वह कौन थी

वह कौन थी

मैं कसम खाकर कहती हूँ कि वह एक कयामत की रात थी। आज भी याद करती हूँ तो सिहर-सिहर उठती हूँ, जैसे साँप की दोधारी जीभ सहला-सहला जाए!

जान में जान तब आई जब कंडक्टर ने आकर हमें बताया, ‘रब का शुकर मनाओगी कि खतरा टल गया।’

‘पर क्या वाकई कोई टेररिस्ट अटेम्प्ट था या सिर्फ…?’ बहुत कुछ पूछना चाहते थे हम, मगर कंडक्टर ने हमें बोलने का मौका ही न दिया, ‘ये टाइम बहुत खराब है जी, कब हकीकत अफवाह बन जाए, कब अफवाह हकीकत। खतरा तो टल गया लगता है। पर खतरा तो कभी भी आ सकता है जी। एहतियातन एलर्ट ही रहें तो अच्छा।’ कंपार्टमेंट की बुझी बत्तियाँ जल उठीं। लगा, हम एक लंबी काली सुरंग से बाहर निकले हैं।

हमारी रुकी साँसें खुल गईं। हमने अपने देवी-देवताओं को फिर से याद किया। बच गई जान! पता नहीं, क्या-क्या हो सकता था हम पर उस रात। कुछ भी हो सकता था। कुछ भी…अगर टेररिस्ट अटैक की बात सच हुई होती! तनिक इत्मीनान की साँस लेते हुए अपने-अपने अनुभव शेयर करने लगे हम। एक से जुड़ी दूसरी कड़ी, दूसरी से जुड़ी तीसरी कड़ी, कड़ी-कड़ी जुड़ती गई। हॉरर फिल्म्स, नॉवेल्स, रीयल घटनाएँ…क्या-क्या नहीं! बातों ही बातों में आतंक के किसी अनजान सिरे की तरह हाथ लग गई भुवनेश्वर की यादगार कहानी ‘भेड़िये’। कल्पना में कहानी का दिन रात में ढला, धुआँती हुई चाँदनी रात–‘उस धुआँती चाँदनी में एक धब्बा बढ़ता हुआ चला आ रहा है…एक गढ्डा! इस गढ्डे पर ग्वालियर से तीन नटिनियों को पंजाब में बेचने के लिए लेकर चला आ रहा है इफ्तिखार और उसका बाप कि तभी कुछ और धब्बे खिलते हैं। भेड़िये! पहले अपनी बंदूक से भेड़ियों को मारता है इफ्तिखार। अपने मृत साथियों को चट कर देखते ही देखते आगे बढ़ आते हैं दूसरे भेड़िये। भेड़ियों की तादाद बढ़ती जाती है। कारतूस चुक गए हैं। कारतूसों की पोटली घर पर ही भूल आया है इफ्तिखार। उसकी इस भूल पर खरी-खोटी सुनाते हुए बाप गढ्डे को हल्का करने के लिए भाग सके। सामान! इसी क्रम में बारी आती है नटिनियों की…। दो को तो फेंक देता है, इफ्तिखार लेकिन तीसरी को फेंकने से तनिक हिचकिचाता है। वह उससे प्यार करने लगा था। बाप डाँटता है और सोचने-विचारने का समय है नहीं। नटिनी की तरफ आगे बढ़ता है। नटिनी उसे डबडबायी आँखों से देखती है। गड़ासे के नीचे कोई धड़कती हुई बोटी-सी, शायद धूमिल ने कहा था, ‘तुम खुद कूद जाओगी या मैं तुम्हें फेंक दूँ?’ जवाब में वह उसे अपनी चाँदी की नथुनी उतार कर उसके हाथों पर धरकर डबडबायी आँखें मूँद कर भेड़ियों के बीच कूद जाती है।’

दरवाजे के बगल वाली सीट पर बैठी बुर्के वाली औरत ने फिर से नकाब उलट लिए और फटी-फटी आँखों से लगी ताकने हमें।

‘अब एक बैल को भी भेड़ियों के हवाले करना पड़ा और आखिरकार बाप भी…। ओह इट वाज हॉरर! सिम्पली हॉरर।’

अनायास ही भेड़ियों का हॉरर हमारी जेहन में नहीं उभरा था, उसकी वजह भेड़ियों की आँखों-सी अभी भी जल रही थी। अगर वह टेरॅरिस्ट अटैक वाकई हुआ होता तो? और क्या पता फिर से ऐसी कोई बला आ जाए! हमारा ए.सी.टू. टायर का टिकट कंफर्म नहीं हुआ था और हम–मैं और क्षमा नॉन ए.सी. के थ्रीटायर के कूपे में सफर कर रहे थे। ट्रेन जम्मू से चलने के बाद से ही रेंगने लगी थी। टी.टी. ने पूछने पर बताया कि कोई टेरॅरिस्ट अटैक या सबोटेज होनक की थ्रेटेनिंग मिली है। कंफर्म नहीं है फिर भी एहतियातन…। आपलोग अंदर से कूपा बंद कर लें, जगी और चौकन्नी रहें।’

बुर्के वाली औरत ने कूपा बंद करने के साथ-साथ नकाब भी गिरा लिए, हालाँकि कूपे में हम औरतें ही थीं, मर्द नहीं।

कंडक्टर बाहर किसी को बता रहा था, वैसे आगे-आगे इंस्पेक्शन पायलट इंजन जा रहा है। ट्रेन की स्पीड भी धीमी रखी जा रहा रही है पैरामिलिटरी फोर्सेज की गश्त तो हुई है…?’ वह शायद पैसेंजर को तसल्ली देना चाहता था मगर हमारा खौफ कम होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा था। लगता था, कूपे को छेद कर संगीने निकल आएँगी। किसी भी क्षण फायरिंग हो सकती थी या ब्लास्ट! खौफ एक खंजर की तरह छुपा आ रहा था, पीठ में, सीने में। खिड़की से, डोर से, नीचे रेंगता हुआ। ऊपर लटकता हुआ। एक दूजे की उँगलियाँ तक छू जातीं तो हम चिहुँक उठते। जैसा कि टी.टी. ने बताया, ट्रेन की रफ्तार धीमी थी और यह धीमी चाल हम में डर के साथ-साथ खीज भी पैदा कर रही थी। बोगी की करंट की ट्रेन की रफ्तार के साथ कोई दुरभिसंधि थी। रफ्तार तेज होती तो लाइट और पंखों में जान आ जाती और धीमी होती तो दोनों धीमे पड़ जाते। जैसे ही ट्रेन रुकती या कोई खटका होता, हमारे रोयें खड़े हो जाते–आ गए टेररिस्ट!

बहरहाल वह सब बीत चुका था और अब हम ‘भेड़िये’ की चर्चा में मशगूल थे। अचानक लाइट फिर धीमी हुई। नीम अँधेरे में ऊपर से एक आवाज चुई, ‘यह कब का वाकया होगा?’

हमने चौंक कर देखा, ऊपर वाली बर्थ पर कोई औरत भी है, अपनी बेखयाली में हमें उसका अब तक ख्याल भी न रहा कौन है, कब से बैठी है।

‘मेरा ख्याल है, यही कोई सन् उन्नीस सौ तीस-चालीस का।’

‘यूँ ही मैंनू समझा, इधर का होगा।’

‘तुम तो ऐसे बोल रही हो, जैसे आए दिन घटती रहती है ऐसी वारदात?’

‘सच्ची समझा आपणे।’ वह कभी ‘न’ को ‘ण’ बोलती, कभी कुछ का कुछ?

पंजाबी हिंदी के साथ अनावश्यक छेड़-छाड़ करते रहने से उसकी भौगोलिक हिचकोले खा रही थी। पहनावा शायद सलवार-कुर्ती! आवाज से प्रौढ़ता का आभास हो रहा था। वैसे भी इसे पहचानने या भेद कर पाने की अपनी काबिलियत पर मुझे कभी यकीन न था। लाइट्स के धीमी होते ही उसके पूरे वजूद पर तिलस्मी अँधेरा गहराने लगता, फिर ट्रेन के चल पड़ते ही ‘चेंऽऽऽ’ ‘केंऽऽऽ’ की आवाज से मन फिर से आशंकाओं से भरने लगता।

‘आपको कहाँ तक जाणा है?’ उसने पूछा।

‘दिल्ली।’

‘दोणों को?’

मैंने क्षमा को देखा, क्षमा ने मुझे। हमें उस औरत का इस तरह बीच में कूदना अच्छा नहीं लगा। मान न मान मैं तेरा मेहमान! कमबख्त ने कहानी का सारा मजा ही किरकिरा कर दिया था। ऐसे माहौल में किसी से ज्यादा मेलजोल बढ़ाना अच्छा नहीं होता। पता नहीं, कौन कौन हो, कौन कौन? उससे पल्ला झाड़ने की गरज से अपने बारे में बात न कर हम फिर कहानी पर लौट आए, ‘तुमने भेड़िये देखे हैं?’

‘आदमी देखे हैं। तुसी क्या जाणो, आदमी की जात को! उसके मुकाबले क्या तो भेड़िये, क्या तो दूसरे? कितने तो खूँखार! कितने तो जहरीले? हम कश्मीर से आए हैं, हमसे बेहतर भला कौन जानता है?’

‘कश्मीर से…? लेकिन तुम्हारी जबान तो…?’

‘अपणनी असल बोली तो पौठवारी माने पहाड़ी मीरपुर हो सकती थी भैण जी। माँ के मुँह से आज भी कभी-कभी निकल पड़ती है।’ वह अब सँभल सँभल कर बोल रही थी। हमारे बीच की दीवार ढहने लगी थी।

‘कश्मीर के तो हम भी हुए।’

‘नवासी में आई होंगी?’

‘नहीं नब्बे में। किधर से आए थे तुम लोग?’

‘कहाँ का बताये-किधर से आए, किधर समाये। हमने तो सुना है, नवासी में जो कश्मीरी पंडत आए थे, उनमें से हर फेमिली का दस-दस हज्जार मिले। इस लालच में कइयों ने अपनी फेमिली को बँटवारा कर लिया। हर फिरके को दस-दस हज्जार? मौज करो जी! पैसे हो तो धरम-करम की बात करो, पैसे हों तो जात-पात की। पैसों के लिए कभी उधर चले जाओ, पैसों के लिए कभी इधर।’ इस कलमुँही को मूँ लगाना अच्छा नहीं हुआ। अब हम दोनों खुद पर झल्ला रहे थे।

‘यह जात पात कहाँ से ले आई तुम?’

‘क्यों खातून जरा अपणी जात तो बतलाना।’ उसने बुरके वाली प्रौढ़ा औरत से पूछा। वह फिर नकाब उलट कर फटी-फटी आँखों से हमें ताकने लगी।

‘नहीं बताना चाहती ये। चलो हम बताते हैं, पैदाइशी कुछ और थी। फिर कुछ और हुई। जहाँ-जहाँ गई वहाँ-वहाँ इसकी जात बदली। निचोड़ा, मन भरा और छोड़ दिया। अस्ल में औरत या मर्द की कोई जाते ना होवे–बस औरत और मर्द! मगर मेरा कलेजा सुलग जावे जब इनसान की पूँछ उठाकर उस पर जात का ठप्पा मार दिया जावे। अपनी शख्सीयतों को रंग में, ढंग में, बोली में, पहरावे में, पहचान में छुपाते फिरते लोगाँ। जिंदा रहने के लिए क्या-क्या फरेब नहीं करने पड़ते!’

‘कैसा फरेब?’

‘अब यही लो, जब भी बात होगी, कश्मीरी पंडतों की होगी। क्या इतने बड़े कश्मीर में पंडत ही पंडत थे। कहाँ गए दूसरे लोग?’

मैं क्षमा से धीरे से बुदबुदायी, ‘कहीं यह नामुराद ‘बक्रवाल’, ‘गूजर’, ‘पहाड़ी’ ‘किश्तवार’, ‘बद्रवार’ जैसी किसी बिरारदरी की तो नहीं है?’ क्षमा ने कंधे उचकाये, ‘पता नहीं!’

हमारी बातचीत को ताड़ लिया उसने, ‘बुरा न मानना भैया, पंडतों का बुरा सोचूँ तो ऊपर वाला मुझे कभी माफ न करे। मगर एक पूरी आबादी जलावतन होकर रुक-रुक कर यहाँ-वहाँ, वहाँ-यहाँ बार्डरों से छुप-छुपाकर आती रही या खदेड़ी जाती रही तो इस बात की खोज तो होनी ही चाहिए न कि कोण-कोण थे। गैर पंडत जो न आ पाये, उनका क्या हुआ? जो बच-बचाकर आ गए, उनका और उनके आद-औलाद का क्या बना? घाटी का क्या हाल है, जम्मू का क्या, बार्डर से सटे इलाकों का क्या, बाकी इलाकों का क्या? हमें तो लगता है, या तो वे मुसलमान बन गए या पंडत का लबादा ओढ़े रहे। यही दहशतगर्द हैं उस पार और इस पार के।’

उसकी वाचालता और तर्कों से हम भन्ना गए। वह मुसलमान और हिंदू, इस पार उस पार–दोनों को दहशतगर्द बता रही थी। कश्मीर के नाम पर कौन-सा धूल खाता पन्ना वह उठाकर बाँच रही थी–क्या पता! क्या उसे पता नहीं कि कश्मीरी पंडित एक आम शब्द है जिसके तहत कश्मीर से विस्थापित हर हिंदू को ‘कश्मीरी पंडित’ कहा जाता है।

‘न! नहीं?’ सफाई और मैला साफ करने वाले कुछ जमादार इस अफरातफरी में सबसे ज्यादा खुश थे, पूछो क्यों? उन्हें हिंदुओं ने छोड़ दिया था और मुसलमानों ने नहीं। उन्हें हिंदुओं द्वारा छोड़े गए बड़े-बड़े मकान। उन्हें न हिंदुस्तान में न जा पाने का अफसोस, उन्हें क्या कहोगे पंडत। वह फक्कड़ों-सी हँस रही थी। उसका चेहरा ओझल था मगर उसकी हँसी बहुत-सी मर्यादाओं को तार-तार कर रही थी।

हम उसे कुछ और हकीकतें बताकर उसकी कई गलतफहमियाँ दूर कर देना चाहते थे मगर उसने हमें मौका ही न दिया। कारण, उसके उस धूल खाए पन्ने-से कोई औरत निकली चली आ रही थी, घोड़ी पर चढ़ी औरत भागवंती–हमारे बंजर किताबी ज्ञान के मुकाबले उर्वर और जीवंत। भागवंती! नहीं नहीं, यह अधूरा परिचय होगा, असल परिचय होगा गर्भिणी भागवंती–अनेक संभावनाओं से भरी हुई भागवंती। एक भागवंती कई भागवंतियों में गुणित होती है–कुछ घोड़ों पर, कुछ और किसी चीज पर, कुछ पैदल सहराओं में घिसटती या घसीटी जाती हुई…।

‘अपणा मुलुक, अपणा वतन, अपणा सब कुछ छोड़कर कोण जाणा चाहे भैण! लेकिन जाना पड़ता है। अपने मुलुक से भाग आने के इत्ते साल बाद भी भागवंती नहीं भूल पाई अपना गाँव, उसके लोग-बाग, पेड़-परबत, नदी-झरने। आसपास के लोग भाग रहे थे दहशत में। ‘रहना है तो धरम बदलो, नहीं तो…।’ एक ही फेमिली में कुछ लोग बदल गए थे, लेकिन बाकी…? अपने ही गाँव के लोगाँ कैसे बदल गए थे! वे उन बाहरी लोगाँ से मिल गए थे। भागवंती ऐसे ही बाकी लोगाँ में थी जिन्हें जान भी प्यारी थी, और जात भी। उन्हें लगता, जिस रब की उन्होंने इतनी पूजा की है, कोई न कोई करिश्मा कर दिखाएगा तो अखीर तक। सो वे अड़े रहे और सबसे बाद में गाँव छोड़ने को तैयार हुए।

‘उसका दस साल का बेटा जित्तू छत पर चढ़कर निगरानी करता। वह मजाक-मजाक में डराया करता, ‘भागो, वे आ गए!’ चूँकि कोई न आता सो उसकी बात को वे हँसी में उड़ा दिया करते। उसने सूखे मेवे और खाने-पीने के सामान बाँध लिए थे साथ ही विक्टोरिया के चाँदी के रुपयों से भरी छोटी-छोटी थैलियाँ उन्हीं में से एक का हेड-टेल उछाला करता वो–‘आएँगे-नहीं आएँगे!’ रोज ही रात का खाना दिन रहते ही खा लेते वे। जीते कुफर बोलता, ‘उन्हें अच्छी तरह खिला-पिलाकर, उनसे दुआ-सलाम करके जाएँगे!’ लेकिन एक दिन उसका बोलना मजाक न था। वह सचमुच हड़बड़ी में था, ‘जल्दी करो, वे पहुँचने ही वाले हैं।’ जैसा कि पहले से तय था, सवारी के घोड़ों-घोड़ियों को छोड़कर सारे मवेशियों के रस्से खोल दिए गए। दरवज्जे खुले छोड़ दिए गए।

‘औरों की तरह भागवंती ने भी पीछे मुड़कर अखीर बार देखा अपने आशियाने को–अपनी जनम भूम को, अपने पुरखाँदी निशानियों को। आसमानों में अभी अभी उजाला था। घर-द्वार मवेशी, पेड़-पौधे ही नहीं, पत्थर तक भी कितना अपणा लगने लगे हैं बिछड़ने के बखत! घोड़ी पर चढ़ने ही वाली थी कि याद आया–वो अपणा पुश्तैणी पीपल का हुक्का–दादा जी की निशानी। उसे राख से चमका कर ऐसे बैठके के बीचोंबीच रख देते तो लगता, दादा जी हमें ताक रहे हैं। पूरे परिवार पर निगहबानी रहती उनकी। उसे कैसे छोड़ दें? बस उसी को लाने को लौटना पड़ा। गई, उठाया और लगभग दौड़ती हुई आई। देर नी लगाई जरा भी…मगर देर लगा गीं।’

वह तनिक रुकी। तिलस्म को गहराने दिया फिर बोली, ‘वे आ चुके थे–एक, दो, तीन, चार या कितने–पता नहीं। आते ही जा रहे थे। आसमानों से हल्का अँधेरा झरने लगा था। उनके लिए पहले ही टुकड़े फेंक रखे थे। घर खुला था, कमरा-कमरा खुला था, खाणे-पीणे की और ढेर सारी दीगर चीजें थीं, पुश्तों से जोड़ी हुई एक-एक चीज। बना-बनाया रात का खाणा भी जैसे वे कोई जिन्न हों जिन्हें खुश रखने के लिए ये तैयारियाँ हमने कर रखी थीं।

‘बस एक पिराबलम थी बूढ़ी सास! इस बूढ़ी को कैसे सँभाला जाए। लेकिन वो पिराबलम ऐन बखत पर बूढ़ी ने खुद ही हल कर दी। इस सफर पर कूच करने के पहले ही वह अपने लंबे सफर को कूच कर गई। डर कर मर गई। उसे वहीं छोड़ देना पड़ा।’

‘अब एक घोड़े पर भागवंती और उसका मरद। दूसरे घोड़े पर पन्दरह साल की ननद, दस बरस का जित्तू। इसी बरस ननद की शादी करने की सोच रहे थे। दोनों बहादुर बच्चे। ननद के हाथ में बंदूक। इधर पेट से थी भागवंती, सो उसके मरद को सँभल कर चलना पड़ रहा था।

वे आते ही टूट पड़े थे। तनिक देर बाद, जित्तू को आवाज आई, ‘जरा तेज चलो बापू, वे फिर आ रहे हैं।’ ननद ने अपने घोड़े की चाल धीमी कर दी, ताकि साथ बना रहे।

‘फेंक जो भी फेंकने लायक हो।’ भागवंती के मर्द ने कहा। उन्होंने सिक्कों की थैलियाँ फेंकीं, भागवंती ने पूछा, ‘अब? गहनों को किस दिन के लिए रख छोड़ा है?’

भागवंती ने एक-एक कर अपने गहने फेंकना शुरू किया। वे लूटने भर को रुकते फिर आगे बढ़ जाते।

‘अब फेंकने को कुछ नहीं बचा?’ भागवंती ने कहा।

‘वो पीतल का हुक्का किस दिन काम आएगा?’ पति ने कहा।

‘उसे सबसे अखीर में फेंकेंगे, पुश्तैनी निशानी है।’

‘अब कौन-सा अखीर आएगा? कोई भी चीज तो नहीं बची जिसको फेंक कर इन दरिंदों को उलझाए रखा जा सके?’

‘एक चीज है।’ इतना कहकर ननद ने जित्तू के गाल चूमे। अपनी बंदूक उसे थमायी और घोड़ा रोक कर उतर गई। एक कमसिन औरत पाकर वे रुके। कुत्तों की तरह हक जताने के लिए आपस में भिड़ गए। फायरिंग भी हुई। फायरिंग की आवाजों में कुछ-एक आवाजें जित्तू के बंदूक की भी थीं। उन्हें सुरक्षित भाग निकलने के लिए वह भी पिल पड़ा था। मारा गया।’

‘अब अकेला घोड़ा भागा जा रहा था दो सवारों को वहीं छोड़कर। फायरिंग फिर शुरू हो गई थी।

‘ले-धाँय!’

‘ले-धाँय!’ भागवंती का मर्द आधा मुँह से बोल रहा था, आधा बंदूक से।

‘हम में से एक को जाणा पड़ेगा।’ वह बोला, ‘तेरे पास खानदाणा का आखिरी निशानी है। तू निकल जा, मैं इन्हें रोके रखता हूँ। तुझे कसम है जो मेरी बात न मानी।

‘कलेजे में हूक उठ रही थी भागवंती के मगर रुलाई को अंदर ही अंदर घोटना पड़ रहा था।’

डर की गुंजलक थी, और नींद की खुमारी। वह औरत अब किसी कैंप-वैंप की बात कर रही थी और मैं उस अंदेखे कैंप को विजुअलाइज कर रही थी। मैं आधी नींद में थी, आधी जागरण में, मेरी  तरह उसकी कहानी भी आधी पानी में थी, आप पानी के बाहर…?

‘रेफ्यूजी कैंप! जैसे खानाबदोश बनजारे किसी खाली पड़ी जगह में बस्तियाँ बसा लेते हैं–यहाँ रसोई, वहाँ पानी का घड़ा, वहाँ बिस्तर, वहाँ कपड़े, वहाँ झाड़ूँ, वहाँ जूठनँ, वहाँ कुत्ता, वहाँ खेलते-झगड़ते बच्चे, इधर नहाती जनानियाँ, उधर ताकते-झाँकते लोग, हुफ-हुफ करते, पूँछ से मक्खियाँ हटाते घोड़े-घोड़ियाँ या टट्टू! सरकारी इमदाद और खैरात के भरोसे कब तक कटती जिंदगी! मर्द हर जगह काम ढूँढ़ने जाते। कभी मिलता, कभी नहीं, मिल-मिलकर छूट जाता।

न बच्चों की कायदे की परवरिश, न पढ़ाई-लिखाई, न बड़ों को रोजी-रोजगार, बनजारों-सी जिंदगी। बीमार पड़ते बिना दवा-दारू के पड़े रहते जमीन पर मक्खियाँ भिनकती रहतीं।

‘कि तभी एक कोई दिलावर सिंह आए और अपने गाँव खाणे-रहणे की बात करने लगे। हमें लगा, रेफूजी कैंप के नर्क से अलग से जो भी होगा, सुरग ही होगा।’

‘अब दिलावर सिंह का गाँव–लंबी-चौड़ी खेती-बाड़ी-गाय-भैंस-बैल। क्या नहीं, तो मिनख! एक भी नहीं! क्यों नहीं तो डर कर भाग गए। क्यों भाग गए तो फायरिंग होती रहती थी। बॉर्डर का इलाका है, जब चाहे उधर के लोग और फौजी आकर यहाँ के बकरे और खाणे-पीणे का सामान लूट ले जाते जब चाहा फायरिंग करणे लगते।

‘घर छूट गया। गाँव छूट गया। वतन छूट गया। खसम छूट गयाँ बेटा छूट गया। सास और ननद छूट गईं। सब को अपनी आँखों के सामने कटता-लुटता हुआ देखती रही। सब कुछ तो उनके हवाले कर दी’ एक-एक कर सब कुछ। उसका वश चलता तो वह अपने पेट के बच्चे को भी खरोंच कर फेंक देती ताकि हल्की होकर भाग सके।’ उसके खरोंच शब्द के उच्चारण पर हमारी तो गिनगिनी छूट गई। पूरा दृश्य ही साकार हो गया हमारे सामने कि बोलती गई, ‘उन्हें धरम का वास्ता दिया, ईमान का वास्ता दिया, इनसानियत का वास्ता दिया।’ उन्हें बाप बणाया, भाई बणाया। मगर वे सिर्फ दहशतगर्द दरिंदे थे, सिर्फ दहशतगर्द दरिंदे! कहाँ भाग कर जाओगे? सुणा है, अमरीका ने ऐसे गोली बनाई है जो जरूरत पड़ने पर अपना रस्ता बदल कर भी मारती है। गोया के गोली न हुई, साँड़ हो गई। साँड़ भी नहीं, वो तुम्हारा भेड़िया…!’

‘हम तो कहानी की बात कर रहे थे, एक कहानी थी ‘भेड़िये’।’ क्षमता ने उस बावरी को समझाने की कोशिश की।

‘मैं कोई कहाणी-वहाणी ना जानूँ। मैं तो हकीकत बयाँ कर रही थी।’ उस औरत ने बात काट ली।…‘तुम कैसे कह सकती हो कि वे हकीकत थी?’

‘इसलिए कि भागवंती मेरी माँ है। अभी जिंदा है। वह जिसे पेट से खरोंच कर फेंक देना चाहती थी वो मैं!’ झन्न-सा कपाल पर बजकर गहराता चला गया दूर तक…देर तक।

‘अरे!’ हम दोनों सँभल कर बैठ गए। कमबख्त लाइट एकदम से चली गई। उसकी आवाज अँधेरे में जहाँ-तहाँ से टकराती हुई फड़फड़ा रही थी।

‘माँ के पेट में ही मैंने बॉर्डर पार किया, कैंप में पैदा हुई बॉर्डर के दिलावर सिंह के फार्म हाउस पर जवाण हुई। कैंप में लौटकर अपणे बचे लोगों में ब्याह रचाया। एक बेटा देकर कहीं कमाणे चला गया मेरा मर्द। नहीं लौटा। बेटे बलविन्दर का ब्याह किया उसे भी बेटा हुआ। सातवीं पास बलविन्दर भी एक दिन कागज बनवा कर चला गया ईराक। फिर नहीं लौटा। उसकी बहू बीमार होकर चल बसी। अब मैं हूँ, माँ है और मेरा पोता दलजीत जो यहाँ मेरे पास सो रहा है। घर जो छूटा, सो छूट ही गया।

‘स्वाल है, हम क्या बचाणा चाहते हैं और क्या बच पाता है। एक-एक कर प्यारी लगने वाली चीजें हमें फेंकनी पड़ती हैं, ताकि गढ्डा हल्का हो, हम भेड़ियों से जाण बचाकर भाग सकें। अब अपणा ही देखो, बची भागवंती, पेट में की निशानी, माने मैं उसकी बेटी लाजो, और…दादा जी का हुक्का। गुजरे जमाने की यादें ताजिंदगी ढोया करे हैं हम जबकि खुद को ही ना ढोया जावे…और यादों को ढोने का जज्बा…? भौत-ई खतरनाक है ये जज्बा भौत-ई खतरनाक! बचा तो पाते नहीं, मुफत में कुछ और गँवा आते हैं हम। हाय रे भाई जित्तू और बूआ नीलू! चाहते तो वे पहले भी भाग सकते थे। तब इन्हें बचा लेते हम मगर वो…पुश्तैनी हुक्का! एक निशानी बचाने के लिए सारी निशानियों को मिट जाने दिया हमने।

‘अब ये लड़का है, मेरी माँ है और मैं। मैं एक क्रैस चलाती हूँ। तीन-एक हजार मिल जाते जी। डेढ़-एक हजार घर के भाड़े में निकल जावे हैं। बाकी बचे डेढ़। अब इतने पैसों में मैं माँ को बचाऊँ या पोते को! कई बार सोचा, माँ ने तो भौत दुनिया देख ली। पोते ने कुछ नहीं देखा। भाणे सम्झ रही हों न आप? वही पुराणा स्वाल, जीभ चटचटाते दौड़े आ रहे हैं पीछे भेड़िये। बोझ हल्का करणा है। माँ को फेकूँ या बेटे के बेटे को? एक गुजरा जमाणा है, एक आणे वाला। बीच में मैं…और सब के बीच बेटा। ईराक से कोई खबर नी आई जिंदा है या…? लेकिन हम सब उनका जनम दिन मनाते हैं हरसाल।

‘सोचती कभी-कभी माँ को ही फेंक दूँ। लेकिण फिर सोचती माँ न होती तो तू कहाँ होती, कैसे बच पाती करमजली? तो क्या पोते को? लेकिण वो-ई तो अकेली जाण है वारिस जो बेटी पहचाण को आगे ले जाएगा। वरना तू क्या और तेरी जिंदगी क्या। थक गई मैं इसको-उसको ढोते-ढोते। बुरी तरह थक गई। मोटी-मोटी तीन-तीन रोटियाँ थापती हूँ तो एक-एक पड़ती है लेकिण सच्ची कहूँ, अब फेंका नहीं जाता किसी को। किसी को भी नहीं।’

‘नहीं। मान लो फेंकना निहायत जरूरी हो जाए तो किसे फेंकोगी?’ यह मेरा अंतिम यक्ष प्रश्न था। ‘फेंकने की ही बात क्यों करते लोगाँ?’ वह यकायक छेड़ी गई। सद्यः प्रसवा बाघिन-सी गुर्रा उठी।

‘ह्याँ से जाण बचाने को ह्वाँ। ह्वाँ से जाण बचाने को ह्याँ! जहाँ भी जावें, सूँघते-सूँघते आ जाते हैं दरिंदे। आदमी से कुत्ता बना दिया हमें। ताज्जुब! देश तो चल ही रहा है दुनिया तो चल ही रही है। खैरात-इमदाद भी बँट रही है मुसीबत के मारों को। रेफूजियों की तकलीफ देखने वाला कोई नहीं। हम उत्ते सालों से वैस-ई हैं वही रेफूजी कैंप! क्या हमारा कोई देश नहीं है? हम आसमान से टपके हैं? कहाँ चले जाएँ? गया तो मेरा बेटा इराक! लौट पाया? या रब! धरती का कौन-सा कोणा है जहाँ चले जाएँ हम?’ लाजो की आवाज फटकर कातर फरियाद-सी बरस रही थी? जाने कब आँख लग गई, ट्रेन के झटके से खुली तो लगा, किसी स्टेशन पर रुककर फिर से रेंग रही है। क्या पता, कितनी देर तक रुकी रही। वह एक धुँआती हुई चाँदनी रात थी। नीचे किसी खलियायी नदी का विस्तार था। उखड़ा-उखड़ा परिवेश। धुँधला-धुँधला परिदृश्य! जहाँ-तहाँ कुछ एक झाड़, कुछ एक चट्टानें, कुछ एक पेड़ और जहाँ-तहाँ थोड़े पानी जिसमें रोशनी के परिंदे-सा चाँद कभी एक गड़हे में नहाकर पंख फड़फड़ाता, कभी दूसरे गड़हे में। गाड़ी अभी भी रेंगते-रेंगते रुक रही थी, रुकती-रुकती रेंग रही थी। सहसा नजर ऊपर गई। ऊपर वाली बर्थ पर न लाजो थी, न उसका पोता। बुर्के वाली औरत भी नहीं। वे कहीं उतर गए, उन्हें उतार लिया गया या वह कोई प्रेतलीला थी! इस बीमार रोशनी में बुर्के वाली का चेहरा दो-एक बार जलकर बुझ गया लाजो या उसके पोते का चेहरा तक ठीक-ठीक न देख पाये हम, न ही यह पूछ पाये कि वह कौन थी और कहाँ का वाकया बयान कर रही थी–सन् 1947 का, सन् 1989 का, सन् 1971 का, सन् 2013 का या उसके आगे-पीछे कहीं और का, कि वह बॉर्डर ‘पोक’ का ही था या हिंद-पाक-कशमीर का, बांग्लादेश का, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, मिश्र, सीरिया, फिलिस्तीन, इजराइल या कहीं और का…कि वह भागवंती की बेटी लाजो थी या बर्बरीक की कोई अभिशप्त आत्मा! प्रेत तो कहीं के भी हो सकते हैं, कोई भी शक्ल अख्तियार कर सकते हैं, कोई भी जबान बोल सकते हैं।

उसका संग तो ट्रेन में ही छूट गया। वह दृश्य हमने अपनी आँखों से कभी देखा भी नहीं मगर उस रात की याद आते ही ऐन आँखों के आगे खिल उठता है जहाँ अँधेरों-उजालों को पार करती कोई गर्भिणी औरत घोड़ी पर भागती चली आ रही है।

मैं कसम खाकर कहती हूँ कि वह एक कयामत की रात थी। आज भी याद करती हूँ तो सिहर-सिहर उठती हूँ, जैसे साँप की दोधारी जीभ सहला-सहला जाए!

जान में जान तब आई जब कंडक्टर ने आकर हमें बताया, ‘रब का शुकर मनाओगी कि खतरा टल गया।’

‘पर क्या वाकई कोई टेररिस्ट अटेम्प्ट था या सिर्फ…?’ बहुत कुछ पूछना चाहते थे हम, मगर कंडक्टर ने हमें बोलने का मौका ही न दिया, ‘ये टाइम बहुत खराब है जी, कब हकीकत अफवाह बन जाए, कब अफवाह हकीकत। खतरा तो टल गया लगता है। पर खतरा तो कभी भी आ सकता है जी। एहतियातन एलर्ट ही रहें तो अच्छा।’ कंपार्टमेंट की बुझी बत्तियाँ जल उठीं। लगा, हम एक लंबी काली सुरंग से बाहर निकले हैं।

हमारी रुकी साँसें खुल गईं। हमने अपने देवी-देवताओं को फिर से याद किया। बच गई जान! पता नहीं, क्या-क्या हो सकता था हम पर उस रात। कुछ भी हो सकता था। कुछ भी…अगर टेररिस्ट अटैक की बात सच हुई होती! तनिक इत्मीनान की साँस लेते हुए अपने-अपने अनुभव शेयर करने लगे हम। एक से जुड़ी दूसरी कड़ी, दूसरी से जुड़ी तीसरी कड़ी, कड़ी-कड़ी जुड़ती गई। हॉरर फिल्म्स, नॉवेल्स, रीयल घटनाएँ…क्या-क्या नहीं! बातों ही बातों में आतंक के किसी अनजान सिरे की तरह हाथ लग गई भुवनेश्वर की यादगार कहानी ‘भेड़िये’। कल्पना में कहानी का दिन रात में ढला, धुआँती हुई चाँदनी रात–‘उस धुआँती चाँदनी में एक धब्बा बढ़ता हुआ चला आ रहा है…एक गढ्डा! इस गढ्डे पर ग्वालियर से तीन नटिनियों को पंजाब में बेचने के लिए लेकर चला आ रहा है इफ्तिखार और उसका बाप कि तभी कुछ और धब्बे खिलते हैं। भेड़िये! पहले अपनी बंदूक से भेड़ियों को मारता है इफ्तिखार। अपने मृत साथियों को चट कर देखते ही देखते आगे बढ़ आते हैं दूसरे भेड़िये। भेड़ियों की तादाद बढ़ती जाती है। कारतूस चुक गए हैं। कारतूसों की पोटली घर पर ही भूल आया है इफ्तिखार। उसकी इस भूल पर खरी-खोटी सुनाते हुए बाप गढ्डे को हल्का करने के लिए भाग सके। सामान! इसी क्रम में बारी आती है नटिनियों की…। दो को तो फेंक देता है, इफ्तिखार लेकिन तीसरी को फेंकने से तनिक हिचकिचाता है। वह उससे प्यार करने लगा था। बाप डाँटता है और सोचने-विचारने का समय है नहीं। नटिनी की तरफ आगे बढ़ता है। नटिनी उसे डबडबायी आँखों से देखती है। गड़ासे के नीचे कोई धड़कती हुई बोटी-सी, शायद धूमिल ने कहा था, ‘तुम खुद कूद जाओगी या मैं तुम्हें फेंक दूँ?’ जवाब में वह उसे अपनी चाँदी की नथुनी उतार कर उसके हाथों पर धरकर डबडबायी आँखें मूँद कर भेड़ियों के बीच कूद जाती है।’

दरवाजे के बगल वाली सीट पर बैठी बुर्के वाली औरत ने फिर से नकाब उलट लिए और फटी-फटी आँखों से लगी ताकने हमें।

‘अब एक बैल को भी भेड़ियों के हवाले करना पड़ा और आखिरकार बाप भी…। ओह इट वाज हॉरर! सिम्पली हॉरर।’

अनायास ही भेड़ियों का हॉरर हमारी जेहन में नहीं उभरा था, उसकी वजह भेड़ियों की आँखों-सी अभी भी जल रही थी। अगर वह टेरॅरिस्ट अटैक वाकई हुआ होता तो? और क्या पता फिर से ऐसी कोई बला आ जाए! हमारा ए.सी.टू. टायर का टिकट कंफर्म नहीं हुआ था और हम–मैं और क्षमा नॉन ए.सी. के थ्रीटायर के कूपे में सफर कर रहे थे। ट्रेन जम्मू से चलने के बाद से ही रेंगने लगी थी। टी.टी. ने पूछने पर बताया कि कोई टेरॅरिस्ट अटैक या सबोटेज होनक की थ्रेटेनिंग मिली है। कंफर्म नहीं है फिर भी एहतियातन…। आपलोग अंदर से कूपा बंद कर लें, जगी और चौकन्नी रहें।’

बुर्के वाली औरत ने कूपा बंद करने के साथ-साथ नकाब भी गिरा लिए, हालाँकि कूपे में हम औरतें ही थीं, मर्द नहीं।

कंडक्टर बाहर किसी को बता रहा था, वैसे आगे-आगे इंस्पेक्शन पायलट इंजन जा रहा है। ट्रेन की स्पीड भी धीमी रखी जा रहा रही है पैरामिलिटरी फोर्सेज की गश्त तो हुई है…?’ वह शायद पैसेंजर को तसल्ली देना चाहता था मगर हमारा खौफ कम होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा था। लगता था, कूपे को छेद कर संगीने निकल आएँगी। किसी भी क्षण फायरिंग हो सकती थी या ब्लास्ट! खौफ एक खंजर की तरह छुपा आ रहा था, पीठ में, सीने में। खिड़की से, डोर से, नीचे रेंगता हुआ। ऊपर लटकता हुआ। एक दूजे की उँगलियाँ तक छू जातीं तो हम चिहुँक उठते। जैसा कि टी.टी. ने बताया, ट्रेन की रफ्तार धीमी थी और यह धीमी चाल हम में डर के साथ-साथ खीज भी पैदा कर रही थी। बोगी की करंट की ट्रेन की रफ्तार के साथ कोई दुरभिसंधि थी। रफ्तार तेज होती तो लाइट और पंखों में जान आ जाती और धीमी होती तो दोनों धीमे पड़ जाते। जैसे ही ट्रेन रुकती या कोई खटका होता, हमारे रोयें खड़े हो जाते–आ गए टेररिस्ट!

बहरहाल वह सब बीत चुका था और अब हम ‘भेड़िये’ की चर्चा में मशगूल थे। अचानक लाइट फिर धीमी हुई। नीम अँधेरे में ऊपर से एक आवाज चुई, ‘यह कब का वाकया होगा?’

हमने चौंक कर देखा, ऊपर वाली बर्थ पर कोई औरत भी है, अपनी बेखयाली में हमें उसका अब तक ख्याल भी न रहा कौन है, कब से बैठी है।

‘मेरा ख्याल है, यही कोई सन् उन्नीस सौ तीस-चालीस का।’

‘यूँ ही मैंनू समझा, इधर का होगा।’

‘तुम तो ऐसे बोल रही हो, जैसे आए दिन घटती रहती है ऐसी वारदात?’

‘सच्ची समझा आपणे।’ वह कभी ‘न’ को ‘ण’ बोलती, कभी कुछ का कुछ?

पंजाबी हिंदी के साथ अनावश्यक छेड़-छाड़ करते रहने से उसकी भौगोलिक हिचकोले खा रही थी। पहनावा शायद सलवार-कुर्ती! आवाज से प्रौढ़ता का आभास हो रहा था। वैसे भी इसे पहचानने या भेद कर पाने की अपनी काबिलियत पर मुझे कभी यकीन न था। लाइट्स के धीमी होते ही उसके पूरे वजूद पर तिलस्मी अँधेरा गहराने लगता, फिर ट्रेन के चल पड़ते ही ‘चेंऽऽऽ’ ‘केंऽऽऽ’ की आवाज से मन फिर से आशंकाओं से भरने लगता।

‘आपको कहाँ तक जाणा है?’ उसने पूछा।

‘दिल्ली।’

‘दोणों को?’

मैंने क्षमा को देखा, क्षमा ने मुझे। हमें उस औरत का इस तरह बीच में कूदना अच्छा नहीं लगा। मान न मान मैं तेरा मेहमान! कमबख्त ने कहानी का सारा मजा ही किरकिरा कर दिया था। ऐसे माहौल में किसी से ज्यादा मेलजोल बढ़ाना अच्छा नहीं होता। पता नहीं, कौन कौन हो, कौन कौन? उससे पल्ला झाड़ने की गरज से अपने बारे में बात न कर हम फिर कहानी पर लौट आए, ‘तुमने भेड़िये देखे हैं?’

‘आदमी देखे हैं। तुसी क्या जाणो, आदमी की जात को! उसके मुकाबले क्या तो भेड़िये, क्या तो दूसरे? कितने तो खूँखार! कितने तो जहरीले? हम कश्मीर से आए हैं, हमसे बेहतर भला कौन जानता है?’

‘कश्मीर से…? लेकिन तुम्हारी जबान तो…?’

‘अपणनी असल बोली तो पौठवारी माने पहाड़ी मीरपुर हो सकती थी भैण जी। माँ के मुँह से आज भी कभी-कभी निकल पड़ती है।’ वह अब सँभल सँभल कर बोल रही थी। हमारे बीच की दीवार ढहने लगी थी।

‘कश्मीर के तो हम भी हुए।’

‘नवासी में आई होंगी?’

‘नहीं नब्बे में। किधर से आए थे तुम लोग?’

‘कहाँ का बताये-किधर से आए, किधर समाये। हमने तो सुना है, नवासी में जो कश्मीरी पंडत आए थे, उनमें से हर फेमिली का दस-दस हज्जार मिले। इस लालच में कइयों ने अपनी फेमिली को बँटवारा कर लिया। हर फिरके को दस-दस हज्जार? मौज करो जी! पैसे हो तो धरम-करम की बात करो, पैसे हों तो जात-पात की। पैसों के लिए कभी उधर चले जाओ, पैसों के लिए कभी इधर।’ इस कलमुँही को मूँ लगाना अच्छा नहीं हुआ। अब हम दोनों खुद पर झल्ला रहे थे।

‘यह जात पात कहाँ से ले आई तुम?’

‘क्यों खातून जरा अपणी जात तो बतलाना।’ उसने बुरके वाली प्रौढ़ा औरत से पूछा। वह फिर नकाब उलट कर फटी-फटी आँखों से हमें ताकने लगी।

‘नहीं बताना चाहती ये। चलो हम बताते हैं, पैदाइशी कुछ और थी। फिर कुछ और हुई। जहाँ-जहाँ गई वहाँ-वहाँ इसकी जात बदली। निचोड़ा, मन भरा और छोड़ दिया। अस्ल में औरत या मर्द की कोई जाते ना होवे–बस औरत और मर्द! मगर मेरा कलेजा सुलग जावे जब इनसान की पूँछ उठाकर उस पर जात का ठप्पा मार दिया जावे। अपनी शख्सीयतों को रंग में, ढंग में, बोली में, पहरावे में, पहचान में छुपाते फिरते लोगाँ। जिंदा रहने के लिए क्या-क्या फरेब नहीं करने पड़ते!’

‘कैसा फरेब?’

‘अब यही लो, जब भी बात होगी, कश्मीरी पंडतों की होगी। क्या इतने बड़े कश्मीर में पंडत ही पंडत थे। कहाँ गए दूसरे लोग?’

मैं क्षमा से धीरे से बुदबुदायी, ‘कहीं यह नामुराद ‘बक्रवाल’, ‘गूजर’, ‘पहाड़ी’ ‘किश्तवार’, ‘बद्रवार’ जैसी किसी बिरारदरी की तो नहीं है?’ क्षमा ने कंधे उचकाये, ‘पता नहीं!’

हमारी बातचीत को ताड़ लिया उसने, ‘बुरा न मानना भैया, पंडतों का बुरा सोचूँ तो ऊपर वाला मुझे कभी माफ न करे। मगर एक पूरी आबादी जलावतन होकर रुक-रुक कर यहाँ-वहाँ, वहाँ-यहाँ बार्डरों से छुप-छुपाकर आती रही या खदेड़ी जाती रही तो इस बात की खोज तो होनी ही चाहिए न कि कोण-कोण थे। गैर पंडत जो न आ पाये, उनका क्या हुआ? जो बच-बचाकर आ गए, उनका और उनके आद-औलाद का क्या बना? घाटी का क्या हाल है, जम्मू का क्या, बार्डर से सटे इलाकों का क्या, बाकी इलाकों का क्या? हमें तो लगता है, या तो वे मुसलमान बन गए या पंडत का लबादा ओढ़े रहे। यही दहशतगर्द हैं उस पार और इस पार के।’

उसकी वाचालता और तर्कों से हम भन्ना गए। वह मुसलमान और हिंदू, इस पार उस पार–दोनों को दहशतगर्द बता रही थी। कश्मीर के नाम पर कौन-सा धूल खाता पन्ना वह उठाकर बाँच रही थी–क्या पता! क्या उसे पता नहीं कि कश्मीरी पंडित एक आम शब्द है जिसके तहत कश्मीर से विस्थापित हर हिंदू को ‘कश्मीरी पंडित’ कहा जाता है।

‘न! नहीं?’ सफाई और मैला साफ करने वाले कुछ जमादार इस अफरातफरी में सबसे ज्यादा खुश थे, पूछो क्यों? उन्हें हिंदुओं ने छोड़ दिया था और मुसलमानों ने नहीं। उन्हें हिंदुओं द्वारा छोड़े गए बड़े-बड़े मकान। उन्हें न हिंदुस्तान में न जा पाने का अफसोस, उन्हें क्या कहोगे पंडत। वह फक्कड़ों-सी हँस रही थी। उसका चेहरा ओझल था मगर उसकी हँसी बहुत-सी मर्यादाओं को तार-तार कर रही थी।

हम उसे कुछ और हकीकतें बताकर उसकी कई गलतफहमियाँ दूर कर देना चाहते थे मगर उसने हमें मौका ही न दिया। कारण, उसके उस धूल खाए पन्ने-से कोई औरत निकली चली आ रही थी, घोड़ी पर चढ़ी औरत भागवंती–हमारे बंजर किताबी ज्ञान के मुकाबले उर्वर और जीवंत। भागवंती! नहीं नहीं, यह अधूरा परिचय होगा, असल परिचय होगा गर्भिणी भागवंती–अनेक संभावनाओं से भरी हुई भागवंती। एक भागवंती कई भागवंतियों में गुणित होती है–कुछ घोड़ों पर, कुछ और किसी चीज पर, कुछ पैदल सहराओं में घिसटती या घसीटी जाती हुई…।

‘अपणा मुलुक, अपणा वतन, अपणा सब कुछ छोड़कर कोण जाणा चाहे भैण! लेकिन जाना पड़ता है। अपने मुलुक से भाग आने के इत्ते साल बाद भी भागवंती नहीं भूल पाई अपना गाँव, उसके लोग-बाग, पेड़-परबत, नदी-झरने। आसपास के लोग भाग रहे थे दहशत में। ‘रहना है तो धरम बदलो, नहीं तो…।’ एक ही फेमिली में कुछ लोग बदल गए थे, लेकिन बाकी…? अपने ही गाँव के लोगाँ कैसे बदल गए थे! वे उन बाहरी लोगाँ से मिल गए थे। भागवंती ऐसे ही बाकी लोगाँ में थी जिन्हें जान भी प्यारी थी, और जात भी। उन्हें लगता, जिस रब की उन्होंने इतनी पूजा की है, कोई न कोई करिश्मा कर दिखाएगा तो अखीर तक। सो वे अड़े रहे और सबसे बाद में गाँव छोड़ने को तैयार हुए।

‘उसका दस साल का बेटा जित्तू छत पर चढ़कर निगरानी करता। वह मजाक-मजाक में डराया करता, ‘भागो, वे आ गए!’ चूँकि कोई न आता सो उसकी बात को वे हँसी में उड़ा दिया करते। उसने सूखे मेवे और खाने-पीने के सामान बाँध लिए थे साथ ही विक्टोरिया के चाँदी के रुपयों से भरी छोटी-छोटी थैलियाँ उन्हीं में से एक का हेड-टेल उछाला करता वो–‘आएँगे-नहीं आएँगे!’ रोज ही रात का खाना दिन रहते ही खा लेते वे। जीते कुफर बोलता, ‘उन्हें अच्छी तरह खिला-पिलाकर, उनसे दुआ-सलाम करके जाएँगे!’ लेकिन एक दिन उसका बोलना मजाक न था। वह सचमुच हड़बड़ी में था, ‘जल्दी करो, वे पहुँचने ही वाले हैं।’ जैसा कि पहले से तय था, सवारी के घोड़ों-घोड़ियों को छोड़कर सारे मवेशियों के रस्से खोल दिए गए। दरवज्जे खुले छोड़ दिए गए।

‘औरों की तरह भागवंती ने भी पीछे मुड़कर अखीर बार देखा अपने आशियाने को–अपनी जनम भूम को, अपने पुरखाँदी निशानियों को। आसमानों में अभी अभी उजाला था। घर-द्वार मवेशी, पेड़-पौधे ही नहीं, पत्थर तक भी कितना अपणा लगने लगे हैं बिछड़ने के बखत! घोड़ी पर चढ़ने ही वाली थी कि याद आया–वो अपणा पुश्तैणी पीपल का हुक्का–दादा जी की निशानी। उसे राख से चमका कर ऐसे बैठके के बीचोंबीच रख देते तो लगता, दादा जी हमें ताक रहे हैं। पूरे परिवार पर निगहबानी रहती उनकी। उसे कैसे छोड़ दें? बस उसी को लाने को लौटना पड़ा। गई, उठाया और लगभग दौड़ती हुई आई। देर नी लगाई जरा भी…मगर देर लगा गीं।’

वह तनिक रुकी। तिलस्म को गहराने दिया फिर बोली, ‘वे आ चुके थे–एक, दो, तीन, चार या कितने–पता नहीं। आते ही जा रहे थे। आसमानों से हल्का अँधेरा झरने लगा था। उनके लिए पहले ही टुकड़े फेंक रखे थे। घर खुला था, कमरा-कमरा खुला था, खाणे-पीणे की और ढेर सारी दीगर चीजें थीं, पुश्तों से जोड़ी हुई एक-एक चीज। बना-बनाया रात का खाणा भी जैसे वे कोई जिन्न हों जिन्हें खुश रखने के लिए ये तैयारियाँ हमने कर रखी थीं।

‘बस एक पिराबलम थी बूढ़ी सास! इस बूढ़ी को कैसे सँभाला जाए। लेकिन वो पिराबलम ऐन बखत पर बूढ़ी ने खुद ही हल कर दी। इस सफर पर कूच करने के पहले ही वह अपने लंबे सफर को कूच कर गई। डर कर मर गई। उसे वहीं छोड़ देना पड़ा।’

‘अब एक घोड़े पर भागवंती और उसका मरद। दूसरे घोड़े पर पन्दरह साल की ननद, दस बरस का जित्तू। इसी बरस ननद की शादी करने की सोच रहे थे। दोनों बहादुर बच्चे। ननद के हाथ में बंदूक। इधर पेट से थी भागवंती, सो उसके मरद को सँभल कर चलना पड़ रहा था।

वे आते ही टूट पड़े थे। तनिक देर बाद, जित्तू को आवाज आई, ‘जरा तेज चलो बापू, वे फिर आ रहे हैं।’ ननद ने अपने घोड़े की चाल धीमी कर दी, ताकि साथ बना रहे।

‘फेंक जो भी फेंकने लायक हो।’ भागवंती के मर्द ने कहा। उन्होंने सिक्कों की थैलियाँ फेंकीं, भागवंती ने पूछा, ‘अब? गहनों को किस दिन के लिए रख छोड़ा है?’

भागवंती ने एक-एक कर अपने गहने फेंकना शुरू किया। वे लूटने भर को रुकते फिर आगे बढ़ जाते।

‘अब फेंकने को कुछ नहीं बचा?’ भागवंती ने कहा।

‘वो पीतल का हुक्का किस दिन काम आएगा?’ पति ने कहा।

‘उसे सबसे अखीर में फेंकेंगे, पुश्तैनी निशानी है।’

‘अब कौन-सा अखीर आएगा? कोई भी चीज तो नहीं बची जिसको फेंक कर इन दरिंदों को उलझाए रखा जा सके?’

‘एक चीज है।’ इतना कहकर ननद ने जित्तू के गाल चूमे। अपनी बंदूक उसे थमायी और घोड़ा रोक कर उतर गई। एक कमसिन औरत पाकर वे रुके। कुत्तों की तरह हक जताने के लिए आपस में भिड़ गए। फायरिंग भी हुई। फायरिंग की आवाजों में कुछ-एक आवाजें जित्तू के बंदूक की भी थीं। उन्हें सुरक्षित भाग निकलने के लिए वह भी पिल पड़ा था। मारा गया।’

‘अब अकेला घोड़ा भागा जा रहा था दो सवारों को वहीं छोड़कर। फायरिंग फिर शुरू हो गई थी।

‘ले-धाँय!’

‘ले-धाँय!’ भागवंती का मर्द आधा मुँह से बोल रहा था, आधा बंदूक से।

‘हम में से एक को जाणा पड़ेगा।’ वह बोला, ‘तेरे पास खानदाणा का आखिरी निशानी है। तू निकल जा, मैं इन्हें रोके रखता हूँ। तुझे कसम है जो मेरी बात न मानी।

‘कलेजे में हूक उठ रही थी भागवंती के मगर रुलाई को अंदर ही अंदर घोटना पड़ रहा था।’

डर की गुंजलक थी, और नींद की खुमारी। वह औरत अब किसी कैंप-वैंप की बात कर रही थी और मैं उस अंदेखे कैंप को विजुअलाइज कर रही थी। मैं आधी नींद में थी, आधी जागरण में, मेरी  तरह उसकी कहानी भी आधी पानी में थी, आप पानी के बाहर…?

‘रेफ्यूजी कैंप! जैसे खानाबदोश बनजारे किसी खाली पड़ी जगह में बस्तियाँ बसा लेते हैं–यहाँ रसोई, वहाँ पानी का घड़ा, वहाँ बिस्तर, वहाँ कपड़े, वहाँ झाड़ूँ, वहाँ जूठनँ, वहाँ कुत्ता, वहाँ खेलते-झगड़ते बच्चे, इधर नहाती जनानियाँ, उधर ताकते-झाँकते लोग, हुफ-हुफ करते, पूँछ से मक्खियाँ हटाते घोड़े-घोड़ियाँ या टट्टू! सरकारी इमदाद और खैरात के भरोसे कब तक कटती जिंदगी! मर्द हर जगह काम ढूँढ़ने जाते। कभी मिलता, कभी नहीं, मिल-मिलकर छूट जाता।

न बच्चों की कायदे की परवरिश, न पढ़ाई-लिखाई, न बड़ों को रोजी-रोजगार, बनजारों-सी जिंदगी। बीमार पड़ते बिना दवा-दारू के पड़े रहते जमीन पर मक्खियाँ भिनकती रहतीं।

‘कि तभी एक कोई दिलावर सिंह आए और अपने गाँव खाणे-रहणे की बात करने लगे। हमें लगा, रेफूजी कैंप के नर्क से अलग से जो भी होगा, सुरग ही होगा।’

‘अब दिलावर सिंह का गाँव–लंबी-चौड़ी खेती-बाड़ी-गाय-भैंस-बैल। क्या नहीं, तो मिनख! एक भी नहीं! क्यों नहीं तो डर कर भाग गए। क्यों भाग गए तो फायरिंग होती रहती थी। बॉर्डर का इलाका है, जब चाहे उधर के लोग और फौजी आकर यहाँ के बकरे और खाणे-पीणे का सामान लूट ले जाते जब चाहा फायरिंग करणे लगते।

‘घर छूट गया। गाँव छूट गया। वतन छूट गया। खसम छूट गयाँ बेटा छूट गया। सास और ननद छूट गईं। सब को अपनी आँखों के सामने कटता-लुटता हुआ देखती रही। सब कुछ तो उनके हवाले कर दी’ एक-एक कर सब कुछ। उसका वश चलता तो वह अपने पेट के बच्चे को भी खरोंच कर फेंक देती ताकि हल्की होकर भाग सके।’ उसके खरोंच शब्द के उच्चारण पर हमारी तो गिनगिनी छूट गई। पूरा दृश्य ही साकार हो गया हमारे सामने कि बोलती गई, ‘उन्हें धरम का वास्ता दिया, ईमान का वास्ता दिया, इनसानियत का वास्ता दिया।’ उन्हें बाप बणाया, भाई बणाया। मगर वे सिर्फ दहशतगर्द दरिंदे थे, सिर्फ दहशतगर्द दरिंदे! कहाँ भाग कर जाओगे? सुणा है, अमरीका ने ऐसे गोली बनाई है जो जरूरत पड़ने पर अपना रस्ता बदल कर भी मारती है। गोया के गोली न हुई, साँड़ हो गई। साँड़ भी नहीं, वो तुम्हारा भेड़िया…!’

‘हम तो कहानी की बात कर रहे थे, एक कहानी थी ‘भेड़िये’।’ क्षमता ने उस बावरी को समझाने की कोशिश की।

‘मैं कोई कहाणी-वहाणी ना जानूँ। मैं तो हकीकत बयाँ कर रही थी।’ उस औरत ने बात काट ली।…‘तुम कैसे कह सकती हो कि वे हकीकत थी?’

‘इसलिए कि भागवंती मेरी माँ है। अभी जिंदा है। वह जिसे पेट से खरोंच कर फेंक देना चाहती थी वो मैं!’ झन्न-सा कपाल पर बजकर गहराता चला गया दूर तक…देर तक।

‘अरे!’ हम दोनों सँभल कर बैठ गए। कमबख्त लाइट एकदम से चली गई। उसकी आवाज अँधेरे में जहाँ-तहाँ से टकराती हुई फड़फड़ा रही थी।

‘माँ के पेट में ही मैंने बॉर्डर पार किया, कैंप में पैदा हुई बॉर्डर के दिलावर सिंह के फार्म हाउस पर जवाण हुई। कैंप में लौटकर अपणे बचे लोगों में ब्याह रचाया। एक बेटा देकर कहीं कमाणे चला गया मेरा मर्द। नहीं लौटा। बेटे बलविन्दर का ब्याह किया उसे भी बेटा हुआ। सातवीं पास बलविन्दर भी एक दिन कागज बनवा कर चला गया ईराक। फिर नहीं लौटा। उसकी बहू बीमार होकर चल बसी। अब मैं हूँ, माँ है और मेरा पोता दलजीत जो यहाँ मेरे पास सो रहा है। घर जो छूटा, सो छूट ही गया।

‘स्वाल है, हम क्या बचाणा चाहते हैं और क्या बच पाता है। एक-एक कर प्यारी लगने वाली चीजें हमें फेंकनी पड़ती हैं, ताकि गढ्डा हल्का हो, हम भेड़ियों से जाण बचाकर भाग सकें। अब अपणा ही देखो, बची भागवंती, पेट में की निशानी, माने मैं उसकी बेटी लाजो, और…दादा जी का हुक्का। गुजरे जमाने की यादें ताजिंदगी ढोया करे हैं हम जबकि खुद को ही ना ढोया जावे…और यादों को ढोने का जज्बा…? भौत-ई खतरनाक है ये जज्बा भौत-ई खतरनाक! बचा तो पाते नहीं, मुफत में कुछ और गँवा आते हैं हम। हाय रे भाई जित्तू और बूआ नीलू! चाहते तो वे पहले भी भाग सकते थे। तब इन्हें बचा लेते हम मगर वो…पुश्तैनी हुक्का! एक निशानी बचाने के लिए सारी निशानियों को मिट जाने दिया हमने।

‘अब ये लड़का है, मेरी माँ है और मैं। मैं एक क्रैस चलाती हूँ। तीन-एक हजार मिल जाते जी। डेढ़-एक हजार घर के भाड़े में निकल जावे हैं। बाकी बचे डेढ़। अब इतने पैसों में मैं माँ को बचाऊँ या पोते को! कई बार सोचा, माँ ने तो भौत दुनिया देख ली। पोते ने कुछ नहीं देखा। भाणे सम्झ रही हों न आप? वही पुराणा स्वाल, जीभ चटचटाते दौड़े आ रहे हैं पीछे भेड़िये। बोझ हल्का करणा है। माँ को फेकूँ या बेटे के बेटे को? एक गुजरा जमाणा है, एक आणे वाला। बीच में मैं…और सब के बीच बेटा। ईराक से कोई खबर नी आई जिंदा है या…? लेकिन हम सब उनका जनम दिन मनाते हैं हरसाल।

‘सोचती कभी-कभी माँ को ही फेंक दूँ। लेकिण फिर सोचती माँ न होती तो तू कहाँ होती, कैसे बच पाती करमजली? तो क्या पोते को? लेकिण वो-ई तो अकेली जाण है वारिस जो बेटी पहचाण को आगे ले जाएगा। वरना तू क्या और तेरी जिंदगी क्या। थक गई मैं इसको-उसको ढोते-ढोते। बुरी तरह थक गई। मोटी-मोटी तीन-तीन रोटियाँ थापती हूँ तो एक-एक पड़ती है लेकिण सच्ची कहूँ, अब फेंका नहीं जाता किसी को। किसी को भी नहीं।’

‘नहीं। मान लो फेंकना निहायत जरूरी हो जाए तो किसे फेंकोगी?’ यह मेरा अंतिम यक्ष प्रश्न था। ‘फेंकने की ही बात क्यों करते लोगाँ?’ वह यकायक छेड़ी गई। सद्यः प्रसवा बाघिन-सी गुर्रा उठी।

‘ह्याँ से जाण बचाने को ह्वाँ। ह्वाँ से जाण बचाने को ह्याँ! जहाँ भी जावें, सूँघते-सूँघते आ जाते हैं दरिंदे। आदमी से कुत्ता बना दिया हमें। ताज्जुब! देश तो चल ही रहा है दुनिया तो चल ही रही है। खैरात-इमदाद भी बँट रही है मुसीबत के मारों को। रेफूजियों की तकलीफ देखने वाला कोई नहीं। हम उत्ते सालों से वैस-ई हैं वही रेफूजी कैंप! क्या हमारा कोई देश नहीं है? हम आसमान से टपके हैं? कहाँ चले जाएँ? गया तो मेरा बेटा इराक! लौट पाया? या रब! धरती का कौन-सा कोणा है जहाँ चले जाएँ हम?’ लाजो की आवाज फटकर कातर फरियाद-सी बरस रही थी? जाने कब आँख लग गई, ट्रेन के झटके से खुली तो लगा, किसी स्टेशन पर रुककर फिर से रेंग रही है। क्या पता, कितनी देर तक रुकी रही। वह एक धुँआती हुई चाँदनी रात थी। नीचे किसी खलियायी नदी का विस्तार था। उखड़ा-उखड़ा परिवेश। धुँधला-धुँधला परिदृश्य! जहाँ-तहाँ कुछ एक झाड़, कुछ एक चट्टानें, कुछ एक पेड़ और जहाँ-तहाँ थोड़े पानी जिसमें रोशनी के परिंदे-सा चाँद कभी एक गड़हे में नहाकर पंख फड़फड़ाता, कभी दूसरे गड़हे में। गाड़ी अभी भी रेंगते-रेंगते रुक रही थी, रुकती-रुकती रेंग रही थी। सहसा नजर ऊपर गई। ऊपर वाली बर्थ पर न लाजो थी, न उसका पोता। बुर्के वाली औरत भी नहीं। वे कहीं उतर गए, उन्हें उतार लिया गया या वह कोई प्रेतलीला थी! इस बीमार रोशनी में बुर्के वाली का चेहरा दो-एक बार जलकर बुझ गया लाजो या उसके पोते का चेहरा तक ठीक-ठीक न देख पाये हम, न ही यह पूछ पाये कि वह कौन थी और कहाँ का वाकया बयान कर रही थी–सन् 1947 का, सन् 1989 का, सन् 1971 का, सन् 2013 का या उसके आगे-पीछे कहीं और का, कि वह बॉर्डर ‘पोक’ का ही था या हिंद-पाक-कशमीर का, बांग्लादेश का, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, मिश्र, सीरिया, फिलिस्तीन, इजराइल या कहीं और का…कि वह भागवंती की बेटी लाजो थी या बर्बरीक की कोई अभिशप्त आत्मा! प्रेत तो कहीं के भी हो सकते हैं, कोई भी शक्ल अख्तियार कर सकते हैं, कोई भी जबान बोल सकते हैं।

उसका संग तो ट्रेन में ही छूट गया। वह दृश्य हमने अपनी आँखों से कभी देखा भी नहीं मगर उस रात की याद आते ही ऐन आँखों के आगे खिल उठता है जहाँ अँधेरों-उजालों को पार करती कोई गर्भिणी औरत घोड़ी पर भागती चली आ रही है।


Image : The Destruction of Sodom and Gomorrah
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Artist : John Martin
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