कभी तो टोह लेते

कभी तो टोह लेते

कभी तो टोह ली होती उस मन की
सुना होता अंतर्नाद
जो गूँजता रहा निर्बाध
आपादमस्तक
अनसुना सा रहा
आदि काल से
दमित, तिरस्कृत, विदग्ध
सदियों तक…

कभी तो खोलते ग्रंथियाँ
बंद मुट्ठियाँ
जिनमें उकेरे गए थे
सिर्फ शून्य
रेखाएँ तो उभर आई थीं
परंतु केवल भाल पर
सिलवटें बन…

संघर्ष दर संघर्ष बाद
पाए कुछ मुट्ठी आसमान
विरोध के दलदल में
धँसे थे पाँव
पीठ पर छींटे थे
आक्षेपों के,
भीतरी कुढ़न के
बाँधे रही बाँधे
और तुम
बने रहे चट्टान…

कभी तो बने होते उपत्यका
और बह जाने देते
संताप, वेदना, कुंठा
कल-कल कल-कल
समा लेते अपने भीतर
सड़ती, गलती
उबलती, पिघलती
विवशताएँ
शोषित नारियों की
ए पुरुष…

त्याग कर दंभ
तुम कभी तो बन जाते
समुद्र…


Image : Haspinger Studie Zur Zweiten Figur Von Rechts
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Artist : Albin Egger Lienz
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