नक्सल आंदोलन की एक असमाप्त कथा

नक्सल आंदोलन की एक असमाप्त कथा

मॉरिशस के प्रेमचंद अभिमन्यु अनत कहते हैं ‘शोषित मानव शोषण का आदी होकर उसे जीवन की स्वाभाविकता मान लेता है और उस लिजलिजेपन को संतोष के साथ जीता रहा है। लेखक उसके कानों में सिर्फ इतना ही कहता है कि जिसे वह भाग्य का लेख समझता है, वह कानून नहीं–उसे तोड़ना है। यह चेतना होती है, इसके बाद उपाय और सक्रियता आदमी की अपनी जिम्मेदारी होती है।’ आलोच्य उपन्यास ‘एक असमाप्त कथा’ की लेखिका रमा सिंह ने इसके तनुश्री, जगमोहन बड़ाईक तथा मास्टर काका ब्रह्मदेव यादव जैसे पात्रों के माध्यम से नक्सल बनने का कारण और मानवता क्षरण को दर्शाने में सफलता पाई है।

लेखिका स्वयं राँची में रहती है और नक्सल क्षेत्र के होने के नाते बिहार के मध्य भाग से लेकर छोटानागपुर का इलाका तथा पश्चिमी चंपारण की भूमि पर फैल रहे नक्सल गतिविधियों पर पैनी नजर रखती है। वे खुद ही कबूल करती हैं ‘उपन्यास लिखते हुए कभी-कभी लगता था जैसे पात्रों के साथ मैं भी उन बिहड़ों में भटक रही हूँ।’ तनुश्री जगमोहन बड़ाईक की पुत्री है, जो जे.एन.यू. से पढ़कर लौटी है और अपने पिता, जो नक्सलाइट हार्ड कोर के सदस्य हैं, के अचानक गुम हो जाने और उनके अस्तित्व का पता लगाने में जुट जाती है। उसी क्रम में उसकी गौतम और सिद्धार्थ से भेंट होती है, जो जे.एन.यू. के ही छात्र थे और अब गौतम मीडिया से जुड़ गया है तथा सिद्धार्थ आई.पी.एस. बनकर राँची में ए.एस.पी. के पद पर पदस्थापित है।

आलोच्य उपन्यास में लोगों को नक्सलाइट बनने के कारणों में पुलिसिया जुल्म, आर्थिक विषमता तथा गाँवों में दबंगों का शोषण मुख्यरूप से बताया गया है। खुद एक शिक्षक रहे ब्रह्मदेव यादव बच्चों को पढ़ाते-पढ़ाते आर्थिक विषमता और दबंगता के खिलाफ हो जाते हैं और इससे मुक्ति का मार्ग नक्सल आंदोलन में दिखता है, तो उससे जुड़ जाते हैं। तनुश्री जब पूछती है–‘काका आप विद्यार्थियों को खड़िया पकड़ाते-पकड़ाते बंदूक पकड़ने की शिक्षा क्यों, कब और किसलिए देने लगे?’ इस पर ब्रह्मदेव यादव दुःखी मन से बोले–‘मैं तो बच्चों को खड़िया पकड़ाने में ही संतुष्ट और खुश था तनुश्री, लेकिन परिस्थिति ऐसी बनती गई कि पहाड़ काटकर सड़क बनाने जैसा ही काम था इस संगठन में शामिल होना, इनके लिए काम करना, एक ओहदा हासिल करना। और वह सब मैंने किया, लेकिन संगठन के कुछेक लोगों द्वारा अपने उद्देश्यों और सिद्धांतों को भूलकर निर्दोष की हत्या और लेवी के पैसे से मौज-मस्ती करता देखकर तकलीफ होती है। हम सिर पर कफन बाँधकर निकले तो थे गरीबों के हक की लड़ाई लड़ने लेकिन कहाँ फँस गए? अब तक का किया व्यर्थ लगने लगा है।’

कानू सान्याल का मकसद भी नक्सल आंदोलन के पीछे यही था कि आर्थिक विषमता के कारण दबंगों के चंगुल से गरीबों को निकालना और उनकी आवाज बनकर आवाज बुलंद करना। इसके लिए स्वयं हथियार उठाना और हथियार के लिए अमीरों को लूटना भी इनका सिद्धांत है। लेकिन धीरे-धीरे नक्सल आंदोलन विकृत रूप धारण करने लगा। अमीरों के साथ-साथ गरीबों के खून से भी धरती लाल होने लगी और लेवी के नाम पर वसूली गई राशि अपने ऐशो-आराम के लिए प्रमुखों द्वारा उपयोग किया जाने लगा तथा धौंस दिखाकर नारियों की इज्जत के साथ भी खिलवाड़ होने लगा। चारू मजूमदार जैसे ख्याति प्राप्त नेता ढेरों पैसे लेकर कोलकाता चले गए और एक नया संगठन बना लिये। नक्सल आंदोलन को अपनी राह से भटकता देखकर अपने उद्देश्यों की पूर्ति होते न देखकर इसके संस्थापक कानू सान्याल खिन्न रहने लगे और सदमा ऐसा लगा कि उन्होंने एक दिन आत्महत्या कर ली। उनके निधन के पश्चात उनकी अंतिम यात्रा में अपार भीड़ उमड़ पड़ी। स्वयं लेखिका कहती है–‘कानू सान्याल नक्सल आंदोलन के जन्मदाता के निधन से एक बहुत बड़ा जन समुदाय शोक संतप्त था।’ उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए उमड़ी भीड़ को पढ़कर, सुनकर, देखकर मैं चकित रह गई। उन शोक-संतप्त लोगों की भीड़ को मैं पहचानना चाह रही थी…कानू सान्याल ने इनके लिए क्या किया था?’

आखिर कोई नक्सल आंदोलन से क्यों जुड़ जाता है कि बीहड़ों का शरण लेना पड़ता है और फिर वहाँ से वापस आना नहीं हो पाता? जगमोहन बड़ाईक, जो तनुश्री के पिता हैं की स्थिति पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि निहायत शरीफ इनसान जगमोहन को किस प्रकार एक राजपूत जाति के व्यक्ति की हत्या में फँसा दिया जाता है, जबकि जगमोहन का उस हत्या से कुछ भी लेना-देना नहीं होता है। वे पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण करते हैं और उन्हें जेल भेज दिया जाता है। जमानत के लिए जमीन-जायदाद बेचना पड़ जाता है। यही नहीं, बदनामी के डर से उनका पूरा परिवार गाँव छोड़कर अन्यत्र पलायन के लिए मजबूर हो जाता है। जमानत के पश्चात पुनः जगमोहन को एक अन्य हत्या के केश में गिरफ्तार कर लिया जाता है। इस बार उनके और उनके परिवार के लिए समस्या खड़ी हो जाती है कि आखिर जमानत कैसे हो…पैसे नहीं हैं…अब बेचने के लिए भी कुछ नहीं बचा है। मजबूरी का मारा उनका परिवार होशियार और समझदार कहे जाने वाले ब्रह्मदेव यादव शिक्षक से सहयोग लेता है। शिक्षक ने नक्सली संगठन से पैसा लेकर जगमोहन की जमानत ले ली। जेल से बाहर आने के बाद जगमोहन नक्सल संगठन से जुड़ जाते हैं और उसमें अहम् भूमिका का निर्वहन करने लगते हैं। फिर एक दिन पुलिस उन्हें उठा ले गई, उसके बाद पता नहीं लग सका कि कहाँ हैं?

तनुश्री (तन्वी) गौतम के साथ मीडिया से जुड़ जाती है और सिद्धार्थ से संपर्क बढ़ाती है। हालाँकि सिद्धार्थ तन्वी से शादी करना चाहता है और वह उसके लिए तैयार भी है। तभी सिद्धार्थ को एक विशेष नक्सल-ऑपरेशन के लिए लातेहार जाना पड़ता है। लातेहार जाने के पूर्व तन्वी से उसकी बात होती है। सिद्धार्थ के मोबाइल से अंतिम बार तन्वी से ही बात होती है और तन्वी को वह खुशखबरी देता है कि उसके पिता का पता चल गया है, वह कॉके मेंटल हॉस्पीटल में हैं, ऑपरेशन से लौट कर आने पर वहाँ से बाहर निकालने की प्रक्रिया होगी। उधर ऑपरेशन के क्रम में माइंस लैंड विस्फोट में ढेर सारे पुलिस कर्मी सहित सिद्धार्थ मारे जाते हैं। तन्वी को ऑपरेशन की सूचना नक्सलाइट को देने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया जाता है। तन्वी को तरह-तरह से टॉर्चर किया जाता है। फिर सरकार के अनुरोध पर नक्सली आत्मसमर्पण करते हैं, जिसमें तन्वी और जगमोहन भी मुक्त किए जाते हैं। परंतु तब तक तन्वी की तमन्नाएँ अपने पिता को खेजते-खोजते कब बीहड़ में खो गईं, उसे पता ही नहीं चला।

आलोच्य इस उपन्यास में नक्सलाइट बनने की पृष्ठभूमि के पीछे पुलिसिया जुल्म है, जहाँ तार-तार होती मानवता को बड़े सहज ढंग से लेखिका उजागर करती है कि थानेदार किसी और स्त्री से नाजायज संबंध बनाए हुए था और उससे शादी करना चाहता था। जब उसकी पहली पत्नी और उसके पिता ने हल्ला-गुल्ला किया तो उन दोनों बाप-बेटी को नक्सली कहकर जेल भेज दिया। ऐसी अनेक घटनाएँ इस उपन्यास में हैं, जिससे मानवता हारती नजर आती है, वहाँ नक्सलाइट सामने आते हैं और मानवता के दुश्मनों का सफाया करते हैं।

आलोच्य उपन्यास का शीर्षक ‘एक असमाप्त कथा’ पूरी तरह सार्थक है, क्योंकि नक्सल आंदोलन के हैदराबाद से नेपाल तक बढ़ते वर्चस्व का अंत कहीं नजर नहीं आता। समासतः कहा जा सकता है कि उपन्यास ‘एक असमाप्त कथा’ पूर्णतः नक्सल आंदोलन का दास्तावेज है, जिससे तार-तार होती मानवता के संरक्षण के लिए नक्सलाइट बीहड़ों की शरण में चले जाते हैं, जहाँ से वापस आना संभव नहीं हो पाता।


Image :Figures near a Well in Morocco
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Artist :Theo van Rysselberghe
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हृषीकेश पाठक द्वारा भी