वर्षा-मंगल
- 1 August, 1953
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- 1 August, 1953
वर्षा-मंगल
घिर आए घनश्याम गगन में भर आए मेरे लोचन हैं?
अंतरिक्ष में बिखरे सहसा
किसके ये काले कुंतल हैं?
नभ की सरिता में उग आए
किसकी छवि के नील कमल हैं?
पड़ी दिगंतों की बाँहों में
किसकी काया अलस शिथिल-सी?
ध्वनित-प्रतिध्वनित मेघ-मंद्र में सहसा किसके स्वर मोहन हैं?
घिर आए घनश्याम गगन में भर आए मेरे लोचन हैं!
दूर-दूर जैसे पावस की
वंशी-सी बज उठी अचानक
स्वप्न-मूर्ति साकार हुई हो,
जिसे देख कर आँखें अपलक।
मन के वातायन से जैसे
झाँक-झाँक कर उतर-उतर कर
उर-आँगन में आईं सहसा मधु-छायाएँ चपल-चरण हैं!
घिर आए घनश्याम गगन में भर आए मेरे लोचन हैं!
धरती से अंतर की तृष्णा
बादलदल का लोक सजल है,
धरती के अंतर की ज्वाला
विद्युत् का आलोक नवल है,
उतरो-उतरो हे नभवासी,
तृषित धरा की ज्वाल-भूमि में
तृण-तरु रज-कण नद-निर्झर सब करते आकुल अभिनंदन हैं!
घिर आए घनश्याम गगन में भर आए मेरे लोचन हैं!
धरती की चिर तृषा शांत हो,
उग आएँ नूतन स्नेहांकुर;
बजने लगें प्राण-वीणा में
स्वर्ण रागिणी, आशा-नूपुर!
धरती के मानस के नभ में
हो स्वप्नों का सुरधनु अंकित
सुने भूमि अंबरवासी के बजते भू पर मृदु शिजन हैं!
घिर आए घनश्याम गगन में भर आए मेरे लोचन हैं!
भींगे धरती का कण-कण
आनंद-हर्ष के मधु-वर्षण में,
डूब जाए जीवन का क्रंदन
प्राणों के सुमधुर गायन में,
बदल जाए यह ज्वालवेश
हो धरणी नूतन हरित मर्मरित
तुम से माँग रहे युग-युग के ताप-शाप स्नेहार्द्र शरण हैं!
घिर आए घनश्याम गगन में भर आए मेरे लोचन हैं!
[2]
आज बरसते हैं बादलदल मन की पीड़ा भींज रही है!
देख ताप-तृष्णा धरती की
नभ का उमड़-घुमड़ आया मन,
देख विपुल ज्वाला धरती की
नभ के भर-भर आए लोचन,
नभ के प्राणों में बादलदल
भू की पीड़ी की परछाईं,
मेघों की पाषाण-कठिन छाती भी आज पसीज रही है!
आज बरसते हैं बादलदल, मन की पीड़ा भींज रही है!
धीरे-धीरे बरस रही हैं
अमृत-फुहारें रिमझिम-रिमझिम,
धीरे-धीरे टूट रही है
भूमि-गगन की दूरी कृत्रिम,
धीरे-धीरे गगन धर रहा
धरती के अधरों पर चुंबन,
धरती की अवसाद-वेदना धीरे-धीरे छीज रही है!
आज बरसते हैं बादलदल, मन की पीड़ा भींज रही है!
अंबर की बाँहों में बँधता
जाता भू का प्यासा यौवन,
भू के प्राणों में मुखरित है
अंबर का प्रणयाकुल निस्वन,
भू-अंबर मिल आज गा रहे
एक स्वप्न-संगीत मनोरम,
दूर खड़ी छाया विषाद की मन ही मन लो, खीज रही है!
आज बरसते हैं बादलदल, मन की पीड़ा भींज रही है!
बरस रहे हैं सोने के घन
पुलकित हैं तृण तरुकिसलय-दल,
धरती के उर की सीपी में
आशाओं के मोती उज्ज्वल,
कोई सृजन-चेतना जैसे
धरती का अभिषेक कर रही
और, मृत्तिका के कण में बो सुख-स्वप्नों के बीज रही है!
आज बरसते हैं बादलदल, मन की पीड़ा भींज रही है!
[3]
कोई स्वप्न-द्वार पर मुझको जैसे आज पुकार रहा है!
दूर प्रवासी पावस की
उल्लास-बाँसुरी आज बस रही,
दिग्दिगंत की मधुशाला ज्यों
आज अचानक पुन: सज रही,
स्वर्ण चित्र होकर सजीव ज्यों
आज कर रहा नयनोन्मीलन,
कोई स्वप्न-द्वार पर मुझको जैसे आज पुकार रहा है!
तप्त धरा के रोम-रोम में
आज उगे आते आशांकुर,
विश्व-वीणा के तार-तार में
आज भरे आते मोहक सुर,
तप्त धरा के रंध्र-रंध्र में
बज-बज उठती पुलक-रागिनी,
कोई प्रेम-स्पर्श से जैसे अद्भुत रस संचार रहा है!
कोई स्वप्न-द्वार पर मुझको जैसे आज पुकार रहा है!
मिटी जा रही धूम-राशि
बनता आता है चित्र मनोरम,
दृग के सम्मुख खिंचा आ रहा
भावी का सुंदर रेखा-क्रम,
मिटी जा रही शुष्क अनास्था
जगी आ रही रसमय आस्था,
कोई सुख-सुषमा से जैसे रच नूतन संसार रहा है!
कोई स्वप्न-द्वार पर मुझको जैसे आज पुकार रहा है!
भींगेगी, निश्चय भींगेगी
युग-युग की चिर तृषा हृदय की
रिमझिम-रिमझिम बरसेगी
अक्षय रस-धारा मृदुल प्रणय की,
टूटेगी कारा युग-युग की
फूटेगी चैतन्य – निर्झरी,
कोई वर्षा-मंगल से ज्यों भूतल को शृंगार रहा है!
कोई स्वप्न-द्वार पर मुझको जैसे आज पुकार रहा है!
Original Image: Landscape with a Rainbow
Image Source: WikiArt
Artist: Joseph Wright
Image in Public Domain
This is a Modified version of the Original Artwork