आलोचना की विश्वसनीयता
- 1 December, 2021
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- 1 December, 2021
आलोचना की विश्वसनीयता
वक्तव्य
हिंदी के ऐतिहासिक महत्त्व की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘नई धारा’ 2020 का रचना सम्मान’ प्राप्त कर गौरव का अनुभव कर रहा हूँ। इस सम्मान के योग्य मुझे समझा गया, इसके लिए आभार व्यक्त करता हूँ। इस अवसर पर साहित्य-मूल्यांकन विशेषकर समकालीन आलोचना पर दो बातें कहना चाहता हूँ। देखा जाए तो समकालीन आलोचना की सबसे बड़ी चुनौती विश्वसनीयता की है। आज साहित्य की विभिन्न विधाओं में संभवतः आलोचना ही सर्वाधिक विवादास्पद, अविश्वसनीय और अनुर्वर विधा है। आलोचना का विकास मौलिक दृष्टि और बहुविज्ञता से ही संभव है। कवितावादी प्राध्यापकीय आलोचना से हमें परहेज करना होगा। इसे एक शुभ संकेत ही मानना चाहिए हिंदी आलोचना में अब पहले-सा आचार्यत्व-भाव नहीं रहा। अब आलोचना-संस्कृति के प्रतिमानों के केंद्र बदल चुके हैं। समकालीन संदर्भों में नई व्याख्या द्वारा रचना के नए अर्थों को रेखांकित किया जाना चाहिए।
आलोचना-संस्कृति के प्रतिमान बदल चुके हैं। आज तटस्थ, ईमानदार, दृष्टि-संपन्न समीक्षाओं/आलोचनाओं का अभाव-सा है। प्रायः आलोचनाएँ और समीक्षाएँ मित्रता निभाने वाली प्रशंसात्मक होती हैं। आलोचना रचनात्मक होनी चाहिए–ईष्या-द्वेष रहित। सहयात्री है आलोचना। वह रचना का सफर तय करती है। वह न केवल पाठक के लिए होती है, बल्कि लेखक के लिए भी होती है। विवेकशील रचनाकार को पुनर्विचार का अवसर देती है। विपरीत टिप्पणी से गुस्सा करने से कुछ हासिल न होगा। कई बार आलोचना रचना में छिपे ऐसे नए उदात्त आयामों को आलोकित करती है जिनका भान स्वयं लेखक को नहीं होता। आलोचना भी रचना है। आलोचना अपनी उदात्तता में वही दर्जा पा सकती है जो रचना का है। आलोचक को लेखक की पीर को, उसकी संवेदना को समझना चाहिए। उसके पास सर्जक की आँख होनी चाहिए। मेक्स स्टील ने सही कहा था कि लेखक के जूते में पैर डाले बगैर आलोचक का काम पूरा नहीं होता। इस मत से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि आलोचक को साहित्य में प्रतिष्ठित होने का प्रयास नहीं करना चाहिए। अनेक आलोचकों ने अपने कृतित्व से साहित्य में सम्मानजनक स्थान पाया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लोकमंगल का जो प्रतिमान प्रस्तुत किया था, वह आज भी प्रासंगिक और महत्त्वपूर्ण है। इसलिए कि एक तो वह भारतीय सर्जना से ही निकला था और दूसरा कि यह एक सार्वभौमिक सत्य है। साहित्य का मूल ध्येय लोक कल्याण का होना चाहिए। आचार्य जी के बौद्धिक प्रस्थान से हिंदी आलोचना को वैचारिक आधार मिला।
उत्तर आधुनिक के विचार से आलोचना के अधिकांश सृजनात्मक लेखन करने वाले रचनाकार के समक्ष अनेक कठिनाइयाँ, समस्याएँ, चुनौतियाँ और जोखिम हैं। यह आसान काम नहीं है। सार्थक लेखन के लिए तपाना पड़ता है स्वयं को। यह कोई चाबी वाला खिलौना नहीं है कि चाबी घुमाते ही दौड़ पड़ेगा। कई बार एक अच्छी रचना को मूर्त-रूप लेने में वर्षों लग जाते हैं। यह एक बेचैन कवायद है। क्या लेखक पूरी तरह आजाद है? दरअसल उस पर अनेक दबाव हैं। कभी पाठक, कभी आलोचक, कभी संपादक और कभी प्रतिष्ठा बनाए रखने का लोभ उसके मन में होता है। कभी रूप को लेकर द्वंद्व चलता है। ऐसा भी होता है कि लेखक, जितनी गहराई से, तीव्रता से किसी अनुभव या घटना को अपने अंदर महसूस करता है, उतनी ही तीव्रता से कागज पर नहीं उतार पाता। जो प्यार, गुस्सा या नफरत अपने में अनुभव करता है उसे उतनी ही गहराई से शब्दों में नहीं बाँध पाता। तब अहम होता है आत्म-संघर्ष। अपने से लड़ता है। चैन तभी मिलता है जब मन वांछित प्राप्त होता है। इस पल मन खुशी से नाच पड़ने को करता है यही रचना का सच्चा सुख है।
पुराने मुद्दे खारिज किए जा रहे हैं। देरिदा की विखंडनवाद की थ्योरी पहले के अर्थ, विचार और सिद्धांतों को बेदखल कर नए अर्थ तलाश रही है। उत्तर आधुनिकता पाठ को ही सब कुछ मानती है। पाठ अनेकांत, अनेका अर्थी और बहुलतावादी हैं। पाठ और पुनर्पाठ से नए-नए अर्थ निकाले जाते हैं। देरिदा ने निर्धारित समीक्षा पद्धति में बदलाव लाए। उन्होंने मार्क्सवादी समीक्षा और चिंतन पर भी प्रहार किए। वस्तुतः यह एक स्वतंत्र चर्चा का विषय है। इधर ‘नई समीक्षा’ की पीढ़ी देरिया के सिद्धांत से असहमत होने लगी है। दरअसल उत्तर आधुनिकता ने साहित्यिक समीक्षा की अवधारणा ही बदल दी है। आलोचक के स्थान पर अब विमर्श-विश्लेषक होने लगे हैं जो पाठ की नई नियमावली बनाते हैं।
Image Source : Nayi Dhara Archives