मुक्तक कवि कालिदास
- 1 August, 1953
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- 1 August, 1953
मुक्तक कवि कालिदास
काव्य-प्रकार के प्रसंग में ‘मुक्तक’ का नाम आता है। मुक्तक नाम की सार्थकता इसी में है कि वह पूर्वापर-निरपेक्ष पद्य हो। यों तो महाकाव्य के असाधारण किंतु अनिवार्य बहुतेरे गुणों का उल्लेख कर चुकने के बाद उपसंहार इन्हीं शब्दों से हुआ है–
“वाग्वैदग्ध्यप्रधानेऽपि रस एवात्र जीवितम्”–वचन-रचना की प्रधानता रहने पर भी कवित्व का प्राण रस ही है, अत: मुक्तक के लिए भी ‘अग्निपुराण’ की यह चेतावनी महाकाव्य के समान ही समझी जानी चाहिए। कहें, तो सागर को गागर में भरने की विदग्धता मुक्तक में ही अधिक अपेक्षित रहने के कारण इसके निर्माण को क्लिष्टतर कह सकते हैं। यहाँ महिमा को अणिमा में समेटना पड़ता है; गरिमा को लघिमा में अक्षुण्ण रखने की साधना करनी पड़ती है। परिभाषा मुक्तक की अभिसंक्षिप्त है–
“मुक्तकं श्लोक एवैकश्चमत्कारक्षम: सताम्”–कि सहृदयों को चमत्कृत करने वाला एक ही श्लोक काव्य है; किंतु यह संक्षिप्तता तब विराट् बन जाती है जब श्लोक के चार चरणों में ही रस का सम्यक निर्वाह करना पड़ता है क्योंकि यहाँ उसकी सामग्री को उभार कर दरसाने के योग्य ‘कैनवास’ नहीं होता। फिर भी मुक्तक के सूक्ष्म शरीर में महान समारोह के साथ रस को प्रतिष्ठित करने वाले कविगण पाए जाते हैं। आचार्य आनंदवर्धन ने लिखा है–
“मुक्तकेषु हि प्रबंधष्विव रसबंधाभिनिवेशिन: कवयो दृश्यंते। यथाहि अमरुकस्य कवेर्मुक्तका: शृंगाररसस्यन्दिन: प्रबंधायमाना: प्रसिद्धा एव”–अमरुक की ही भाँति आगे चलकर पंडितराज ने प्रबंधायमान मुक्तकों की सृष्टि की है। और, भर्तृहरि, गोवर्धन आदि के संस्कृत तथा हाल के प्राकृत मुक्तकों के अतिरिक्त अपभ्रंश में मुक्तक रचना की चर्चा भी ‘ध्वन्यालोक’ में आई है–दंडी ने उक्त भाषाओं की परिभाषाएँ काव्यादर्श में दी हैं–यह सब मुक्तकों की विविधता, लोकप्रियता का ही परिचायक है।
मुक्तक और गीतिकाव्य
आधुनिक गीतिकाव्य मुक्तक काव्य का विवर्त हो सकता है पर उसी का एक रूप-विशेष नहीं। गीतिकाव्य के मूल में आत्मनिष्ठता का जो आग्रह अनिवार्य है वह मुक्तकों में सर्वत्र नहीं पाया जाता। और व्यक्ति चेतना की मार्मिक अभिव्यक्ति के अभाव में गीतिकाव्यत्व दुर्लभ है।
भरत ने लास्य के अंगों में ‘गेयपद’ का प्रथम उल्लेख किया है–
‘आसने चोपविष्टायां तंत्रीभाण्डोपवृंहितम्
गायनैर्गीयते शुष्कं तद् गेयपदमुच्यते’
ऐसा प्रतीत होता है कि कालिदास ने यक्ष प्रिया के इस मर्मस्पृक् चित्रण में भरतोक्त ‘गेय पद’ को ध्यान में रखा था–
“उत्संगे वा मलिनवसने सौम्य निक्षिप्य वीणां
मद्गोत्रांकं ‘विरचितपदं’ गेयमुद्गातुकामा
तंत्रीमार्द्रां नयनस लिलै: सारयित्वा कथंचिद्
भूयोभूय: स्वयमपि कृतां मूर्च्छनां विस्मरंती।”
निश्चय ही यह ‘गेय पद’ मुक्तक से गीतिकाव्य तक प्रसरणशील है।
यहाँ ऐसी आशंका न की जानी चाहिए कि किसी दृश्य-श्रव्य प्रबंध के अंतर्गत जो पद्य होते हैं उनमें परस्पर संबंध होता है अत: उनमें मुक्तकत्व की संभावना ही नहीं रहती। कारण, उन पद्यों में पार्यंतिक सापेक्षता अवश्य होती है; किंतु अनेक स्थानों में पूर्वापर प्रसंग के बोध के बिना भी शब्दार्थ के बोध में बाधा न होने तथा कहीं-कहीं रसास्वाद में भी किसी प्रकार के विघ्न की संभावना न रहने से मुक्तकत्व की उत्पत्ति होती है, क्योंकि आखिर मुक्तक से हमारा क्या तात्पर्य है? यही तो कि उसे पूर्वापर की अपेक्षा न हो और वह रस-चर्वणा का प्रयोजक अवश्य हो!
जैसे–
“यात्येकतोऽस्तशिखरं पतिरोषधीना–
माविष्कृतारुणपुरस्सर एकतोऽर्क:
तेजोद्वयस्य युगपद् व्यसनोदयाभ्यां
लोको नियम्यत इवैष दशांतरेषु।”
एक ओर चाँद डूब रहा है और दूसरी ओर से अरुण केतन फहराता हुआ सूरज बढ़ता आ रहा है। इस प्रकार, एक ही समय में इन दो तेजस्वियों के उत्थान-पतन का भी कुछ विशिष्ट अभिप्राय है। वह जैसे एक सूक्ष्म संकेत है कि ऐसे ही सुख-दु:ख का चक्र चलता रहता है; कोई सूरमा हो या दुर्बल–उसके जीवन में भी एकरसता संभावित नहीं है; चढ़ाव-उतराव–जैसे यही गति की स्वाभाविकता है। इसमें भी सूक्ष्मतर व्यंजना है कि मानव-जीवन को पतन की घड़ियों में भी निराश न होना चाहिए–जैसे अभ्युदय में इतराना न चाहिए, क्योंकि किसी भी घड़ी दशाविपर्यय संभावित है। कालिदास के इस पद्य से, पूर्वापर प्रसंग के ज्ञान के बिना भी, संपूर्ण अर्थोपलब्धि होती है, अत: यह मुक्तक के गुणों से सहज आवेष्टित है। यह गीतिकाव्य भी है, क्योंकि इसके द्वारा वक्ता का भावोच्छवास अभिव्यक्ति प्राप्त कर रहा है।
भाव चाहे सुखात्मक हो, चाहे दु:खात्मक, जब वह उमड़-घुमड़ कर हृदय को ढँक लेता है, तब उसकी संपूर्ण अभिव्यक्ति नहीं होती। आंशिक अभिव्यक्ति कथनोपकथन किंवा कार्य-कलाप द्वारा होती है; किंतु निगूढ़ अंश वाणी प्राप्त करने के लिए मचलता रहता है, वही अनभिव्यक्त, (वार्तालाप या क्रियाकलाप द्वारा) अगूढ़ अंश गीतिकाव्य का विषय है। आपातत: जो दिखलाई नहीं देता; साधारणत: जो अनुमेय भी नहीं, वही भावाकुल हृदय का निरुद्ध उच्छवास गीतिकाव्य की सामग्री है। ऊपर का पद्य ऐसा ही है। इसी कसौटी पर निम्नलिखित पद्य को भी परखना चाहिए–
‘रम्याणि वीक्ष्य मधुरांश्च निशम्य शब्दान्
पर्यत्सुकी भवति यत् सुखितोऽपि जंतु:
तच्चेतसां स्मरति नूनमबोधपूर्वं
भावस्थिराणि जननांतरसौहृदानि।’
निश्चय ही यह निगूढ़तम की अभिव्यक्ति है। इसकी विशेषता यहीं समाप्त नहीं हो जाती कि वक्ता या बोद्धव्य की चिंता किए बिना भी यह स्वतंत्र रूप से अर्थ की व्यंजना में क्षम है, प्रत्युत यह मन के मंथन की सहजानुभूति को–अदृश्य-अस्पृश्य भावोच्छ्वास भाषा की सुंदरता में उलझा कर, द्रव को जमा कर, अरूप को आँखों के आगे खड़ा कर दिखला सकने की असाधारण सामर्थ्य के कारण ही गीति-तत्त्व से मुखरित है। कवि कहता है–सुंदरता की झाँकी लेकर या संगीत सुनकर सुख में आकंठ मग्न प्राणी भी जो उत्सुक-उद्भीव हो उठता है वह अवश्य ही अचेतनमन में चिर संचित किंतु तत्काल-विस्मृत किसी बिछड़े हुए के प्यासे प्यार की सुध में बेसुध हो-हो उठता है।
कवींद्र रवींद्र ने लिखा है कि कालिदास के काव्यों में धारावाहिक गति नहीं है। उनका प्रत्येक श्लोक संपूर्ण और स्वतंत्र है। प्रत्येक श्लोक स्वतंत्र हीरक-खंड की भाँति उज्ज्वल और सारा काव्य हीरक-हार के समान सुंदर देख पड़ता है। किंतु नदी की नाईं न तो उसमें कलकल ध्वनि है और न अविच्छिन्न धारा-प्रवाह ही।
कवींद्र की स्थापना का निष्कर्ष यह है कि संस्कृत में गीतिकाव्य की रचना हो ही नहीं सकती। कारण वह भाषा की अस्वाभाविकता बताते हैं। मैं समझता हूँ, जन-पदीय बोलियों या प्रांतीय भाषाओं में भावाभिव्यक्ति का प्रकार और है और परिमार्जित, सुसज्जित, शिक्षा-सापेक्ष भाषा–संस्कृत में और। कालिदास के शब्दों में पहली वनलता और दूसरी उद्यानलता है। अनगढ़ वन्य विकास जिस कारण आकर्षक है, नागरिक सुषमा का सलज्ज उभार उसी कारण नहीं। दोनों की सम-विषम तुलना पर यह उक्ति स्मरणीय है–‘ध्रुवं स नीलोत्पलपत्रधारया शमीलतां छेत्तुमृषिर्व्यवस्यति।’
गीति-काव्य और प्रकृति
कालिदास के काव्याह्वान का विस्तृत पट प्रकृति है। वह प्रकृति और मनुष्य के बीच रागात्मक संबंध स्थापित करने वाले कवि-कलाकारों में अद्धितीय हैं। नीले आकाश में उजले बादल चाहे जितने सुंदर हों; किंतु रूमझूम कर बरसते हुए काले-कजरारे बादलों और उन्हें अपने में घुला लेने को बावरे हुए नयनों के बीच जो एक अमूर्त स्पर्श है; रागात्मक अनुस्यूति है उसके स्रष्टा कालिदास हैं। कहना अनावश्यक है, गीतिकाव्य की प्रकृति के कितना अनुकूल है यह चित्र का संगीत-बंधन! प्रकृति की गति तथा सौंदर्य-चेतना के साथ भाव-सामंजस्य का निदर्शन संपूर्ण ‘मेघदूत’ है। स्वानुभूति की स्वच्छंद अभिव्यक्ति को काव्यात्मक प्रतिष्ठा प्रदान करना संस्कृत की परंपरा के प्रतिकूल है; किंतु प्रकृति के सप्राण आवेष्टनों के बीच मानवीय व्यापक भावनाओं की गीतितरंगों से वह आमूल अभिषिक्त है, इसमें संशय नहीं–
पर्याप्तपुष्पस्तवकस्तनाभ्य: स्फुरत्प्रवालोष्ठमनोहराभ्य:
लता वधूभ्यस्तरवोऽप्यवापु विंनम्रशाखाभुजबंधनानि।
ऋतु-परिवर्तन में वनस्पति जगत् के नवीन रूपों में मानव-जीवन से संबद्ध उपस्थिति रहती है। तिमिर तथा आलोक की आँखमिचौनी की भाँति यह मानवीय द्वंद्व-भावनाओं से हिलामिला होता है। यहाँ अपनी नवीनता में वसंत की भाँति निदाघ भी स्वीकृत है–
सुभगसलिलावगाहा: पाटलसंसर्गसुरभिवनवाता:
प्रच्छायसुलभनिद्रा: दिवसा: परिणामरमणीया:।
ग्रीष्म की उत्तप्त प्रकृति जैसे परिणाम में रमणीय हो गई है वैसे ही जीवन की जटिलताओं में भी मंगल का निविड़ भाव निगूढ़ रहता है।
कुसुमजन्म ततो नवपल्लवा:
तदनु षट्पदकोकिलकूजितम्
इति यथाक्रममाविरभून्मधु
द्रुर्मवतीमवतीर्य्य वनस्थलीम्।
यहाँ वसंत का जैसा क्रमिक उदय तथा अभ्युदय अंकित है वह जीवन में मधुमास की आभा के आभास, सुवास एवं उल्लास का भी वास्तविक क्रम है।
स्रा मंगलस्नानविशुद्धगामी
गृहीतपत्युद्गमनीयवस्त्रा
निर्वृत्त पर्जन्य जलाभिषेका
प्रफुल्लकाशा वसुधेव रेजे।
वर्षा की वारिधारा से अभिषिक्त हो चुकने के बाद खिले हुए काश-कुसुमों वाले शारद प्रकृति की सौंदर्य-गरिमा से उपमिता होकर पार्वती जो भावात्मकता ग्रहण करती हैं वह जड़-चेतन का छायातप-सा आलिंगन है; दो मेघ-खंडों को जैसे सतरंगी सुरधनु जोड़ रहा हो!
विश्रांत: सन् ब्रज वननदीतीरजातानि सिंचन्
उद्यानानां नवजलकणौर्यूथिकाजालकानि
गण्डस्वेदापनयनरुजा क्लांतकर्णोत्पलानां
छायादानात् क्षणपरिचित: पुष्पलावीमुखानाम्।
जंगली नदियों के किनारे-किनारे आप उगे जुही के गुच्छों को नन्हीं-नन्हीं बूँदों से सींचकर मेघ चुपचाप नहीं चला जाता, बल्कि वहीं फुलवारियों में फूल चुनती मालिनों के पसीने से तर मुखड़े पर अपनी ठंडी छाँह भी डालता हुआ हौले-हौले सरकता है।
इस प्रकार गीति-कविता का प्रकृति के साथ भावात्मक संबंध देखते ही बनता है। अवश्य इस संबंध के मूल में मानव की प्रकृति से साहचर्य-भावना ही रहती है और यह भावना ज्यों-ज्यों क्षीण पड़ती जाती है त्यों-त्यों गीतिकविता की संभावना भी कम होती जाती है।
(ऑल इंडिया रेडियो के सौजन्य से)
Original Image: Strawberry Thief
Image Source: WikiArt
Artist: – William Morris
Image in Public Domain
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