लौट आओ

लौट आओ

लौट आओ मेरे गुड्डू तुम
चले गए कहाँ !

पथरा गई आँखें
बाट जोहते-जोहते
हुई कौन सी भूल हमसे
तुम इस कदर रूठ गए
दशरथ के राम भी वनवास गए थे
चैदह वर्ष बाद वे भी लौट आए
दशरथ की तरह
काका ने भी त्याग दिए प्राण
हा, गुड्डू! कहते हुए
कौशल्या माँ भी बूढ़ी हो चली
पेट-पीठ एक कर ली व्रत करते
आज तक उसके आँसू नहीं सूखे
स्नेह के विछोह की धार अजस्र
आज भी अविरल
उनके कपोलों को भिंगोती है।
अश्रु बूँदों से ही होता है उनका शृंगार
अपलक द्वार निहारते
उनके अश्रुपूरित नेत्र
निश्तेज से हो गए हैं…!

अब लौट आओ गुड्डू तुम…!
दरवाजे की हर आहट में
हम तुम्हारी पदचाप महसूसते हैं
हरबार दामन में निराशा ही मिलती है।
क्या राखी की भी याद नहीं आती तुम्हें
अपनी सूनी कलाई भी नहीं निहारते
आज भी तुम्हारे दिए
राखी के उपहारों को सहेज रखी है
सोलह वर्ष बाद भी राखी के उपहार में
निराशा ही दोगे मेरे गुड्डू!

अब लौट आओ गुड्डू तुम…!
होली के दिन रंग में डूबा
कोई बच्चा जब
आनंद में विभोर दिखता
तब हिरण सी कुलाचें भरती
तुम्हारी निश्छल अदाएँ
मन को घेर लेती हैं
रंग-विरंगे चित्र उभर आते
तुम्हारी यादों के
तुम्हारी यादों को रोक नहीं पाती न!
अहर्निश सावन के बादलों सा
उमड़ती-घुमड़ती तुम्हारी यादें
मन को आच्छादित कर लेती हैं!
और फिर
जिंदगी की सारी चमक
उन बादलों की भेंट चढ़ जाती हैं।

तुम्हें कुछ भी याद नहीं मेरे गुड्डू ?
गम, क्षोभ, क्रोध सारे
भुला दो सब यदि कोई हो
काकी के निष्प्राण शरीर में
प्राण का संचार करो मेरे गुड्डू
तुम्हारी ही आस में शायद
यम को भी लौटा दिया है उसने
अपने द्वार से कई-कई बार
पर कितनी बार….!

अब लौट आओ गुड्डू तुम…!
कितनी ही ऋतु आए
किंतु उदासी नहीं गई घर से
एक बार घर में मुस्कान भरो फिर
अपने उसी सुकोमल,
सुंदर अस्तित्व लिए लौट आओ गुड्डू

अब तो लौट आओ गुड्डू तुम…!
कहीं यह बचपन की
वह लूका-छीपी तो नहीं
जब हम परेशान होते तुम्हें ढूंढ़ने में
पर तुम जो छिपते तो फिर कहाँ मिलते
किंतु एक विश्वास
भरा रहता था मन में
तुम यही कहीं छिपे हो, मिलते नहीं
अब हम सबने हार मान ली
ओ मेरे छिपने वाले
अब तो सामने आ जाओ
अब तो लौट आओ गुड्डू तुम….!


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Artist: Vladimir Makovsky
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