राष्ट्रवादी लेखकों की दृष्टि और दलित स्त्री

राष्ट्रवादी लेखकों की दृष्टि और दलित स्त्री

हिंदी के लेखक, संपादक, विचारक और प्रकाशक 1920 से अछूत समस्या पर विचार करते दिखाई देते हैं। इसका कारण यह रहा कि स्वामी अछूतानंद ने 1920-21 में ‘आदि हिंदू आंदोलन’ की स्थापना कर के अछूत प्रश्न को राष्ट्रीय स्तर पर उठाने लगे थे। दूसरा कारण यह रहा कि कुलीन समुदाय का कोई भी राष्ट्रीय आंदोलन अछूतों की भागीदारी के बिना सफल नहीं हो सकता था। स्वामी अछूतानंद के आंदोलन को लेकर हिंदी प्रदेश के कुलीनवर्ग लेखक भयभीत और शंकाग्रस्त थे। राष्ट्रवादी लेखक और विचारक इस बात से चिंतित थे कि आदि हिंदू आंदोलन के प्रभाव में आकर अछूत अपने पृथक धर्म के रास्ते पर चलकर कहीं अपना अलग धर्म खड़ा ना कर लें। दूसरा भय यह था कि यदि अछूत हिंदू धर्म से अलग होकर कहीं मुसलमान और ईसाई ना बन जाए। इसी वजह से हिंदी के अधिकांश संपादक और लेखक स्वामी अछूतानंद के विरोध में अपनी पत्रिकाओं में लिख रहे थे। लाला लाजपत राय का मानना था कि यदि आदि हिंदू आंदोलन को खत्म नहीं किया गया तो भारत में अछूतों की ओर से बड़ी क्रांति हो जाएगी। यानी अछूत हिंदुओं के हाथ से निकल कर आदि हिंदू बन जाएँगे। राष्ट्रवादयुगीन के भद्र लेखक, लेखिकाएँ, विचारक और संपादक ने एक रणनीति के तहत अछूत स्त्री को अपने साहित्य का विषय बनाया। इन लेखकों के लेखन का लक्ष्य यह था कि अछूत स्त्री को मुसलमान और ईसाइयों के विरोध में खड़ा करके दलित को धर्मांतरण करने से रोका जाए। राष्ट्रवादयुगीन के जिन लेखकों ने अछूत स्त्री को लेकर लिखा उनमें चंद्रशेखर शास्त्री, डॉ. रघुवरदयाल जी एस.ए.एस., कुमारी कमला वांचख् श्री ललित किशोर सिंह जी, एम.एम-सी इनकी कहानियों में दलित स्त्री की छवि को देखा जा सकता है। इन लेखकों की कहानियाँ नवजागरण काल की विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थी।

अब इस बात पर विचार किया जाए कि दलित स्त्री को लेकर उस समय के लेखक क्या सोच रहे थे। चंद्रशेखर शास्त्री की कहानी ‘चमार की बिटिया’ (1926) ‘महारथी (जुलाई, 1926) पत्रिका में दो किस्तों में छपी थी। कहानी का तानाबाना कहानीकार ने दलित धर्मांतरण को लेकर बुना है। कहानी के केंद्र में एक दलित स्त्री है। लेखक की चालाकी यह कि उसने मुसलमानों के विरोध में चमार की बिटिया को खड़ा करके हिंदू धर्म की रक्षा में अछूतों को मुसलमानों से लड़ा दिया है। कहानी का पात्र मुन्ना जो जाति से चमार और उसे प्यास लगी है, लेकिन पंडित हेतराम उसे कुआं से पानी नहीं भरने दे रहा है। दूसरी ओर कल्लू चमार जिसने इस्लाम धर्म ग्रहण करके मुसलमान बन गया है उसको पंडित हेतराम पानी भरने दे रहे हैं। लेखक बताता है कि मुन्ना चमार हिंदूधर्म का पक्का अनुयायी है, उसने कल्लू यानी नब्बीबख्श के हाथों का पानी पीना स्वीकार नहीं किया। कहानीकार लिखता हैं, ‘यद्यपि नब्बीबख्श पानी पिलाने आया था किंतु हिंदूधर्म के पक्के अनुयायी मुन्ना ने ऐसी अवस्था में भी उसके हाथ का पानी नहीं पिया।’

अब मुन्ना के परिवार के संबंध में जाना जाए। कहानीकार बताता है कि मुन्ना का परिवार है। उसकी पत्नी का नाम परबतिया और उसके एक सोलह साल की बेटी है जिसका नाम महोनिया है। महोनिया के बारे में कहानीकार बताता है, ‘वह सुंदर थी वैसी ही चमार जाति की कन्या होते हुए भी वह गुणवती हो गई थी।’ यहाँ लेखक चंद्रशेखर शास्त्री की मानसिकता को ताड़ा जा सकता है कि मानो चमार की बिटिया का सुंदर और गुणवान होना शास्त्री के लिए अचंभे की बात है। यानी शास्त्री के वेदांत में शूद्र और अछूत की जो परिभाषा दी गई, उस परिभाषा की कसौटी पर चमार की बिटिया का रूपरंग खरा नहीं उतरता है। लेखक बताता है कि कहानी का पात्र जमींदार ढाकन सिंह चमारिन महोनिया पर अपनी कुदृष्टि रखता है। महोनिया के पास अपने करिंदे भेज कर आने के लिए आग्रह भी करवाता है। चमार की बिटिया को लेकर जमींदार ढाकन सिंह के मन में क्या चल रहा है? कहानीकार लिखता है, ‘ओह बड़ा दर्द हो रहा है। विदित होता है कि कोई कलेजे को निकाले लिए जा रहा है, मैं जानता था कि इस प्रेम पथ में ऐसे-ऐसे कष्ट उठाने हैं; सुंदरी! महोनिया! इतने समाचार भेजने पर क्या तुझे मेरे कष्ट जानकर दया नहीं आती? सुनता हूँ कि तू बड़ी दयाशील है। सदा अपनी जाति के दीन हीन लोगों की सेवा शुश्रूषा करने और उनके पढ़ने लिखाने में लगी रहती है, सुंदरी! मैं भी तेरा दास हूँ, मेरी ओर एक कृपाकटाछ तो फेंक, देख, तेरे वियोग की अग्नि में मैं कैसा जला जा रहा हूँ। तेरे वियोग में चंद्रमा मुझे तपाय डालता है, चंदन मुझको अग्नि चूर्ण के समान लगता है। शीतल जल मुझको उष्ण जल के समान लगता है, यहाँ तक कि तेरे वियोग में संसार के सब भोग उपभोग मुझको विष के समान दिखलाई देते हैं। सुंदरी! संभवतः तुझको चमार जाति की होने के कारण मेरे पास आने में संकोच हो रहा है किंतु तेरी यह भूल है। तू चमार जाति उत्पन्न हुई है तो क्या हुआ तेरा रूप तो उस दिव्य प्रकाश के समान है, जो उच्च वंशीय महिलाओं के लिए भी दुर्लभ है। महोनिया! मैं तुझसे विनय करता हूँ कि तू मुझ दीन की शीघ्र ही सुध ले। मेरे होंठ तेरा अधर पान करने के लिए बार-बार ललायित होते हैं। मेरे हाथ तेरा आलिंगन करने को बार-बार फड़कते हैं। यहाँ तक मेरा मन भी तेरे सम्मिलन के लिए उत्सुक है।’ कहानीकार का चमारिन चित्रण दलित स्त्रियों को कहीं का नही छोड़ता है। अछूत स्त्री पर राष्ट्रयुगीन लेखक अपनी जमींदारी चला रहे थे। इनकी दृष्टि में अछूत स्त्री केवल सामंतों के भोग के लिए बनी है। कहानीकार आगे बताता है कि महोनिया खेत में घास काटने गई थी। तब जमींदार ढाकन सिंह उसके साथ जोर जबर्जस्ती करता है। कहानीकार के शब्दों में, ‘ढाकन सिंह अपने घोड़े से कूदकर मोहनिया पर झपटा और उसने उसको पकड़ लिया, दीन अबला मोहनिया उसके पंजे में पड़कर सिंह के हाथ में पड़ी गाय के समान उकारने लगी।’ यह देखा जा सकता है कि सामंत और जमींदार अछूत स्त्रियों का शोषण कर रहे थे। वे दलित स्त्री को केवल अपनी संपत्ति ही समझते थे। और यह मानकर चलते थे कि अछूत स्त्रियों के साथ वे कभी भी कुछ भी कर सकते हैं। ढाकन सिंह का जुल्म केवल मोहनिया तक सीमित नहीं था। वह मोहनिया की माँ परबतिया पर भी असीम अत्याचार कर रहा था। जब मोहनिया ने उसकी बात नहीं मानी तब ढाकन सिंह ने परबतिया को कारिंदों से पकड़वा कर उसकी पीटाई करता है। कहानीकार लिखता है, ‘सिपाही लोग इससे और बिगड़े, उन्होंने आव देखा न ताव, परबतिया को पकड़ लिया और उसको घसीटते हुए जमींदार ढाकन सिंह के मकान पर ले आए। परबतिया के देखते ही जमींदार साबित आपे से बाहर हो गए। उस समय उन्होंने यमराज के समान प्रचंड रूप धारण कर लिया और गरजते हुए परबतिया के पास जाकर अपने हाथ की बेत से ठाकुरपने की शान उसी पर उतारने लगे। दीन परबतिया सिंह के द्वारा मारी जाती हुई गाय के समान उकारने लगी।’ इस घटना का चमारों पर यह प्रभाव पड़ा कि उन्होंने यह तय किया कि अब सामूहिक पंचायत करके हिंदू धर्म को छोड़ने की घोषणा करेंगे। दिलचस्प बात यह कि चमारों के इस फैसले का विरोध सामंतों की शिकार परबतिया और मोहनिया करती है। कहानीकार मोहनिया के मुख से कहलवाता हैं, ‘इस्लाम के ढोंग से हम भलि प्रकार से परिचित हैं। आप कहते हैं कि इस्लाम जाति भेद नहीं मानता तो क्या शेख, सय्यद, मुगल, पठान यह चार भेद किसी और मजहब के हैं? क्या यह बिना अपनी कौम का विचार किये आपस में शादी-विवाह करते हैं? मैं इस्लामी ऊँची दूकान फीकी पकवान से कम परिचित नहीं हूँ।’ कहानीकार की चालाकी देखिए, वह अपनी लड़ाई अछूत स्त्री के द्वारा लड़ रहा है। यह राष्ट्रयुगीन लेखकों की सोची समझी रणनीति थी कि अछूत स्त्री का इस्तेमाल कर मुसलमानों से लड़ाई लड़ी जाए। इस रणनीति में इन्होंने दलित स्त्री का इस्तेमाल कर सांप्रदायिकता को हवा दी। लेखक आगे चमारों की पंचायत में मोहनिया के मुख से कहलवाता है कि कोई अछूत विधर्मी बनने की न सोचे। कहानीकार लिखता है, ‘मोहनिया- सभापति जी, पूज्य महाशयो माताओ और बहनो! मैं आपके सामने अपनी जाति की स्त्रियों की ओर से उपस्थित हुई हूँ। मेरी माताओं और बहनों आपकी इस कायरता पर बड़ा शोक है। हमको यह स्वप्न में विश्वास न था कि आप घबड़ाकर मुसलमान बनने पर उतारू हो जावेंगे। मैं आप से स्त्री जाति की ओर से अपील करती हूँ कि आप ऐसा कदापि ना करें, क्योंकि स्त्री जाति की जितनी दुर्दशा इस जाति में होती है ऐसी कहीं भी नहीं है। मुसलमान लोग विषय प्रधान होते है। अतएव इन्होंने अपनी पाशविक अभिलाषा की शांति के लिए ऐसे नियम बनाए हैं कि इनमें स्त्री जाति की स्वतंत्रता बिल्कुल ही नष्ट हो गई है। व्यभिचार में तो इनके धर्म में लेस मात्र पाप नहीं है। इनमें अधर्म यहाँ तक बढ़ा हुआ है कि इस धर्म में अपनी सौतेली बहन तक से विवाह किया जाता है। अतएव आप ही सोचें कि इस्लाम धर्म है या अधर्म, इसलिए मेरे विचार से तो चाहे हम मर ही क्यों न जावें पर मुसलमान न बनें।’ कहानीकार का लक्ष्य अछूत स्त्री की समस्या को उठाना बिल्कुल नहीं था। उनका लक्ष्य यह था कि हिंदूधर्म की रक्षा में अछूत स्त्री को कैसे इस्तेमाल किया जाए।

डॉ. रघुवरदयाल जी एस.ए.एस की कहानी ‘अछूत की बेटी’ ‘युगांतर’ पत्रिका 1932 में दो किस्तों में छपी थी। इस पत्रिका के संपादक संतराम बी.ए. थे। यह पत्रिका जाति पाति तोड़कर मंडल की मुखपत्र मानी जाती थी। कहानी का पात्र ढेरु चमार सनातन धर्म के प्रधान आत्माराम के भट्टे पर काम करता है। ढेरू चमार की एक आठ साल की बेटी है जिसका नाम भवानी है। भवानी पढ़ना चाहती है लेकिन पढ़ाई के मार्ग में बाधक उसकी जाति है। आर्यसमाजी ज्योतिस्वरूप के कहने पर भवानी को एक कन्या पाठशाला में प्रवेश मिल जाता है। लेखक बताते हैं कि भवानी ने मिडिल पास कर लिया है। भवानी पर गाँव के हिंदू नवयुवक कुदृष्टि रखते हैं। कहानीकार लिखता है, ‘भवानी को देख कई हिंदू नवयुवकों की लार टपकने लगी। ये इस को धर्म-पथ से गिराकर व्यभिचार करने को तैयार थे, पर शास्त्रोक्त रीति से विवाह करके सुखी गृहस्थी भोगने में न किसी का साहस था, और न उत्कंठा। ऐसा करने से उनकी नाक कटती थी।’ दलित स्त्री के संबंध में हिंदू लेखक ऐसे विचार रखते हैं कि दलित स्त्री केवल उनके लिए ही बनी हो। दलित स्त्री के लिए उनके मन में शायद ही मान सम्मान रहता हो। लेखक यह भी बताते हैं कि मुसलमान नवयुवक भवानी के साथ विवाह करना चाहते थे। लेकिन भवानी को यह मंजूर नहीं था कि वह विधर्मी के लिए अपने हिंदूधर्म का त्याग करे। भवानी ज्योतिस्वरूप आर्यसमाजी के लड़के दिलीप से प्यार करती है। दिलीप भी चमारिन भवानी से प्रेम करता है। लेकिन दिलीप के पिता को पसंद नहीं कि दिलीप भवानी से विवाह करे। दिलीप अपने पिता के आग्रह से अपनी जाति की लड़की वेदाकुमारी से विवाह कर लेता है। इस घटना का प्रभाव भवानी पर यह होता है कि वह गाँव छोड़कर चली जाती है। वह जाते समय अपने पिता के नाम वह एक पत्र छोड़ गई जिसमें यह लिखा था कि वह अपना हिंदूधर्म को छोड़कर मुसलमान और ईसाई नहीं बनेगी। लेखक लिखते हैं, ‘आप भूल जाना कि आपके घर कोई कन्या उत्पन्न हुई थी। मैं अभागिन आत्मघात कर लेती, धर्म आज्ञा नहीं देता। धर्म मुझे प्यारा है। धर्म को छोड़े बिना मैं इस दुष्ट समाज को त्याग नहीं सकती, अन्यथा कभी की मुसलमान या ईसाई हो गई होती। यह मैं नहीं कर सकती।’ कहानीकार की मानसिकता को भलिभाँति देखा जा सकता है कि वो अछूत स्त्री पर हिंदुत्व को लादकर मुसलमान और ईसाई के विरुद्ध अपनी लड़ाई लड़ रहा है।

राष्ट्रवादयुगीन समय में हिंदू लेखकों के साथ ही हिंदू लेखिकाएँ भी अछूत समस्या को लेकर विचार कर रही थी। कुमारी कमला वांचू की एक कहानी ‘चमारिन ललिता’ अछूत स्त्री पर केंद्रि कहानी है। यह कहानी ‘सुधा’ पत्रिका में नवंबर 1935 में प्रकाशित हुई थी। कहानी में लेखिका ने अछूत स्त्री की समस्या को तनिक भी छुआ तक नहीं है। लेखिका ने यह दिखाने की कोशिश की है कि दलित स्त्री को लेकर यह हिंदू समाज कितना उदार होता जा रहा है। कहानी की कथा कुछ इस तरह से शुरू होती है कि लली के पिता कलुए चमार की तबीयत खराब है। विजय जो उच्च जाति का हिंदू नवयुवक है, उसके पास आकर बैठ जाता है और कहता है कि ‘देखो लली तुम्हारे बाबा की क्या दशा हो गई। मैंने इनसे कितनी बार कहा कि मेरे घर चलकर रहो, परंतु कभी इस बात का उत्तर नहीं देते। क्या तुम्हें इसकी चुप्पी का कारण मालूम है।’ ललिता जवाब में कहती है–‘आप तो सदैव जैसे इस बात को भूल जाते हैं कि हम जाति के चमार हैं; यद्यपि आपके माता-पिता या अन्य संबंधी आपके साथ यहाँ नहीं आए, परंतु उन्हें किसी प्रकार यह ज्ञात हो जाए कि आपने अपने घर में चमारों को आश्रय दिया है, तो वे आप पर कितने कुद्ध हों!’ (सुधा, नवंबर 1935) ललिता के पिता विजय से यह कह कर अपने प्राण त्याग देते हैं कि ललिता का ख्याल रखना। विजय अपने पिता को बिना बताए ही ललिता से विवाह कर लेता है। विजय के पिता कट्टर हिंदू सनातनी थे। वे किसी भी कीमत पर ललिता को स्वीकार नहीं करते थे। उन्होंने विजय को घर आकर समझाया, लेकिन विजय ने अपने पिता की बात को स्वीकार नहीं किया। अंततः विजय के माता-पिता ने उसे जाति से बाहर कर दिया। लेखिका निष्कर्ष यही है कि एक हिंदू युवक ने अछूत स्त्री के लिए अपने पिता का त्याग कर दिया।

ललित किशोर सिंह जी, एम.एम-सी की कहानी ‘दासू भगत’ भंगीं समुदाय की स्त्री को टारगेट कर के लिखी गई है। यह कहानी ‘चाँद’ पत्रिका सितंबर 1932 के अंक में प्रकाशित हुई थी। ‘चाँद’ पत्रिका को राष्ट्रवादयुगीन समय की एक क्रांतिकारी पत्रिका के रूप में जाना जाता था। ‘दासू भगत’ कहानी के शुरुआत से ही भंगी समाज की स्त्रियों की छवि बिगड़ने की कोशिश की गई। कहानीकार लिखता है, ‘मुनिया जाति की भंगिन थी। पर इतना रूप लेकर वह भंगिन के घर कैसे पैदा हुई थी? भगवान की विचित्र लीला है! मुनिया जिधर निकल जाती उधर तहलका तक मच जाता। युवक मंत्र से रह जाते। बड़े-बूढ़े कहते गोबर में पदुम होकर पैदा हुई है।’ (चाँद, सितंबर 1932) कहानीकार को संदेह है कि अछूत के घर में कोई सुंदर स्त्री कैसे पैदा हो सकती है। लेखक मुनिया के बारे में बताते हैं कि कई रसिक मुनिया के पीछे पड़े हुए थे। कहानीकार लिखता है, ‘वासना की डोर में बँधे कितने ही उसकी चारों ओर चक्कर लगाते थे, पर पास न आते। रसिक हाथ मल-मल कर रह जाते- उसके दिल की यह कसक न जाती कि हाय! मुनिया आज भंगन न होती तो कैसा होता।’ (चाँद, सितंबर 1932) दलित स्त्री के लिए इससे बड़ी पीड़ा क्या हो सकती है कि सवर्ण समाज के लोग उसकी अबारू के पीछे पड़े रहते। यह भी पता चलता है कि कुलीन समाज के लोग दलित स्त्री को लेकर अपनी सोच में किस हद तक नीचे जा सकते हैं। मुनिया के पति का दासू भगत है। लेखक बताते हैं कि दासू में भी विलक्षणता थी। उसकी विलक्षणता यह कि धर्म की ओर उसका झुकाव था। और वह अपने घर में ठाकुर की पूजा करता था। इस कार्य से सवर्ण नहीं बल्कि नीच जाति में उसका सम्मान होता था। लेखक आगे बताता है कि मुनिया के प्रभाव के कारण ब्राह्मण और क्षत्रिय के गाँव में रहकर उस पर कोई विपत्ति नहीं आती थी। यहा देखा जा सकता है कि दलित पुरुष का अपना कोई वजूद नहीं है।

मुनिया का विवाह जब से दासू के साथ हुआ है, उसी दिन से वह गाँव के जमींदार मनोहर मिश्र के यहाँ काम करती थी। कहानीकार लिखता है, ‘मुनिया भंगन का विवाह किसी और के यहाँ हो भी नहीं सकता। ज्योंही मुनिया ब्याह कर दासू के घर आई, मिश्र जी के यहाँ उसकी रोजी लग गई।’ इसके बाद मिश्र अपने चरित्र के अनुसार मुनिया की ओर अकषित होते हैं। गौरतलब है कि मनोहर मिश्र की पत्नी है इसके बाद भी वह मुनिया पर अपनी दृष्टि जमाए बैठा है। इसका कारण कहानीकार बताता है कि मिश्र की पत्नी का स्वभाव कुसंस्कार और कुरुचिकारी था। लेखक बताते हैं कि मुनिया मिश्र की ओर खुद आकर्षित हुई थी। कहानीकार लिखता है, ‘मुनिया ऐसे अवसरों को अपने हाथ से कब निकलने देती? उसने मिश्र जी के बढ़ते हुए हृदय का ऐसा स्वागत किया कि उन्हें पागल बना दिया।’ मुनिया और मिश्र के संबंधो को लेकर कहानीकार आगे लिखता है, ‘मुनिया के साथ रस-संपर्क होने पर भी मिश्र जी को सामाजिक प्रतिष्ठा का ध्यान सदा बना रहता था। इसीसे अपने कृत्यों पर उन्होंने गहरा परदा डाल रखा था। इस आवरण के अंधकार में धीरे-धीरे कहाँ तक बढ़ गए थे, मुनिया जितना जानती थी और कोई नहीं जानता था।’ इधर दासू भगत को मंदिर में प्रवेश के कारण यही मिश्र यह सजा सुनाते है कि दासू गाँव के ब्राह्मण क्षत्रिय, और वैश्य का जूता अपने सिर पर रखकर परिक्रमा करनी होगी। कहानीकार लिखता है, ‘दासू की फिर पुकार हुई।… जो पंचों की राय है कि फिर से मंदिर का यज्ञ कराने में जितना खर्च बैठे वह तुम्हें सहना पड़ेगा। दूसरे ब्राह्मण-क्षत्रिय पधारेंगे, उनका जूता अपने सिर पर लेकर सारे गाँव की परिक्रमा करनी होगी।’ यह दलित पुरुष असीम पीड़ा का शिकार है। एक तो उसकी पत्नी का शोषण हो रहा है दूसरे जाति व्यवस्था की मार उस पर पड़ रही है। प्रेमचंद भी अपने उपन्यास ‘गोदान’ में दलित स्त्रियों के संबंध में कह गए कि चमारियों पर तो गिद्ध की तरह टूटते हैं। राष्ट्रवादयुगीन लेखकों ने दलित स्त्री का चित्रण तो किया लेकिन दलित स्त्री की समस्या को छुआ तक नहीं गया। इन लेखकों का लक्ष्य यह था कि दलित को मुसलमान और ईसाई बनने से रोका जाए। गौरतलब है कि यह वह दौर था। जब स्वामी अछूतानंद दलितों के लिए प्रथम धर्म की बात कर रहे थे। दूसरी बात यह कि हिंदू लेखक अछूत को लेकर शुद्धि और घर वापसी आंदोलन भी चला रहे थे। इन्हीं चोटी और दाढ़ी के बीच दलित समाज की स्त्री को इस्तेमाल कर उसकी छवि को बिगाड़ने का काम उस समय के लेखक कर रहे थे।


Original Image: The Wait at the Well
Image Source: WikiArt
Artist: Paul Serusier
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