राधाकृष्ण को हम क्यों भूलें

राधाकृष्ण को हम क्यों भूलें

शब्द साक्षी है

कथाकार राधाकृष्ण की जन्मशती पर उनका संपूर्ण साहित्य रचनावली के रूप में प्रकाशित होता तो वह उनको सच्ची श्रद्धांजलि होती। सारे देश में उन्हें वैसे ही याद किया जाना चाहिए था, जैसे प्रेमचंद, अज्ञेय, शमशेर और नागार्जुन को याद किया गया। इसमें कुछ दोष केंद्र का, लेकिन उससे ज्यादा प्रदेश का है, जिसने ऐसा कुछ नहीं किया, जिससे देश और दुनिया को लगता कि शासन द्वारा राधाकृष्ण जैसे तेजस्वी सरस्वती पुत्र के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह किया गया है। राधाकृष्ण तो क्या, प्रेमचंद तक की जन्मशती पर सरकारों ने अपने कर्तव्य का ठीक से निर्वाह नहीं किया। तब हम कुछ लोगों ने संकल्प लिया था कि प्रेमचंद का संपूर्ण साहित्य रचनावली के रूप में लाएँगे, जिसमें बिहार के सर्जक जाबिर हुसैन और मधुकर सिंह का भी सहयोग रहा और बीस खंडों में ‘प्रेमचंद रचनावली’ संभव हुई, जिसका लोकार्पण बिहार की राजधानी पटना में नामवर सिंह ने किया और रचनावली लेकर हमलोग प्रेमचंद की जन्मभूमि लमही जाकर उसे उनके परिजनों को सौंप आए थे। उन्हीं प्रेमचंद ने कथाकार राधाकृष्ण के बारे में कहा था कि यदि मुझे हिंदी के सिर्फ पाँच कथाकारों को चुनना हो तो राधाकृष्ण का नाम अवश्य रखूँगा! समय की ट्रेजडी देखिए कि सामयिक, भावना प्रकाशन, हार्पर कालिंगस, किताब घर आदि प्रकाशकों ने हिंदी कहानी के सौ-डेढ़ सौ और दो सौ से अधिक कहानीकारों के जो सदी संचयन प्रकाशित किए, उनमें कथाकार के रूप में राधाकृष्ण कहीं नहीं हैं। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि हिंदी कथा सम्राट प्रेमचंद जिन्हें पाँच चुनिंदा कहानीकारों में से एक मानते थे, आज के ‘संपादक सम्राट’ उन राधाकृष्ण को सौ-दो सौ कथाकारों की सूची में भी शामिल नहीं करते। गनीमत है कि कथाकार अखिलेश के संपादकत्व में पंकज मित्र ने ‘कहानियाँ रिश्तों की’ शृंखला के अंतर्गत ‘गाँव-घर’ पर केंद्रित जो संकलन निकाला, उसमें राधाकृष्ण की कहानी ‘कानूनी और गैर कानूनी’ को संकलित कर संपादन कला की लाज रख ली। ऐसे में उपेक्षित रहे ‘झंडागान’ के सर्जक श्यामलाल गुप्त पार्षद का स्मरण सहसा हो आया, जिन्होंने भारत के स्वाधीनता संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। उन्होंने ही ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा’ जैसा झंडागान लिखा, जिसे काँग्रेस ने अपने अधिकृत झंडागान के रूप में स्वीकार किया था। आजादी की लड़ाई में अपने इस गीत से पूरे देश में नई शक्ति का संचार करने वाले श्यामलाल गुप्त पार्षद को अब कौन याद करता है। देश ने अपने उस राष्ट्रकवि की इज्जत नहीं की, ठीक वैसे ही, जैसे प्रेमचंद के पंचरत्नों में से एक कथाकार राधाकृष्ण को समुचित सम्मान नहीं मिला। विनोदशंकर व्यास का कथा संकलन ‘मधुकरी’ हो या जैनेंद्र का ‘तेइस कहानियाँ’, उस समय के संकलनकर्ता राधाकृष्ण को जरूर शामिल करते थे, वे पाठ्यक्रम का हिस्सा भी रहे, लेकिन बाद में सब लोग उन्हें छोड़ते चले गए। साहित्य अकादमी ने जरूर राधाकृष्ण के जीवन और साहित्य पर श्रवणकुमार गोस्वामी का मोनोग्राफ पुनः छापकर भूल सुधार किया है।

18 सितंबर, 1910 को जन्मे राधाकृष्ण राँची-लोहरदगा मार्ग पर अर्से तक बस कंडक्टर रहे। प्रेमचंद के न रहने पर शिवरानी देवी के अनुरोध पर कुछ समय ‘हंस’ का संपादन किया। बाद में श्रीपतराय के साथ ‘कहानी’ का संपादन भी उन्होंने किया था। जयशंकर प्रसाद के मामा द्वारा संपादित ‘हिंदी गल्प’ में प्रकाशित कहानी ‘सिन्हा साहब’ से सृजनारंभ करने वाले राधाकृष्ण आर्थिक अभावों से मुक्ति पाने के लिए प्रेमचंद की तरह कुछ समय फिल्म नगरी मुंबई में भी रहे, पर निराश होकर लौट आए और आकाशवाणी में प्रोड्यूसर हो गए। फिर सन् 1947 में राँची से प्रकाशित सरकारी पत्रिका ‘आदिवासी’ के संपादक बने। समसामयिक जीवन पर कहानियाँ और उपन्यास लिखने वाले राधाकृष्ण ने पौराणिक उपन्यास ‘रूपांतर’ भी लिखा। उनकी व्यंग्य रचना ‘पुनर्मूषिका भव’ पढ़कर गाँधी जी ने राधाकृष्ण से कहा था कि ईमानदारी से ऐसे ही लिखते रहो। उनके बारे में गिरिराज किशोर कहते हैं : ‘राधाकृष्ण बड़े यारबाश थे। जिसे पसंद करते, बेहद पसंद करते थे, जिसे नापसंद करते, बेहद नापसंद करते थे।’ शायद इसी अति के चलते वे लोगों से कटते चले गए और जिन लोगों से जुड़े रहे, वे उनके लिए कुछ करने लायक नहीं थे। श्रवणकुमार गोस्वामी कहते हैं कि ‘राधाकृष्ण की रचनाओं में हास्य-व्यंग्य का संतुलित समाहार दिखाई देता है। वे अपने लिए उपमेय रहे और उपमान भी। उनका सानी दूसरा नहीं। फिर भी, वे निरंतर उपेक्षित होते चले गए।’ 3 फरवरी, 1979 को यह संसार छोड़ने वाले राधाकृष्ण की प्रमुख कृतियाँ हैं : रामलीला, सजला, गल्पिका, फुटपाथ, रूपांतर, बोगस, सनसनाते सपने, भारत छोड़ो, बिगड़ी हुई बात, सपने बिकाऊ हैं, चंद्रगुप्त की तलवार, राजा सातवाहन, पाटलिपुत्र, ढेला-पत्ता, नई नगरिया तथा मूर्खों की कहानियाँ आदि।

बंगाल के अकाल पर रांगेय राघव ने जो लिखा, उसे पढ़कर आज भी हमारी आँखें नम हो जाती हैं, लेकिन राधाकृष्ण ने बिहार में फैले मलेरिया जैसे महारोग पर दिल दहला देने वाली जो कहानी ‘एक लाख, सत्तानबे हजार, आठ सौ, अट्ठासी’ लिखी, वह रांगेय राघव के लेखन से किसी तरह कम नहीं। इस कहानी के आरंभ पर जरा गौर फरमाइए : ‘समय व्यतीत होता जा रहा है और यह कहानी अभी तक चल रही है, मगर इस कहानी के शीर्षक ‘एक लाख, सत्तानबे हजार, आठ सौ, अट्ठासी’ को लेकर भ्रम हो सकता है, क्योंकि शीर्षक के साथ कहानी की संगति नहीं बैठती। अतएव कहानी के शीर्षक पर टिप्पणी आवश्यक है।

‘सन् 1942-43 का समय था, जब बंगाल में अकाल और मिथिला में मलेरिया और भुखमरी से लोग मरते चले जा रहे थे। बंगाल में मरने वालों की कहानियाँ उजागर हो रही थीं, लेकिन बिहार की बातों पर ब्रिटिश सरकार के आतंक से पर्दा पड़ा हुआ था। उस समय केवल ‘इंडियन नेशन’ था, जो मिथिला के बारे में तब तक लिखता रहा, जब तक उसके प्रधान संपादक को अपनी नौकरी से हाथ ही नहीं धो लेना पड़ा। उस समय बिहार सरकार के सलाहकार थे वाई.एस. गोडबोले, जिन्होंने एक प्रश्न के उत्तर में बतलाया था कि मलेरिया आदि से मिथिला में मरने वालों की संख्या है–‘एक लाख, सत्तानबे हजार, आठ सौ, अट्ठासी’। उसी वक्तव्य को देखकर यह कहानी लिखी गई। यह एक ही परिवार की कहानी नहीं, बल्कि एक लाख सत्तानबे हजार आठ सौ अट्ठासी व्यक्तियों की अकाल मौत की कहानी है, जो एक खास परिवार के लोगों की मौत के जरिये व्यक्त हुई है।’

यहाँ हेमिंग्वे की कहानी ‘डेथ इन द आफ्टर नून’ का वह अंश याद आ रहा है, जिसमें वे लिखते हैं कि किसी स्थिति या वस्तु का पूरा वर्णन करने की जरूरत नहीं। उसके किसी अंश को आप गौर से देखें, गहराई तक महसूस करें और सूक्ष्मता से उस पर विचार करें और फिर उसका चित्रण करें। पूरे मनोयोग से किया गया उसका आंशिक चित्रण भी उसके पूरे रूपाकार का प्रतिनिधित्व कर सकता है। अतएव, राधाकृष्ण की कहानी ‘एक लाख, सत्तानबे हजार, आठ सौ, अट्ठासी’ बिहार में हुई उस समय की लाखों अकाल मौतों का चित्रण तो है ही, राधाकृष्ण की कहानी कला का उत्कृष्ट नमूना भी है। जरा आरंभ तो देखिए : ‘यह मिथिला है। देखिए, गाँव के किनारे से कोसी नदी बहती जाती है। सामने वह बूढ़ा पीपल है। पीपल के नीचे कभी का तालाब है। वहाँ पक्का घाट है। पुराने जमाने के किसी जमींदार ने इस घाट को बनवाया था। अब के जमींदार तो मुकदमा लड़ते हैं, मैनेजर और रंडी रखते हैं, शराब पीते हैं और बंगला बनवाते हैं। घाट-वाट बनवाने के फेर में वे नहीं पड़ते। उस पीपल पर, कहते हैं, भूत है। भूत भी ऐसा कि वृहद पिशाच। गाँव वाले कहते हैं कि रात को वह घाट पर बैठा रहता है। अगर कोई उधर जा निकला तो उसे मार डालता है। हमलोग रात में कभी उधर गए ही नहीं। जाने की जरूरत ही नहीं पड़ी। पता नहीं, ब्रह्मपिशाच की बात कहाँ तक सच है?’ मिथिला के एक गाँव का यह चित्र क्या भारत के ज्यादातर गाँवों का चित्र नहीं? सब गाँवों में नदी-ताल और घाट होते हैं। पीपल का पेड़ भी होता है, जिस पर पिशाच के होने की बातें भी सभी गाँवों में कही-सुनी जाती हैं। राधाकृष्ण की कहानी कला की खूबी देखिए कि वे ब्रह्मपिशाच की बात पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए कहते हैं कि पता नहीं, ब्रह्मपिशाच की बात कहाँ तक सच है, लेकिन कहानी का अंत अत्यंत कारुणिक है। वहाँ समाज की रूढ़ियों और धनवानों का उपहास भी है : ‘आम समूचे मिथिला में पैदा होता है, लेकिन आपलोग हमारे आम और महाराजाधिराज को सिर्फ दरभंगा का बतलाते हैं। समूचे मिथिला का आम सिर्फ दरभंगिया आम हो गया, क्योंकि राजाधिराज दरभंगा के हैं।’ है न कमाल की बात!

कहानी एक गरीब लड़के के आत्मवृत्त के रूप में है, जिसमें वह कहता है : ‘आजकल तो मैं ही घर में कमाने वाला हूँ। दिन के समय लड़कों के साथ कोसी में मछलियाँ मारता हूँ। शाम होते ही किसी की फुलवारी में घुसकर कुछ फल और सब्जी का जुगाड़ करता हूँ। इसी से घर चलता है। उस दिन भूखन साहू के यहाँ एक बैलगाड़ी खड़ी थी। उसमें चावल के बोरे लदे थे। अपने साथियों के साथ मिलकर हमने एक पूरा बोरा उड़ा लिया और गाड़ीवान को खबर तक न हुई।’

इस रूप में कहानी गरीब बच्चों द्वारा घर चलाने के लिए की जाने वाली चोरी को कितनी सहजता से जीवनयापन का जरिया निरूपित कर देती है। उस समय की सामाजिक स्थिति पर कटाक्ष करती कहानी बिहार में फैले मलेरिया जैसे महारोग का हृदयद्रावक चित्रण करते हुए हमारे सामने मनुष्य की लाचारी और त्रासदी का बखान कुछ यों करती है : ‘अम्मा के गहने बिक गए। बर्तन बंधक रख दिए गए। कुछ दिन बाद एक दाढ़ीवाला आदमी आया और हमारी गायों को खूँटे से खोलकर ले जाने लगा तो हम रोने लगे। ढेला लेकर उसे मारने के लिए दौड़े।’ कितनी सरलता से राधाकृष्ण ने चित्रित कर दिया कि मलेरिया ने किस तरह लोगों को विपन्न कर दिया, भूखा और नंगा। उधर अँग्रेज सरकार लोगों को कुनैन की गोलियाँ तक नहीं दे रही कि मलेरिया पर रोक लगे।

कहानी में आगे बताया गया है कि गर्मी के दिन तो किसी तरह बीत गए और अब बरसात आई है। झमाझम मूसलाधार बारिश हो रही है। बाबू जी बुखार में पड़े हैं। अम्मा की तबीयत भी अच्छी नहीं है। तमाम घर में अँधेरा छाया है। अब तो न किरासन का तेल है और न उसे खरीदने के लिए पैसे। इसके बाद का दृश्य देखें : आखिर मेरा मित्र रामनाथ काम आया। वह मुझसे उम्र में बड़ा है। जिस समय हम घर पहुँचे, माँ की दोनों आँखें खुली थी, एकटक। सारा शरीर ऐंठ गया है। बदबू के मारे नाक नहीं दी जा रही है। वे बरामदे में पड़ी हैं और सारे शरीर पर मक्खियाँ भिनभिना रही हैं। रामनाथ ने कहा, ‘यह तो मर गईं।’

श्मशान पहुँचकर उन लोगों ने देखा कि कुछ चिताएँ जली हैं, कुछ बुझी हुई। रघु ने लाश बहाने की सलाह दी। उसने अपनी औरत की लाश को बहा दिया था। इन लोगों ने भी सुनैना काकी और माँ की लाश को बहा दिया। जलाने के लिए उस महामारी में गरीबों के लिए लकड़ी कहाँ और कैसे मिलती। अगली रात वे लोग बाबू जी की लाश लेकर श्मशान जा रहे हैं, साथ में बहन छम्मी भी है। श्मशान में छम्मी को कै हुई और वह काँपने लगी। घर में तीन-चार बार दस्त हो चुके थे। रामनाथ उसके लिए पानी लेता आया और बोला, ‘छम्मी को भी हैजा हो गया।’ और ट्रेजडी देखिए कि वे लोग छम्मी को लेकर घर नहीं गए। श्मशान में ही उसकी हालत खराब होने पर रामनाथ ने कहा, ‘यह भी मर रही है। घर लेकर गए भी तो फिर लेकर आना पड़ेगा।’ सुनकर कथानायक रोने लगा, ‘माँ मर गई, बाप मर गए, सुनैना काकी भी मर गईं और अब छम्मी भी मर रही है…हाय, अब किसके साथ रहूँगा? किसके लिए मछली मारने जाऊँगा और किसके लिए अमरूद चुराकर लाऊँगा?’ ऐसे में सवाल उठता है कि ऐसी हृदय विदारक कहानियाँ और उपन्यास लिखने वाले कथाकार राधाकृष्ण को हमने भुला क्यों दिया?

सन् 2014 में दूरदर्शन के राँची केंद्र द्वारा तत्कालीन उप महानिदेशक एवं कथाकार शैलेश पंडित के पौरोहित्य में आयोजित ‘राधाकृष्ण महोत्सव’ में शिरकत करने गए तो शहर भर में लगे होर्डिंग्स में खुद को पाकर खुश हुए, लेकिन सदी संचयनों और पाठ्यक्रमों में कहीं भी राधाकृष्ण को न पाकर दिल बैठ गया, जो उठने का नाम ही नहीं ले रहा।

कामुक रानी की कहानी और प्रेमिका का सच

वरिष्ठ कथाकार विभूतिनारायण राय ने अपने गाँव जोकहरा में जो पुस्तकालय स्थापित किया, उसकी तारीफ तो हर किसी ने की ही, सांप्रदायिक दंगों के दौरान जनता के मनोविज्ञान, प्रशासनिक मशीनरी की भूमिका और राजनेताओं की कारगुजारियों की जाँच-पड़ताल करते हुए अँग्रेजी में ‘कंबेटिंग कम्युनल कॉन्फ्लिक्ट’ नाम से जो किताब उन्होंने लिखी, उसके लिए भी उन्हें काफी सराहना मिली। तिस पर वे कथा पर भी हाथ भाँजते रहे हैं, जिससे ‘शहर में कर्फ्यू’, ‘घर’ और ‘तबादला’ जैसे उपन्यास उपलब्ध हुए। उनका उपन्यास ‘प्रेम की भूतकथा’ जादुई यथार्थवाद की जद को छूते हुए भारत में अर्से तक कायम रहे अँग्रेजी राज के दौरान एक अँग्रेज केमिस्ट जेम्स की हत्या के अनसुलझे रहस्य को सुलझाने के प्रयास में आरोपी की प्रेमिका की तलाश करते हुए रचा गया है, जो आम ही नहीं, खास पाठकों को भी रुचता है। ‘प्रेम की भूतकथा’ विभूतिनारायण राय का ऐसा उपन्यास है, जिसकी जरूरत यथार्थ की कंकरीली जमीन पर सिर पटक-पटककर लहूलुहान हो रहे हिंदी उपन्यास को कुछ ज्यादा ही है। शायद ऐसे उपन्यासों के जरिये भी मनुष्य के जीवन में गहन प्रेम के एहसास को बनाए रखा जा सके, जैसे अँग्रेजी राज के दौरान लिखी गई चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ ने उस काल में प्रेम और नैतिकता की वेदी पर नायक का बलिदान सह कर भी उसे अमर कर दिया।

मसूरी में पत्रकार-कथाकार को मिलते हैं कई भूत, जिनके सहयोग से वह हत्या और प्रेम के रहस्य को उजागर करता है। उन भूतों में से एक था फ्रांस के निकोलस का भूत, जो अपने देश में जमीन के छोटे से टुकड़े का मालिक था, जिसका बचपन अपने बाप को भूमि कर, धर्म कर और नमक कर अदा करते हुए देखते बीता था। उन करों के अलावा जमींदार की लड़की की शादी, बपतिस्मा या किसी बड़ी दावत के लिए भी उनसे वसूली की जाती थी। बेगार अलग से। जमींदार के कारिंदे भी अपने हिस्से की लूटपाट करते रहते थे। उन दिनों यूरोप, खासकर फ्रांस में कहावत थी कि सामंत लड़ता है, पादरी पूजा करता है और सामान्य जन कर देता है। निकोलस के भूत ने लेखक को बहुत कुछ बताया और फ्रांसीसी क्रांति के तमाम नायकों से लेखक की मुलाकातें करवा दीं। जिन लोगों से लेखक मिला, उनमें रूसो, मांटेस्क्यू और वाल्तेयर थे, लुई और मारी आंतुआनेत थे, तूर्जो, नेकर और मिराबो थे, जिन्होंने मनुष्यता के इतिहास को प्रभावित किया।

निकोलस के भूत ने लेखक को उन तमाम युद्धों, षड्यंत्रों तथा जन सैलाबों से परिचित कराया, जिनका असर सिर्फ उस समय के फ्रांसीसी समाज पर ही नहीं पड़ा, पूरी दुनिया जिसके प्रभाव से वर्षों थरथराती रही। मारी आंतुआनेत को निकोलस दंभी और कुटिल रानी समझता था, जिसने अपने सौंदर्य और षड्यंत्रों के बल पर राजा को बेबस कर दिया। रानी की कामुकता को लेकर महल और उसकी चारों तरफ फैले बर्साय शहर में गाए जाने वाले गीत भी भूत ने लेखक को सुनाए थे। पादरी और जल्लाद के अलावा एलन की प्रेमिका का भूत भी मिला।

‘प्रेम की भूतकथा’ में सन् 1909 में मसूरी में हुई एक अँग्रेज जेम्स रेगिनैल्ड क्लैप की हत्या के रहस्य को मसूरी स्थित अँग्रेजों की खंडहर होती हवेलियों में धँसते हुए जानने की कोशिश उपन्यासकार ने की है। नैनी जेल के साथ-साथ उसे इलाहाबाद, मसूरी और देहरादून में भी पुलिसिया अंदाज से इतर मानवीय दृष्टिकोण से खोज-बीन करते हुए खोलने का प्रयास विभूतिनारायण राय ने किया है।

रस्किन बांड की मसूरी के इतिहास पर केंद्रित किताब ‘मसूरी एंड लैंडोर : डेज ऑफ वाइन एंड रोजेज’ के कुछ पैराग्राफ में दर्ज उस अनसुलझी प्रेम कथा के सूत्र तलाशते हुए पत्रकार (कथाकार) सन् 1900 में छपी किताब ‘द इंटरनेशनल लाइब्रेरी ऑव फेमस लिटरेचर’ के पन्ने पलटते हुए उम्मीद करता है कि शायद उसमें कुछ ऐसा मिले, जिससे हत्यारे की खोज का कोई सूत्र मिल जाए। बीस खंडों में सन् 1900 में छपी उस किताब में यूरोपीय भाषाओं में जो कुछ श्रेष्ठ था, ज्यादातर उपलब्ध है। इस किताब के चौथे खंड में कथाकार को सचमुच वह सूत्र मिल गया, जिसकी उसे तलाश थी।

सन् 1910 में नैनी जेल में फाँसी पर चढ़ने से पहले एलन के हाथ से लिखी गई वह पर्ची ‘नो रिग्रेट्स माय लव’ कथाकार को मिल गई, जो किसी डायरी का पन्ना फाड़कर लिखी गई थी। केमिस्ट जेम्स की हत्या के आरोप में गोरखा रेजीमेंट की चौदहवीं लाइट कैवेलरी के कारपोरल एलन को फाँसी की सजा हुई थी। फाँसी लगाने वाले जल्लाद कल्लू और पादरी कैमिलस तक इस बात पर यकीन नहीं कर पा रहे थे कि एलन जैसा सभ्य अँग्रेज फौजी किसी की हत्या कर सकता है। उन दोनों को लगातार लगता रहा कि एलन निरपराध है।

संदेह की पुष्टि एलन द्वारा फाँसी के फंदे पर चढ़ने से पूर्व लिखी गई वह पर्ची करती है, जिस पर उसने लिखा था–‘नो रिग्रेट्स माय लव’। पत्रकार-कथाकार को ‘दि इंटरनेशनल लाइब्रेरी ऑव फेमस लिटरेचर’ के चौथे खंड में छिपी पड़ी यही पर्ची उस हत्या के रहस्य को उजागर करने का आधार बन गई। उसके बाद कथाकार यह खोजने में जुट गया कि जेम्स की हत्या किसने की और उसने ‘नो रिग्रेट्स माय लव’ जैसी रहस्यमयी पंक्ति किसे संबोधित करते हुए लिखी थी। इसी खोज के चलते ‘एक अद्भुत प्रेम कथा’ सृजित हो गई। हत्या के रहस्य को उजागर करने के लिए उपन्यासकार कई भूतों से मुलाकात कर उनसे सहायता लेता है, क्योंकि भूतों से दोस्ती करना उसका शगल है।

जेम्स के हत्यारे का पता तो अंत तक नहीं चला, किंतु यह रहस्य अवश्य उजागर हो गया कि रिप्ले बीन नाम की लड़की अपने प्रेमी एलन को फाँसी के फंदे से बचाने के लिए इस सच को उजागर नहीं कर पाई कि जिस समय जेम्स की हत्या हुई, उस समय वह एलन की बाँहों में थी : ‘एक लड़की के लिए यह कबूल करना कि वह विवाह से पहले किसी मर्द के साथ सोयी, बहुत मुश्किल था।’ उस काल के समाज की नैतिकता ही वह वजह बन गई, जिसके कारण एलन फाँसी के फंदे पर झूल गया, लेकिन अपनी प्रेमिका रिप्ले बीन की इज्जत बचाए रखने के लिए फाँसी के फंदे को चूमने तक उसने सच का खुलासा नहीं किया।

रिप्ले बीन सोचती और चाहती रही कि ‘चीख-चीख कर दुनिया को बता दे कि एलन हत्यारा नहीं है, पर डरती रही।’ दूसरी ओर एलन प्रेमिका की इज्जत पर कोई आँच नहीं आने देना चाहता था। इसीलिए उसने ‘नो रिग्रेट्स माय लव’ लिखकर फाँसी के फंदे को चूम लिया। पुलिस की भयानक प्रताड़ना सह कर भी उसने उस सच को नहीं उगला। ‘हार्स नट के नीचे’ पल्लवित होते इस प्रेम का चित्रण एलन द्वारा लिखे गए प्रेम पत्रों के विभिन्न दृश्यों के जरिये भी हुआ है, जिससे ‘प्रेम की भूतकथा’ एक बेहतरीन प्रेम उपन्यास के रूप में उभर आया। विभूति का यह उपन्यास अपने शैल्पिक कौशल के चलते भी महत्त्वपूर्ण हो गया। है। अपने लघु कलेवर में उस अनसुलझी हत्या के रहस्य और प्रेम कथा के साथ उस समय के अनेक महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर भी उपन्यासकार टिप्पणी करता चलता है। समकालीन पत्रकारिता का चरित्र और उसका वातावरण, फ्रांसीसी क्रांति, जिसमें ‘रोटी-रोटी’ चिल्लाते स्वतंत्रता का नारा लगाते किसान किले पर धावा बोल देते हैं, क्रांति के नायकों से मुलाकात, देहरादून-मसूरी का सैनिक इतिहास तथा गोरखा पलटन के गठन के किस्से उपन्यास से भरे पड़े हैं, जो उसे बहुआयामी बना देते हैं। आज पढ़कर कल भूल जाने वाले उपन्यासों के दौर में विभूतिनारायण राय का उपन्यास ‘प्रेम की भूतकथा’ एक अविस्मरणीय कृति बन गई है।

प्रेमचंद जितने जरूरी हैं प्रसाद भी

प्रो. हरिमोहन शर्मा से साहित्यिकों का परिचय उनके द्वारा संपादित पत्रिका ‘सार्थक’ से सन् 1976 में हुआ, जिसे वे प्रेम जनमेजय के साथ निकाला करते थे। ‘सार्थक’ की कहानी प्रतियोगिता में खाकसार की कहानी ‘अनचाहे सफर’ पुरस्कृत हुई, जिसके निर्णायक कथाकार नरेंद्र कोहली थे। ‘अनचाहे सफर’ नाम से हमारी इक्यावन कथाओं का संग्रह छपा, जिस पर लंबा आलोचनात्मक आलेख प्रो. शर्मा ने लिखा था, जो ‘रचना से संवाद’ के पाँच लेखों में से एक है। पहला आलेख है राजेंद्र यादव के भूमंडल को जीत लेने के आकांक्षी गद्य पर। अगला नरेंद्र कोहली के प्रारंभिक उपन्यासों पर, लेकिन प्रो. हरिमोहन शर्मा के यादगार आलेख वे हैं, जो उन्होंने नागार्जुन और प्रसाद के उपन्यासों पर लिखे हैं, जो उनके आलोचक की कद-काठी का निर्धारण करते हुए सवाल करते हैं कि हिंदी में ऐसे सुहृद आलोचक इतने कम क्यों हैं? अप्रैल, 1951 में बिजनौर में जन्मे डॉ. हरिमोहन शर्मा असोसिएट प्रोफेसर होकर वार्सा विश्वविद्यालय के छात्रों को हिंदी पढ़ाकर और खुद पोलिश साहित्य का अध्ययन कर लौटे तो ढेर सारे पोलिश साहित्य का अनुवाद कर डाला, जिसमें नोबेल पुरस्कार विजेता पोलिश कवि विस्वावा शेम्वोर्स्का की कविताएँ भी शामिल हैं। आलोचना और अनुवाद के अलावा आधुनिक रंगमंच, चित्रकला, कविता, व्यंग्य और कथालेखन में भी डॉ. शर्मा की रुचि रही है। ‘रसिक विनोद’ तथा ‘उत्तर छायावादी काव्य भाषा’ के बाद ‘रचना से संवाद’ उनकी तीसरी कृति है, जिसके दूसरे खंड में संग्रहीत भेंटवार्ताएँ रचनाकारों को समझने में मददगार होती हैं। तीसरे खंड में स्वच्छंदतावाद के राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय आयाम उद्घाटित हुए हैं तो पुस्तक का अंतिम आलेख ‘काव्य भाषा’ रचनाओं की व्याख्या पर केंद्रित है। इस रूप में रचना पाठ के सैद्धांतिक और व्यावहारिक, दोनों पक्षों की संपूर्ति डॉ. शर्मा की कृति ‘रचना से संवाद’ में संभव हुई है।

‘रचना से संवाद’ के प्रथम खंड का पहला आलेख है ‘जयशंकर प्रसाद के उपन्यासों में बदलते मनुष्य की छवि’ जिसमें डॉ. शर्मा ने प्रसाद के साहित्य की जानबूझकर की गई उपेक्षा पर दुःख जाहिर करते हुए बताया है कि वस्तुतः अभी तक प्रसाद के कथा साहित्य, खासकर उपन्यासों का उचित मूल्यांकन नहीं हुआ और जो हुआ, वह प्रायः गलत हुआ है। डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय जैसे कुछ ही आलोचकों ने प्रसाद का मूल्यांकन गंभीरता और आत्मीयता से किया है। एक लंबे कालखंड में प्रसाद के साहित्य को तो जैसे अस्पृश्य ही माना जाता रहा और प्रेमचंद साहित्य को देव साहित्य की तरह पूजा जाता रहा। निराला भी खूब पुजे, लेकिन जैसे किसी दुरभिसंधि के चलते प्रसाद पर प्रायः बात ही नहीं हुई। प्रेमचंद, गुलेरी, निराला, मुक्तिबोध, हजारीप्रसाद द्विवेदी और हरिशंकर परसाई की रचनावलियाँ आ गईं, मगर प्रसाद की रचनाओं को कोई खोजी संपादक और जिज्ञासु प्रकाशक नहीं मिला, जो उनके संपूर्ण साहित्य को वैज्ञानिक ढंग से संपादित कर प्रकाशित करवाता। इस दुरभिसंधि के पीछे छिपे चेहरों को पहचानना मुश्किल नहीं है। उस निराशा और कुहासा भरे काल में भी लेकिन प्रो. शर्मा ने प्रसाद का उचित मूल्यांकन कर उनके उपन्यासों पर लंबा आलेख लिखा और हिंदी के पाठकों को बताया कि जयशंकर प्रसाद सिर्फ वही नहीं हैं, जो जाने-अनजाने और चाहे-अनचाहे बता और बना दिए गए हैं। उनका इतिहास प्रेम इस तरह त्याज्य और उपेक्षणीय नहीं है और उन्हें सामाजिक विकृतियों का उपन्यासकार कहना तो उनके साथ सरासर ज्यादती है। ‘कंकाल’, ‘तितली’ और ‘इरावती’ जैसे उपन्यासों का ऐतिहासिक महत्त्व है। बीसवीं सदी के दूसरे-तीसरे दशक का तूफानी दौर, समाज सुधारों की लहर, नवजागरण, पुरुष के सामंती वर्चस्व, स्त्रियों की दीन-हीन स्थिति, मूल्यों के विघटन और भारतीय मनुष्य की टूटती-छीजती छवि को प्रसाद ने उकेर कर हमारे सामने रखा है।

प्रसाद के उपन्यास ‘तितली’ के पात्रों (मधुबन और तितली) को जरा प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ के पात्रों (गोबर और झुनिया) से मिलाकर तो पढ़िए। कितना साम्य है उनमें। और प्रसाद का उपन्यास ‘कंकाल’ क्या हमें यह नहीं बताता कि धर्म अब एक मरणशील प्रत्यय है और वह हाशिये पर है। अब वह नैतिकता या सद्गुणों का स्त्रोत नहीं रह गया। धर्म पर टिका हुआ समाज जर्जर हो चुका है। उसमें आमूल-चूल परिवर्तन अपरिहार्य है, यह किए बिना नए समाज की रचना संभव नहीं। प्रसाद के उपन्यासों में व्याप्त समाज के नवनिर्माण की इस बेचैनी को अधिसंख्य आलोचक क्यों नहीं देख सके? उचित मूल्यांकन किए बिना प्रसाद के साहित्य की ओर से आँखें क्यों फेर ली गईं? जयशंकर प्रसाद पर लिखा गया डॉ. शर्मा का यह आलेख उनके गहन-गंभीर आलोचकीय विवेक, सूक्ष्म को देख और पकड़ सकने की उनकी दृष्टि एवं  उनके आलोचकीय साहस को दर्शाता है, जो धारा के विरुद्ध देख, सुन और समझकर उसे अभिव्यक्त करने में उनकी मदद करता है। डॉ. शर्मा का यही साहस नागार्जुन के उपन्यासों की अच्छाइयों को उजागर करने के साथ उनके कमजोर पक्षों पर उँगली रखने में भी काम आया है। ‘संघर्षोन्मुखी चेतना का फैलाव और नागार्जुन के उपन्यास’ में डॉ. शर्मा ने लिखा है कि संगठित होकर संघर्ष करने की चेतना नागार्जुन के पात्रों को जिन स्थलों पर अपने परिवेश से प्राप्त होती है, वहाँ उपन्यास मानवीय जीवन के जीवंत दस्तावेज बन जाते हैं, लेकिन जहाँ नागार्जुन यह चेतना अपने लेखकीय विचारों से भरने की कोशिश करते हैं, वहाँ उपन्यास कमजोर हो जाते हैं। ‘वरुण के बेटे’ का मोहन माँझी जब लेखक की जुबान से बोलता है तो वह साधारण मछुआरा न लगकर राजनीतिज्ञ और बुद्धिजीवी लगने लगता है। यहीं पर उपन्यास कमजोर हो जाता है। ऐसे प्रसंगों में संयम की जरूरत होती है, लेकिन इसमें नागार्जुन अनेक बार चूके हैं। नागार्जुन के कवि ने कहीं-कहीं उपन्यासों पर हावी होने की कोशिश भी की है। उपन्यासों के ऐसे स्थलों पर लगने लगता है कि नागार्जुन कवि पहले हैं, कथाकार बाद में। इसके बावजूद डॉ. शर्मा ने नागार्जुन के वर्णन कौशल की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए लिखा है कि अपने उपन्यासों में नागार्जुन मिथिला अंचल के जीवन और चरित्रों को ऐसे सजीव-साकार कर देते हैं कि पाठक के सामने दृश्य ज्यों के त्यों उभरने लगते हैं। आम के चोखे या रोहू के भुने हुए टुकड़े को खाते हुए जो स्वाद आता है, नागार्जुन के वर्णन कौशल से पाठक उस स्वाद को महसूस करने लगता है। नागार्जुन की यही खूबी उन्हें मिथिला अंचल का सशक्त कथाकार साबित करती है। और सबसे बड़ी बात यह कि नागार्जुन की मूल प्रतिबद्धता भारत के गरीब आदमी के प्रति है, जिसे अपनी रचनाओं के माध्यम से उन्होंने संघर्ष का दर्शन प्रदान किया। प्रसाद ने जहाँ बीसवीं सदी के दूसरे-तीसरे दशक के भारतीय जीवन को अपने उपन्यासों में उपस्थित किया, वहाँ नागार्जुन ने चौथे और पाँचवे दशक के मनुष्य के जीवन संघर्ष को वाणी दी है। छठे-सातवें दशक के चित्र नरेंद्र कोहली के उपन्यासों में हैं तो खाकसार के ‘अनचाहे सफर’ में बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध का भारतीय जीवन उपस्थित हुआ है। इस तरह डॉ. शर्मा ने बीसवीं शताब्दी का मुकम्मल विश्लेषण पेश करने की कोशिश की है। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो. हरिमोहन शर्मा ने नेशनल बुक ट्रस्ट से छपी हमारी किताब ‘संकलित कहानियाँ’ की भूमिका लिखने का उपकार जरूर हम पर किया, लेकिन ‘काल कथा’ या ‘आवां’ जैसा कुछ न लिख पाने के लिए मुझे ठोकते-पीटते भी रहे।


Image : Crows Fly by Red Sky at Sunset
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Artist : Shibata Zeshin
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