आज का फारसी साहित्य
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- 1 August, 1953
आज का फारसी साहित्य
ईरान से अधिक शायद ही किसी देश में साहित्य की कद्र होती है। यह हैरत और आश्चर्य की बात इसलिए भी नहीं है क्योंकि पिछले एक हजार सालों से उसकी साहित्यिक धारा अविच्छिन्न रही है। फिरदौसी ने अपना ‘शाहनामा’ तब लिखा था जबकि अभी ब्रिटेन पर नौर्मन शासकों ने विजय भी नहीं हासिल की थी। मशहूर फारसी कवि हाफिज जगतप्रसिद्ध इतालवी कवि और कलाकार दांते का समकालीन था। और दूसरे फारसी कवि जामी की मृत्यु तब हुई जिस साल कोलंबस ने अमेरिका की खोज की थी। यानी जबकि हमारे तुलसीदास अभी पैदा भी नहीं हुए थे। और ध्यान देने योग्य बात तो यह है कि तब से लेकर आज तक फारसी भाषा में जरा भी परिवर्तन नहीं हुआ है। फारसी के पुराने से पुराने लेखक और कवि भी आज गाँवों और शहरों में उसी तरह समझे जाते हैं, जैसे आज से हजार साल पहले। ‘शाहनामे’ का एक किस्सा आप बाँचने लगिए। ईरान का अपढ़ किसान भी उसे मजे से समझकर उसका रस ले सकेगा परंतु ‘पृथ्वीराज रासो’ के पदों का सही अर्थ करने के लिए हमारे पढ़े-लिखे लोगों को भी विद्वानों की सहायता अपेक्षित होती है, हालाँकि ‘पृथ्वीराज रासो’ फारसी के ‘शाहनामे’ से कहीं अधिक उत्तरकाल की रचना है।
ईरानी लोगों को अपनी इस साहित्यिक विरासत पर फख्र है। उनकी राजधानियों में जाइए तो गलियों के नाम तक आपको उनके कवियों के नामों के पीछे मिलेंगे। अपनी बहुमूल्य विरासत के पीछे आज के साहित्यिक ईरानी इतने मतवाले हैं कि अपने साहित्य के बारे में जितना शोधकार्य उनके देश में हुआ है, जहाँ कि फीसदी के लिहाज से भारत से कहीं कम शिक्षा और साक्षरता, उतना हमारे देश की किसी भी भाषा में नहीं, शायद तामिल को छोड़कर। इसका एक परिणाम यह हुआ है कि आज के फारसी साहित्य में जो बड़े-बड़े नाम गिनाए जा सकते हैं उनमें सृजनात्मक प्रतिभा वाले कम हैं और शोधशास्त्री, संपादक और साहित्यिक समालोचक अधिक।
इन सब में शायद सबसे पहला और एक बहुत बड़ा विद्वान् था मुहम्मद कजविनी। 1877 से लेकर 1949 तक था। इस सदी के प्रारंभ में वह लंदन गया और वहाँ वह प्राच्यतत्व विशेषज्ञ ई.जी. ब्राउन के प्रभाव में आया। तीस साल तक वह पेरिस में अपना सदर दफ्तर बनाकर फारसी की हस्तलिपियों का संपादन करता रहा और उसने समूचे यूरोप के बड़े-बड़े पुस्तकालय छान डाले और पिछली लड़ाई से कुछ ही दिन पहले वह अपने देश वापस जा सका। मैं समझता हूँ कि उसका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य मंगोल विजयों के इतिहासकार जुबैनी की पुस्तक का संपादन और प्रकाशन रहा है जिसके जरिए उसने दुनिया के इतिहास के एक अपेक्षाकृत अंधकारमय हिस्से पर गहरा प्रकाश डाला। कजविनी के दो समकालीन और मशहूर हुए हैं। एक थे मुहम्मद अली फारुगी, जो आज के ईरानी शाह के गद्दीनशीन होने के समय ईरान के प्रधानमंत्री थे और दूसरे सैयद हसन तकीजादेह जो एक जमाने में संविधान आंदोलन के एक नेता थे और पिछली लड़ाई के समय लंदन में ईरानी सरकार के राजदूत थे। आजकल ये ईरानी सेनेट के सभापति हैं। इन दोनों ने भी फारसी साहित्य की खोज में बहुत काम किया है और उस सिलसिले में इनका नाम ईरान में आदर के साथ लिया जाता है।
कजविनी के बाद की संतति के लोगों में जो मशहूर साहित्यिक पंडित हुए हैं उनके नाम हैं–अब्बास इकबाल, सईद नफीसी, मोजतबा मिनाबी और कासिम गनी। इन सबने पुराने फारसी साहित्य को खोजने, संपादन करने का काम जारी रखा। इन लेखकों ने स्वयं बहुत-सी ऐतिहासिक पुस्तकें भी लिखी हैं। और सईद नफीसी, जिन्होंने मिकदार के लिहाज से बहुत अधिक लिखा है, एक अच्छे उपन्यासकार भी हैं। परंतु ऐतिहासिकों में एक महान लेखक सैयद अहमद कसरवि हो गए हैं। बहुत दु:ख की बात है कि 1946 में एक कठमुल्ले ने इनकी हत्या कर दी थी।
उनसे भी नीचे की संतति के लेखकों में हैं मोहम्मद मोईन और इब्राहिम वर ए दाउद। ये दाउद साहब तो आज तेहरान विश्वविद्यालय में अवेस्थान के प्रोफेसर हैं और मोईन साहब ने भी अपने देश के जरदुस्थ भूतकाल पर बहुत कुछ शोधकार्य किया है।
इस सबसे यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि आज के फारसी साहित्य में काव्य का स्थान नहीं रहा है। वहाँ पर काव्य का आज वही स्थान है जो आज से एक हजार साल पहले था। 1937 में रशीद यासेमी ने समकालीन फारसी साहित्य पर एक पुस्तक लिखी थी। उसमें उन्होंने फारसी के गद्य-लेखकों को पुस्तक के अंत के कुछ पन्नों तक ही सीमित रखा है परंतु कवियों पर उन्होंने बड़ी और विशद टीकाएँ की हैं। कहना न होगा कि एक आलोचक के अलावा वे स्वयं भी एक अच्छे और नामी कवि हैं, जिनका नाम हर पढ़ा-लिखा ईरानी अच्छी तरह जानता है।
आज के फारसी कवियों को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। पहली श्रेणी उनकी है जो आज भी फारसी साहित्य की पुरानी शैली पर लिखते हैं। उनके विषय भी वही पुराने हैं। दूसरी श्रेणी उनकी है जो शैली तो पुरानी रखते हैं परंतु उनके विषयों में पर्याप्त नवयुगीन नवीनता है और तीसरी श्रेणी उनकी है जो विषयों के अलावा शैली में भी नवीनता के भक्त और प्रयोगी हैं।
पहली श्रेणी तक कवियों में सबसे पहले नाम बदीउज्जमान फरुलनफर का लिया जाता है। ये तेहरान विश्वविद्यालय में थ्यौलौजी की फैक्लटी के डीन हैं। बाकियों में हैं ईरान मिर्जा (1874 से लेकर 1925 तक) जो फाथ अली शाह के परपोते थे। ये फाथ अली शाह 19वीं सदी के प्रारंभ में ईरान के शाह थे। और बहार (जन्म सन् 1877) जिन्हें मोजफ्फ़र उद्दीन शाह ने (1896 से लेकर 1907 तक) मालेकोशशोआरा, (राजकवि) का खिताब दिया था। इनसे पहले यही खिताब उनके पिता को दरबार से मिला था।
बहुत से लोगों का कहना है कि बहार साहब पहली श्रेणी के कवि न होकर दूसरी श्रेणी के कवि हैं। शायरी के अलावा इन्होंने साहित्यिक शैली पर भी अच्छा काम किया है। इस दूसरी श्रेणी में बहुत से कवि हुए हैं और हैं परंतु उनमें दो बहुत मशहूर हैं। परवीन एहतिशामी (1910 से लेकर 1941 तक) आधुनिक ईरान की सबसे बड़ी कवयित्री कही जाती हैं। और मिर्जा मुहम्मद फारुखी। ये फारुखी साहब अपने देश के नजरुल इस्लाम की तरह थे। जनवादी, गर्म और क्रांतिकारी पहले कजर खानदान से (जो शासक खानदान था) और पीछे रजा शाह पहलवी से इन्हें बहुत यातनाएँ सहनी पड़ीं। और उन्हीं नारकीय यातनाओं को सहते-सहते 1939 में उनकी मृत्यु हो गई। ईरानी राष्ट्रीय तेल कंपनी के भूतपूर्व मंत्री हुसैन मक्की ने इनकी कविताओं का समुचित संपादन और प्रकाशन करवाया है।
तीसरी श्रेणी के कवियों में अधिक जवान लोग हैं। एक लोत्फ अली सूरतगर हैं। ये अधिकतर अँग्रेजी कवियों के मॉडल पर लिखते हैं (ये तेहरान विश्वविद्यालय में अँग्रेजी के प्रोफेसर हैं और फारसी भाषा में इन्होंने अँग्रेजी साहित्य का एक इतिहास लिखा है) और दूसरे हैं परवेज खानलारी। ये कवि होने के साथ ही एक आलोचक भी हैं। इनकी एक बड़ी मशहूर कविता है ओकाब (गृघ्र) जो उन्होंने मरहूम सादेक हिदायत को समर्पित की थी।
ये सादेक हिदायत एक नामी साहित्यिक हो गए हैं। हालाँकि ये कोई शोधशास्त्री या कवि नहीं थे तो भी इनकी लिखी कहानियाँ आज के फारसी साहित्य में बहुत मशहूर हुई हैं। हालाँकि फारसी साहित्य में गद्य का विकास बहुत हाल ही में हुआ है तो भी ईरानी लोग सदा अच्छे कथावाचक रहे हैं। (फिरदौसी, निजामी, सादी और रुमी अगर अच्छे कथाकार नहीं थे तो और क्या थे?) हिदायत साहब की कहानियाँ फारसी साहित्य के लिए एक नई चीज रहीं और यह तो तय ही है कि नई चीजों से परंपरावादियों को सदा नफरत रहती है। इनके अलावा फारसी में एक और अच्छे कथाकार हो गए हैं। आज से तीस साल पहले सैयद मोहम्मद अली जमाल जाहेद साहब ने अपनी कहानियों का संग्रह प्रकाशित किया था जिसका शीर्षक था ‘येकी बुद येकी नाबुद’ (एक समय की बात है) इस संग्रह के प्रारंभ में उन्होंने फारसी साहित्य को जनता तक पहुँचाने के लिए पुरानी शास्त्रीय परंपराओं को छोड़कर जनता के पास जाने के लिए जनता की भाषा के शब्द इस्तेमाल करने के लिए और काव्य से अधिक उपन्यास और कहानी पर अधिक जोर देने के लिए लिखा था।
कहना न होगा कि जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे उनकी बात फारसी साहित्य में घर करती गई। उनकी अपनी कहानियों में गरीब से गरीब लोगों का बड़ा सच्चा चित्र उतरा है। क्योंकि उन्होंने साहित्यिकों को पंडितों के स्तर से लाकर जनता के स्तर पर ला बैठाया। फारसी भाषा के लिए यह शैली एकदम नई चीज थी। जमालजादेह की भाषा में जन-जीवन निखरकर मुखर हो पड़ता है। उनका हास और रुदन धूप की चमक की तरह इकसार बिखर जाता है। अपने साहित्य में उनकी कुछ तुलना (पूरी तरह से नहीं) प्रेमचंद से की जा सकती है। हालाँकि जमालजादेह अभी भी लिख रहे हैं परंतु ‘येकी बुद येकी नाबुद’ उनकी अमर रचना है, जो आज की महान ईरानी पुस्तकों में निस्संदेह गण्य है।
ऊपर सादेक हिदायत का नाम आया है। मैं समझता हूँ कि उनके बारे में हमें कुछ जानना अवश्य चाहिए। वे भी एक बड़े अच्छे कहानीकार हो गए हैं। ये जमालजादेह के चेले थे। उनका जन्म 1903 में तेहरान में एक नामी खानदान में हुआ था। परंतु उनकी कलम से भी अगर अच्छे चित्र निकले तो निपट गरीबों के ही। उन्हें कभी-कभी अँग्रेजी के लेखक जौन गौल्सवर्दी के साथ मिला कर देखा जाता है। जो मैं समझता हूँ कि बहुत कुछ सही भी है। 1926 से लेकर 1930 तक ये फ्रांस में शिक्षा पाते रहे। परंतु उन्होंने खास डिग्री नहीं हासिल की। उन्होंने उस अर्से में काफी कहानियाँ लिखीं, जो पीछे जाकर ‘जेंदा बेगुर’ (जिंदा दफन), ‘सेह कतरे खून’ (तीन बिंदु खून) और ‘बूफे कुर’ (अंधा उल्लू) नामक संग्रहों में सुरक्षित की जा सकीं। 1936 से लेकर 1937 तक ये बंबई में रहे और इन्होंने एक फारसी विद्वान् के पास रह कर फारसी साहित्य के पहलवी का गहरा अध्ययन किया। इनकी ‘बूफे कुर’ जो सबसे उत्तम रचना समझी जाती है, इसी काल में लिखी गई। तबसे लेकर ये ईरानी सरकार के विभिन्न पदों पर रहे और अपनी मृत्यु के समय तेहरान विश्वविद्यालय की ललित कलाओं की फैकल्टी में एक अनुवादक की हैसियत से काम कर रहे थे। 1950 के शीतकाल में ये पेरिस गये और 1951 के मार्च मास में इन्होंने कमरे में गैस खोल कर अपनी आत्महत्या कर ली।
सवाल उठता है कि उन्होंने आत्महत्या क्यों की? हिदायत साहब एक ऊँचे तबके के लेखक होने के साथ ही जनता की जनवादी विचार और संघर्षधारा से बहुत दूर रहे। और इसीलिए उनमें एक प्रकार की मृत्युप्रियता घर कर गई। यों तो उनकी आत्महत्या से पहले ही उनके एक अजीज दोस्त और समकालीन लेखक शहीद नूराई की और उनके बहनोई और ईरान के प्रधानमंत्री जनरल राजमास की हत्या धार्मिक कठमुल्लों ने कर दी थी, जिनका बड़ा सदमा उन्हें हुआ था। तो भी वे बहुत कुछ भाग्यवादी थे। अपने कहानी-संग्रह ‘जेंदा बेगुर’ की पहली कहानी जिस पर संग्रह का नाम है, में वे लिखते हैं…“कोई भी व्यक्ति आत्महत्या करने का निर्णय नहीं करता है। कुछ लोगों की कुदरत में ही यह बात होती है। वे इससे बचकर नहीं भाग सकते हैं। यह भाग्य का काम है…”
हिदायत साहब पर फ्रांसीसी और जर्मन लेखकों का भी काफी असर पड़ा था और दो महायुद्धों के बीच में इन दोनों महान साहित्यों में पर्याप्त निराशावादी साहित्य गढ़ा गया, जिसका परिणाम उनके जीवन में बड़ी तेजी से हुआ।
वे रहने में बड़े सादे थे। अपने मित्रों के प्रति बहुत सहृदय और सच्चे थे। कमजोर और अरक्षित व्यक्तियों के वे त्राता थे। पशुओं और पक्षियों की पीड़ा देखकर ही वे निरामिष-भोजी हो गए थे। यहाँ तक कि इस्लाम में जिस जानवर ‘कुत्ता’ को सबसे हिकारतभरी नजर से देखा जाता है उनकी एक कहानी ‘साग ए बेलगर्द’ (भटकता हुआ कुत्ता) का वही नायक है। पर इतना सब होते हुए भी वे योद्धा नहीं थे। उनमें समाज की गलित और जर्जर शक्तियों से लोहा लेने का माद्दा नहीं था। वे सुधारवादी आंदोलक तक की सतह तक नहीं पहुँच पाए थे और इसीलिए उन परिस्थितियों में उन पर निराशावादी चक्कर लगना बहुत कुछ स्वाभाविक था।
परंतु अपनी भाषा और शैली में वे जमालजादेह से भी एक कदम और आगे बढ़ सके। उनकी भाषा में गरीबों के शब्द ही नहीं बोलते हैं वरन् उनकी समूची भाषा अपने उच्चारण-वैविध्य के साथ और अपने विशिष्ट परंतु सरस व्याकरण के साथ बोलती है। अपना सही स्थान लेती है, जो जमालजादेह में अभी तक नहीं पाया जाता है। कहना न होगा कि जैसे जमालजादेह को अपने समय के परंपरावादियों का कोपभाजन होना पड़ा वैसे ही हिदायत साहब को भी!
अपनी इस विशिष्टता के कारण उनके भी कई चेले हुए जिनमें शायद सबसे अधिक नामी सादेक चुबक ही हो सके हैं। कहा जाता है कि चुबक साहब ने अपने उस्ताद के काम को आगे बढ़ाया है और बढ़ाते जा रहे हैं। और रोज नए लेखक जमालजादेह और सादेक हिदायत के पथ पर चले जा रहे हैं। परंतु नए लेखकों के पास अधिक उत्साह है। अधिक अध्ययन है। अधिक जन-जीवन है और सर्वोपरि उनका जीवन दर्शन निराशा से प्रेरित नहीं है। उनमें संघर्ष की प्रेरणा ही नहीं है वरन् उसके नेतृत्व की शक्ति और क्षमता भी है।
यद्यपि आज के फारसी साहित्य में शास्त्रवादियों की पूछ काफी है तो भी नया विकास जनता की भाषा में जन-जीवन को प्रक्षेपित करने की दिशा में हो रहा है जो उसके उज्ज्वल भविष्य का सार्थक प्रतीक है…
Original Image: Persian Ornament no. 1 Ornaments from Persian manuscript in the British Museum
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Artist: Owen Jones
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