चिट्ठियाँ
- 1 October, 2015
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- 1 October, 2015
चिट्ठियाँ
चिट्ठियाँ आने पर
हुलस उठता था मन
घर का कोना-कोना
दौड़-दौड़ कर
आ बैठता था पिता के पास
दीवारें सुनने लगती थीं कान लगाकर
खिड़कियों में बैठी हवा
पुलक-पुलक उठती थीं हर शब्द पर
सरकती हुई धूप
पुचकार लेती थी अक्षर-अक्षर
दालान में चौधरी से गपियाते बाबा
चारपाई पर लेटी
गठिया से कराहती दादी
छोटे कमरे में
रेडियो सुनती छोटी बुआ
आम का अचार डालती माँ
सब के सब…
दौड़े चले आते थे पिता के पास
सामने वाले घर में
खिड़की में बैठी
माला जपती रतनमाला बुआ
सिर पर ढँके पल्ले को
आगे सरकाती हुई
पूछने लगती थी पिता से
‘कैसी है किसना बिटिया ससुराल में।’
‘मगन है अपनी घर-गिरस्ती में’
पिता देते थे उत्तर
छलछला उठती थीं एक साथ कई आँखें
और फिर…
घर भर के हाथों में घूमती थी चिट्ठियाँ
बहुत लाड़ पाती थीं
सबकी आँखों से
झरती थीं चिट्ठियाँ
Original Image: Three women reading a letter
Image Source: WikiArt
Artist: Domenico Induno
Image in Public Domain
This is a Modified version of the Original Artwork