जहाँ विचारों की सामंजस्यता न हो वहाँ क्या कुछ घटता होगा। उसका अंदाजा तुम स्वयं भी लगा सकती हो। मेरी छोड़ो बराक ओबामा और मिशेल दुनिया का सबसे चर्चित जोड़ा को कौन नहीं जानता। इनके बीच भी शादी के बाद झगड़ा डिवोर्स तक पहुँच गया था, पर वे अब सकुशल रह रहे हैं न, साथ में। झगड़े किस घर में नहीं होते, पर इसका एकमात्र समाधान अलगाव या विवाह विच्छेद तो नहीं। फिर अकेली औरत के लिए बाहर की दुनिया ही कौन-सी सुरक्षित है–

‘औरत का कोई देश नहीं।’ यह तो तुम्हें भी जानना ही चाहिए। किसी प्रसिद्ध लेखिका का कथन है–‘बाहर दस भेड़ियों या कुत्तों के बीच रहने से बेहतर है किसी एक भेड़िये या कुत्ते के बीच रहना।’ इसलिए भी कि कम-से-कम हम धीरे-धीरे ही सही उसके मन को माँझ उसके अतिरेक को तो धो ही सकते हैं। आज मैं और तुम्हारे पापा एक-दूसरे के बिना रह ही नहीं सकते। इसलिए कहती हूँ एडजस्ट करो बेटा। घर को घर बनाने में एक स्त्री को बहुत कुछ खोना पड़ता है तब जाकर एक प्यारा-सा घरौंदा बनता है। स्त्रियों को तो एडजस्ट करना ही होता है अन्यथा बेघर स्त्रियों के लिए भरे संसार में कहीं कोई जगह नहीं। कहा भी तो जाता है–‘अपनी जगह से गिरकर कहीं के नहीं रहते–केश, औरतें और नाखून।’

शालिनी के साथ बिताए गए पलों की सघन स्मृतियाँ चलचित्र-सी मीना की आँखों के समक्ष एक-एक कर साकार हो रही थीं। मीना की आँखों से बरबस ही आँसू टपकने लगते। व्यथित मन गहरे दुःख से आच्छादित हो उठता।

लाख कोशिश करने के बाद भी पुलिस आत्महत्या के कारणों की तह तक नहीं पहुँच पाई थी, मगर मीना ने हार अभी नहीं मानी थी। उसकी कोशिश अनवरत जारी थी। कभी शालिनी अपनी समस्याओं को लेकर परेशान थी। आज मीना परेशान है। दरअसल वह स्मस्या की तह में जाने की कोशिश तो कर रही है किंतु उसे कोई सुराग अभी तक नहीं मिल पाया। अचानक ही उसे याद आया क्यों न शालिनी की मम्मी से मिलकर कुछ पूछा जाए शायद कोई सुराग मिल जाए। कम-से-कम शालिनी की माँ को तो हौसला दे सकेगी। बेटी के जाने के बाद कितनी अकेली हो गयी होंगी वे। यह सोच कर मीना के कदम शालिनी की माँ के घर की ओर बढ़ गये थे।

शालिनी की माँ को अपना परिचय देते हुए मीना ने पूछा–‘आंटी शालिनी ने कुछ तो बताया होगा आपको? आखिर ऐसा उसने क्यों किया?’

‘पता नहीं बेटा, हम सब खुद यह सोच कर परेशान हैं कि उसने आखिर ऐसा क्यों किया? अगर कोई समस्या थी तो कम से कम हमें तो बताई होती? शादी के बाद तो उसने धीरे-धीरे जैसे हमसे अपना नाता ही तोड़ लिया था। फोन पर भी बात नहीं हो पाती थी। बेटा, तुम तो उसकी सहेली हो, तुम्हें तो उसने जरूर कुछ बताया होगा।’ यह कहते हुए उनकी आँखें भर आई थीं। मीना ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा–

‘आंटी हम अच्छे मित्र थे पर, उसने तो मुझे कुछ नहीं बताया, यदि कुछ बताया होता। अपनी समस्या हमारे साथ शेयर की होती तो हम उसकी समस्या का समाधान…।’ अपनी बात पूरी किये बगैर मीना चुप हो गयी शायद सोचा हो, क्यों बेटी के अवसाद में डूबी माँ की व्यथा को और क्यों बढाए? सो बीच में ही अपनी बात को काटती हुई बोली–

‘आंटी, यदि मुझे कुछ पता होता तो मैं आपके ताजे घाव को न कुरेदती। असल में शालिनी तो बहुत खुशमिजाज लड़की थी। कॉलेज में क्लास के बाद जितने भी समय वह हमारे साथ रहती कम बोलते हुए भी वह हमेशा हँसती रहती थी। इतना बड़ा दर्द उसके सीने में था हम भाँप ही नहीं पाए।’ अपनी आँखों के कोरों को पोछते हुए मीना बोली–‘आंटी याद करने की कोशिश कीजिए। उसने बातों-बातों में कुछ बताया हो आपको?’

‘बताया होता तो हम उसकी समस्या का समाधान करने की कोशिश अवश्य करते बेटा मगर उसने यहाँ आना तो दूर फोन पर ठीक से बात करना भी छोड़ दिया था। पिछली बार बहुत जिद करने पर आई थी तो अपने साथ पढ़ने-लिखने की फाइलें, किताबें यहाँ रख गयी थी। जाते-जाते यह कह गयी थी कि कुछ दिनों की स्टडी लीव लेकर यहीं से पीएच.डी. के रिसर्च पेपर लिखेगी।’

शालिनी की माँ की बातें सुन रहीं मीना ने थोड़ा सहमते हुए पूछा–

‘आंटी, अगर आपको कोई एतराज न हो तो क्या मैं शालिनी की किताबें देख सकती हूँ?’ वह थोडा़ स्तब्ध हुईं किंतु जल्द ही अपनी स्तब्धता को तोड़ते हुए बोलीं–

‘ऐसी बात नहीं है बेटा। उसके जाते ही हमने उसका सारा सामान हटाकर उसके रूम में बंद करके रख दिया है। फिर भी उसका चेहरा, उसकी स्मृतियों को हम कहाँ-कैसे छिपाएँ-भुलाएँ। ऐसा लगता है वह यहीं कहीं है। अभी मम्मी, मम्मी पुकारती हुई कहीं से आ जाएगी।’ कहते कहते वे फफ्क पड़ी थीं। उन्हें सोफे पर बैठाया और पानी पिला कर उन्हें शांत किया। थोड़ी देर के बाद वे स्वयं बोलीं–‘मीना, बेटा मेरे साथ आओ मैं तुम्हें शालिनी की आलमारी और पढ़ने की सामग्री दिखा देती हूँ तुम खुद देख लेना। तुम उसकी सहेली हो तुमसे क्या छिपाना। मुझे हिम्मत नहीं है वह सब देखने की।’ मीना ने आलमारी के सारे कपड़े उलट-पुलट कर देखा परंतु कोई सूत्र नहीं मिला। हताश दुखी मन से मीना एक-एक कर किताबों के पन्ने उलटती-पलटती जा रही थी। पीएच.डी. की पूरी थीसिस लिखी हुई रखी थी। वह उसकी भूमिका भी तैयार कर चुकी थी। आभार में मीना का नाम विशेष रूप से उल्लेख किया था। कुछ अध्याय पर कच्चा काम कर रखा था। उलटते-पलटते हुए किताबों के बीच एक पत्रनुमा कागज मिला, जो उसकी माँ को संबोधित था। मीना ने कुछेक फाइलें और किताबें उलटी-पलटी पर कुछ नहीं मिला तो वह पत्र जो उसकी माँ को संबोधित था उसके बारे में शालिनी की माँ को बताया। मीना ने पत्र पढ़ना चाहा तो उसकी आवाज रुँध आई थी–

‘प्यारी मम्मी, मैं बहुत दिनों से आपसे कुछ कहना चाह रही थी, पर कब कहूँ और कैसे कहूँ? यह सोचकर मेरा मन संशय में है। तुम मेरे कारण दुखी हो जाओगी। मैं मन की बात कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही हूँ। पिछले कई दिनों से पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लग रहा था कि कोई मेरी जासूसी कर रहा है। मेरी हर एक्टविटी पर नजर रखी जा रही है। मेरी आलमारी, मेरे एकाउंट तक पर नजर रखी जा रही है, पर मेरा संदेह सच निकला–एक दिन अचानक ही सुरेश कह रहे थे कि शादी से पहले मैंने पूरे पाँच साल नौकरी की मगर कमा के सब उड़ाती रही या सारा रुपया मायके वालों की तिजोरी भरती रही। अपना एकाउंट एकदम खाली करके चली आई, लेकिन अब यह चालाकी नहीं चलेगी। यहाँ मम्मी-पापा का घर बहुत छोटा है। छोटी बहन की भी शादी करनी है। पापा रिटायर्ड हो गए हैं। हमें अपना फ्लैट लेना होगा। हम तभी फ्रीडम से रह पाएँगे। हमें कुछ सोचना होगा।’ मैं पहले उनकी बातों को ज्यादा समझ नहीं पा रही थी, लेकिन इस तरह की बातें वे रोजाना ही करने लगे थे। ऐसा लगता था मानों इन बातों के अलावा उनके पास और कोई विषय है ही नहीं। कॉलेज से आते-जाते, उठते-बैठते, खाते-पीते बस फ्लैट लेना है। इसी बात की रट्ट रात-दिन सुन कर मैं तंग आ गयी हूँ मम्मी। इतना ही नहीं उनकी मम्मी भी मुझे लगातार कहने लगी थीं–

‘ये नौकरी करती है तो हमें क्या फायदा, बाप ने जो पैसा और दान-दहेज दिया सब इसे ही तो दिया। हमें क्या मिला? वे अक्सर सुरेश को संबोधित कर कहती हैं–

‘तू इससे कुछ पूछता क्यों नहीं? ये कब घर के बारे में सोचेगी? एक-दो दिन की बात तो है नहीं जिंदगीभर यहीं रहेगी। क्या सब दिन ऐसे ही चलता रहेगा? क्या इसका इस घर के प्रति कोई फर्ज नहीं?’ मुझे ऐसा लगता है कि मैं उनकी बहू न होकर बनिये की दुकान हूँ जो मुझमें लाभ-हानि का हिसाब-किताब करती रहती हैं।’

पापा के जाने के बाद वैसे भी आप पर कितनी जिम्मेदारियों का बोझ आ पड़ा है। क्या मैं नहीं जानती? अभी मेरी शादी का कर्जा भी तो नहीं चुका है। घर पर बाहरी लोगों का आकर घुड़कियाँ जमाना, उफ् कितनी तकलीफ होती होगी आपको। मैं सब जानती हूँ मम्मी। आप कैसे निधि और बबलू की पढ़ाई का खर्चा सिलाई कर निकालती हैं। इसका अंदाजा मुझे बखूबी है, पर मम्मी ये लोग तो कुछ समझना ही नहीं चाहते। पापा होते तो बात कुछ और होती। आपसे मैं अपना दुःख कैसे कहूँ? सुरेश यदि समझते तो वे अपनी मम्मी को समझाते मगर वे तो खुद उनके स्वर में स्वर मिलाते हैं।

मम्मी मैं माँ बनने वाली हूँ। आप कुछ ही महीनों में नानी बन जाएँगी। इस खबर से पूरे घर का माहौल ही बदल गया था। मम्मी जी का स्वाभाव भी मेरे प्रति संतोषजनक हो गया था। वे मेरे खान-पान सब बातों का ध्यान रखने लगी थीं, किंतु उस दिन उनका स्वभाव एकदम से बदल गया। मुझे यह कहकर डॉक्टर के पास ले गये कि कुछ जरूरी टेस्ट करवाने हैं और बिना मुझे बताए उन्होंने मेरे भ्रूण का लिंग परीक्षण करवाया। जैसे ही उन्हें यह पता चला कि मेरे गर्भ में पल रहा बच्चा लड़का नहीं लड़की है वो भी जुड़वाँ। तब से मम्मी जी और सुरेश का मेरे प्रति व्यवहार एकदम पहले सा हो गया है। मम्मी जी अक्सर कहतीं–‘सफाई करा हमें नहीं चाहिए, तेरी ये बेटियाँ। पहले क्या हमारे पास कम परेशानियाँ थीं जो और नई आफत सिर ले आई। सुरेश भी कहीं से घूम-फिर आते और एबॉर्शन की रट लगाते–‘तू कब चल रही है एबॉर्शन कराने के लिए? ज्यादा देर मत कर।’ एबॉर्शन के नाम से ही मेरा मन अपराधबोध से घिर जाता है। यह शब्द सुनते ही मेरी रूह काँप जाती है। आखिर मेरे निर्दोष बच्चों ने इनका क्या बिगाड़ा है? अभी तो ये धरती पर आई भी नहीं हैं। आखिर क्यों ये इनके जानी दुश्मन बन चुके हैं? मुझे उन लोगों पर बहुत गुस्सा आता है। कुत्ते, बिल्ली के साथ भी रहो तो उनके प्रति भी मोह जाग जाता है फिर मैं तो इनकी बहू हूँ। यह सोचकर कि सब कुछ ठीक हो जाएगा। पर मैं गलत थी यहाँ का तो समीकरण ही कुछ उल्टा है। अपने ही बच्चों के प्रति…छीः मुझे घृणा होने लगी है, इन सबसे। मैं तुम्हें यह सब बातें कैसे बताऊँ? हिम्मत नहीं जुटा पा रही हूँ।’

ज्यों-ज्यों दिन बीत रहे हैं। इनकी निमर्मता और असंवेदनशीलता मेरे प्रति बढ़ती ही जा रही है। सुरेश इधर से मुझ पर छोटी-छोटी बात पर हाथ उठाने लगे हैं। एक दिन मैंने हिम्मत जुटा उनसे कहा था–

‘मम्मी जी को आप समझाते क्यों नहीं। वे रोज-रोज एबॅार्शन करवाने की बात करती हैं। मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता। चाहे जो भी हो, ये हमारी पहली संतान हैं। मैं इन्हें जन्म दूँगी। कह दीजिए मैं एबॅार्शन नहीं करवाऊँगी।’ वे चुपचाप मुझे सुन रहे थे। मैंने झट उनका हाथ पकड़ कर अपने पेट पर रख कहा था–

‘आप तो इनके पिता हैं। आप ऐसा निर्णय कैसे ले सकते हैं? आप मम्मी जी को समझाइए।’ उनकी चुप्पी से मुझे लगा था वे मेरी भावनाओं की कद्र करेंगे, मान जाएँगे, पर परिणाम मेरी आशा के विपरीत निकला। उन्होंने अपना हाथ झट खींचते हुए कहा था–

‘मुझे नहीं चाहिए ये पाप। जाने किसका पाप तू मेरे सिर मढ़ना चाहती है। शुक्र मान तुझे तेरा बच्चा गिराने की बात कर रहा हूँ। कोई और होता तो तेरे इस पाप के लिए कब का घर से धक्के मार कर निकाल दिया होता। मैं तो वैसे भी तुझ पर रहम कर रहा हूँ और तूने मुझे समझ क्या रखा है? मैं और मर्दों की तरह नहीं हूँ कि तेरी चिकनी-चुपड़ी बातों में आ जाऊँ और अपनी माँ के खिलाफ चला जाऊँ। तू जो चाहती है वह कभी संभव नहीं होगा। एबॉर्शन तो तुझे हर हालत में करवाना ही पड़ेगा।’ मैं उनकी मंशा पूरी तरह समझ गयी थी। वे अपनी मनमानी करवाने के लिए मुझ पर चरित्रहीनता का आरोप मढ़ रहे थे। छी…कोई भी व्यक्ति इस हद तक कैसे गिर सकता है? इस बात का एहसास मुझे पहली बार उस दिन हुआ था। एक पिता अपनी बेटियों को बोझ कहे, पाप कहे इससे ज्यादा अपमान और घृणास्पद बात और क्या हो सकती है? मैं उस पूरी रात सो नहीं पाई थी। सुबकते-सुबकते आँसुओं से तकिया भीग गया था पर अफसोस उस निष्ठुर व्यक्ति का हृदय तनिक न पसीजा था। शायद इसलिए कि उन्होंने पी रखी थी। मुझे डर लग रहा था। ये कभी भी कुछ भी कर सकते हैं। ऐसा ही हुआ सुबह मेरे बाल पकड़ कर खींचते हुए मम्मी के पास लाए थे। उनकी माँ चिल्ला-चिल्ला कर कह रही थीं–

‘करम फूटे हमारे जो इस नाशपिटी को ब्याह कर घर लाए। जब से आई है, सारे घर का सुख-चैन खाकर बैठ गयी है। सारे घर की रौनक ही बिगाड़ कर रख दी है। हमने तो इसे लक्ष्मी सोचा था पर ये तो कुलक्षणी निकली। दो लड़कियाँ पैदा करके ये समाज में हमें सबसे नीचे गिराना चाहती है। अब तो मैं एक दिन की भी देरी नहीं करूँगी। कल सुबह ही तुझे अस्पताल लेकर जाऊँगी। देखती हूँ तू कैसे नहीं करवाती है सफाई।’ सुरेश बुत बन सब देख रहा था। ऐसे इनसान के साथ रहना छी…वे मेरी बच्चियों की प्रायोजित ढंग से हत्या करना चाहते थे। जाने कहाँ से ताकत बटोरी थी उस दिन मैंने भी चीखकर कहा था–

‘मैं कहीं नहीं जाऊँगी, और हाँ आप मत भूलिये कि भ्रूण हत्या कानूनन अपराध है। वैसे भी यह बच्चा मेरा है। मैं पाल लूँगी इन्हें अकेले ही। इतनी सक्षम हूँ कि इनकी परवरिश कर सकूँगी। मैं एबॉर्शन नहीं करवाऊँगी।’ यह कहते हुए मैं अपने रूम की ओर जाने को मुड़ी थी कि सुरेश ने पीछे से ही मेरे बाल पकड़ कर कहा था–

‘हरामजादी, मेरी माँ से जुबान लड़ाती है, कमाती है तो इतनी शान दिखाएगी।’ और यह कहते हुए उन्होंने मुझे लगातार दो थप्पड़ कान के नीचे तड़ाक, तड़ाक जड़ दिये थे। चक्कर-सा आने लगा था मुझे। कुछ देर बाद स्वयं को अपने रूम के फर्श पर पाया। सामने सुरेश खड़े कह रहे थे–तूने समझ क्या रखा है तू जो चाहेगी वही होगा, तू मेरी बीवी है। तुझ पर और तेरे पैसों पर मेरा अधिकार है। तेरी कोख पर भी मेरा ही अधिकार है। शादी मैंने तेरी मर्जी चलाने के लिए नहीं की, बल्कि अपनी मर्जी मनवाने के लिए की है और वो तुझे हर हालत में माननी पड़ेगी। यदि तूने कोई चालाकी करने की कोशिश की तो बहुत बुरा होगा तेरा और तेरे पूरे खानदान का। अकेली है न तेरी माँ और अभी तो तेरा भाई भी छोटा है और बहन। कैसी बेगैरत औरत है। यदि तेरे भाई को कुछ हो गया तो क्या होगा तेरी माँ और बहन का। सोचा है कभी।’ उनके चेहरे पर कुटिल मुस्कुराहट तैर रही थी।

मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था मैं क्या करूँ और क्या न करूँ? जिंदगी में पहली बार आगे कुआँ पीछे खाई वाली कहावत मुझ पर चरितार्थ हुई थी। मैं किसी भी हालत में अपनी अजन्मी बच्चियों को खोना नहीं चाहती थी और न ही अपने इकलौते भाई को। सारा दिन वे और मम्मी जी आपस में क्या बतियाते रहे, पता नहीं; किंतु उस रात तकरीबन बारह बजे वे मेरे कमरे में आए, उनके मुँह से दारू की तीखी बदबू आ रही थी, बोले–

‘तूने आज मम्मी का बहुत अपमान किया है। आज तक मैंने उनसे कभी मुँह नहीं लगाया, तूने तो हद ही पार कर दी हरामजादी। तू कॉलेज में पढ़ाती है तो अपने को लाटसाहिबनी समझ बैठी है। आज मम्मी से मुँह लगाया है कल मुझसे मुँह लड़ाएगी। मेरे घर को तू बनाना क्या चाहती है?’

‘हरामजादी’ कहा था उन्होंने मुझे। इतने दिनों में मैंने यह जान लिया था कि स्वार्थी पुरुष अहम पर चोट खा बौखला उठता है। खुद को संयमित नहीं रख पाता। अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है और अगलाया-पगलाया-सा कुछ भी अकबक करता है। मैंने इसके लिए उन्हें मन-ही-मन माफ कर दिया था। ‘माफ’, माफ करने का बीज तत्त्व तो मम्मी तुम्हीं ने बोया था हम तीनों भाई, बहनों के बीच। खुद को संयमित और संतुलित रखते हुए विनम्रता पूर्वक कहा था मैंने उनसे–‘मम्मी जी का मैं भी सम्मान करती हूँ, मगर आप ठंडे दिमाग से सोचिये कि एक माँ के लिए क्या यह इतना सहज है जिसकी जिद आप और मम्मी जी लगा बैठे हैं? आखिर कैसे कोई माँ अपनी कोख में पल रहे बच्चे की हत्या करवा सकती है? मैं अपनी कोख को क्षत-विक्षत होता नहीं देख सकती। मैं भी मम्मी जी का आदर करती हूँ पर ये मेरे बच्चों के जीवन और मरण का सवाल है। मुझे माफ कीजिए। मैं आपलोग की यह बात नहीं मान सकती। मैं इस अपराध में अपनी भागीदारी नहीं दे सकती। मैं अपने बच्चों की बलि नहीं दे सकती।’ उस रात उनकी इतनी क्रूरता, मुझे जोर का धक्का मारा कि मैं सीधे पलंग से नीचे जा गिरी। गनीमत थी कि मैं पीठ के बल गिरी थी। मेरे बच्चों को चोट नहीं लगी थी पर वे जरूर थोड़ा असहज हुए थे। मैंने महसूसा था। अब उन माँ-बेटा को कहने और समझाने को बचा ही क्या था। मैंने अपना फोन उठाया और जैसे ही कमरे से बाहर निकलना चाहा, झट मेरे हाथों से फोन छीन कर कहा था–

‘अब देखता हूँ किसको फोन करती है? माँ को बताएगी, क्या बिगाड़ लेगी मेरा तेरी रंडवा माँ? है कोई उसका यार जो तुझे बचा ले मुझसे? स्वावलंबी ठहरी तो क्या, तेरी जैसी औरतों की जगह पैरों के नीचे ही होती है। पुलिस को फोन करेगी, कर मैं भी देखता हूँ तू कैसे करती है? कभी भूल से भी ऐसी गलती कर ली न, तो तेरे पूरे खानदान का सर्वनाश कर दूँगा, समझी।’ इतना कहते ही उसने मेरे पेट पर कसकर लात जमा दी थी। मैं दर्द से कराह उठी थी। उसकी अमानवीयता से मैं चिल्लाई थी–

‘हाँ, मैं करूँगी फोन, पुलिस को। सब बताऊँगी तुम मेरा बच्चा गिरवाना चाहते हो। कहूँगी, हाँ-हाँ कहूँगी, कहूँगी, तुम मुझे मारते-पीटते हो, और मेरे परिवार को भी खत्म करने की धमकी देते हो। कहूँगी, हजार बार कहूँगी। उसने दाँत निपोरकर हँसते हुआ कहा था–‘हरामजादी, तू किस मिट्टी की बनी है? परंतु मैं भी कम नहीं। तुझे तेरी औकात न बता दी तो मैं भी मर्द नहीं।’ और उसने अंत में अपनी हैवानियत का ऐसा क्रूर तांडव दिखाया जिससे संपूर्ण मानवता शर्मसार हो जाए। मेरे तन से एक-एक कर सारे कपड़े नोच डाले। मैं रोती रही, गिड़गिड़ाती रही, लेकिन उसे तनिक रहम न आया। मारे लज्जा के मैंने आँखें मींच ली थीं और वो पूरी बेहयाई से कह रहा था–

‘जा हरामजादी जा, तुझे मेरी शिकायत पुलिस में करनी है कर जा कर। बता आ अपनी माँ को सब बातें। जितना रंडीपना दिखाना है अब दिखा।’ मैं अपने कपड़ों के लिए कितना गुहार लगाती रही थी उस रात। उसने पलटकर भी मुझे नहीं देखा था। द्रौपदी का चीरहरण तो दूसरों द्वारा ही किया गया था पर मेरी लाज, मेरी इज्जत तो मेरे अर्धांग कहे जाने वाले मेरे पति कर रहे थे। मेरी इज्जत तार-तार मेरे संरक्षक द्वारा हो रही थी। समझ नहीं आ रहा मम्मी कब बदलेगी यह दुनिया? क्यों सारी लड़ाई का अंत औरत की देह पर ही आकर खत्म होता है? इकीसवीं सदी में भी मेरा अपनो के द्वारा द्रौपदी-सा चीरहरण हो रहा है पर क्यों आज कोई कृष्ण-सा लाज बचाने नहीं आता? उस रात मेरे अंदर उनके प्रति घृणा उभर आई थी। मैं उस रात टूट गयी थी मगर मैंने अपनी बच्चियों को अपने से अलग नहीं होने का संकल्प लिया था। मैं सोच रही थी कि मैं उन्हें जन्म नहीं दे सकती तो एक साथ मर तो सकती हूँ। मम्मी, भइया और छोटी मुझे माफ कर देना यदि मजबूरी में मुझसे ऐसा कदम उठ जाए तो एक बेटी और बहन की मजबूरी समझ कर माफ कर देना। यह मेरी कायरता नहीं अजन्मीं बेटियों के प्रति वफादारी होगी। पत्र लिखते हुए मुझे ऐसा लग रहा है। तुम सब मेरे सामने बैठे हो और मैं तुम सबसे बतिया रही हूँ। ऐसा मन कर रहा है कि मैं लिखती रहूँ, बस लिखती रहूँ न जाने क्यों मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि हम इस पत्र के माध्यम से सदियों बाद मिल रहे हैं। जैसा कि मैं पहले ही बता चुकी हूँ कि मुझ पर पहरा डाला जा रहा है। कोई देख ले इससे पहले मैं लिखना बंद कर रही हूँ। इस समय रात के दो बज रहे हैं। सब सो रहे हैं और मैं चुपचाप बालकोनी में बैठ कर यह पत्र लिख रही हूँ। पता नहीं अब कब मिलना होगा? वैसे मैं कोशिश करूँगी कि जल्दी ही मिलूँ। शायद एक-दो दिनों में ही कॉलेज के बहाने आऊँगी आप सबसे मिलने, तब बैठ कर ढेरों बातें करूँगी। अपने मन की बातें कहूँगी, आपके छोटी और भइया की बातें सुनूँगी।’

मुझे लगा कि मेरी बेटियाँ मेरा दर्द दमन देख सुन रही हैं। उन्हें मुझसे सहानुभूति हो रही है। वे रो रही हैं। वे रो-रो कर कह रही हैं–‘मेरे कारण पापा और दादी आपको इतना ज्यादा सता रहे हैं। आप रोती ही रहती हो। मैं आपके आँसू पोछना चाहती हूँ पर कैसे? अभी तो हमारे हाथ आपके चेहरे तक भी नहीं पहुँचते हैं, पर दोनों बहनें सोच रही हैं कि इसमें हमारा क्या कसूर है यह तो आप जानती ही हैं। पर अब हमें भी पापा और दादी से डर लगने लगा है कि क्या वे हमें भी आपकी तरह सताएँगे? मम्मी आप तो आत्मनिर्भर हो। फिर इन सबकी बातें क्यों सुनती हो? चाहो तो आप उनसे अलग भी तो रह सकती हो। यह आपके लिए कठिन होगा मगर हम जानते हैं कि आप पापा और दादी से अलग नहीं होना चाहती। उनका बहुत सम्मान करती हो। उन्हें प्यार करती हो। उनके हृदय परिवर्तन का इंतजार कर रही हो। इसीलिए तो आप यह सब सह रही हो। मम्मी एक बात पूछूँ? आप यह सब बातें अपनी मम्मी यानी हमारी नानी को क्यों नहीं बतातीं? शायद वे हमारी मदद कर सकें। ओहो! हम भी तो कितने बुद्धू हैं। आप नानी को अपनी समस्या इसलिए नहीं बतातीं कि उन्हें दुःख होगा। आप उन्हें दुखी देखना नहीं चाहतीं जैसे हमें आपको परेशान देख कर दुःख हो रहा है पर मम्मी आप चिंता मत करो। जरूर कोई न कोई रास्ता निकलेगा। फिर हम सब प्यार से रहेंगे। आप निराश मत होना हिम्मत रखना। आप ही तो एक हो जो हमें हमारी सुंदर दुनिया दिखा सकती हो। हम इस दुनिया में आना चाहती हैं। देखना चाहती हैं इस रंगबिरंगी दुनिया को। आप निराश हो गयीं तो सब गड़बड़ हो जाएगा। आपको बचाना होगा अपने आप को और हमें भी। मम्मी हम मरना नहीं चाहते। हमें आपके पास आना है। आपके हाथों में झूलना है। आपके आँसू पोछने हैं। पापा और दादी का दिल जीतना है। उन्हें बदलना होगा। इस दुनिया की सुंदरता के बारे में आपने हमें बहुत सी कहानियाँ सुनाई हैं, पर मम्मी इतनी सुंदर दुनिया में हमारे अपने ही हम बेटियों से नफरत क्यों करते हैं? हमें भी तो इस सुंदर दुनिया को देखने का मानवीय हक है। दादी भी तो कभी छोटी रही होंगी। बुआ भी तो उनकी बेटी हैं। क्या उनकी सास ने भी उन्हें ऐसे ही सताया था? जो आपको हमारी वजह से सताया जा रहा है। यदि हम में एक भइया होता तो भी पापा और दादी क्या ऐसे ही आपको सताते? या हम में से कोई एक होती तब भी क्या उसके साथ सौतेला व्यवहार करते? पर हम तो उनकी अपनी संतानें हैं। यदि हम इस दुनिया में आ गयी होती तो पापा और दादी से हाथ जोड़ कर प्रार्थना करतीं कि मेरी मम्मी को मत सताओ। उनका इसमें कोई दोष नहीं है। हम आपके घर की एक नए सदस्य हैं। हमारा मान-सम्मान नहीं कर सकते तो हमारी हत्या तो मत करो। मेरी मम्मी को अपमानित मत करो।’

मीना ने पूरा पत्र पढ़ कर शालिनी की मम्मी को सुनाया तो उनकी आँखों से झर-झर बारिश होने लगी थी। उनकी आँखों में उन सबके लिए नफरत उभर आई थी। उनके दिल में कुछ दरक रहा था। वह क्या था विश्वास, दर्द अपनापन या कुछ और?


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रजतरानी मीनू द्वारा भी