मिट्टी के बरतन
- 1 October, 2015
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- 1 October, 2015
मिट्टी के बरतन
कहाँ गए मिट्टी के बरतन
अब गाँव में भी नहीं दिखते
कहीं नहीं दिखती
चूल्हे पर चढ़ी हांडी
न पनघट या कुएँ
अथवा नल के घड़े
और न ताखे पर
मिट्टी के दीये
अब नहीं आती
लकड़ी की धीमी आँच पर
पकती खिचड़ी की सोंधी सुगंध
न मिलता है मिट्टी की खपड़ी में
सिंकती मुलायम रोटी का स्वाद
मटके के दूध-मक्खन
करने के सजाव दही
नदिये में पकी खीर की मिठास
न चुक्कड़ के जल की शीतलता
बीसवीं सदी के मध्य से
विज्ञान के पंख पर सवार हो
ऐसे आये अल्युमिनियम, स्टील
प्लास्टिक और फाइबर कि
सब कुछ हो गया गंधहीन-बेस्वाद
दरकिनार कर दिए गए
मिट्टी के बरतन
फूल, पीतल और काँसे के बरतन भी
बंद हो गए संदूक में
कभी-कभ तीज-त्योहार में
बाहर आते भी थे –
गगरा, परात, थाली और लोटे
किंतु, दादी के मरने के बाद
धूप, हवा तक नहीं लगती
अब तो इसलिए भी
नहीं निकाले जाते कि
कौन माँज-माँज कर चमकाएगा
इन चितियाये बरतनों को
एक समय था कि
दैनिक उपयोग में
फूल, पीतल और कांसे के बरतनों के
साथ-साथ सहोदर-सा
रहते थे मिट्टी के बरतन
अब तो अछूत हो गए
मिट्टी के बरतन
बंद हो गया
प्रायः इनका निर्माण भी
इक्कीसवीं सदी में
जब पूछेंगे बच्चे कि
कैसे होते थे मिट्टी के बरतन
तो आप क्या कहेंगे ?
Original Image: A Sleeping Dog with Terracotta Pot
Image Source: WikiArt
Artist: Gerrit Dou
Image in Public Domain
This is a Modified version of the Original Artwork