छह ग़ज़लें
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- 1 April, 2016
छह ग़ज़लें
(एक)
जितनी लगती है सुर्ख़ आज इतनी ये तो न थी
ज़िदगी ज़ख़्मी थी मगर लहू-लहू तो न थी
क्या हुआ उनको क्यों वो कर रहे हैं मुझको सलाम
वेमकां होने से ये क़ब्ल आवरू तो न थी
जानिवे आसमाँ नहीं नज़र उठाई कभी
मेरे दिल को कभी तुम्हारी जुस्त जू तो न थी
क्यों नहीं हाथ उठ रहे मिरे दुआ के लिए
या ख़ुदा आज फिर नमाज़ बेबजू तो न थी
क्या कहूँ माँ क़सम ये शुह्रतें ये शेरो सुखन
मिल गए मुझको यूँ ही इनकी आरजू तो न थी
शुक्रिया कैसे मैं अदा करूँ गुलों को फ़क़त
ख़ार चुभने से क़ब्ल मुझमें गुल की बू तो न थी
सुर्ख़ आँखें तिरी ‘नयन’ थीं ज़र्द चिह्रा तिरा
शक्ल मिलती थी वक़्त से ही हू-ब-हू तो न थी
(दो)
एक नया इतिहास साथियो लिक्खेंगे
आम नहीं कुछ ख़ास साथियो लिक्खेंगे
तोड़ दिए बाज़ार ने हैं कैसे सारे
रिश्ते और विश्वास साथियो लिक्खेंगे
मौत हुई जिस वज्ह से वो अब पढ़ लेना
भूख थी या उपवास साथियो लिक्खेंगे
क्या होगा गर दिल का क़त्ल ही हो जाए
लेकिन हर एहसास साथियो लिक्खेंगे
क़ैद हुआ इनसाफ़ मुट्ठियों में किसके
किसका है इजलास साथियो लिक्खेंगे
कौन फरिश्ता अम्न का बनता फिरता है
जंग है किसके पास साथियो लिक्खेंगे
मुल्कपरस्ती ज़ात नस्ल मज़हब सबको
हम तो अब बकवास साथियो लिक्खेंगे
(तीन)
गुल की रंगत बेच दे इज़्ज़त सुमन की बेच दे
रोक गुलचीं को न वह ख़ुशबू चमन की बेच दे
देखकर उसकी निज़ामत मुतमईं इतना न हो
वो नुमाइंदा न रौनक़ अंजुमन की बेच दे
मानते हो तुम फ़रिश्ता जिसको सूरज-चाँद सा
बस चले तो रौशनी सारे गगन की बेच दे
कौन है ग़द्दार पहचानो हुकूमत में घुसा
सरहदों के साथ जो अस्मत वतन की बेच दे
देखना ये एकता मिल्लत का दुश्मन ही न अब
है बची तहज़ीब जो गंगो-जमन की बेच दे
मैं पसेमंज़र अदब का देखकर डरने लगा
वो न अब रानाइयाँ शेरो सुख़न की बेच दे
ज़िंदगी में इस तरह बाज़ार का होगा जो दख़्ल
माँ क़सम इनसान ही मत रूह तन की बेच दे
(चार)
सूरज के पास जाएँगे अगली सदी के लोग
तारों को तोड़ लाएँगे अगली सदी के लोग
तूफां को मुट्ठियों में करके बंद देखना
क्या-क्या न गुल खिलाएँगे अगली सदी के लोग
कैसे बढ़े कुछ और भी रफ़्तारे-जिंदगी
मुद्दे यही उठाएँगे अगली सदी के लोग
इतना भी ज़ह्र आदमी में था कभी यहाँ
शरमा के मुँह छुपाएँगे अगली सदी के लोग
हर बात भूल जाएँ भी तो अपने अह्द का
क्या दर्द भूल पाएँगे अगली सदी के लोग
ऐसा ज़रूर हममें भी कुछ है कि माँ क़सम
पिछली सदी में आएँगे अगली सदी के लोग
रोबोट की सदी में भी रहते हुए ‘नयन’
ग़ज़लों को गुनगुनाएँगे अगली सदी के लोग
(पाँच)
अपने क़ातिल के निशानों पे ग़ज़ल कहते हैं
हम ख़तरनाक बयानों पे ग़ज़ल कहते हैं।
चीख़ते दर्द के अल्फ़ाज़ हुए पस्त तो अब
दिल की ख़ामोश ज़बानों पे ग़ज़ल कहते हैं
आप बैठे हैं इन्हीं गुज़रे पलों को लेकर
लोग अब अगले ज़मानों पे ग़ज़ल कहते हैं
आग इस ओर तो उस ओर तनीं तलवारें
इश्क़ के ऐसे फ़सानों पे ग़ज़ल कहते हैं
कुछ न मज़हब की सियासत पे कभी कहते मगर
हम मुअज़्ज़न की अज़ानों पे ग़ज़ल कहते हैं
माँ क़सम हमने तो मिहनत पे ही रक्खा ईमान
खेत-मज़दूर किसानों पे ग़ज़ल कहते हैं।
हम तो शायर हैं भला और किसे जानेंगे
दिल की दुनिया के दिवानों पे ग़ज़ल कहते हैं
(छह)
हस्तिए ज़ुल्म को ये राख बना कर रख दे
आह तो आह है निकले तो जला कर रख दे
ऐ सितमगर ज़ए औक़ात ख़मोशी की समझ
माँ क़सम आ गया ग़ुस्सा तो बता कर रख दे
देख इस पर न ज़माने की नज़र लग जाए
दौलते दिल है ये हर दिल में छुपा कर रख दे
इश्क़ की तू ने करामात कहाँ देखी हैं
आग पानी में भी चाहे तो लगा कर रख दे
अपनी ताऱीख पे शरमाएँ न अगली नस्लें
ज़ात मज़हब को इसी वक़्त मिटा कर रख दे
तू मसीहा है तो हर ज़ख़्म ज़माने का मिटा
या ज़माने से अपना नाम हटा कर रख दे
हमको मालूम है मिहनत के पसीने का हुनर
तख़्त-ताऊस गिरा ताज उठा कर रख दे।
Original Image: Self-Portrait-in-distress
Image Source: WikiArt
Artist: Edvard-Munch
Image in Public Domain
This is a Modified version of the Original Artwork