हिमालय के आँगन में
- 1 October, 2016
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- 1 October, 2016
हिमालय के आँगन में
हिमालय के आँगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार
उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक हार।
जगे हम, लगे जगाने विश्व लोक में फैला फिर आलोक
व्योम-तम पुंज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक
विमल वाणी ने वीणा ली कमल कोमल कर में सप्रीत
सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत।
बचा कर बीज रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत
अरुण-केतन लेकर निज हाथ वरुण पथ में हम बढ़े अभीत
सुना है दधीचि का वह त्याग हमारा जातीयता विकास
पुरन्दर ने पवि से है लिखा अस्थि-युग का मेरे इतिहास।
सिंधु-सा विस्तृत और अथाह एक निर्वासित का उत्साह
दे रही अभी दिखाई भग्न मग्न रत्नाकर में वह राह
धर्म का ले लेकर जो नाम हुआ करती बलि कर दी बंद
हमी ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद।
विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही, धरा पर धूम
भिक्षु होकर रहते सम्राट दया दिखलाते घर-घर घूम
यवन को दिया दया का दान चीन को मिली धर्म की दृष्टि
मिला था स्वर्णभूमि को रत्न शील की सिंहल को भी सृष्टि।
किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं
हमारी जन्मभूमि थी यही, कहीं से हम आए थे नहीं
जातियों का, उत्थान-पतन, आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर
खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर।
चरित थे पूत, भुजाओं में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न
हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव
वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा में रहती थी टेव।
वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वही ज्ञान
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य संतान
जियें तो सदा उसी के लिए, यही अभिमान रहे, यह हर्ष
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष!
Image : Himalayas
Image Source : WikiArt
Artist : Nicholas Roerich
Image in Public Domain